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आपराधिक कानून
किसी अपराध का संज्ञान लेन
«15-Sep-2025
परिचय
"अपराध का संज्ञान लेने" की अवधारणा आपराधिक विधि और प्रक्रिया का एक मूलभूत सिद्धांत है जो यह निर्धारित करता है कि न्यायिक प्राधिकारी को किसी कथित अपराध के बारे में पहली बार कब पता चलता है और वह उसका न्यायिक संज्ञान कब लेता है। यह विधिक ढाँचा उस महत्त्वपूर्ण सीमा को स्थापित करता है जिसे किसी भी आपराधिक कार्यवाही को शुरू करने से पहले पार करना आवश्यक है। आपराधिक विधि के पेशेवरों के लिये इस अवधारणा को समझना आवश्यक है, क्योंकि यह उस आधार का काम करता है जिस पर संपूर्ण आपराधिक न्याय प्रक्रिया आधारित होती है।
संज्ञान का अर्थ
- आपराधिक विधि में "संज्ञान" शब्द उस निर्णायक क्षण का प्रतिनिधित्व करता है जब एक मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश किसी कथित अपराध के बारे में अनभिज्ञता से अपनी न्यायिक क्षमता के भीतर उस पर सक्रिय रूप से विचार करने की ओर अग्रसर होता है। यह परिवर्तन केवल प्रशासनिक ही नहीं है, अपितु अभियुक्त और अभियोजन पक्ष, दोनों के लिये महत्त्वपूर्ण विधिक निहितार्थ रखता है।
परिभाषा और न्यायिक निर्वचन
ऐतिहासिक विधिक पूर्व निर्णय:
- "संज्ञान लेने" की मूलभूत समझ गोपाल बनाम एम्परर (1913) के ऐतिहासिक मामले में स्थापित हुई थी, जिसे आर. चारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1951) में न्यायिक स्वीकृति मिली थी । न्यायालय ने कहा:
- "संहिता में 'संज्ञान' शब्द का प्रयोग उस बिंदु को इंगित करने के लिये किया जाता है जब मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश किसी अपराध का पहली बार न्यायिक संज्ञान लेते हैं। यह कार्यवाही शुरू करने से अलग बात है। यह कार्यवाही शुरू करने की पूर्व शर्त है।"
- यह परिभाषा दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित करती है:
- आरंभ से भेद : संज्ञान लेना कार्यवाही के वास्तविक आरंभ से अलग है तथा उससे पहले होता है।
- पूर्वापेक्षित प्रकृति : यह एक अनिवार्य शर्त के रूप में कार्य करती है जिसे किसी भी आपराधिक कार्यवाही को शुरू करने से पहले पूरा किया जाना चाहिये।
समकालीन विधिक समझ:
- अजीत कुमार पालित बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1963) मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस अवधारणा को और स्पष्ट किया:
- "'संज्ञान' शब्द का आपराधिक विधि या प्रक्रिया में कोई गूढ़ या रहस्यवादी महत्त्व नहीं है। इसका अर्थ केवल यह है - जागरूक होना और जब इसका प्रयोग न्यायालय या न्यायाधीश के संदर्भ में किया जाता है, तो न्यायिक रूप से संज्ञान लेना।"
- यह निर्वचन इस अवधारणा को इस प्रकार स्पष्ट करता है:
- किसी भी रहस्यमय या जटिल अर्थ को हटाना।
- न्यायिक संदर्भ में इसे "जागरूक होना" के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
- जागरूकता की न्यायिक प्रकृति पर बल देना।
व्यावहारिक अनुप्रयोग:
- संज्ञान लेने के व्यावहारिक पहलुओं को एम्परर बनाम सौरिन्द्र मोहन चकरबुट्टी (1910) में विस्तार से बताया गया था :
- "संज्ञान लेने में कोई औपचारिक कार्रवाई या किसी भी प्रकार की कार्रवाई शामिल नहीं होती है, अपितु जैसे ही मजिस्ट्रेट, किसी अपराध के संदिग्ध होने पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, संज्ञान लेना शुरू हो जाता है।"
- व्युत्पन्न प्रमुख सिद्धांत:
- कोई औपचारिक आवश्यकता नहीं : इस प्रक्रिया के लिये विशिष्ट औपचारिक कार्रवाई या प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं है।
- मानसिक अनुप्रयोग : यह तब होता है जब संदिग्ध अपराध पर न्यायिक मस्तिष्क का प्रयोग किया जाता है।
- सांविधिक अनुपालन : जब संविधि न्यायिक विचार के लिये विशिष्ट सामग्री निर्धारित करती हैं, तो उन आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिये।
सांविधिक ढाँचा
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 210 और दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 190, जो “मजिस्ट्रेट द्वारा अपराधों के संज्ञान” से संबंधित है, इस प्रकार है –
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 210 |
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 |
“धारा 210: मजिस्ट्रेट द्वारा अपराधों का संज्ञान – (1) इस अध्याय के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अधीन विशेषतया सशक्त किया गया कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी भी अपराध का संज्ञान निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है- (क) ऐसे तथ्यों के परिवाद प्राप्त होने पर जो ऐसे अपराध का गठन करते हैं; (ख) ऐसे तथ्यों की पुलिस रिपोर्ट पर; (ग) पुलिस अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर, या स्वयं के ज्ञान पर कि ऐसा अपराध किया गया है। (2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे अपराधों का, जिनकी जांच या विचारण करना उसकी क्षमता के भीतर है, उपधारा (1) के अधीन संज्ञान करने के लिये सशक्त कर सकता है।”. |
“धारा 190: मजिस्ट्रेटों द्वारा अपराधों का संज्ञान – (1) इस अध्याय के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अधीन विशेषतया सशक्त किया गया कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी भी अपराध का संज्ञान निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है- (क) उन तथ्यों का, जिनसे ऐसा अपराध बनता है, परिवाद प्राप्त होने पर; (ख) ऐसे तथ्यों के बारे में पुलिस रिपोर्ट पर; (ग) पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त इस इत्तिला पर या स्वयं अपनी इस जानकारी पर कि ऐसा अपराध किया गया है। (2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे अपराधों का, जिनकी जांच या विचारण करना उसकी क्षमता के अंदर है, उपधारा (1) के अधीन संज्ञान करने के लिये सशक्त कर सकता है।” |
निष्कर्ष
"अपराध का संज्ञान लेने" का सिद्धांत आपराधिक विधि में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ न्यायिक जागरूकता संभावित विधिक विवाद्यकों को सक्रिय विधिक कार्यवाही में परिवर्तित कर देती है। यह अवधारणा, अपने सार में सरल होते हुए भी —अर्थात् "न्यायिक रूप से जागरूक होना"—आपराधिक न्याय प्रणाली के लिये गहन निहितार्थ रखती है।