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आपराधिक कानून
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अग्रिम जमानत
04-Sep-2025
शाजन स्करिया बनाम केरल राज्य हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 18 के अधीन अग्रिम जमानत पर रोक केवल तभी लागू होती है जब प्रथम दृष्टया अपराध बनता है, और विधायक पी.वी. श्रीनिजिन के विरुद्ध कथित अपमानजनक टिप्पणी से जुड़े मामले में पत्रकार शजन स्कारिया को अग्रिम जमानत दे दी। न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने निर्णय दिया कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 18 के अधीन अग्रिम जमानत पर रोक केवल तभी लागू होती है जब प्रथम दृष्टया अपराध बनता है, और विधायक पी.वी. श्रीनिजिन के विरुद्ध कथित अपमानजनक टिप्पणी से जुड़े एक मामले में पत्रकार शजन स्कारिया को अग्रिम जमानत दे दी।
- उच्चतम न्यायालय ने शाजन स्कारिया बनाम केरल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
शाजन स्कारिया बनाम केरल राज्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह आपराधिक अपील अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अधीन कार्यवाही से उत्पन्न हुई, जिसमें अग्रिम जमानत और अधिनियम के अधीन अपराधों के निर्वचन के विवाद्यक सम्मिलित थे।
- यह मामला मलयालम यूट्यूब चैनल मारुनदान मलयाली के संपादक शाजन स्करिया द्वारा प्रकाशित और प्रसारित एक समाचार से उठा।
- समाचार खंड में जिला खेल परिषद के अध्यक्ष के रूप में विधायक पी.वी. श्रीनिजिन द्वारा संचालित खेल छात्रावास के कथित कुप्रशासन की आलोचना की गई।
- परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि स्कारिया की टिप्पणी में श्रीनिजिन के विरुद्ध अपमानजनक बातें थीं, जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के प्रावधानों के अंतर्गत आती हैं।
- आरोपों से पता चलता है कि कथनों से जातिगत पहचान के कारण अपमान हुआ, जिससे यह मामला विशेष विधि के दायरे में आ गया।
- परिवाद के आधार पर, आपराधिक कार्यवाही शुरू की गई और स्कारिया के विरुद्ध अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराध दर्ज किया गया।
- गिरफ्तारी की आशंका के चलते स्कारिया ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अधीन अग्रिम जमानत के लिये आवेदन किया।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18 विशेष रूप से इस विधि के अधीन दर्ज अपराधों में अग्रिम जमानत के आवेदन पर रोक लगाती है।
- अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि एक बार जब अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराध का आरोप लग जाता है, तो विधायी प्रतिबंध के मद्देनजर अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती।
- दूसरी ओर, स्कारिया ने तर्क दिया कि आरोपों में अधिनियम के अधीन अपराध गठित करने के लिये आवश्यक तत्त्व का अभाव है।
- केरल उच्च न्यायालय ने जून 2023 में स्कारिया की अग्रिम जमानत याचिका यह कहते हुए अस्वीकार कर दी कि विधिक प्रतिबंध (Bar) लागू होता है।
- उच्च न्यायालय के इंकार से व्यथित होकर स्कारिया ने भारत के उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
- न्यायालय के समक्ष मुख्य विवाद्यक यह था कि क्या अग्रिम जमानत दी जा सकती है, जब परिवाद में प्रथम दृष्टया अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराध का होना सिद्ध नहीं होता।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा: "यदि परिवाद में उल्लिखित सामग्री और स्वयं परिवाद को प्रथम दृष्टया पढ़ने पर अपराध के गठन के लिये आवश्यक तत्त्व नहीं पाए जाते हैं, तो धारा 18 का प्रतिबंध लागू नहीं होगा और न्यायालयों के लिये यह खुला होगा कि वे गिरफ्तारी-पूर्व जमानत देने की याचिका पर उसके गुण-दोष के आधार पर विचार करें।"
- न्यायालय ने कहा: "धारा 18 केवल उन मामलों में अग्रिम जमानत के उपचार पर रोक लगाती है, जहाँ अभियुक्त व्यक्ति की दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के साथ धारा 60 क के अनुसार वैध गिरफ्तारी की जा सकती है।"
- न्यायालय ने घोषणा की: "मामले के प्रथम दृष्टया अस्तित्व को निर्धारित करने का कर्त्तव्य न्यायालयों पर डाला गया है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि अभियुक्त को कोई अनावश्यक अपमान न हो। न्यायालयों को यह निर्धारित करने के लिये प्रारंभिक जांच करने से नहीं कतराना चाहिये कि क्या परिवाद/प्रथम सूचना रिपोर्ट में तथ्यों का वर्णन वास्तव में अधिनियम, 1989 के अधीन अपराध का गठन करने के लिये आवश्यक तत्त्वों का प्रकटन करता है।"
- न्यायालय ने स्पष्ट किया: "अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(द) के अधीन अपराध केवल इस तथ्य पर स्थापित नहीं होता है कि परिवादकर्त्ता अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है, जब तक कि ऐसे सदस्य को इस कारण से अपमानित करने का आशय न हो कि वह उस समुदाय से संबंधित है।"
- न्यायालय ने कहा: "अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय के किसी सदस्य का साशय किया गया हर अपमान या धमकी जाति-आधारित अपमान की भावना का कारण नहीं बनती। केवल उन्हीं मामलों में साशय अपमान या धमकी या तो अस्पृश्यता की प्रचलित प्रथा के कारण होती है या फिर ऐतिहासिक रूप से स्थापित विचारों जैसे 'उच्च जातियों' की 'निम्न जातियों/अछूतों' पर श्रेष्ठता को मजबूत करने के लिये होती है, जिन्हें अधिनियम, 1989 द्वारा परिकल्पित अपमान या धमकी कहा जा सकता है।"
- न्यायालय ने कहा: "केवल इस तथ्य की जानकारी होना कि पीड़ित अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है, अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(द) को आकर्षित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति के विरुद्ध अपराध इस आधार पर या इस कारण से किया गया होगा कि वह व्यक्ति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है।"
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया: "दण्डात्मक विधि को कठोरता से परिभाषित किया जाना चाहिये। सांविधिक निर्वचन का सिद्धांत विधि की नीति को मूर्त रूप देता है, जो बदले में लोक नीति पर आधारित होती है।"
- न्यायालय ने कहा: "हमने अधिनियम, 1989 की धारा 18 की व्याख्या सांविधिक निर्माण के उपरोक्त सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए की है। हमारा मानना है कि हमारे द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण के अलावा कोई अन्य दृष्टिकोण अपनाना अनुचित, दमनकारी होगा और हमारे संविधान के पवित्र सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा।"
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अग्रिम जमानत क्या थी?
- मुख्य निषेध
- धारा 18, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अंतर्गत सभी अपराधों के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अधीन अग्रिम ज़मानत पर पूर्ण प्रतिबंध लगाती है। इस उपबंध में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध करने के आरोप में किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी से संबंधित किसी भी मामले में संहिता की धारा 438 की कोई भी बात लागू नहीं होगी।"
- प्रमुख विधिक कथन:
- पूर्ण विधायी प्रतिबंध: धारा 18 अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के मामलों में गिरफ्तारी-पूर्व जमानत देने के न्यायिक विवेकाधिकार को समाप्त कर देती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि अभियुक्त व्यक्ति गिरफ्तारी से बच नहीं सकेंगे।
- सांविधानिक वैधता: उच्चतम न्यायालय ने निरंतर इस उपबंध को सांविधानिक रूप से वैध और कमजोर समुदायों की सुरक्षा के लिये आवश्यक माना है।
- संवर्धित संरक्षण (धारा 18क): 2018 के संशोधन ने स्पष्ट रूप से यह कहकर प्रतिबंध को मजबूत किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 "किसी भी न्यायालय के किसी भी निर्णय या आदेश या निदेश के होते हुए भी, इस अधिनियम के अधीन किसी मामले पर लागू नहीं होगी।"
- न्यायिक निर्वचन - शाजन स्कारिया सिद्धांत: उच्चतम न्यायालय ने एक सूक्ष्म दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया कि धारा 18 का प्रतिबंध केवल तभी लागू होता है जब:
- प्रथम दृष्टया ऐसी सामग्री विद्यमान है जो अपराध किये जाने की ओर संकेत करती है।
- अपराध गठित करने के लिये आवश्यक सामग्री तैयार की गई है।
- धारा 41 के साथ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 60क के अधीन वैध गिरफ्तारी की जा सकती है।
- तुच्छ मामलों के लिये अपवाद: यदि प्रथम दृष्टया यह पता चलता है कि अपराध के तत्त्व नहीं बनते हैं, तो धारा 18 का प्रतिबंध लागू नहीं होता है, जिससे न्यायालयों को गुण-दोष के आधार पर अग्रिम जमानत पर विचार करने की अनुमति मिल जाती है।
- विधायी उद्देश्य: धारा 18 अधिनियम के निवारक प्रभाव को बनाए रखने और अभियुक्त व्यक्तियों को गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के माध्यम से परिणामों से बचने से रोकने के विधायी आशय को दर्शाती है, जबकि हालिया न्यायिक निर्वचन प्रथम दृष्टया परीक्षण आवश्यकता के माध्यम से दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन द्वितीय अपील
04-Sep-2025
सी.पी. फ्रांसिस बनाम सी.पी. जोसेफ और अन्य “द्वितीय अपील में विधि का नया सारवान् प्रश्न तैयार करने की विवेकाधीन शक्ति है, किंतु केवल असाधारण मामलों में और सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100(5) के उपबंध के अनुसार मजबूत, अभिलिखित कारणों के साथ।” न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी ने स्पष्ट किया कि उच्च न्यायालयों को द्वितीय अपीलों में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100(5) के अधीन अतिरिक्त विधि का सारवान् प्रश्न विरचित करते समय मजबूत और ठोस कारणों को अभिलिखित करना चाहिये, इस बात पर बल देते हुए कि ऐसी शक्ति का उपयोग केवल असाधारण मामलों में किया जाना है।
- उच्चतम न्यायालय ने पी. फ्रांसिस बनाम सी.पी. जोसेफ एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
सी.पी. फ्रांसिस बनाम सी.पी. जोसेफ और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- यह मामला एक पारिवारिक संपत्ति विवाद से जुड़ा है, जो एक बुजुर्ग दम्पति, सी.आर. पायस और फिलोमिना पायस द्वारा संयुक्त वसीयत के निष्पादन से उत्पन्न हुआ था, जिनके पास केरल के एर्नाकुलम जिले के एलामकुलम गाँव में संपत्ति थी।
- सी.आर. पायस और फिलोमिना पायस दो सर्वेक्षण संख्याओं में लगभग 11 सेंट ज़मीन के पूर्ण स्वामी थे। इस दंपति के आठ संताने थी: सी.पी. जोसेफ, सी.पी. फ्रांसिस (अपीलकर्त्ता), सी.पी. राफेल, सी.पी. जॉर्ज, सी.पी. सेबेस्टियन, तीन पुत्रियाँ (जिनमें दिवंगत मारिया भी सम्मिलित थीं), और डेस्टी थॉमस और क्लारा जैकब सहित अन्य।
- 15 दिसंबर 1999 को, फिलोमिना पायस ने एक रजिस्ट्रीकृत समझौता विलेख तैयार किया, जिसमें 4 सेंट ज़मीन अपने पुत्र सी.पी. सेबेस्टियन के नाम कर दी गई, और 3.235 सेंट ज़मीन अपने पास रख ली। यह समझौता कथित तौर पर सेबेस्टियन की आवासीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये किया गया था।
- 27 जनवरी 2003 को, सी.आर. पायस और फिलोमिना पायस ने एक रजिस्ट्रीकृत संयुक्त वसीयतनामा तैयार किया। वसीयतनामे में कई प्रमुख प्रावधान सम्मिलित थे:
- सभी पुत्रियों को विवाह समझौतों के माध्यम से उनका अंश दे दिया गया था।
- सी.पी. सेबेस्टियन को 1999 के समझौता विलेख के माध्यम से पहले ही 4 सेंट मिल चुके थे।
- शेष संपत्तियाँ सी.पी. फ्रांसिस (अपीलकर्त्ता) को वसीयत कर दी जाएंगी।
- सी.पी. फ्रांसिस को अपने माता-पिता दोनों की मृत्यु के पाँच वर्ष के भीतर अपने भाई-बहनों को विशिष्ट मौद्रिक राशि का संदाय करने के लिये बाध्य किया गया था (प्रति भाई-बहन ₹50,000 से ₹1,00,000 तक)
- यदि ये संदाय नहीं किये गए, तो भाई-बहन संपत्तियों पर भार लगा सकते थे।
- वसीयत को दो साक्षियों ने सत्यापित किया था: पोन्सी (लाभार्थी सी.पी. फ्रांसिस की पत्नी) और एंटनी (प्रत्यर्थियों में से एक के पति)। यह सत्यापन व्यवस्था बाद में विधिक कार्यवाही का केंद्र बन गई।
- सी.आर. पायस की मृत्यु 24 नवम्बर 2004 को हुई, तथा फिलोमिना पायस की मृत्यु 27 नवम्बर 2008 को हुई। उनकी मृत्यु के बाद, सी.पी. फ्रांसिस ने वसीयत के अनुसार संपत्तियों पर कब्जा कर लिया।
- पाँच भाई-बहनों (प्रत्यर्थी 1-5) ने 2009 में वसीयत की वैधता को चुनौती देते हुए संपत्ति को आठ बराबर भागों में बाँटने की मांग करते हुए एक वाद दायर किया। उन्होंने आरोप लगाया कि:
- उनके पिता सेरेब्रल पाल्सी और पार्किंसंस रोग सहित कई बीमारियों से पीड़ित थे, जिससे वे मानसिक रूप से अक्षम हो गए थे।
- वसीयत कपट, दुर्व्यपदेशन और अनुचित प्रभाव के माध्यम से निष्पादित की गई थी।
- उनके माता-पिता बिना वसीयत के मर गए, जिससे सभी संतानों को समान अंश का अधिकार मिला।
- वसीयत को सी.पी. फ्रांसिस और सत्यापनकर्त्ता साक्षियों द्वारा कूटरचित बनाया गया था।
- यह मामला तीन स्तरों की न्यायालयों में चला, जिनमें मुख्य विवाद्यक यह थे कि क्या वसीयत वैध और वास्तविक थी, और क्या संपत्ति सभी उत्तराधिकारियों के बीच विभाजित थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालयों को सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100(5) के अधीन द्वितीय अपीलों में अतिरिक्त विधि का सारवान् प्रश्न विरचित करने की विवेकाधीन शक्ति प्राप्त है, किंतु इस असाधारण शक्ति के लिये मजबूत कारणों की आवश्यकता होती है, जिन्हें विशेष रूप से अभिलिखित किया जाना चाहिये।
- अतिरिक्त प्रश्न तैयार करते समय, न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि प्रश्न अभिवचनों और अधीनस्थ न्यायालय के निष्कर्षों पर आधारित हो, मामले के लिये मौलिक हो, पहले से तैयार किये गए महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर आधारित हो, केवल अभिवचनों के बजाय वास्तविक विधिक विवाद्यक का गठन करता हो, और इसमें अभिलिखित कारण सम्मिलित हों।
- प्रत्यर्थियों को नए विरचित किये गए प्रश्नों पर बहस करने का उचित अवसर मिलना चाहिये। पक्षकारों को सूचित किया जाना चाहिये और तर्क प्रस्तुत करने की अनुमति दी जानी चाहिये। पक्षकारों को सुने बिना निर्णय सुनाते समय प्रश्न तैयार करना अनुचित प्रक्रिया है।
- द्वितीय अपील के चरण में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 67 को लागू करने से नए विधिक तर्क पेश करने के बजाय एक बिल्कुल नया मामला उत्पान हो गया। इसके लिये मूल रूप से प्रस्तुत वसीयतकर्त्ता क्षमता के विवाद्यकों के बजाय साक्षी की पहचान पर आधारित विभिन्न विधिक परीक्षणों को पूरा करना आवश्यक था।
- न्यायालय ने ब्राउन बनाम डन मामले में उचित प्रतिपरीक्षा के सिद्धांतों पर बल दिया, तथा कहा कि साक्ष्यों के संबंध में साक्षियों के समक्ष विपरीत स्थिति प्रस्तुत करने में विफलता, महत्त्वपूर्ण प्रक्रियागत कमी का कारण बनी।
- न्यायालयों को वैध रूप से निष्पादित और साबित वसीयतों को बरकरार रखना चाहिये, और विपरीत उत्तराधिकार व्यवस्थाएँ शुरू करने के बजाय वसीयतकर्त्ता की इच्छाओं का सम्मान करना चाहिये। दोनों अधीनस्थ न्यायालयों ने वसीयत की वैधता के संबंध में एक साथ निष्कर्ष दिये थे।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को तीन महीने के भीतर लाभार्थियों को प्रतिकर देने का निदेश दिया, जिसमें प्रति लाभार्थी राशि ₹50,000-₹1,00,000 से बढ़ाकर ₹5,00,000-₹10,00,000 कर दी गई, तथा संदाय न करने पर 6% वार्षिक ब्याज और संपत्ति भार का प्रावधान किया गया।
- अनुच्छेद 136 की अधिकारिता में असाधारण सावधानी की आवश्यकता होती है, जिसका प्रयोग केवल असाधारण मामलों में ही किया जाता है, जब विशेष परिस्थितियाँ न्याय के लिये हस्तक्षेप की मांग करती हैं।
द्वितीय अपील क्या है?
- द्वितीय अपील, सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 के अधीन उपलब्ध अंतिम अपील उपचार है, जब कोई पक्षकार प्रथम अपील न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट रहता है। यह केवल उच्च न्यायालय में ही दायर की जा सकती है और केवल विधि के सारवान् प्रश्नों तक ही सीमित है।
- प्रथम अपील के विपरीत, जिनमें तथ्यात्मक और विधिक दोनों विवाद्यकों की जांच की जाती है, द्वितीय अपीलें 1976 के संशोधन के बाद से सारवान् महत्त्व के विधिक प्रश्नों तक ही सीमित हैं। अपील में ऐसे प्रश्न सम्मिलित होने चाहिये जो प्रत्यक्षत: पक्षकारों के अधिकारों को प्रभावित करते हों, सामान्य लोक महत्त्व के हों, या अनसुलझे विधिक सिद्धांतों से संबंधित हों।
- द्वितीय अपीलें, विचारण न्यायालयों और प्रथम अपील न्यायालयों के बाद भारत के न्यायिक पदानुक्रम में तीसरा स्तर बनाती हैं। ये एक फ़िल्टरिंग तंत्र के रूप में कार्य करती हैं, जो तुच्छ मुकदमों को रोकती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि उच्च न्यायालय तथ्यात्मक निर्णयों की पुनः परीक्षा करने के बजाय केवल महत्त्वपूर्ण विधिक विवाद्यकों पर ही विचार करें।
- उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों के तथ्यों के समवर्ती निष्कर्षों में तब तक हस्तक्षेप नहीं कर सकता जब तक कि उसमें विधिक विकृतियाँ या विधि का गलत प्रयोग न हो। यह प्रतिबंध न्यायिक दक्षता बनाए रखता है और साथ ही महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्नों पर विधिशास्त्र के विकास की अनुमति देता है।
- अपील के ज्ञापन में संबंधित विधिक प्रश्न का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिये, और उच्च न्यायालय को अपील स्वीकार करते समय इस प्रश्न को विरचित करना होगा। इसके बाद सुनवाई तैयार किये गए प्रश्न तक सीमित रहती है, यद्यपि न्यायालय अभिलिखित कारणों के साथ अतिरिक्त सारवान् प्रश्न भी विरचित कर सकती हैं।
- इस प्रकार द्वितीय अपील, विधिक चुनौती के लिये अंतिम अवसर प्रस्तुत करती है, साथ ही त्रिस्तरीय न्यायिक प्रणाली की अखंडता को बनाए रखती है तथा यह सुनिश्चित करती है कि न्यायिक संसाधन वास्तविक विधिक महत्त्व के मामलों पर ध्यान केंद्रित करें।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 क्या है?
- धारा 100 उच्च न्यायालयों में द्वितीय अपील को केवल विधि के सारवान् प्रश्नों तक ही सीमित रखती है। अधीनस्थ अपील न्यायालयों में अपील केवल तभी अनुमत है जब महत्त्वपूर्ण विधिक विवाद्यक सम्मिलित हों, तथ्यात्मक विवाद नहीं।
- 1977 के संशोधन ने तथ्यात्मक प्रश्नों पर अपीलों को समाप्त कर दिया, जिससे एक फ़िल्टरिंग तंत्र का निर्माण हुआ। अपीलकर्त्ताओं को अपने ज्ञापन में मूल प्रश्न को स्पष्ट रूप से बताना होगा, और उच्च न्यायालयों को अपील स्वीकार करते समय इस प्रश्न को तैयार करना होगा।
- अपीलों की सुनवाई केवल निर्धारित प्रश्न पर ही की जाती है। यह प्रावधान उच्च न्यायालयों को अभिलिखित कारणों के साथ अतिरिक्त सारवान् प्रश्न तैयार करने की अनुमति देता है, किंतु यह शक्ति विवेकाधीन और असाधारण है।
- उच्च न्यायालय साक्ष्यों की पुनः परीक्षा या समवर्ती तथ्यात्मक निष्कर्षों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते, जब तक कि उनमें कोई विधिक विकृतियाँ न हों। इससे न्यायिक दक्षता बनी रहती है और साथ ही वास्तविक महत्त्व के मामलों में विधिक समीक्षा भी सुरक्षित रहती है।
- यह उपबंध न्याय तक पहुँच और तुच्छ मुकदमेबाजी को रोकने के बीच संतुलन स्थापित करता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि केवल विधिक रूप से महत्त्वपूर्ण मामले ही उच्च न्यायालयों तक पहुँचे, जबकि अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा किये गए तथ्यात्मक निर्धारणों की अंतिमता को बनाए रखा जाए।