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सांविधानिक विधि
डॉ. बलराम सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2024)
«07-Aug-2025
परिचय
उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय ने उद्देशिका में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को सम्मिलित करने की सांविधानिक वैधता पर प्रश्न उठाया। न्यायालय ने संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 को चुनौती देने वाली रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया, संसद की संशोधन शक्ति की पुष्टि की और स्पष्ट किया कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है।
तथ्य
- उद्देशिका में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को सम्मिलित करने को चुनौती देते हुए दो रिट याचिकाएँ दायर की गईं।
- संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा 2 नवम्बर, 1976 को ये शब्द जोड़े गए।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि यह संशोधन पूर्वव्यापी है तथा इससे मिथ्या उत्पन्न होता है।
- उन्होंने दावा किया कि संविधान सभा ने जानबूझकर 'पंथनिरपेक्ष' शब्द को हटा दिया था।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि 'समाजवादी' शब्द आर्थिक नीति विकल्पों को प्रतिबंधित करता है।
- सामान्य लोकसभा कार्यकाल समाप्त होने के पश्चात् आपातकाल के दौरान संशोधन पारित किया गया।
- संशोधन के चौवालीस वर्ष पश्चात्, 2020 में रिट याचिकाएँ दायर की गईं।
विवाद्यक
- क्या संसद को अनुच्छेद 368 के अंतर्गत उद्देशिका में संशोधन करने की शक्ति है।
- क्या संविधान को अपनाने की तिथि पर पूर्वव्यापी प्रभाव वैध है।
- क्या आपातकाल के दौरान किये गए संशोधनों में वैधता का अभाव है?
- क्या 'समाजवादी' असांविधानिक रूप से आर्थिक नीतियों को प्रतिबंधित करता है।
- क्या 44 वर्ष बाद दायर याचिकाओं पर विचार किया जा सकता है?
न्यायालय की टिप्पणियाँ
पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार ने कहा कि:
- अनुच्छेद 368 निस्संदेह संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है, जिसमें उद्देशिका भी सम्मिलित है।
- पूर्वव्यापी प्रभाव का तर्क खारिज कर दिया गया - अंगीकार की तिथि संसद की संशोधन शक्ति को कम नहीं करती।
- संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है जो अनुच्छेद 368 के माध्यम से विकास की अनुमति देता है।
- भारत ने पंथनिरपेक्षता की अपनी व्याख्या विकसित की है - राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है।
- संविधान पीठ के अनेक निर्णयों में पंथनिरपेक्षता को मूल विशेषता माना गया है।
- 'समाजवाद' कल्याणकारी राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, निजी उद्यमशीलता को प्रतिबंधित नहीं करता है।
- भारत मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाता है जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र भी फलता-फूलता है।
- संशोधन के 44 वर्ष बाद याचिकाएँ दायर करना, जबकि शर्तों को व्यापक स्वीकृति मिल चुकी थी, संदिग्ध है।
- उद्देशिका में किये गए संशोधनों से सरकारी नीतियों को सांविधानिक सीमाओं में सीमित नहीं किया गया है।
न्यायालय का निर्णय:
- 44 वर्षों के बाद कोई वैध कारण न पाते हुए दोनों रिट याचिकाएँ खारिज कर दी गईं ।
- वर्तमान परिस्थितियों के कारण नोटिस जारी करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सांविधानिक स्थिति अभी भी स्पष्ट है।
- संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की वैधता को बरकरार रखा गया ।
- सभी लंबित आवेदन खारिज कर दिये गए।
निष्कर्ष
यह ऐतिहासिक निर्णय इस बात पर बल देता है कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है जो अनुच्छेद 368 के माध्यम से विकसित हो सकता है। न्यायालय द्वारा इसे खारिज करने से यह स्थापित होता है कि संसद की संशोधन शक्ति मूल संरचना सिद्धांत के अधीन, उद्देशिका सहित संविधान के सभी भागों तक विस्तारित है। यह निर्णय भारतीय पंथनिरपेक्षता और समाजवाद पर प्रामाणिक मार्गदर्शन प्रदान करता है और सांविधानिक स्थिरता और उचित संशोधन प्रक्रियाओं पर बल देता है।