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आपराधिक कानून

भारतीय दण्ड संहिता और भारतीय न्याय संहिता के बीच तुलना

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 12-Sep-2025

परिचय 

भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023 भारत की आपराधिक विधि ढाँचे में व्यापक परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करती है, जो औपनिवेशिक युग की भारतीय दण्ड संहिता (IPC) 1860 का स्थान लेती है। यह परिवर्तनकारी विधि स्थापित विधिक सिद्धांतों के सार को बनाए रखते हुए, उभरते सामाजिक चुनौतियों का समाधान करने के लिये उपबंधों को समेकित करके, समकालीन अपराधों को सम्मिलित करके और दण्ड को वर्धित करके आपराधिक न्याय को आधुनिक बनाता है। 

संरचनात्मक और संगठनात्मक सुधार  

  • भारतीय न्याय संहिता, व्यवस्थित समेकन और पुनर्गठन के माध्यम से भारतीय दण्ड संहिता की तुलना में महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक सुधारों को प्रदर्शित करता है। भारतीय न्याय संहिता में भारतीय दण्ड संहिता की कई धाराओं को एकल व्यापक प्रावधानों में समाहित कर दिया गया है, जिससे विधिक स्पष्टता बनाए रखते हुए धाराओं की कुल संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है।  
  • उदाहरण के लिये, कूटकरण से संबंधित नौ अलग-अलग भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं (230-232, 246-249, 255, 489क) को एक एकल भारतीय न्याय संहिता की धारा 178 में समेकित किया गया है । इस प्रकार विधिक रूपरेखा को अधिक सुव्यवस्थित किया गया है, बिना इसके कि अपराध की परिधि में किसी प्रकार की कमी हो।  
  • परिभाषा संबंधी ढाँचे को पूरी तरह से पुनर्गठित किया गया है, जिसमें सभी परिभाषाओं को वर्णानुक्रम में भारतीय न्याय संहिता की धारा 2 में समेकित किया गया है, जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 8-52 के बिखरे हुए दृष्टिकोण का स्थान ले रहा है। इस पुनर्गठन से संदर्भ और अनुप्रयोग आसान हो गया है। भारतीय न्याय संहिता में पूरी तरह से लिंग-तटस्थ भाषा का प्रयोग किया गया है, जिसमें "पत्नी" जैसे शब्दों के स्थान पर "पति/पत्नी" और "अवयस्क लड़की" जैसे शब्दों के स्थान पर "बालक शब्द का प्रयोग किया गया है, जो समता और समावेशिता की समकालीन समझ को दर्शाता है।  
  • भारतीय दण्ड संहिता (IPC) में अनुपस्थित एक उपबंध, धारा 1(2) भारतीय न्याय संहिता के अंतर्गत केंद्र सरकार को प्रारंभिक शक्तियां सौंपकर प्रशासनिक दक्षता में वृद्धि की गई है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNNS) के प्रति-संदर्भों को व्यवस्थित रूप से सम्मिलित किया गया है, जिससे नए आपराधिक न्याय ढाँचे के भीतर बेहतर एकीकरण संभव हुआ है। 

समकालीन अपराध और डिजिटल युग के अनुकूलन 

  • भारतीय न्याय संहिता में आधुनिक आपराधिक गतिविधियों से संबंधित कई नए अपराधों को सम्मिलित किया गया है, जो भारतीय दण्ड संहिता में या तो अनुपस्थित थे या अपर्याप्त रूप से सम्मिलित थे। 
    • धारा 69 के अधीन प्रवंचनापूर्ण या विवाह के मिथ्या वचन के जरिए मैथुन को अपराध माना गया है, जिसके लिये दस वर्ष तक के कारावास का दण्ड हो सकता है। 
    • यह उपबंध विशेष रूप से संबंधों में कपट और प्रवंचना के समकालीन मुद्दों को संबोधित करता है। 
  • संगठित अपराध को नई धारा 111 और 112 के माध्यम से व्यापक उपचार प्राप्त होता है, जो क्रमशः संगठित अपराध और छोटे संगठित अपराध को परिभाषित और दण्डित करता है। 
    • ये उपबंध साइबर अपराध, मानव दुर्व्यापार, संविदा द्वारा हत्या और आर्थिक अपराधों सहित व्यवस्थित आपराधिक उद्यमों को लक्षित करते धारा 113 आतंकवादी कृत्यों के अपराध का परिचय देती है, और उचित विधिक ढाँचे के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का समाधान करती है। 
  • डिजिटल संसूचना और इलेक्ट्रॉनिक साधनों को भारतीय न्याय संहिता में स्पष्ट रूप से सम्मिलित किया गया है। धारा 152 इलेक्ट्रॉनिक संसूचना के माध्यम से संप्रभुता को खतरे में डालने वाले कृत्यों को संबोधित करती है, जबकि धारा 196 इलेक्ट्रॉनिक संसूचना को समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने के साधन के रूप में सम्मिलित किया गया है। 
  • मानहानि के उपबंधों में अब इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप भी सम्मिलित हैं, तथा अश्लील सामग्री में इलेक्ट्रॉनिक प्रदर्शन प्रारूप भी सम्मिलित हैं, जो डिजिटल युग के अपराधों को व्यापक रूप से सुनिश्चित करता है। 
  • विधायिका सामुदायिक सेवा को एक वैकल्पिक दण्ड के रूप में मान्यता देता है, जिसका उल्लेख धारा 4 में किया गया है, यद्यपि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) में इसके कार्यान्वयन के विस्तृत दिशानिर्देश दिये गए हैं। यह प्रगतिशील दृष्टिकोण न्यायलयों को पारंपरिक कारावास और जुर्माने से परे लचीले दण्ड विकल्प प्रदान करता है। 

वर्धित दण्ड और पीड़ित संरक्षण 

  • भारतीय न्याय संहिता (BNS) ने विभिन्न अपराधों में दण्ड की संरचना को उल्लेखनीय रूप से वर्धित किया है, जिससे यह परिलक्षित होता है कि विधायिका का उद्देश्य निवारण को सुदृढ़ करना है। धारा 63 में बलात्संग के लिये सम्मति की आयु 15 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई है तथा संबंधित प्रावधानों में भी आवश्यक संशोधन किये गए हैं।  
    • मूलवंश, जाति, समुदाय, लिंग या व्यक्तिगत विश्वास के आधार पर सामूहिक अपराधों के लिये वर्धित दण्ड की शुरुआत की गई है, जिसमें धारा 103(2) और 117(4) विशेष रूप से भीड़ द्वारा हिंसा और घृणा अपराधों को संबोधित किया गया है। 
  • पीड़ित सुरक्षा उपायों को काफ़ी मज़बूत किया गया है। धारा 70(2) में 18 साल से कम उम्र की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान है, जो आईपीसी की धारा 376डीबी में पहले दी गई 12 साल की सज़ा से ज़्यादा है। नाबालिगों से जुड़े अपराधों के लिए सज़ा बढ़ाकर और उम्र-विशिष्ट वर्गीकरणों के स्थान पर सार्वभौमिक शब्द "बच्चा" को व्यापक परिभाषा देकर बाल संरक्षण पर ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है। 
  • पीड़ित संरक्षण के उपायों को पर्याप्त रूप से सुदृढ़ किया गया है। धारा 70(2) में 18 वर्ष से कम आयु की महिला के साथ सामूहिक बलात्कार हेतु मृत्युदण्ड का प्रावधान है, जबकि पूर्ववर्ती भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376घख में यह सीमा 12 वर्ष निर्धारित थी। बाल संरक्षण को बढ़ी हुई प्राथमिकता प्रदान की गई है, जिसमें अवयस्कों से संबंधित अपराधों के लिये दण्डों को वर्धित किया गया है तथा आयु-विशिष्ट परिभाषाओं के स्थान पर “बालक” (Child) की सार्वभौमिक परिभाषा को दिया गया है। 
  • आर्थिक अपराधों हेतु दण्डों में भी पर्याप्त वृद्धि की गई है। उदाहरणार्थ, धारा 274 में खाद्य पदार्थों की मिलावट (Food Adulteration) के लिये जुर्माने को एक हज़ार रुपए से बढ़ाकर पाँच हज़ार रुपए कर दिया गया है, वहीं धारा 276 में मादक पदार्थों की मिलावट (Drug Adulteration) हेतु कारावास की अवधि छह मास से बढ़ाकर एक वर्ष कर दी गई है।  
  • कई प्रावधानों में आजीवन कारावास की परिभाषा को स्पष्ट किया गया है और इसका अर्थ "व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिये कारावास" बताया गया है, जिससे दण्ड संबंधी दिशानिर्देशों में अस्पष्टता दूर हो गई है। विशिष्ट अपराधों के लिये अनिवार्य न्यूनतम दण्ड का प्रावधान किया गया हैं, जिससे निवारक दण्डों का न्यायिक रूप से सुसंगत अनुप्रयोग सुनिश्चित किया जा सके 

आधुनिकीकरण और व्यावहारिक सुधार 

  •  भारतीय न्याय संहिता में समकालीन वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करते हुए कई व्यावहारिक आधुनिकीकरण सम्मिलित हैं। समय संबंधी संदर्भों को अद्यतन किया गया है, और अधिक स्पष्टता के लिये "रात में" के स्थान पर "सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय से पूर्व" शब्द का प्रयोग किया गया है। ग्रेगोरियन कैलेंडर ने ब्रिटिश कैलेंडर के संदर्भों का स्थान ले लिया है, और "एशियाई शक्तियों" की शब्दावली को "शांति में विदेशी राज्य" में अद्यतन किया गया है, जो वर्तमान भू-राजनीतिक समझ को दर्शाता है। 
  • लैंगिक समावेशिता भाषाई परिवर्तनों से आगे बढ़कर मूलभूत विधिक प्रावधानों तक फैली हुई है। बलात्कार के लिये वैवाहिक अपवाद को संशोधित कर उन विवाहों को बाहर कर दिया गया है जहाँ पत्नी की आयु 18 वर्ष से कम है, जिससे युवा विवाहित महिलाओं की सुरक्षा मज़बूत हुई है। विभिन्न प्रावधानों को लैंगिक-तटस्थ बनाया गया है, जिससे सभी लिंग पहचानों के लिये सुरक्षा और दायित्त्व का विस्तार हुआ है। 
  • संपत्ति और आर्थिक अपराध की परिभाषाएँ व्यापक कर दी गई हैं। "भौतिक" सीमा को हटाकर जंगम संपत्ति का दायरा बढ़ा दिया गया है, जबकि रिष्टि संबंधी प्रावधानों में अब सरकारी और स्थानीय प्राधिकरण की संपत्ति भी स्पष्ट रूप से सम्मिलित है। दस्तावेज़-संबंधी प्रावधानों में इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख को एकीकृत किया गया है, जिससे डिजिटल साक्ष्य और इलेक्ट्रॉनिक संव्यवहार को व्यापक रूप से सुनिश्चित किया गया है। 

निष्कर्ष 

भारतीय दण्ड संहिता से भारतीय न्याय संहिता में परिवर्तन भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के एक मौलिक आधुनिकीकरण का प्रतिनिधित्व करता है, जो स्थापित विधिक सिद्धांतों को संरक्षित करते हुए समकालीन चुनौतियों का समाधान करता है। संरचनात्मक समेकन, उन्नत दण्ड, पीड़ित-केंद्रित प्रावधानों और डिजिटल युग के अनुकूलन के माध्यम से, भारतीय न्याय संहिता एक अधिक व्यापक, सुलभ और प्रभावी आपराधिक विधि ढाँचा तैयार करता है। यह परिवर्तन विधि के शासन और सांविधानिक सिद्धांतों को बनाए रखते हुए 21वीं सदी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अपनी विधिक प्रणाली को विकसित करने की भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।