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सांविधानिक विधि

भारत की जलवायु विधि का निर्माण

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 09-Jul-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

एम. के. रंजीतसिंह और अन्य बनाम भारत संघ मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा हाल ही में दिया गया निर्णय भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। "जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त" रहने के संवैधानिक अधिकार को मान्यता देकर उच्चतम न्यायालय ने भारत में जलवायु कार्यवाही तथा पर्यावरण संरक्षण हेतु नए रास्ते सुझाए हैं।

  • यह अधिकार, भारत के संविधान, 1950 में निहित जीवन (अनुच्छेद 21) और समानता (अनुच्छेद 14) के मौलिक अधिकारों से प्राप्त है, जो देश में जलवायु विधि के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

न्यायालय का निर्णय जलवायु संरक्षण को संवैधानिक स्थिति कैसे प्रदान करता है?

  • संवैधानिक आधार: मौजूदा मौलिक अधिकारों से इस अधिकार को प्राप्त करके, न्यायालय ने जलवायु संरक्षण को संवैधानिक स्थिति प्रदान की है।
    • यह कदम जलवायु कार्यवाही के लिये विधिक आधार को दृढ़ करता है तथा जलवायु परिवर्तन पर नागरिकों द्वारा सरकार से कार्यवाही की मांग करने हेतु एक शक्तिशाली उपकरण तैयार करता है।
  • न्यायिक सक्रियता: यह निर्णय जलवायु परिवर्तन जैसी जटिल, दीर्घकालिक चुनौतियों से निपटने के लिये भारतीय न्यायपालिका की इच्छा को दर्शाता है।
    • यह पर्यावरणीय मुद्दों पर विधायी निष्क्रियता के कारण उत्पन्न हुए अंतराल को भरने के लिये विश्व भर के न्यायालयों द्वारा न्यायिक सक्रियता की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है।
  • अनुच्छेद 21 का विस्तारित दायरा: न्यायालय की व्याख्या अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के पहले से ही व्यापक दायरे को और अधिक विस्तारित करती है।
    • इस विस्तार में यह माना गया है कि अन्य मौलिक अधिकारों के पूर्ण उपयोग के लिये स्थिर जलवायु आवश्यक है।
  • समानता आयाम: जलवायु संरक्षण को अनुच्छेद 14 से जोड़कर, न्यायालय ने सुभेद्य जनसंख्या पर जलवायु परिवर्तन के असंगत प्रभाव को स्वीकार किया है, जिससे जलवायु न्याय के मुद्दों को संबोधित करने के लिये संभावित रूप से नए रास्ते खुल गए हैं।
  • यह निर्णय एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर है, परंतु प्रतिकूल जलवायु प्रभावों से मुक्त होने के अधिकार के व्यावहारिक कार्यान्वयन एवं प्रवर्तन के विषय में चिंताएँ उत्पन्न करता है।
  • इस नव-स्वीकृत अधिकार को प्रामाणित करने के लिये एक विधायी ढाँचे की आवश्यकता इस बात पर ज़ोर देती है कि भारत में जलवायु परिवर्तन द्वारा उत्पन्न प्रणालीगत चुनौतियों से निपटने के लिये खंडशः में न्यायिक हस्तक्षेप अपर्याप्त हो सकता है।

भारतीय जलवायु विधि के प्रमुख तत्त्व क्या हैं: विकास और जलवायु कार्यवाही में संतुलन?

  • विकासोन्मुख दृष्टिकोण:
    • भारत की विकास संबंधी अनिवार्यताओं को पहचाना जाए।
    • उत्सर्जन में कमी को गरीबी उन्मूलन एवं आर्थिक विकास के साथ संतुलित किया जाए।
    • "विकास-प्रथम" जलवायु कार्यवाही रणनीतियों को बढ़ावा दिया जाए।
    • प्रमुख विकास योजनाओं में जलवायु संबंधी विचारों को अनिवार्यतः सम्मिलित किया जाए।
  • जलवायु लचीलेपन पर ज़ोर:
    • अनुकूलन, लचीलेपन और शमन पर समान ध्यान दिया जाए।
    • प्रमुख परियोजनाओं के लिये व्यापक जलवायु जोखिम आकलन की आवश्यकता है।
    • राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय अनुकूलन योजनाओं के लिये रूपरेखा विकसित किया जाए।
  • न्यायोचित संक्रमण प्रावधान:
    • कार्बन-गहन उद्योगों में श्रमिकों और समुदायों के लिये समर्थन सुनिश्चित किया जाए।
    • पुनः कौशलीकरण, रोज़गार सृजन और आर्थिक विविधीकरण के लिये समर्पित कोष की स्थापना की जाए।
  • सह-लाभ केंद्रीकरण:
    • वायु गुणवत्ता, सार्वजनिक स्वास्थ्य, ऊर्जा सुरक्षा एवं रोजगार सृजन संबंधी लाभों से संबंधित कार्यों को प्राथमिकता दी जाए।
    • नीति मूल्यांकन में सह-लाभ सहित लागत-लाभ विश्लेषण को अनिवार्य बनाया जाए।
  • प्रौद्योगिकी और नवाचार:
    • भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल स्वच्छ प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा दिया जाए।
    • स्वच्छ प्रौद्योगिकी कोष की स्थापना की जाए।
    • जलवायु समाधानों में निजी क्षेत्र के नवाचार के लिये प्रोत्साहन प्रदान किया जाए।
  • वित्तीय तंत्र:
    • राष्ट्रीय जलवायु कोष का निर्माण या सुदृढ़ीकरण किया जाए।
    • जलवायु परियोजनाओं के लिये सार्वजनिक और निजी वित्तीय सहायता जुटाने हेतु रूपरेखा विकसित की जाए।
  • क्षेत्रीय लक्ष्य एवं रणनीतियाँ:
    • प्रमुख क्षेत्रों (ऊर्जा, परिवहन, उद्योग, कृषि) के लिये क्षेत्र-विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित किया जाए।
    • प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्ट चुनौतियों का समाधान करने के लिये अनुकूलित रणनीति बनाने की अनुमति दी जाए।
  • उपराष्ट्रीय कार्रवाई:
    • राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर जलवायु कार्यवाही के समन्वय के लिये रूपरेखा प्रदान की जाए।
    • राज्य स्तरीय जलवायु कार्ययोजनाओं के विकास का अधिदेश दिया जाए।
    • उपराष्ट्रीय जलवायु पहलों के कार्यान्वयन का समर्थन किया जाए।
  • निगरानी, ​​रिपोर्टिंग और सत्यापन (MRV):
    • प्रगति पर नज़र रखने और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये सुदृढ़ MRV प्रणाली स्थापित की जाए।
    • सरकारी एजेंसियों और प्रमुख निजी क्षेत्र के उत्सर्जकों के लिये नियमित रिपोर्टिंग आवश्यकताओं को लागू किया जाए।
  • समीक्षा और संशोधन तंत्र:
    • लक्ष्यों और रणनीतियों की आवधिक समीक्षा के प्रावधान शामिल किया जाए।
    • पेरिस समझौते के अंतर्गत समीक्षा प्रक्रिया को वैश्विक समीक्षा से जोड़ा जाए।
    • विकासशील जलवायु विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के लिये अनुकूलनशीलता सुनिश्चित की जाए।

भारत जलवायु प्रशासन के लिये एक प्रभावी संस्थागत ढाँचा कैसे स्थापित कर सकता है?

  • जलवायु कैबिनेट: प्रमुख मंत्रियों और राज्य के मुख्यमंत्रियों वाला एक रणनीतिक निकाय, जिसकी अध्यक्षता संभवतः प्रधानमंत्री करेंगे, समग्र जलवायु रणनीति निर्धारित करने तथा सरकार के विभिन्न क्षेत्रों एवं स्तरों में नीतिगत सुसंगतता सुनिश्चित करने के लिये उत्तरदायी होगा।
  • जलवायु परिवर्तन पर सुदृढ़ कार्यकारी समिति: वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदा समिति को मंत्रालयों एवं विभागों में जलवायु नीतियों के कार्यान्वयन के समन्वय के लिये बढ़ी हुई विधिक शक्तियाँ तथा उत्तरदायित्व दिये जा सकते हैं।
  • संबंधित मंत्रालयों में जलवायु परिवर्तन प्रकोष्ठ: प्रत्येक प्रमुख मंत्रालय को जलवायु परिवर्तन पर कार्यकारी समिति के साथ समन्वय में कार्य करते हुए, क्षेत्रीय नीतियों और कार्यक्रमों में जलवायु संबंधी विचारों को एकीकृत करने के लिये एक समर्पित जलवायु परिवर्तन प्रकोष्ठ की स्थापना करनी चाहिये।
  • राज्य जलवायु परिवर्तन प्राधिकरण: प्रत्येक राज्य को एक जलवायु परिवर्तन प्राधिकरण स्थापित करने की आवश्यकता हो सकती है, जो राज्य स्तरीय जलवायु कार्रवाई योजनाओं को विकसित करने और लागू करने तथा स्थानीय संदर्भों के अनुरूप राष्ट्रीय रणनीतियों को अपनाने के लिये उत्तरदायी होगा।
  • जलवायु वित्त प्राधिकरण: घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्रोतों से जलवायु वित्तीय सहायता जुटाने, प्रबंधित करने तथा उसे दिशा देने के लिये एक समर्पित संस्था, जो प्रस्तावित राष्ट्रीय जलवायु कोष की देखरेख करेगी एवं निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देगी।
  • स्वतंत्र जलवायु परिवर्तन आयोग: यह एक स्वायत्त निकाय है जो जलवायु कार्यवाही की प्रगति की निगरानी एवं मूल्यांकन के लिये उत्तरदायी है तथा भारत में जलवायु कार्यवाही की स्थिति पर संसद को वार्षिक रिपोर्ट प्रदान करता है।
  • जलवायु न्याय लोकपाल: जलवायु प्रभावों से संबंधित शिकायतों का समाधान करने तथा यह सुनिश्चित करने के लिये एक समर्पित कार्यालय होना चाहिये जोकि जलवायु नीतियों का कार्यान्वयन न्यायोचित और समतापूर्ण तरीके से करे तथा जो जलवायु संरक्षण के संवैधानिक अधिकार को लागू करने के लिये एक तंत्र प्रदान करता हो।

भारत की जलवायु विधि के कार्यान्वयन एवं प्रवर्तन के लिये कौन-सा विधिक तंत्र आवश्यक हैं?

  • वैधानिक कर्त्तव्य: जलवायु कार्ययोजनाओं को विकसित करने और लागू करने, निर्णय लेने में जलवायु संबंधी विचारों को एकीकृत करने तथा प्रगति की रिपोर्ट करने के लिये सरकारी निकायों पर स्पष्ट दायित्व लागू करना।
  • जलवायु प्रभाव आकलन: प्रमुख नीतिगत निर्णयों, विकास योजनाओं और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिये अधिदेश का आकलन।
  • जनहित याचिका: जलवायु दायित्वों को लागू करने के लिये सामूहिक वाद संस्थित करने सहित विधिक कार्यवाही करने के नागरिकों के अधिकार को मान्यता दी जाएगी।
  • अनुपालन तंत्र: नियमित ऑडिट, अनिवार्य रिपोर्टिंग और गैर-अनुपालन के लिये दण्ड सहित स्पष्ट निगरानी प्रणाली स्थापित की जाए।
  • जलवायु बजट टैगिंग: सरकारी विभागों को बजट में जलवायु-संबंधी व्यय को टैग करने और रिपोर्ट करने की आवश्यकता होगी।
  • अंतर-राज्यीय जलवायु परिषद: जलवायु मुद्दों पर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय के लिये एक औपचारिक तंत्र बनाना।
  • कॉर्पोरेट जलवायु प्रकटीकरण: मौजूदा ESG रिपोर्टिंग आवश्यकताओं के आधार पर बड़ी कंपनियों के लिये जलवायु जोखिम प्रकटीकरण को अनिवार्य बनाना।
  • जलवायु परिवर्तन न्यायाधिकरण: जलवायु संबंधी विवादों और प्रवर्तन कार्रवाइयों को निपटाने के लिये विशेष न्यायाधिकरणों की स्थापना करना।
  • नागरिक प्रवर्तन तंत्र: नागरिकों के लिये वाद संस्थित करने की सुविधा उपलब्ध कराना तथा पर्यावरण रक्षकों को प्रतिवादों से बचाना।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्रावधान: घरेलू जलवायु कार्यवाही को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के साथ संरेखित करने तथा वैश्विक कार्बन बाज़ारों और जलवायु वित्त तंत्र में शामिल करने के लिये तंत्र शामिल करें।

COSIS क्या है?

  • जलवायु परिवर्तन और अंतर्राष्ट्रीय कानून पर लघु द्वीपीय राज्यों का आयोग, जलवायु परिवर्तन के विधिक आयामों से निपटने के लिये छोटे द्वीपीय देशों के बीच एक सहयोगात्मक प्रयास है।
  • COSIS की स्थापना वर्ष 2021 में की गई।
  • इसका उद्देश्य विधिक ढाँचे को दृढ करना, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उनके हितों का समर्थन करना तथा सुभेद्य द्वीप समुदायों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिये सहयोग को बढ़ावा देना है।
  • अनुसंधान, नीति विकास और समर्थन के माध्यम से, आयोग जलवायु संबंधी मामलों में छोटे द्वीपीय देशों की लचीलापन बढ़ाने तथा उनके साथ न्यायसंगत व्यवहार सुनिश्चित करने का प्रयास करता है।.

निष्कर्ष:

जलवायु के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्ति के संवैधानिक अधिकार को उच्चतम न्यायालय द्वारा मान्यता दिया जाना भारत के जलवायु न्यायशास्त्र के लिये एक परिवर्तनकारी क्षण है। अब इस ऐतिहासिक निर्णय को व्यापक जलवायु विधियों के अधिनियमन के माध्यम से ठोस प्रगति में परिवर्तित करना आवश्यक है। अधिकार-आधारित ढाँचे पर आधारित और सुदृढ़ कार्यान्वयन तंत्र द्वारा समर्थित ऐसा विधान जलवायु चुनौतियों का प्रभावी ढंग से समाधान करने के साथ-साथ सतत् विकास लक्ष्यों को आगे बढ़ाने तथा भारत के वैश्विक जलवायु नेतृत्व को बढ़ाने की कुँजी है।