होम / लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO)
आपराधिक कानून
जरनैल सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2013)
«02-Jul-2025
परिचय
यह महत्त्वपूर्ण निर्णय माननीय न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम् एवं माननीय न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर की पीठ द्वारा पारित किया गया, जिसमें मार्च 1993 में एक अवयस्क लड़की के व्यपहरण और बलात्संग के आरोप में अभियुक्त जरनैल सिंह की दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया। न्यायालय ने किशोर न्याय नियम 2007 के अधीन व्यवस्थित आयु निर्धारण प्रक्रियाओं को लागू करके महत्त्वपूर्ण विधिक पूर्ण निर्णय कायम किये और इस बात की पुष्टि की कि लैंगिक अपराध के मामलों में अवयस्क की सम्मति विधिक रूप से निरर्थक है।
मामले के तथ्य
प्रारंभिक घटना:
- 26 मार्च 1993 को सुबह 6 बजे सावित्री देवी ने अपने पति जगदीश चंद्र (PW8) को सूचित किया कि उनकी पुत्री VW–PW6 उनके निवास स्थान से लापता है।
- अभियोक्त्री (prosecutrix) 25-26 मार्च, 1993 की रात्रि में लापता हो गयी थी।
- सावित्री देवी ने अपने पड़ोसी अभियुक्त-अपीलकर्त्ता जर्नैल सिंह पर संदेह व्यक्त किया।
- तलाशी के दौरान जरनैल सिंह भी अपने घर से गायब पाया गया।
पुलिस परिवाद और अभियोक्त्री की बरामदगी::
- 27 मार्च 1993 को, जगदीश चन्द्र द्वारा पुलिस चौकी जठलाना में एक परिवाद दर्ज कराया गया।
- उन्होंने अपनी पुत्री की आयु लगभग 16 वर्ष बताई तथा यह भी उल्लेख किया कि ₹3,000/- की नकदी भी घर से गायब है।
- 29 मार्च 1993 को, अभियोक्त्री को जर्नैल सिंह की हिरासत से, शशि भान के निवास स्थान, रायपुर, जनपद हरिद्वार से बरामद किया गया।
- जरनैल सिंह को उसी दिन गिरफ्तार कर लिया गया।
अभियोक्त्री का कथन:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 164 के अंतर्गत अभियोक्त्री के कथन 6 अप्रैल 1993 को न्यायिक मजिस्ट्रेट श्री ओ.पी. वर्मा के समक्ष लेखबद्ध किये गए।
- उसने बताया कि 25 मार्च 1993 को रात करीब 11 बजे वह अपने घर के पास सड़क पर पेशाब करने गयी थीं।
- उसी समय जर्नैल सिंह एवं उसके तीन सहयोगियों ने उसे पकड़ लिया और कपड़े में कोई वस्तु सुंघाकर बेहोश कर दिया।
- वे उसे एक वाहन में उत्तर प्रदेश में एक अज्ञात स्थान पर ले गए।
- जरनैल सिंह और उसके साथियों ने बारी-बारी से उसके साथ जबरन बलात्कार किया।
- जब उसने विरोध किया और जरनैल सिंह को थप्पड़ मारा तो उसने उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया जिससे वह शोर न मचा सके।
चिकित्सा साक्ष्य:
- 29 मार्च 1993 को डॉ. कांता धनखड़ (PW1) द्वारा चिकित्सा परीक्षण किया गया।
- योनिच्छद फटा हुआ पाया गया, योनि में 2-3 अंगुल आसानी से प्रवेश कर गया।
- फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट (Exhibit PL) में अभियोक्त्री की सलवार, अंडरवियर और जननांग बालों पर मानव वीर्य (human semen) के अवशेष पाए गए ।
- सलवार पर खून के धब्बे पाए गए, जिससे पुष्टि हुई कि वह मानव रक्त है।
विचारण न्यायालय की कार्यवाही:
- 20 दिसंबर, 1993 को भारतीय दण्ड संहिता, 1960 (IPC) की धारा 366, 376 (छ) और 120-ख के अधीन आरोप तय किये गए।
- अभियोजन पक्ष ने 9 साक्षियों से पूछताछ की।
- विचारण न्यायालय ने 14 मार्च 1995 को जरनैल सिंह को दोषी ठहराया।
- दण्ड: धारा 376(छ) के लिये 10 वर्ष का कठोर कारावास, धारा 366 और 120-ख प्रत्येक के लिये 7 वर्ष का कठोर कारावास, सभी दण्डादेश समानांतर रूप से चलने (to run concurrently) के निर्देश सहित। सभी दण्डादेश समानांतर रूप से चलने के निर्देश सहित।
शामिल विवाद्यक
- सम्मति और स्वतंत्र इच्छा : क्या अभियोक्त्री स्वेच्छा से अभियुक्त के साथ गई थी या उसे बलपूर्वक ले जाया गया था।
- आयु निर्धारण : क्या अभियोक्त्री घटना के समय अवयस्क थी।
- साक्ष्य की विश्वसनीयता : क्या अभियोक्त्री का मौखिक परिसक्ष्य दोषसिद्धि के लिये पर्याप्त था।
- साक्ष्य का मूल्यांकन : चिकित्सीय साक्ष्य और पुष्टिकारक साक्षियों का मूल्यांकन।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
सम्मति और स्वैच्छिक साथ जाने के संदर्भ में:
- बचाव पक्ष के तर्क की अस्वीकृति : न्यायालय ने इस तर्क में कोई दम नहीं पाया कि अभियोक्त्री स्वेच्छा से अभियुक्त के साथ गई थी।
- साक्ष्य का विश्लेषण : दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन अभियोक्त्री के कथन से स्पष्ट रूप से बलात व्यपहरण की पुष्टि हुई।
- तार्किक असंगति : चार व्यक्तियों के साथ एक साथ सहमति से यौन संबंध बनाना "समझ में नहीं आने वाला" माना गया।
- पुष्टिकारक साक्ष्य : चिकित्सकीय साक्ष्य तथा फोरेंसिक रिपोर्ट्स अभियोजन के बलात्कार के कथन को पूर्णतः समर्थन प्रदान करते हैं।
गुम हुई धनराशि के विवाद्यक पर:
- तथ्यात्मक स्पष्टीकरण : अभियोजन पक्ष के पिता के परिसाक्ष्य से यह स्पष्ट हुआ कि ₹3,000/- की जो राशि गुम बताई गई थी, उसे बाद में उनकी पत्नी ने घर पर ही प्राप्त कर लिया था।
- कोई ठोस साक्ष्य नहीं : इस दावे का समर्थन करने वाला कोई ठोस साक्ष्य नहीं है कि अभियोक्त्री ने पैसा, कपड़े या गहने लिये थे।
- अनुमान अस्वीकृत : न्यायालय ने इस अनुमान को खारिज कर दिया कि गायब हुई धनराशि योजनाबद्ध तरीके से भागने का संकेत देती है।
आयु निर्धारण पर - प्रमुख विधिक पूर्व निर्णय:
- किशोर न्याय नियम 2007 का नियम 12 : न्यायालय ने आयु निर्धारण के लिये व्यवस्थित दृष्टिकोण अपनाया।
- साक्ष्य का पदानुक्रम :
- मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र (सर्वोच्च प्राथमिकता)
- प्रथम उपस्थिति वाले विद्यालय का रिकॉर्ड
- नगर निगम/पंचायत द्वारा जारी जन्म प्रमाणपत्र
- चिकित्सकीय राय (निम्नतम प्राथमिकता)
- विद्यालय प्रमाणपत्र का साक्ष्य: प्रधानाध्यापक सतपाल (PW4) ने वह प्रमाणपत्र साबित किया, जिसमें अभियोक्त्री की जन्म तिथि 15 मई 1977 दर्शायी गई है।
- निश्चायक निर्णय : अभियोक्त्री की आयु 25 मार्च 1993 को 15 वर्ष से कम थी।
- स्थापित विधिक सिद्धांत: यदि सम्मति दी भी गई थी, तो भी यह अप्रासंगिक होगा क्योंकि अभियोक्त्री अवयस्क थी।
अभियोक्त्री के परिसाक्ष्य के विश्वसनीयता पर:
- पुष्टिकारक साक्ष्य : अभियोक्त्री के कथन का समर्थन कई स्रोतों ने किया:
- मोती राम (PW3) द्वारा अभियुक्त की अभिरक्षा से बरामदगी
- चिकित्सकीय परीक्षण की रिपोर्ट
- फोरेंसिक प्रयोगशाला रिपोर्ट
- पिता की पुष्टिकारी परिसाक्ष्य
- प्रतिपरीक्षा का विश्लेषण : अभियोक्त्री को विरोधाभासों को इंगित करने के लिये पूर्ववर्ती कथनों का सामना नहीं कराया गया।
- वैज्ञानिक पुष्टि : फोरेंसिक साक्ष्य ने अभियोक्त्री के हमले के दौरान रक्तस्राव और दर्द के दावे की पुष्टि की।
साक्ष्य मूल्यांकन पर:
- व्यापक मूल्यांकन : न्यायालय ने यह उल्लेख किया कि अभियोक्त्री के कथन के अतिरिक्त पर्याप्त भौतिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, जो घटना की पुष्टि करते हैं।
- चिकित्सकीय पुष्टि : फटी हुई योनिच्छद (Ruptured hymen), वीर्य की उपस्थिति, तथा रक्त के धब्बे ने वैज्ञानिक रूप से लैंगिक उत्पीड़न की पुष्टि की।
- साक्षी की विश्वसनीयता : रिकवरी साक्षी और चिकित्सा विशेषज्ञ ने स्वतंत्र सत्यापन प्रदान किया।
- बचाव पक्ष के सुझाव : अभियुक्त ने स्वयं प्रतिपरीक्षा के दौरान अनजाने में लैंगिक संबंध बनाने की बात स्वीकार की।
अंतिम निर्णय:
- अपील खारिज : उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक अपील को निराधार पाते हुए खारिज कर दिया।
- दोषसिद्धि बरकरार : भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366, 376(छ) और 120-ख के अधीन दोषसिद्धि बरकरार रखी गई।
- दण्ड की पुष्टि : विचारण न्यायालय और उच्च न्यायालय के मूल दण्ड को बरकरार रखा गया।
निष्कर्ष
यह ऐतिहासिक निर्णय किशोर न्याय नियम 2007 के अधीन आयु निर्धारण के लिये स्पष्ट पद्धतियां विकसित करके लैंगिक अपराध के मामलों में अवयस्कों की सुरक्षा के लिये एक व्यापक विधिक ढाँचा स्थापित करता है और इस बात की पुष्टि करता है कि अवयस्कों की सम्मति विधिक रूप से निरर्थक है। न्यायालय ने पीड़ित के परिसाक्ष्य के साथ-साथ पुष्टि करने वाले चिकित्सकीय और फोरेंसिक साक्ष्य के महत्त्वपूर्ण महत्त्व को प्रदर्शित किया, व्यवस्थित आयु सत्यापन प्रक्रियाएँ और विश्वसनीयता मूल्यांकन मानक स्थापित किये जो ऐसे मामलों के मजबूत अभियोजन को सुनिश्चित करते हैं। यह निर्णय लैंगिक शोषण से अवयस्कों के लिये पूर्ण विधिक सुरक्षा को मजबूत करता है, साथ ही भविष्य के मामलों के लिये स्पष्ट न्यायिक दिशा-निर्देश प्रदान करता है, सफलतापूर्वक यह दर्शाता है कि केवल परिसाक्ष्य पर निर्भर रहने के बजाय कई साक्ष्य स्रोतों के माध्यम से युक्तियुक्त संदेह से परे अपराध कैसे स्थापित किया जा सकता है।