होम / भारतीय साक्ष्य अधिनियम (2023) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872)
आपराधिक कानून
मृत्युकालिक कथन
« »21-Dec-2023
परिचय:
मृत्युकालिक कथन शब्द 'लेटरम मोटेम' शब्द से बना है जिसका अर्थ मृत्यु से पूर्व कहे गए शब्द है। इसका अर्थ मरने वाले व्यक्ति की मृत्यु का कारण बताने वाला बयान है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में मृत्युकालिक कथन शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन अधिनियम की धारा 32(1) में मृत्युकालिक कथन के संबंध में प्रावधान है।
IEA की धारा 32(1)
- इस धरा में कहा गया है कि जबकि वह कथन किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मृत्यु के कारण के बारे में या उस संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया है जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुई, तब उन मामलों, में, जिनमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत हो। ऐसे कथन सुसंगत है, चाहे उस व्यक्ति को, जिसने उन्हें किया है, उस समय जब से किये गये थे, मृत्यु का कारण प्रश्नगत होता है, प्रकृति कैसी ही क्यों न हो।
मृत्युकालिक कथन के अभिलक्षण:
- मृत्युकालिक कथन सुनी-सुनाई दलीलों को नज़रअंदाज करने वाले नियम के अपवादों में से एक है।
- यह आवश्यक नहीं है कि मृत्युकालिक कथन केवल एक विशेष प्रकार की कार्यवाही में ही प्रासंगिक हो। कार्यवाही सिविल या आपराधिक हो सकती है।
- कानून का ऐसा कोई पूर्ण नियम नहीं है कि मृत्युकालिक कथन, जब तक कि अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों से इसकी पुष्टि न हो, पर कार्रवाई नहीं की जा सकती।
मृत्युकालिक कथन किसके द्वारा दर्ज किया जाता है?
- यह सर्वोत्तम है कि इसे मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया जाए।
- यदि कथन देने वाले की बिगड़ती स्थिति को ध्यान में रखते हुए मजिस्ट्रेट को बुलाने का समय नहीं है, तो इसे कोई भी दर्ज कर सकता है।
- यह नहीं कहा जा सकता कि किसी पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज किया गया मृत्युकालिक कथन हमेशा अमान्य होता है।
- यदि मृत्युकालिक कथन किसी सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज नहीं किया गया है, तो बेहतर है कि उन गवाहों के हस्ताक्षर ले लिये जाएँ जो इसे दर्ज करने के समय मौजूद थे।
मृत्युकालिक कथन रिकार्ड करने की प्रक्रिया:
- मृत्युकालिक कथन दर्ज करने के लिये कोई विशेष प्रपत्र या प्रक्रिया निर्धारित नहीं है और न ही इसे केवल मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज करने की आवश्यकता है।
- मृत्युकालिक कथन को केवल इस आधार पर खारिज़ नहीं किया जा सकता कि इसे प्रश्न-उत्तर के रूप में दर्ज नहीं किया गया था।
- कथात्मक रूप में दर्ज किया गया बयान अधिक स्वाभाविक हो सकता है और घायल व्यक्ति द्वारा समझी गई घटना का सही विवरण दे सकता है।
विभिन्न मृत्युकालिक कथन:
- उच्चतम न्यायालय द्वारा बार-बार दिये गए विभिन्न निर्णयों के अनुसार विभिन्न मृत्युकालिक कथन के संबंध में कानून को अच्छी तरह से व्यवस्थित किया गया है।
- ऐसे मामलों में ऐसे बयानों की विश्वसनीयता का आंकलन सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिये।
- इसलिये दो मामले हो सकते हैं, यानी, जहाँ विभिन्न मृत्युकालिक कथन जो एक-दूसरे के अनुरूप हों और दूसरा, असंगत विभिन्न मृत्युकालिक कथन का मामला।
- असंगत मृत्युकालिक कथन के मामलों में, असंगतियों की सीमा पर न्यायालय को विचार करना होगा।
- असंगतियाँ सुलझने योग्य हो सकती हैं। ऐसे मामलों में, जहाँ असंगतियाँ विवरण के किसी मामले से संबंधित हैं, लेकिन जहाँ तक अभियुक्त का संबंध है, तो यह प्रकृति में दोषारोपणात्मक हैं। न्यायालय यह निष्कर्ष निकालने के लिये रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री को देखेगा (जब तक यह न दिखाया जाए कि वे अविश्वसनीय हैं), कि किस मृत्युकालीन कथन पर भरोसा किया जाना चाहिये।
निर्णयज विधि:
- उका राम बनाम राजस्थान राज्य (2001) मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि मृत्युकालिक कथन की स्वीकार्यता इस सिद्धांत पर आधारित है कि आसन्न मृत्यु की भावना मनुष्य के मन में वही भावना उत्पन्न करती है जो शपथ के तहत कर्तव्यनिष्ठ और सदाचारी व्यक्ति के मन में होती है।
- खुशाल राव बनाम बॉम्बे राज्य (1958) मामले में उच्चतम न्यायालय ने मृत्युकालिक कथन से संबंधित निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किये:
- कानून का कोई सुनिश्चित नियम नहीं है कि मृत्युकालिक कथन दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता जब तक कि इसकी पुष्टि न हो जाए। एक सच्चे एवं स्वैच्छिक मृत्युकालिक कथन के लिये किसी पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती।
- मृत्युकालिक कथन किसी भी अन्य साक्ष्य की तुलना में कमज़ोर प्रकार का साक्ष्य नहीं है।
- प्रत्येक मामले को उन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने स्वयं के तथ्यों पर निर्धारित किया जाना चाहिये जिनमें मृत्युकालिक कथन दिया गया था।
- मृत्युकालिक कथन अन्य सबूतों के समान ही होता है तथा इसका मूल्यांकन आसपास की परिस्थितियों के मद्देनज़र और सबूतों के महत्त्व को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत के संदर्भ में किया जाना चाहिये।
- मृत्युकालिक कथन जो मौखिक गवाही पर निर्भर करता है, जो मानव स्मृति और मानव चरित्र की सभी कमज़ोरियों से ग्रस्त हो, की तुलना में एक सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा उचित तरीके से, यानी प्रश्न और उत्तर के रूप में, और जहाँ तक व्यावहारिक रूप से घोषणा करने वाले के शब्दों में संभव हो, दर्ज किया गया एक मृत्युकालिक कथन बहुत ऊँचे स्तर का होता है।