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नवीनतम निर्णय

अप्रैल 2024

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 22-May-2024

रविशंकर टंडन  बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

Ravishankar Tandon v. State of Chhattisgarh

निर्णय की तिथि- 10.04.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या- 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना- न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता

मामला संक्षेप में:

  • 2 दिसंबर 2011 को, रामअवतार (PW-1) ने पुलिस स्टेशन कुंडा में अपने बेटे धर्मेंद्र सतनामी (मृतक) के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराई।
  • जाँच के दौरान, पुलिस ने अपीलकर्त्ताओं से पूछताछ की तथा उन्होंने बताया कि भटगाँव नहर रोड पर मृतक की गला दबाकर हत्या कर दी थी।
  • उन्होंने उसके शव को ग्राम भटगाँव के एक तालाब में फेंक दिया था।
  • साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अधीन दर्ज उनके ज्ञापन बयानों के आधार पर, पुलिस ने 3 दिसंबर 2011 को मृतक का शव तालाब से बरामद किया।
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि दिनेश चंद्राकर (अभियुक्त क्रमांक 3) ने रविशंकर टंडन (अभियुक्त क्रमांक 1) और सत्येंद्र कुमार पात्रे (अभियुक्त क्रमांक 4) को 90,000 रुपए के बदले में मृतक की हत्या कारित करने का निर्देश दिया था।
  • उन्होंने उमेंद प्रसाद धृतलहरे (आरोपी क्रमांक 2) के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा, मृतक की हत्या कर दी तथा उसके शव को तालाब में फेंक दिया। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी क्रमांक 1, 2 एवं 3 को IPC की धारा 302 के साथ पठित धारा 34, धारा 120 B एवं 201 के अधीन अपराध के लिये दोषी ठहराया।
  • इसने आरोपी क्रमांक 4 को IPC की धारा 302 के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 34 एवं 120B के अधीन अपराध के लिये दोषी ठहराया।
  • उच्च न्यायालय ने अपीलों को खारिज कर दिया तथा दोषसिद्धि को यथावत रखा।
  • वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने अपीलें स्वीकार कर लीं, उच्च न्यायालय एवं निचली न्यायालय के निर्णय को रद्द कर दिया तथा सभी अपीलकर्त्ताओं को दोषमुक्त कर दिया।
  • न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष यह सिद्ध करने में पूरी तरह विफल रहा कि मृतक के शव की खोज पूरी तरह से IEA की धारा 27 के अंतर्गत अभियुक्तों के प्रकटीकरण बयानों पर आधारित थी।
  • साक्षियों ने स्वीकार किया था कि उन्हें अभियुक्तों के बयान दर्ज होने से पहले ही मौत एवं शव के स्थान के बारे में पता था।
  • न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध किसी भी आपत्तिजनक परिस्थितियों को सिद्ध करने में विफल रहा है।
  • परिस्थितियों की शृंखला, अपीलकर्त्ताओं के अपराध के निष्कर्ष पर नहीं पहुँची।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं को सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया तथा उनको मुक्त करने का आदेश दिया।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27: अभियुक्त से प्राप्त कितनी जानकारी सिद्ध की जा सकती है-
    • बशर्ते कि, जब कोई तथ्य, किसी पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति से प्राप्त सूचना के परिणामस्वरूप पाया गया हो, तो ऐसी सूचना का इतना भाग, चाहे वह संस्वीकृति के बराबर हो या नहीं, जैसा कि संबंधित है, इस प्रकार पाए गए तथ्य को स्पष्ट रूप से सिद्ध किया जा सकता है।

[मूल निर्णय]


किज़हक्के वट्टकांडियिल माधवन बनाम थिय्युरकुनाथ मीथल जानकी

Kizhakke Vattakandiyil Madhavan v. Thiyyurkunnath Meethal Janaki

निर्णय की तिथि- 09.04.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या- 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना- न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस एवं न्यायाधीश सुधांशु धुलिया

मामला संक्षेप में:

  • थियेर कुन्नथ मीथल चंदू (चंदू) ने 1985 में विभाजन के लिये एक वाद दायर किया, जिसमें प्रतिवादियों के विरुद्ध वाद की संपत्ति में 8/20 शेयरों का दावा किया गया, जो शंकरन के उत्तराधिकारी थे।
  • चंदू एवं शंकरन सहोदर भाई थे, चिरुथे की दो विवाहों से बेटे थे- शंकरन चिरुथे के पहले पति माधवन से तथा चंदू उसके दूसरे पति नीलकंदन से।
  • वाद की संपत्ति मूल रूप से माधवन एवं उनकी माँ नांगेली की थी, जिन्होंने वर्ष 1900 में एक विलेख (प्रदर्शनी B 1) के माध्यम से इसे बंधक रखा था।
  • वर्ष 1910 में, तीन कार्य निष्पादित किये गए- प्रदर्शनी A-20 (चिरुथे, नांगेली एवं अप्राप्तवय शंकरन द्वारा पट्टा विलेख), प्रदर्शनी A-1 (चिरुथे एवं कुट्टीपेरावन के पक्ष में काउंटर-पट्टा विलेख) तथा 1925 में, प्रदर्शनी A-2 ( कुट्टीपेरवन द्वारा चिरुथे एवं शंकरन को अपने अधिकार सौंपते हुए समनुदेशन विलेख)।
  • ट्रायल कोर्ट ने विभाजन के लिये चंदू के दावे को यथावत रखा तथा उनके पक्ष में निर्णय दिया, यह मानते हुए कि लेनदेन की शृंखला के माध्यम से, चिरुथे ने उस संपत्ति पर अधिकार प्राप्त कर लिया था, जो चंदू को अंतरित हुई थी
  • प्रथम अपीलीय न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया तथा वाद को खारिज कर दिया, यह पाते हुए कि हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 की धारा 2 के अनुसार, पुनर्विवाह करने पर चिरुथे ने अपने मृत पति माधवन की संपत्ति पर अपना अधिकार खो दिया था।
  • हालाँकि, उच्च न्यायालय ने चंदू की अपील स्वीकार कर ली तथा ट्रायल कोर्ट के निर्णय को बहाल कर दिया।
    • यह माना गया कि वर्ष 1910 के कार्य (प्रदर्शन A-1 और A-20) वैध थे तथा चिरुथे के पास उन कार्यों को निष्पादित करने के लिये संपत्ति पर वैध अधिकार थे।
  • इसलिये, वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 की धारा 2 के अंतर्गत नीलकंदन के साथ दूसरा विवाह करने पर चिरुथे ने वाद की संपत्ति पर अपना अधिकार खो दिया।
  • जबकि न्यायालय ने माधवन के विधिक उत्तराधिकारी के रूप में नांगेली एवं शंकरन द्वारा निष्पादित पट्टा विलेख (प्रदर्शन A-20) की वैधता को स्वीकार कर लिया, लेकिन यह पाया कि चिरुथे, ऐसी कोई संपत्ति नहीं दे सकते थे, जिस पर उनके पास कोई विधिक अधिकार या स्वामित्व नहीं था।
  • न्यायालय ने उल्लेख किया है कि "यदि कुछ संपत्ति में अधिकार, स्वामित्व या हित की मांग किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है, जिसके पास स्वयं उस संपत्ति पर किसी प्रकार का विधिक अधिकार नहीं है, यहाँ तक कि ऐसी संपत्ति पर अंतरण के मौजूदा विलेख के साथ भी, अपने हित के उत्तराधिकारियों पर अनुदान प्राप्तकर्त्ता के पास उस अधिकार को लागू करने का विधिक अधिकार नहीं होगा, जो बाद वाले को ऐसे उपकरण से प्राप्त हो सकता है।
  • न्यायालय ने माना कि वर्ष 1910 के बाद संपत्ति पर चिरुथे की स्थिति, विलेख प्रदर्शनी A-1 के अंतर्गत एक पट्टेदार के रूप में थी तथा ऐसा कोई संकेत नहीं था कि पट्टा बारह वर्ष की निर्धारित अवधि से आगे बढ़ सकता है।
    • परिणामस्वरूप, यह नहीं कहा जा सकता कि वाद की संपत्ति का स्वामित्व किसी भी तरह से मूल वादी को अंतरित हो गया है, जिसका जन्म चिरुथे एवं नीलकंदन के विवाह के दौरान हुआ था।
  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को रद्द कर दिया तथा चंदू द्वारा दायर विभाजन के वाद को खारिज करते हुए प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 की धारा 2: मृत पति की संपत्ति में विधवा का अधिकार उसके विवाह पर समाप्त हो जाएगा-
    • वे सभी अधिकार एवं हित जो किसी भी विधवा को अपने मृत पति की संपत्ति में भरण-पोषण के रूप में, या अपने पति या उसके वंशानुगत उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार के रूप में, या उसे प्रदान की गई किसी वसीयत या वसीयतनामा स्वभाव के आधार पर, पुनर्विवाह की स्पष्ट अनुमति के बिना प्राप्त हो सकते हैं, ऐसी संपत्ति में केवल एक सीमित हित, उसे अलग करने की कोई शक्ति नहीं, उसके पुनर्विवाह पर समाप्त हो जाएगी तथा यह निर्धारित किया जाएगा जैसे कि वह मर गई थी और उसके मृत पति के अगले उत्तराधिकारी, या उसकी मृत्यु पर संपत्ति के उत्तराधिकारी अन्य व्यक्ति, उसके उत्तराधिकारी होंगे।

[मूल निर्णय]


श्रीमती नजमुनिशा, अब्दुल हमीद चांदमिया बनाम गुजरात राज्य, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो

Smt. Najmunisha, Abdul Hamid Chandmiya v. State of Gujarat, Narcotics Control Bureau

निर्णय की तिथि- 09.04.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या- 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना- न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस एवं न्यायमूर्ति ऑगस्टिन जाॅर्ज मसीह

मामला संक्षेप में:

  • इस मामले में श्रीमती कृष्णा चौबे (खुफिया अधिकारी (IO)) को गुप्त सूचना मिली थी कि अब्दुल हामिद चाँदमियाँ (इसके बाद आरोपी क्रमांक 04 के रूप में संदर्भित) एक ऑटो रिक्शा में मादक पदार्थ ले जाएगा।
  • उक्त गुप्त सूचना को उसने रिकाॅर्ड कर अपने वरिष्ठ अधिकारी को सूचित किया।
  • सूचना के अनुसार जब आरोपी क्रमांक 04 उक्त वाहन में दिखा, तो छापेमारी दल ने ऑटो रिक्शा को रोकने का प्रयास किया, लेकिन ऑटो रिक्शा तेज़ गति से भागने लगा।
  • उक्त ऑटो रिक्शा एक सड़क के पास लावारिस पाया गया था तथा कहा गया था कि आरोपी क्रमांक 04 भाग गया था।
  • उक्त ऑटो रिक्शा की तलाशी लेने पर छापेमारी दल को450 किलोग्राम चरस के अतिरिक्त एक ड्राइविंग लाइसेंस भी मिला।
  • छापा मारने वाली पक्षकार अंततः आरोपी क्रमांक 04 के घर पहुँची, जहाँ श्रीमती नजमुनिशा (बाद में आरोपी क्रमांक 01 के रूप में संदर्भित) पहले से ही उपस्थित थी।
  • आरोपी क्रमांक 01 को मूल रूप से नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (NDPS अधिनियम) के प्रावधानों के अधीन दोषी ठहराया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने उसे दस वर्ष के कठोर कारावास एवं 30,000 रुपए के अर्थदण्ड की सज़ा सुनाई थी।
  • इस सज़ा को बाद में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा संशोधित किया गया था, जबकि उसकी अपील को आंशिक रूप से इस आशय से अनुमति दी गई थी कि उसका अर्थदण्ड न्यूनतम निर्धारित अर्थदण्ड 1,00,000 रुपए तक बढ़ा दिया गया था/अर्थदण्ड का भुगतान न करने पर सज़ा को एक वर्ष के साधारण कारावास से तीन माह की साधारण कारावास की सज़ा से कम कर दिया गया था।
  • आरोपी क्रमांक 04 जो आरोपी क्रमांक 01 का पति है, जिसे NDPS अधिनियम के प्रावधानों के अधीन दोषी ठहराया गया था तथा तेरह वर्ष के कठोर कारावास एवं 1,00,000 रुपए के अर्थदण्ड की सज़ा सुनाई गई थी। गुजरात उच्च न्यायालय ने भी उनकी अपील को खारिज करते हुए इसकी पुष्टि की थी।
  • मूल अभियुक्त क्रमांक 01 एवं अभियुक्त क्रमांक 04 द्वारा दायर की गई आपराधिक अपीलों में गुजरात उच्च न्यायालय की खंड पीठ के आम आक्षेपित निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय के समक्ष त्वरित आपराधिक अपीलें दायर की गई हैं।
  • अपीलों को स्वीकार करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के साथ-साथ ट्रायल कोर्ट के निर्णय को भी रद्द कर दिया।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मौजूदा मामले में, हम मुख्य रूप से NDPS अधिनियम 1985 के न्यायशास्त्र के आधार पर प्रभावित हैं, जो किसी भी सभ्य राष्ट्र में सामाजिक सुरक्षा की सुरक्षा के लिये राज्य द्वारा अपने कार्यकारी या प्रशासनिक हथियारों को प्रदत्त खोज एवं ज़ब्ती की शक्ति से शुरू होता है।
  • आगे कहा गया कि ऐसी शक्ति, संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों की मान्यता के साथ-साथ सांविधिक सीमाओं द्वारा स्वाभाविक रूप से सीमित है। साथ ही, यह मानना वैध नहीं है कि भारत के संविधान, 1950 (COI) का अनुच्छेद 20(3) तलाशी एवं ज़ब्ती के प्रावधानों से प्रभावित होगा। इस प्रकार, ऐसी शक्ति को संबंधित व्यक्ति के किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • भारत के संविधान का अनुच्छेद 20: अपराधों के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण-
    (1) किसी भी व्यक्ति को अपराध के रूप में आरोपित अधिनियम के समय लागू विधि के उल्लंघन के अतिरिक्त किसी भी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया जाएगा, न ही उस पर अपराध के घटित होने के समय लागू विधि के अधीन, लगाए गए अर्थदण्ड से अधिक अर्थदण्ड लगाया जाएगा।
    (2) किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिये एक से अधिक बार अभियोजित नहीं किया जाएगा तथा दण्डित नहीं किया जाएगा।
    (3) किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को अपने विरुद्ध साक्षी बनने के लिये विवश नहीं किया जाएगा।

[मूल निर्णय]


यशराज फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम आफरीन फातिमा जैदी एवं अन्य

Yash Raj Films Pvt Ltd v. Afreen Fatima Zaidi and Anr.

निर्णय की तिथि– 22.04.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या- 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति अरविंद कुमार

मामला संक्षेप में:

  • अपीलकर्त्ता एक प्रसिद्ध फिल्म निर्माता है। इसने वर्ष 2016 में 'फैन' नाम की फिल्म बनाई थी।
  • फिल्म की रिलीज़ से पहले, अपीलकर्त्ता ने टेलीविज़न एवं ऑनलाइन दोनों पर एक प्रचार ट्रेलर प्रसारित किया, जिसमें वीडियो के रूप में एक गाना था।
  • शिकायतकर्त्ता, जो औरंगाबाद के एक स्कूल में शिक्षिका है, का कहना है कि फिल्म का प्रमोशनल ट्रेलर देखने के बाद, उसने अपने परिवार के साथ सिल्वर स्क्रीन पर फिल्म देखने जाने का निर्णय किया।
  • हालाँकि उन्होंने पाया कि फिल्म में वह गाना नहीं था, भले ही फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिये तथा इस गाने को व्यापक रूप से प्रसारित किया गया था। उसने ज़िला उपभोक्ता निवारण फोरम के समक्ष उपभोक्ता शिकायत दायर की और 60,550 रुपए के क्षतिपूर्ति का दावा किया।
  • ज़िला उपभोक्ता निवारण फोरम ने शिकायत को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उपभोक्ता एवं सेवा प्रदाता का कोई संबंध नहीं है।
  • इसके बाद, शिकायतकर्त्ता ने राज्य आयोग के समक्ष अपील दायर की तथा राज्य आयोग ने शिकायतकर्ता को मानसिक उत्पीड़न के लिये क्षतिपूर्ति के रूप में 10,000 रुपए और लागत के रूप में 5,000 रुपए देने के निर्देश दिये।
  • मामला राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) में ले जाया गया।
  • NCDRC ने माना था कि फिल्म के प्रोमो में एक गाना शामिल करना, जबकि यह वास्तव में फिल्म का भाग नहीं है, दर्शकों को धोखा देना है तथा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 2 (1) (r) के अंतर्गत एक अनुचित व्यापार अभ्यास है।
  • इसके बाद, अपीलकर्त्ता द्वारा NCDRC के आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई।
  • अपील को स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने NCDRC के आदेश को रद्द कर दिया।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रमोशनल ट्रेलर एकतरफा है। इसका उद्देश्य केवल दर्शकों को फिल्म का टिकट खरीदने के लिये प्रोत्साहित करना है, जो कि प्रचार ट्रेलर से एक स्वतंत्र लेन-देन एवं संविदा है। एक प्रमोशनल ट्रेलर अपने आप में कोई प्रस्ताव नहीं है तथा न ही कोई संविदात्मक संबंध बनाने का आशय रखता है और न ही बना सकता है। चूँकि प्रमोशनल ट्रेलर कोई ऑफर नहीं है, इसलिये इसके वचन होने की कोई संभावना नहीं है।
  • न्यायालय ने आगे इस बात पर बल दिया कि कला की प्रस्तुति से जुड़ी सेवाओं में आवश्यक रूप से सेवा प्रदाता की स्वतंत्रता एवं विवेक शामिल होता है तथा कोई अनुचित व्यापार व्यवहार नहीं किया गया और न ही कोई लागू करने योग्य संविदात्मक वचन तोड़ा गया।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2(1)(r) अनुचित व्यापार प्रथाओं से संबंधित है।
  • वर्ष 2019 में संशोधन के बाद, अनुचित व्यापार प्रथाओं की अवधारणा को धारा 2(47) के अंतर्गत शामिल किया गया है।

[मूल निर्णय]


माया गोपीनाथन बनाम अनूप एस.बी.

Maya Gopinathan v. Anoop S.B.

निर्णय/आदेश की तिथि– 24.04.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यामूर्ति संजीव खन्ना एवं दीपांकर दत्ता

मामला संक्षेप में:

  • अपीलकर्त्ता एवं प्रथम प्रतिवादी, दोनों की पहला विवाह वर्ष 2003 में हुआ था।
  • कथित तौर पर, अपीलकर्त्ता के परिवार ने उसे 89 सोना उपहार में दिया तथा उसके पिता ने पहले प्रतिवादी को 2,00,000 रुपए दिए।
  • अपीलकर्त्ता ने दावा किया कि पहले प्रतिवादी ने उसके सभी आभूषणों को अपने स्वामित्व में ले लिया तथा सुरक्षित रखने की आड़ में उसे दूसरे प्रतिवादी को सौंप दिया।
  • विधिक कार्यवाहियाँ प्रारंभ हुईं, जिसके परिणामस्वरूप कुटुंब न्यायालय का निर्णय अपीलकर्त्ता के पक्ष में आया।
  • हालाँकि उच्च न्यायालय ने दुर्विनियोग के अपर्याप्त साक्ष्य का उल्लेख करते हुए इस निर्णय के विपरीत निर्णय दिया
  • मामला इस बात पर टिका है कि क्या आभूषणों का वास्तव में दुर्विनियोग किया गया था।
  • अंततः वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी।

निर्णय:

  • न्यायालय ने कहा कि पति का उसकी स्त्रीधन संपत्ति पर कोई नियंत्रण नहीं है। वह अपने संकट के दौरान इसका उपयोग कर सकता है, लेकिन फिर भी उसका नैतिक दायित्व है कि वह अपनी पत्नी को इसका मूल्य लौटाए।
  • पीठ ने एक पति को आदेश दिया कि वह पत्नी को उसके विवाह के आभूषण 'स्त्रीधन' की वसूली के लिये 25 लाख रुपए का क्षतिपूर्ति दे, जिसका पति द्वारा कथित तौर पर दुर्विनियोग किया गया था।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14:
    • एक महिला हिंदू की संपत्ति उसकी पूर्ण संपत्ति होगी—
      • किसी महिला हिंदू के पास मौजूद कोई भी संपत्ति, चाहे वह इस अधिनियम के शुरू होने से पहले या बाद में अर्जित की गई हो, उसे उसके पूर्ण स्वामित्व के रूप में रखा जाएगा, न कि सीमित स्वामित्व के रूप में। स्पष्टीकरण- इस उपधारा में, "संपत्ति" में चल एवं अचल संपत्ति दोनों शामिल हैं जिसमें किसी महिला हिंदू द्वारा उत्तराधिकार या वसीयत द्वारा, या विभाजन के माध्यम से, या भरण-पोषण या भरण-पोषण की बकाया राशि के बदले में, या किसी व्यक्ति से, चाहे वह कोई रिश्तेदार हो या नहीं, विवाह से पहले, विवाह के समय या बाद में उपहार द्वारा अर्जित की गई अचल संपत्ति, या अपने स्वयं के कौशल या परिश्रम से, या क्रय या नुस्खे द्वारा, या किसी भी अन्य तरीके से, और इस अधिनियम के प्रारंभ होने से ठीक पहले स्त्रीधन के रूप में उसके पास मौजूद कोई भी संपत्ति सम्मिलित हैं।
      • उप-धारा (1) में निहित कोई भी प्रावधान उपहार के माध्यम से या वसीयत या किसी अन्य साधन के अंतर्गत या सिविल कोर्ट के डिक्री या आदेश के अधीन या किसी पंचाट के अंतर्गत अर्जित किसी भी संपत्ति पर लागू नहीं होगी, जहाँ उपहार की शर्तें, वसीयत या अन्य लिखत या डिक्री, आदेश या पंचाट ऐसी संपत्ति में प्रतिबंधित संपत्ति निर्धारित करते हैं।

[मूल  निर्णय ]