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पारिवारिक कानून
हिंदू विधि के अं तर्गत सहदायिक अधिकार
« »19-Jun-2024
परिचय:
सहदायिकी हिंदू संयुक्त परिवार की एक अवधारणा है, जो परिवार के सदस्यों के एक छोटे समूह पर केंद्रित होती है, जो पैतृक संपत्ति पर उत्तराधिकार के अधिकार को साझा करते हैं। परंपरागत रूप से, इस इकाई में केवल पुरुष सदस्य शामिल थे जो एक सामान्य पूर्वज के वंशज थे।
- हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के बाद, महिलाएँ अब पैत्रिक संपत्ति के उत्तराधिकार में सहदायिक बन सकती हैं तथा संपत्ति पर समान निक्षेपण अधिकार रख सकती हैं।
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) की धारा 6 में संशोधन जो सहदायिक संपत्ति के अंतरण से संबंधित है, ने इसे संभव बना दिया है तथा महिलाएँ भी सहदायिक के रूप में संपत्ति प्राप्त कर सकती हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- HSA के तहत, सहदायिकता पूरी तरह से पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में थी।
- महिलाएँ, हालाँकि वे संपत्ति उत्तराधिकार में ले सकती थीं, उन्हें सहदायिक नहीं माना जाता था। इससे तात्पर्य यह था कि उन्हें पैतृक संपत्ति में जन्म से अधिकार मांगने या विभाजन की मांग करने का अधिकार नहीं था।
- सहदायिकता के अधिकार आम पूर्वज के बेटों, पौत्रों एवं परपोतों के लिये विशेष थे।
हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 का प्रभाव:
- हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के साथ सहदायिक अधिकारों की अवधारणा में एक बड़ा परिवर्तन आया।
- संशोधन द्वारा लाए गए प्रमुख परिवर्तनों में शामिल हैं:
- समान सहदायिक अधिकार: बेटियों को सहदायिक संपत्ति में बेटों के समान अधिकार दिये गए। इससे तात्पर्य यह है कि बेटों की तरह बेटियों को भी पैतृक संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार है तथा वे बँटवारे की मांग कर सकती हैं।
- कृषि भूमि में अधिकार: संशोधन ने यह सुनिश्चित किया कि बेटियों को कृषि भूमि में समान अधिकार मिले, जिससे विभिन्न राज्य विधियों के कारण मौजूद असमानताओं को दूर किया जा सके।
- उत्तरदायित्त्व: बेटियाँ, जो अब सहदायिक हैं, सहदायिक संपत्ति के दायित्वों को भी पुरुष सदस्यों के साथ समान रूप से साझा करती हैं।
- पूर्वव्यापी आवेदन: संशोधन पूर्वव्यापी रूप से लागू होता है, जिससे आशय है कि यह बेटियों को उनके जन्म के समय से सहदायिक मानता है, बशर्ते संपत्ति का विभाजन 20 दिसंबर, 2004 से पहले न हुआ हो।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6:
- वर्ष 2005 के संशोधन ने सहदायिक व्यवस्था से महिलाओं को बाहर रखने की लंबे समय से चली आ रही भेदभावपूर्ण प्रथा को निरस्त कर दिया। यह HSA की धारा 6 में संशोधन करके किया गया।
- संशोधित HSA की धारा 6(1) के अनुसार, बेटों की तरह, सहदायिक की बेटी भी जन्म से ही अपने आप में सहदायिक बन जाएगी।
सहदायिक संपत्ति में हिस्सा:
- HSA की धारा 6(3) के अनुसार, संयुक्त हिंदू परिवार की परिसंपत्तियों में मृतक सहदायिक की भागीदारी वसीयतनामा या बिना वसीयत के उत्तराधिकार के माध्यम से अंतरित होगी। अंतरण इस तरह से होना चाहिये कि:
- बेटी को बेटे के बराबर हिस्सा मिलता है।
- पूर्व-मृत महिला सहदायिक का हिस्सा उसके जीवित बच्चों को उसी तरह मिलता है जिस तरह उसे दिया गया था।
निहितार्थ एवं चुनौतियाँ:
- महिलाओं को सहदायिक के रूप में मान्यता देने के गंभीर सामाजिक एवं विधिक निहितार्थ हैं जो इस प्रकार हैं:
- लैंगिक समानता: यह संशोधन संपत्ति के अधिकारों में लैंगिक समानता प्राप्त करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जो लंबे समय से चली आ रही पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देता है।
- आर्थिक सशक्तीकरण: महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देकर, विधि उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाता है, उन्हें वित्तीय सुरक्षा एवं स्वतंत्रता प्रदान करता है।
- पारिवारिक गतिशीलता: नए अधिकार पारिवारिक गतिशीलता को बदल सकते हैं, जिससे संपत्ति को लेकर विवाद एवं मुकदमेबाज़ी की संभावना बढ़ सकती है।
- कार्यान्वयन संबंधी मुद्दे: विधिक प्रावधानों के बावजूद, जागरूकता की कमी एवं समाज के पितृसत्तात्मक वर्गों के प्रतिरोध के कारण कार्यान्वयन एक चुनौती बना हुआ है।
निर्णयज विधियाँ:
- प्रकाश बनाम फूलवती (2015):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वर्ष 2005 का संशोधन भावी दृष्टि से लागू होगा तथा यह केवल उन मामलों पर लागू होगा जहाँ संशोधन की तिथि पर पिता जीवित थे।
- विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2020):
- उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश बनाम फूलवती (2015) के निर्णय को खारिज कर दिया।
- यह माना गया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की प्रतिस्थापित धारा 6 में निहित प्रावधान संशोधन से पहले या बाद में पैदा हुई बेटी को उसी तरह सहदायिक का दर्जा देते हैं, जैसे- बेटे को समान अधिकार एवं दायित्व के साथ।
- इस निर्णय ने संशोधन के पूर्वव्यापी आवेदन को स्पष्ट किया तथा लैंगिक समानता के सिद्धांत को मज़बूत किया।
निष्कर्ष:
हिंदू विधि के अंतर्गत सहदायिक अधिकारों में काफी बदलाव आया है, विशेषकर लैंगिक समानता सुनिश्चित करने वाले संशोधनों एवं न्यायिक निर्णयों के साथ। बेटियों को सहदायिक के रूप में शामिल करना न्यायसंगत संपत्ति अधिकारों की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है, जो लैंगिक न्याय की दिशा में व्यापक सामाजिक आंदोलन को दर्शाता है। हालाँकि कार्यान्वयन में चुनौतियाँ बनी हुई हैं, लेकिन विधिक ढाँचा अब पैतृक संपत्ति में महिलाओं के लिये समान अधिकारों का दृढ़ता से समर्थन करता है, जिससे अधिक न्यायपूर्ण एवं समतापूर्ण समाज को बढ़ावा मिलता है।