जनहित याचिका (PIL)
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सांविधानिक विधि

जनहित याचिका (PIL)

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 07-May-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

एक जनहित याचिका पर हाल ही में उच्चतम न्यायालय के सत्र में सुनवाई हुई, जिसमें दावा किया गया था कि प्रतिस्पर्द्धी राजनीतिक दल मतदाताओं को गुमराह करने के प्रयास में प्रसिद्ध राजनीतिक हस्तियों के समान नामों वाले उम्मीदवारों को निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्याशी के रूप में उतार रहे हैं। इससे न्यायालय के लिये एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा सामने आया और साथ ही याचिकाकर्त्ता ने जनहित याचिका वापस ले ली है।

जनहित याचिका (PIL) क्या है?

  •  “जनहित याचिका” शब्द की उत्पत्ति अमेरिकी न्यायशास्त्र से हुई है, जिसका उद्देश्य आर्थिक रूप से वंचित, नस्लीय अल्पसंख्यकों, असंगठित उपभोक्ताओं एवं पर्यावरणीय मुद्दों के बारे में चिंतित व्यक्तियों जैसे हाशिए पर रहने वाले समूहों को कानूनी प्रतिनिधित्व प्रदान करना है।
  • जनहित याचिका एक कानूनी तंत्र है जिसके माध्यम से व्यक्ति या समूह सार्वजनिक चिंता के मामलों को संबोधित करने के लिये न्यायिक हस्तक्षेप की मांग कर सकते हैं। यह नागरिकों को सार्वजनिक हित की रक्षा करने अथवा कानूनी अधिकारों को लागू करने हेतु न्यायालयों से संपर्क करने की अनुमति देता है, भले ही वे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित पक्ष न हों।
  • याचिकाकर्त्ता को न्यायालय को यह प्रदर्शित करना होगा कि याचिका जनता के लाभ के लिये प्रस्तुत की जा रही है और साथ ही यह किसी व्यक्ति द्वारा की गई एक व्यर्थ कानूनी कार्रवाई नहीं है।
  • न्यायालय को स्वत: संज्ञान लेकर कार्यवाही शुरू करने का अधिकार है या किसी कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिक द्वारा दायर याचिकाओं के आधार पर मामले शुरू हो सकते हैं।

भारत में जनहित याचिका का विकास क्या है?

  • न्यायाधीश कृष्णा अय्यर ने सर्वप्रथम मुंबई कामगार सभा बनाम अब्दुल थाई (1976) मामले में जनहित याचिका का प्रारंभ किया गया।
  • जनहित याचिका का पहला मामला हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) था जो जेलों और विचाराधीन कैदियों की अमानवीय स्थितियों पर केंद्रित था जिसके कारण 40,000 से अधिक विचाराधीन कैदियों को रिहा किया गया था।
  • एस. पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1981) के मामले में न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती द्वारा जनहित याचिका आंदोलन के एक नए युग की शुरुआत की गई।
  • इस मामले में निर्णय द्वारा स्थापित किया गया कि सार्वजनिक या वैध सामाजिक कार्य समूह का कोई भी सदस्य उच्च न्यायालयों (भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 के तहत) या उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32 के तहत) के रिट क्षेत्राधिकार का आह्वान कर सकता है। उन व्यक्तियों के विरुद्ध किये गए संवैधानिक या कानूनी अधिकारों के उल्लंघन होने पर उपाय तलाशने के लिये है जो सामाजिक, आर्थिक अथवा अन्य विकलांगताओं के कारण न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने में असमर्थ हैं।

जनहित याचिका के संबंध में ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • भारतीय बैंक संघ, बॉम्बे एवं अन्य बनाम वी. मैसर्स देवकला कंसल्टेंसी सर्विस और अन्य मामला, वर्ष 2004 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय को स्वीकार्य माना गया। जहाँ याचिकाकर्त्ता ने अपने निजी हित में और व्यक्तिगत शिकायत के निवारण के लिये न्यायालय का रुख किया होगा, सार्वजनिक हित को आगे बढ़ाने में न्यायालय इसे लागू सकती है न्याय के हित में मुकदमे के विषय की स्थिति की जाँच करना आवश्यक है। इस प्रकार, निजी हित के मामले को सार्वजनिक हित के मामले के रूप में भी माना जा सकता है।
  • एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ (1988), इस मामले में गंगा में हो रहे प्रदूषण के विरुद्ध एक जनहित याचिका लाई गई थी ताकि गंगा जल के किसी भी अन्य प्रदूषण को रोका जा सके। उच्चतम न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता हालाँकि नदी तट का मालिक नहीं है, लेकिन वह वैधानिक प्रावधानों को लागू करने के लिये न्यायालय में जाने का हकदार है, क्योंकि वह गंगाजल का उपयोग करने वाले लोगों के जीवन की रक्षा करने में रुचि रखने वाला व्यक्ति है।
  • विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997), इस मामले के निर्णय में यौन उत्पीड़न को अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 एवं अनुच्छेद 21 के मौलिक संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन माना गया। दिशा-निर्देशों में कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के लिये भी निर्देश दिये गए हैं।

जनहित याचिका का समर्थन करने वाले संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?

  • अनुच्छेद 32: यह अनुच्छेद व्यक्तियों को अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिये प्रत्यक्ष रूप से उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करने की अनुमति प्रदान करता है। यह न्यायालय को इन अधिकारों की सुरक्षा के लिये बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, यथा वारंटो और उत्प्रेषण रिट सहित रिट जारी करने की अनुमति प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 226: यह उच्च न्यायालयों को अपने संबंधित अधिकार क्षेत्र में मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है। इसमें जनहित याचिकाओं पर विचार करने और सार्वजनिक हित की सुरक्षा के लिये निर्देश जारी करने का अधिकार भी शामिल है।
  • मौलिक अधिकार: PIL याचिकाएँ COI के भाग III में संहिताबद्ध कई मौलिक अधिकारों पर आधारित हैं, जिनमें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23) तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) शामिल हैं। जनहित याचिकाएँ प्राय: समाज के वंचित अथवा हाशिए पर रहने वाले समूहों के लिये इन अधिकारों की सुरक्षा की मांग करती हैं।
  • राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत: हालाँकि न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जा सकता, राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (COI का भाग IV) राज्य नीति-निर्माण के लिये दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं। जनहित याचिकाएँ प्राय: सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण तथा अन्य सार्वजनिक हित के उद्देश्यों की वकालत करने हेतु इन सिद्धांतों का आह्वान करती हैं।

भारत में PIL के विकास में किन कारकों ने योगदान दिया है?

  • न्यायिक सक्रियता: पारंपरिक मुकदमेबाज़ी से परे सामाजिक न्याय के मुद्दों को संबोधित करने में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका के कारण जनहित याचिका को गति प्राप्त हुई। न्यायालयों द्वारा जनहित से जुड़े मामलों का संज्ञान लिया है, जिससे नागरिकों को प्रत्यक्ष रूप से उनसे संपर्क करने हेतु प्रोत्साहित किया गया है।
  • न्याय तक विस्तारित पहुँच: PIL ने हाशिए पर रहने वाले और वंचित समूहों को उनकी वित्तीय स्थिति के बावजूद न्याय की प्राप्ति हेतु एक मंच प्रदान किया है। इसने न्यायपालिका तक पहुँच को लोकतांत्रिक बना दिया है, नागरिकों को मानवाधिकारों के उल्लंघन, पर्यावरण क्षरण एवं भ्रष्टाचार से संबंधित शिकायतों का समाधान करने के लिये सशक्त भी बनाया है।
  • विधिक सहायता तथा गैर सरकारी संगठन (NGO): विधिक सहायता संगठन एवं गैर-सरकारी संगठन (NGO), जनहित याचिका शुरू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे ऐसे व्यक्तियों या समूहों को कानूनी सहायता प्रदान करते हैं जिनके पास स्वतंत्र रूप से न्यायालयों तक पहुँचने के लिये संसाधनों की कमी है। गैर सरकारी संगठन प्राय: जनहित याचिका मामलों में याचिकाकर्त्ता अथवा सुविधाप्रदाता के रूप में कार्य करते हैं, जिससे जनता का ध्यान इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर जाता है।
  • कानूनी ढाँचा विकसित करना: जनहित याचिका (PIL) से संबंधित कानूनी ढाँचे में समय के साथ बदलाव आया है, क्योंकि न्यायालयों ने प्रक्रियात्मक प्रतिबंधों को ढीला कर दिया है और लोकस स्टैंडी अथवा कानूनी स्थिति पर अधिक उदार रुख अपनाया है। इससे संबंधित व्यक्तियों, कार्यकर्त्ताओं एवं वकीलों के लिये प्रभावित लोगों की ओर से जनहित याचिका दायर करना आसान हो गया है।

निष्कर्ष:

निष्कर्षतः PIL, सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने, मानवाधिकारों को बनाए रखने एवं भारत की कानून व्यवस्था में जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिये एक शक्तिशाली तंत्र के रूप में उभरा है। वर्षों से, PIL ने प्रणालीगत अन्याय को संबोधित करने, हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सशक्त बनाने और साथ ही अधिकारियों को उनके कार्यों के लिये जवाबदेह बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि जनहित याचिका (PIL) के परिणामस्वरूप उल्लेखनीय प्रगति हुई है, फिर भी इसे निजी या विशेष हितों के लिये दुरुपयोग की समस्या के साथ ही न्यायिक आदेश कार्यान्वयन की आवश्यकता एवं लंबी न्यायिक सुनवाई जैसी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इसलिये, यह सुनिश्चित करने हेतु न्यायिक सक्रियता के सिद्धांतों के साथ कानूनी प्रक्रियाओं की पवित्रता के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है कि PIL सार्वजनिक कल्याण को बढ़ावा देने एवं विधि के शासन को बनाए रखने के अपने इच्छित उद्देश्य को पूरा करता रहे