आपातकाल
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सांविधानिक विधि

आपातकाल

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 28-Nov-2023

परिचय:

  • भारतीय संविधान निर्माताओं ने ऐतिहासिक अनुभवों और वैश्विक घटनाओं से सीख लेते हुए, राष्ट्र की सुरक्षा, अखंडता एवं स्थायित्त्व को जोखिम में डालने वाली असाधारण स्थितियों के निपटान के लिये आपातकालीन प्रावधानों को शामिल किया।
  • प्रशासनिक तंत्र के विफल होने पर एकात्मक प्रणाली में परिवर्तित होने की क्षमता को देखते हुए डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने भारतीय संघीय ढाँचे को अद्वितीय बताया।
  • संविधान के भाग-XVIII के तहत अनुच्छेद 352 से अनुच्छेद 360 तक उल्लिखित प्रावधान आपातकाल के दौरान सरकार को विशेष शक्तियाँ प्रदान करते हैं।
  • भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधान जर्मनी के वाइमर संविधान से प्रेरित हैं।

आपातकाल के प्रकार:

  • राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)
  • राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 356)
  • वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)

राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352):

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 352 राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा से संबंधित है।
  • यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है की गंभीर आपात विद्यमान है, जिससे युद्ध या बाह्य आक्रमण के कारण भारत अथवा उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा आपातकाल घोषित कर सकता है।
  • यह घोषणा कार्यपालिका को मौलिक अधिकारों को निलंबित करने की शक्तियाँ प्रदान करती है, जिससे सरकार को संकट का प्रभावी निपटान करने हेतु आवश्यक उपाय करने में सहायता मिलती है।
  • राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाना अनिवार्य है और इसे संसदीय अनुमोदन के माध्यम से रद्द किया अथवा बढ़ाया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 352 का प्रयोग एक असाधारण उपाय है और इसका उपयोग सत्ता के संभावित दुरुपयोग तथा लोकतांत्रिक सिद्धांतों के क्षरण संबंधी चिंता को जन्म देता है।

भारत में कितनी बार राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई है?

  • ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में अब तक तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा की गई है। वे इस प्रकार हैं:
  • भारत-चीन युद्ध (1962): पहला राष्ट्रीय आपातकाल वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान उद्घोषित किया गया था।
  • भारत-पाकिस्तान युद्ध (1971): दूसरा राष्ट्रीय आपातकाल वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उद्घोषित किया गया था।
  • आंतरिक अशांति (1975-1977): तीसरा तथा सबसे विवादास्पद राष्ट्रीय आपातकाल वर्ष 1975 में मुख्यतः आंतरिक राजनीतिक कारणों से उद्घोषित किया गया था।
    • इस अवधि के दौरान, जिसे "द इमरजेंसी" का नाम दिया गया था, ने नागरिकों की स्वतंत्रताएँ, उनके कई अधिकार निलंबित कर दिये थे और यह वर्ष 1975 से 1977 तक चली।

राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा हेतु आधार:

  • युद्ध:
    • इसका आशय ऐसी स्थिति से है जहाँ भारत और किसी अन्य देश के साथ आधिकारिक तौर पर युद्धरत हो। इसमें राष्ट्रों के बीच सशस्त्र संघर्ष तथा शत्रुता शामिल है।
  • बाह्य आक्रमण:
    • बाह्य आक्रमण से तात्पर्य किसी विदेशी शक्ति द्वारा भारत पर आक्रमण से है। इसमें देश की संप्रभुता और अखंडता को खतरे में डालने वाला सैन्य आक्रमण अथवा किसी भी प्रकार का बाह्य खतरा शामिल हो सकता है।
  • सशस्त्र विद्रोह:
    • सशस्त्र विद्रोह के अंतर्गत देश के भीतर स्थापित सरकार के विरुद्ध विद्रोह अथवा प्रतिरोध शामिल होता है। इसका तात्पर्य सरकार के अधिकार को चुनौती देने के लिये जनसमूह द्वारा बल अथवा सशस्त्र का उपयोग है।

राष्ट्रीय आपातकाल की अवधि एवं अनुमोदन:

  • मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश के पश्चात केवल राष्ट्रपति ही राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता है।
  • राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा की आवश्यकता को लेकर आश्वस्त होने के पश्चात् मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को एक लिखित अनुरोध प्रेषित करता है।
    • मंत्रिमंडल के लिखित अनुरोध से सहमत होने के बाद राष्ट्रपति आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता है। हालाँकि इस उद्घोषणा को एक माह के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना आवश्यक है।
  • यदि निचले सदन(लोकसभा) के सत्र में नहीं होने पर आपातकाल की उद्घोषणा की जाती है अथवा आपातकाल को मंज़ूरी दिये बिना उस महीने के भीतर भंग कर दिया जाता है, तो यह लोकसभा की दोबारा बैठक के 30 दिन बाद तक लागू रहता है, जब तक कि उच्च सदन (राज्यसभा) द्वारा इसे मंज़ूरी मिली होती है।
    • दोनों सदनों की मंज़ूरी के पश्चात् आपातकाल छह माह तक रहता है और इसे अनिश्चित काल तक बढ़ाया जा सकता है, किंतु जारी रखने के लिये प्रत्येक छह माह में इसे संसद द्वारा अनुमोदित किया जाना अनिवार्य होता है।

न्यायिक समीक्षा:

  • प्रारंभ में राष्ट्रीय आपातकाल न्यायिक समीक्षा से प्रतिरक्षित था। बाद में 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा इस प्रावधान में बदलाव किया गया। मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रीय आपातकाल को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
    • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 352(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की घोषणा की वैधता का आकलन करने की न्यायिक समीक्षा में कोई बाधा नहीं होनी चाहिये।
    • न्यायपालिका राष्ट्रपति की संतुष्टि की वैधता की जाँच कर सकती है।

राष्ट्रीय आपातकाल की समाप्ति:  

  • आपातकाल हटाने का निर्णय राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर करता है।
    • आपातकाल को बनाए रखने की आवश्यकता और आधार के आलोक में राष्ट्रपति उद्घोषणा के माध्यम से आपातकाल को समाप्त कर सकता है।
  • यदि लोकसभा में साधारण बहुमत द्वारा कोई प्रस्ताव पारित किया जाता है जो आपातकाल को जारी रखने हेतु अस्वीकृति दर्शाता है, तो आपातकाल को अवश्य ही रद्द कर दिया जाना चाहिये।

आपातकाल की उद्घोषणा के प्रभाव:

  • राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान, अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार निलंबित कर दिये जायेंगे। किंतु, किसी भी स्थिति में इसका अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों पर कोई प्रभाव नही होगा।
  • अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट (ADM) जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) मामले में यह माना गया था कि राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान नज़रबंदी के विरुद्ध बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट का लाभ नहीं उठाया जा सकता है क्योंकि अनुच्छेद 21भी उस उद्घोषणा अवधि के दौरान निलंबित हो जाता है। हालाँकि बाद में इस फैसले को खारिज़ कर दिया गया।

राज्य आपातकाल (Article 356):

  • अनुच्छेद 355: प्रत्येक राज्य सरकारें संविधान के प्रावधानों का अनुपालन करें, यह सुनिश्चित करना केंद्र का कर्त्तव्य है।
  • अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार प्रदान करता है, यह मुख्यतः उसकी इस मान्यता पर निर्भर करता है कि राज्य में सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकती है।
  • यह प्रावधान किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में लागू किया जाता है, यह संघ को राज्य की शासन व्यवस्था संभालने की अनुमति प्रदान करता है।
  • राजनीतिक उद्देश्यों के लिये अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को लेकर चिंताएँ लंबे समय से विवाद और बहस का मुद्दा रही हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन के मनमाने उपयोग को नियंत्रित करने के लिये कुछ दिशानिर्देश निर्धारित किये हैं। एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) मामले में निर्दिष्ट फैसले द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने कई विकल्प प्रदान किये हैं। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार इन विकल्पों के समाप्त होने के बाद ही आपातकाल संबंधी शक्तियों का उपयोग केवल विशेष मामलों में हीं किया जाना चाहिये।

अनुमोदन एवं अवधि:

  • यदि राज्यपाल अथवा अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर राष्ट्रपति को निश्चय हो जाता है कि किसी राज्य को संविधान के अनुसार शासित नहीं किया जा सकता है, तो राज्यपाल राज्य में आपातकाल की घोषणा कर सकता है।
    • संसद द्वारा इस निर्णय को दो महीने के भीतर मंज़ूरी देना अनिवार्य है।
  • आपातकाल शुरू में छह माह तक रहता है किंतु प्रत्येक छह माह पर संसद की मंज़ूरी द्वारा इसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
  • 42वें संशोधन, 1976 द्वारा प्रारंभिक अवधि को बढ़ाकर एक वर्ष कर दिया गया, किंतु 44वें संशोधन, 1978 द्वारा इसे पुनः छह माह कर दिया गया।
  • मूल रूप से राष्ट्रपति शासन तीन वर्षों तक चल सकता है, जिसे विशिष्ट शर्तों के साथ एक सामान्य वर्ष तथा दो असाधारण वर्षों में विभाजित किया गया है।
    • वर्तमान समय में, जब तक कि कोई संवैधानिक संशोधन न किया जाए, इसे प्रत्येक बार छह माह के रूप में अधिकतम तीन वर्ष के लिये लिये बढ़ाया जा सकता है।

राज्य आपातकाल के प्रभाव:

  • राज्यपाल द्वारा प्रयोग की जाने वाली सभी शक्तियाँ राष्ट्रपति के पास होंगी।
  • राष्ट्रपति घोषणा करेगा कि संसद के पास राज्य की विधायी शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार होगा।
  • आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रपति उद्घोषणा के उद्देश्य को पूरा करने के लिये आवश्यक प्रावधान कर सकता है।

वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360):

  • अनुच्छेद 360 वित्तीय आपातकाल की घोषणा से संबंधित है।
  • यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाता है कि भारत अथवा उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग के वित्तीय स्थायित्त्व अथवा साख को खतरा है तो राष्ट्रपति वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता है।
  • अन्य दो प्रकार की आपात स्थितियों के विपरीत, भारत में आज तक कभी भी वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा नहीं की गई है।
  • वित्तीय आपातकाल के दौरान, राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों सहित सिविल सेवाओं में सेवारत सभी अथवा किसी भी वर्ग के व्यक्तियों के वेतन तथा भत्ते में कटौती का निर्देश दे सकता है
  • इस दौरान राज्यों के वित्तीय संसाधनों पर भी नियंत्रण एवं उनके कुशल प्रबंधन के लिये निर्देशित करने की शक्ति भी केंद्र सरकार के अंतर्गत आ जाती है।

वित्तीय आपातकाल के प्रभाव:

  • राज्य की स्वायत्तता में कमी:
    • राष्ट्रपति के पास किसी भी राज्य को वित्तीय आपातकाल के समय उचित समझे जाने वाले किसी भी वित्तीय औचित्य मानकों का पालन करने के लिये आदेश देने का अधिकार है।
    • इसका अनिवार्य रूप से मतलब यह है कि वित्तीय आपातकाल के दौरान राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता कम हो जाती है और उन्हें राष्ट्रपति द्वारा जारी निर्देशों का पालन करना अनिवार्य होता है।
  • राज्य के वित्त पर केंद्र का नियंत्रण:
    • राष्ट्रपति राज्यों को राज्य के मामलों के संबंध में सेवारत सभी अथवा वर्ग विशेष के व्यक्तियों के वेतन तथा भत्ते में कटौती का निर्देश भी दे सकता है।
    • यह केंद्र सरकार को राज्यों के वित्तीय निर्णयों और व्ययों को नियंत्रित करने में मदद करता है।
  • संसदीय अनुमोदन:
    • वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा को दो महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना अनिवार्य है।
    • अनुमोदन नहीं होने की स्थिति में उद्घोषणा का प्रभाव समाप्त हो जाता है। हालाँकि ऐसी किसी भी उद्घोषणा को राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय रद्द किया जा सकता है अथवा उसमें बदलाव किया जा सकता है।

निष्कर्ष:  

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 से अनुच्छेद 360 तक उल्लिखित आपातकालीन प्रावधान सरकार को आंतरिक विद्रोह से लेकर वित्तीय अस्थिरता तक विभिन्न संकटों के निपटान हेतु आवश्यक उपकरण प्रदान करते हैं। हालाँकि इन प्रावधानों के उपयोग को सत्ता के संभावित दुरुपयोग पर नियंत्रण स्थापित करने की आवश्यकता है ताकि लोकतांत्रिक सिद्धांतों के क्षरण को रोका जा सके।