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पारिवारिक कानून
कर्त्ता
« »23-Feb-2024
परिचय:
संपूर्ण हिंदू संयुक्त परिवार में कर्त्ता या प्रबंधक का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। पहले, वह परिवार का निर्विवाद शासक हुआ करता था, लेकिन नवीन विधायी अधिनियमों और न्यायसंगत न्यायिक व्याख्याओं के परिणामस्वरूप परिवार के मुखिया के रूप में उसकी शक्ति का क्षेत्र काफी कमज़ोर हो गया है।
कर्त्ता का अर्थ:
- एक कर्त्ता संयुक्त परिवार और उसकी संपत्तियों का प्रबंधक होता है।
- वे परिवार के दैनिक खर्चों को संभालने, परिवार के सदस्यों की देखभाल करने और संयुक्त परिवार की संपत्तियों की सुरक्षा करने के लिये ज़िम्मेदार होते हैं।
कर्त्ता कौन हो सकता है?
- हिंदू विधि की यह उपधारणा है कि सबसे वरिष्ठ पुरुष सदस्य संयुक्त परिवार का कर्त्ता होता है।
- सबसे वरिष्ठ पुरुष सदस्य इस तथ्य के आधार पर कर्त्ता होता है कि वह सबसे वरिष्ठ पुरुष सदस्य है। वह अपने पद के लिये अन्य सहदायिकों के समझौते या सहमति पर निर्भर नहीं होता है।
- जब तक वह जीवित है, वह कर्त्ता बना रहेगा।
- कर्त्ता की मृत्यु के बाद, सबसे वरिष्ठ पुरुष सदस्य कर्त्ता के रूप में उसका स्थान लेता है।
- वरिष्ठ पुरुष सदस्य की उपस्थिति में कनिष्ठ पुरुष सदस्य कर्त्ता नहीं हो सकता। लेकिन यदि सभी सहदायिक सहमत हों तो एक कनिष्ठ पुरुष सदस्य कर्त्ता हो सकता है।
- दो व्यक्ति संपत्ति के प्रबंधन की देखभाल कर सकते हैं, लेकिन संयुक्त परिवार का प्रतिनिधित्व केवल एक कर्त्ता को करना पड़ता है।
- यहाँ तक कि एक अवयस्क भी कर्त्ता के रूप में कार्य कर सकता है और अभिभावक के माध्यम से परिवार का प्रतिनिधित्व कर सकता है।
कर्त्ता की स्थिति:
- कर्त्ता की स्थिति अद्वितीय (sui generis) होती है।
- वह परिवार में एक विशिष्ट स्थान रखता है और उसकी तुलना परिवार के अन्य सदस्यों से नहीं की जा सकती।
- उसके पास कई प्रकार की शक्तियाँ होती हैं क्योंकि वह सभी पारिवारिक मामलों के प्रबंधन का प्रभारी होता है।
- उसके और अन्य सदस्यों के बीच का संबंध मालिक या अभिकर्त्ता का नहीं होता है।
- वह परिवार का मुखिया होता है और अन्य सदस्यों की ओर से कार्य करता है।
- वह अन्य सदस्यों के साथ वैश्वासिक संबंध में होता है, लेकिन वह न्यासी नहीं होता है।
- सामान्यतः वह किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होता।
- उसका पद अन्य सदस्यों से श्रेष्ठ होता है और वह परिवार का प्रतिनिधित्व करता है।
- उसे संयुक्त परिवार की संपत्ति का नियमित और व्यवस्थित खाता बनाए रखने की आवश्यकता नहीं होती है,
- वह अपनी सकारात्मक विफलताओं जैसे कि निवेश करने, खाते तैयार करने या पैसे बचाने में विफलता के लिये उत्तरदायी नहीं होता है, जहाँ वह संयुक्त परिवार के धन का दुरुपयोग करता है या पारिवारिक लाभ के अलावा अन्य उद्देश्यों के लिये उनका उपयोग करता है, वह जवाबदेह होता है, अन्यथा उसकी विचारशीलता पर प्रश्न नहीं किया जा सकता है।
- वह संयुक्त परिवार की आय को अन्य सदस्यों को किसी निश्चित अनुपात में देने के लिये बाध्य नहीं होता है।
- कर्त्ता का पद पूर्णतया सम्मानिक होता है। इस प्रकार, वह प्रदान की गई सेवाओं के लिये कोई वेतन प्राप्त करने का हकदार नहीं होता है।
कर्त्ता के रूप में महिला सदस्य:
- पहले, किसी महिला को सहदायिक बनने का अवसर नहीं दिया जाता था और इसलिये उसे कर्त्ता के रूप में कार्य करने का अधिकार नहीं था।
- हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के लागू होने के बाद, हिंदू संयुक्त परिवार की बेटियों को समान संपत्ति का अधिकार प्रदान किया गया।
- अब, एक बेटी भी बेटों की तरह ही हिंदू संयुक्त परिवार में सहदायिक हो सकती है।
- अपने विवाह के बाद, वह अपने पति के हिंदू संयुक्त परिवार का हिस्सा बन जाती है लेकिन अपने पिता के हिंदू संयुक्त परिवार में उसका सहदायिक होने अधिकार समाप्त नहीं होता है।
- वह विवाह से पहले और विवाह के बाद भी किसी भी सहदायिक को दिये गए सभी अधिकारों का उपयोग कर सकती है।
- इसलिये, यदि वह परिवार में सबसे वरिष्ठ सदस्य है, तो पिता की अनुपस्थिति में वह कर्त्ता हो सकती है।
निर्णयज विधि:
- त्रिभोवनदास बनाम गुजरात राजस्व अधिकरण (1991) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संयुक्त हिंदू परिवार का एक कनिष्ठ सदस्य निम्नलिखित परिस्थितियों में प्रबंधक के रूप में संयुक्त परिवार की संपत्ति की देख-भाल कर सकता है:
- यदि वरिष्ठ सदस्य या कर्त्ता उपलब्ध नहीं है।
- जहाँ कर्त्ता स्पष्ट रूप से या आवश्यक निहितार्थ से अपना अधिकार त्याग देता है।
- पूरे परिवार को प्रभावित करने वाली संकट या विपदा जैसी विशिष्ट एवं असाधारण परिस्थितियों में प्रबंधक की अनुपस्थिति में और परिवार का समर्थन करने के लिये।
- पिता की अनुपस्थिति में, जिसका कोई अता-पता नहीं था या जो परिस्थितियों के कारण किसी दूरस्थ स्थान पर था और उचित समय के भीतर उसकी वापसी की संभावना नहीं थी या प्रत्याशित नहीं थी।
- दामोदर मिश्रा बनाम सनामली मिश्रा (1967) मामले में, यह माना गया कि कर्त्ता की शक्तियों के मद्देनज़र दो कर्त्ता एक संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति और परिवार के अन्य मामलों के सुचारू प्रबंधन का नेतृत्व नहीं कर सकते।
- मनु गुप्ता बनाम सुजाता शर्मा एवं अन्य (2023) मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि न तो विधायिका और न ही पारंपरिक हिंदू विधि किसी भी तरह से एक महिला के हिंदू अविभाजित परिवार के कर्त्ता होने के अधिकारों को सीमित करता है।