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सांविधानिक विधि

न्यायिक विधान

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 25-Oct-2023

स्रोत: हिंदुस्तान टाईम्स  

परिचय 

  • "न्यायिक विधान" (Judicial Legislation) वह शब्द है, जिसका उपयोग उन परिस्थितियों का वर्णन करने के लिये किया जाता है, जहाँ न्यायालयों, विशेष रूप से उच्च न्यायालयों को वैधानिक व्याख्या और लागू करने की अपनी पारंपरिक भूमिका से आगे बढ़ने तथा विधि संबंधी निर्णय लेने के लिये मान्यता दी  जाती है। 
  • अन्य शब्दों में, यह व्यक्त करता है कि न्यायपालिका एक विधायी कार्य में संलग्न है। 
  • यह ऐसी परिस्थिति को संदर्भित करता है, जहाँ न्यायाधीश ऐसे निर्णय ले रहे होते हैं जो मौज़ूदा कानूनों की व्याख्या करने के सिवाय प्रभावी ढंग से नवीन विधियों का निर्माण करते हैं। 
    • ऐसा तब हो सकता है जब कोई न्यायालय, अपने फैसलों के माध्यम से, विधिक सिद्धांत या भाषांतर स्थापित करता है, जो किसी मामले में शामिल कानूनों या मिसालों की विशिष्ट भाषा से परे होता है। 
  • न्यायिक विधि पर चिंताएँ सुप्रियो बनाम भारत संघ (2023) मामले में उठाई गई थीं, जहाँ उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करने से मना कर दिया था क्योंकि याचिकाकर्त्ताओं द्वारा जिस अनुतोष की प्रार्थना की गई थी, उसके परिणामस्वरूप न्यायिक विधान का निर्माण होगा। 

न्यायिक विधान पर न्यायविदों के विचार 

  • मोंटेस्क्यू ने शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत का समर्थन किया, जो सरकार की विभिन्न शाखाओं जैसे कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के कार्यों में अतिक्रमण को प्रतिबंधित करता है। 
  • चार्ल्स टेलर ने कहा कि न्यायिक निर्णयों में कोई भी पक्षकार मामले को अपने पक्ष में कर लेगा, जबकि विधायिका प्रत्येक संभावित पहलू को कवर करती है। 
  • 19वीं शताब्दी में बेंथम ने यह कहकर न्यायाधीश द्वारा बनाए गए कानून को अस्वीकार कर दिया था कि "न्यायाधिकरण में सबसे बड़ी अखंडता के अलावा कुछ भी न्यायाधीशों को एक अलिखित कानून को पक्षपात और भ्रष्टाचार का निरंतर साधन बनाने से नहीं रोक सकता है"। 
  • ग्रे यह कहते हुए न्यायिक कानून का समर्थन करते हैं कि "कतिपय यह कहा गया है, कि कानून दो भागों से बना है, विधायी कानून और न्यायाधीश-निर्मित कानून, जबकि वास्तव में सभी कानून न्यायाधीश-निर्मित कानून हैं"। 

न्यायिक विधान पर न्यायाधीशों की राय  

  • बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) के मामले में न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ ने कहा कि "सर्वोच्च न्यायिक कर्त्तव्य न्यायिक शक्ति की सीमाओं को पहचानना और उन सीमाओं के बाहर आने वाले मामलों से निपटने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को अनुमति देना है"। 
  • सी रविचंद्रन अय्यर बनाम जस्टिस एम भट्टाचार्यजी (1995) मामले में न्यायाधीश के रामास्वामी ने कहा कि “न्यायाधीश की भूमिका केवल कानून की व्याख्या करना नहीं है, बल्कि कानून के नए मानदंडों को निर्धारित करना और संविधान में निहित आदर्शों को सार्थक और वास्तविक बनाने के लिये बदलते सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य के अनुरूप कानून को ढालना भी है।” 
  • अरावली गोल्फ क्लब बनाम चंदर हस, (2008) के मामले में न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने कहा कि “न्यायाधीशों को अपनी सीमाएँ पता होनी चाहिये, उनमें शील और नम्रता होनी चाहिये और उन्हें सम्राटों की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिये।” 
    • विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी के संचालन के अपने-अपने व्यापक क्षेत्र हैं। राज्य के इन तीन अंगों में से किसी के लिये भी दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करना उचित नहीं है, अन्यथा संविधान में संतुलन कमज़ोर हो जाएगा और प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी। 

उच्चतम न्यायालय ने कब न्यायिक विधान का सहारा लिया है? 

  • विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): 
    • इस मामले में न्यायपालिका ने कहा कि महिलाओं की सुरक्षा के लिये कानून की आवश्यकता है, जिसके चलते न्यायिक मजबूरी (judicial compulsion) में वैधानिक निर्माण करना पड़ा। 
    • इस मामले में न्यायालय के फैसले ने दंडात्मक कानूनों, सेवा कानूनों और एक संपूर्ण नवीन कानून की शुरूआत को प्रभावित किया। 
  • डी वेलुसामी बनाम पचैअम्मल (2010): 
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 को परिभाषित किया और लिव-इन रिलेशनशिप में पार्टनर के गुजारा भत्ते के अधिकार को मान्यता प्रदान की। 
    • न्यायालय ने यह भी वर्गीकृत किया कि किस प्रकार का संबंध लिव-इन रिलेशनशिप के दायरे में आएगा। 
  • सेवानिवृत्त न्यायाधीश के एस पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2019): 
    • इस मामले में न्यायालय ने निर्धारित किया कि निजता का अधिकार भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के तहत एक अंतर्निहित अधिकार है। 
  • जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018): 
    • उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की वर्षों पुरानी धारा 497 को अपराध की श्रेणी से हटा दिया, जो पुरुष और महिला अर्थात् पति-पत्नी के बीच भेदभाव उत्पन्न करती थी। 
    • न्यायालय ने सदियों पुरानी सामाजिक बुराई से निपटने के लिये ऐसा किया। 
  • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): 
    • इस ऐतिहासिक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने IPC की धारा 377 को आंशिक रूप से अपराध की श्रेणी से हटाकर समलैंगिक संबंधों को संवैधानिक रूप से अमान्य करार दे दिया। 
    • हालाँकि, जब विशेष विवाह अधिनियम, 1969 (SMA) की संवैधानिक वैधता की व्याख्या करने की प्रार्थना की गई तो न्यायालय वही दृष्टिकोण अपनाने में विफल रहा। 

न्यायिक विधान की आलोचना करने वाले तर्क  

  • न्यायिक विधान के आलोचकों का तर्क है कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमज़ोर कर सकता है क्योंकि न्यायाधीश, जो निर्वाचित नहीं होते हैं, निर्वाचित विधायकों के समान सीधे जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं। 
  • इसकी आलोचना इसलिये की जाती है क्योंकि विधि निर्माण करने और संपरिवर्तित करने का कार्य विधायी शाखा पर छोड़ दिया जाना चाहिये, जो मतदाताओं के प्रति जवाबदेह होती है। 

न्यायिक विधान के पक्ष में तर्क 

  • सक्रिय न्यायिक भूमिका के समर्थकों का तर्क है कि विधिक व्याख्या और अनुप्रयोग हेतु कभी-कभी न्यायाधीशों को अंतराल आपूर्ति (fill gaps), संदिग्धताओं को हल करने, या बदलती सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार वैधानिक  सिद्धांतों को अनुकूलित करने की आवश्यकता होती है। 
  • इसे न्याय और औचित्य सुनिश्चित करने में न्यायपालिका के कार्य के एक आवश्यक हिस्से के रूप में समर्थित किया गया है। 

निष्कर्ष 

न्यायिक विधान का विषय कानूनी विमर्श का एक जटिल और विवादित भाग है। आलोचकों का तर्क है कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को बाधित कर सकता है, जबकि समर्थकों का कहना है कि यह समाज की उभरती आवश्यकताओं के लिये कानून को अपनाने के लिये एक आवश्यक साधन है। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच कमज़ोर संतुलन बनाए रखा जाना चाहिए ताकि संविधान में निहित सिद्धांतों को बनाए रखते हुए लोकतांत्रिक प्रणाली के सामंजस्यपूर्ण कामकाज को सुनिश्चित किया जा सके।