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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528

 19-Sep-2025

नितिन अहलूवालिया बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य 

"पत्नी ने तलाक के एक महीने बाद प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई, जबकि वह लगभग तीन वर्ष से पृथक् रह रही थीं, और उन्होंने पाया कि यह पति द्वारा विदेश में अनुकूल अभिरक्षा और तलाक के आदेश प्राप्त करने के लिये एक प्रतिशोधात्मक "प्रतिप्रहार" था।" 

न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय केन्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा नेउच्च न्यायालयों को केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) की विषयवस्तु के आधार पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन निरस्तीकरण याचिकाओं को यंत्रवत् खारिज करने के प्रति आगाह किया। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने के पीछे की पृष्ठभूमि, संदर्भ और प्रतिशोधात्मक उद्देश्यों की संभावना पर भी विचार किया जाना चाहिये यह निर्णय पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा बिना उचित न्यायिक विवेक के प्रथम सूचना रिपोर्ट रद्द करने से इंकार करने की आलोचना करते हुए आया। 

  • उच्चतम न्यायालय ने नितिन अहलूवालिया बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

नितिन अहलूवालिया बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई नागरिक नितिन अहलूवालिया ने 29 नवंबर, 2010 को हरियाणा के पंचकुला में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार ऑस्ट्रियाई नागरिक टीना खन्ना अहलूवालिया से विवाह किया। इस दंपति ने 18 दिसंबर, 2010 को ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में अपना वैवाहिक जीवन शुरू किया और 29 सितंबर, 2012 को उनकी एक पुत्री हुई । 
  • 30 जून, 2013 कोटीना बिना किसी पूर्व सूचना के ऑस्ट्रेलिया छोड़कर अपनी पुत्री को ऑस्ट्रिया ले गई। इसके बाद नितिन ने अपनी पुत्री की ऑस्ट्रेलिया वापसी के लिये अंतर्राष्ट्रीय बाल अपहरण के नागरिक पहलुओं पर हेग कन्वेंशन, 1980 के अधीन कार्यवाही शुरू की। 
  • वियना इनर सिटी के जिला न्यायालय ने 8 जनवरी 2014 को आदेश दिया कि बच्चे को ऑस्ट्रेलिया वापस भेज दिया जाए, क्योंकि न्यायालय ने पाया कि माता-पिता की भूमिकाओं पर अलग-अलग विचार तथा बच्चे की शिक्षा के लिये माता की अन्यत्र स्थानांतरित होने की इच्छा विवाद के बिंदु थे। 
  • टीना ने इस निर्णय के विरुद्ध अपील की, लेकिन वियना जिला सिविल न्यायालय और ऑस्ट्रिया के उच्चतम न्यायालय दोनों ने उसकी अपील खारिज कर दी। 
  • ऑस्ट्रियाई न्यायालयों ने निरंतर यह माना कि नितिन को बच्चे की देखभाल का अधिकार है और बच्चे की भलाई के बारे में टीना की चिंताएँ गंभीर जोखिम के मानकों को पूरा नहीं करतीं। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आदेश आस्ट्रेलिया लौटने के लिये था, माता से पृथक् होने के लिये नहीं, तथा टीना को बच्चे के साथ लौटने से कोई नहीं रोक सकता। 
  • इसके बाद टीना ने प्रवर्तन कार्यवाही पर रोक लगाने की मांग की, यह दावा करते हुए कि समझौता वार्ता चल रही है, लेकिन वियना के न्यायालय ने 5 मई 2014 को इस आवेदन को नामंजूर कर दिया। न्यायालय ने कहा कि टीना ने अपनी संभावित वापसी के लिये जो शर्तें रखी थीं, उन्हें देखते हुए वह लौटने को लेकर गंभीर नहीं थीं। 
  • 1 अप्रैल, 2016 को आस्ट्रेलिया के संघीय सर्किट न्यायालय ने नितिन को विवाह के अपरिवर्तनीय विघटन के आधार पर तलाक दे दिया, जो 4 अप्रैल, 2016 से प्रभावी था। यह आदेश भारत में टीना को उचित सेवा प्रदान करने के बाद दिया गया था। 
  • तलाक के आदेश के ठीक एक महीने बाद, 4 मई, 2016 को, टीना ने दहेज की मांग और शारीरिक व भावनात्मक प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए, एस..एस. नगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के पास परिवाद दर्ज कराया। इस परिवाद के आधार पर, 7 दिसंबर, 2016 को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 65/2016 दर्ज की गई, जिसमें 29 नवंबर, 2010 से 4 मई, 2016 तक की अवधि सम्मिलित थी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में लगाए गए आरोपों की सामान्यतः अन्वेषण की आवश्यकता होती है, किंतु उच्च न्यायालय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन याचिकाओं को रद्द करने का निर्णय करते समय यांत्रिक दृष्टिकोण नहीं अपना सकते। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि न्यायिक बुद्धि को विधि के अनुसार तथ्यों पर विचार करना चाहिये, तथा उन पृष्ठभूमि परिस्थितियों का आकलन करना चाहिये जिनमें प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की जाती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि अपने पति से लगभग तीन वर्ष तक पृथक् रहने के बावजूद, टीना ने नितिन के पक्ष में तलाक का आदेश मिलने के बाद ही पुलिस में परिवाद दर्ज करायापरिवाद के समय ने परिवाद की प्रामाणिकता पर प्रश्न खड़े कर दिये, खासकर जब इसे ऑस्ट्रियाई न्यायालय के दो आदेशों के साथ देखा जाए, जिनमें उसे बच्चे को ऑस्ट्रेलिया वापस भेजने का निदेश दिया गया था।
  • न्यायालय ने टीना के आचरण को संदिग्ध पाया और कहा कि ऑस्ट्रिया में स्पष्ट न्यायालय के आदेशों के होते हुए भी, बच्चे को ऑस्ट्रेलिया वापस नहीं भेजा गया। न्यायालय ने यह भी कहा कि जब तलाक के कागजात देने की आवश्यकता थी, तब वे भारत में दिये गए, जिससे टीना के पहले के दावों पर संदेह उत्पन्न होता है कि बच्चा ऑस्ट्रिया में सामाजिक रूप से एकीकृत है। 
  • न्यायालय ने विशेष रूप से टीना के परिवाद में विसंगतियों पर ध्यान दिया, जहाँ उसने नितिन द्वारा बच्चे के संभावित अपहरण की आशंका व्यक्त की थी, जबकि ऑस्ट्रियाई न्यायालयों में यह साबित हो चुका था कि उसने एकतरफा तौर पर बच्चे को संयुक्त अभिरक्षा से हटा लिया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि कथित क्रूरता की अवधि विवाह की अवधि से आगे तक चली गई, जिससे यह प्रश्न उठता है कि ऐसे दावों को कैसे सही ठहराया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) विदेशी न्यायालयों में नितिन द्वारा प्राप्त अनुकूल आदेशों के विरुद्ध एक प्रतिशोधात्मक उपाय और जवाबी हमला प्रतीत होता है। हाल के पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए, न्यायालय ने माना कि आरोपों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अधीन अपराधों के लिये आवश्यक तत्त्व प्रकट नहीं होते हैं, जिसमें गंभीर चोट पहुँचाने या पीड़ित को आत्महत्या के लिये प्रेरित करने जैसे विशिष्ट आशयों के साथ क्रूरता की आवश्यकता होती है। 
  • न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को जारी रखने की अनुमति देना विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, जो हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल मामले में स्थापित सिद्धांतों के पैरामीटर 7 के अंतर्गत आता है। परिणामस्वरूप, न्यायालय ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्णय और संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), दोनों को रद्द कर दिया। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 528 क्या है? 

  • सांविधिक उपबंध:भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 में कहा गया है कि इस संहिता की कोई बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी, जैसे इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करने के लिये या अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने लिये आवश्यक हो 
  • शक्तियों की प्रकृति:यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई नई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है, अपितु केवल इस तथ्य को मान्यता देती है और संरक्षित करती है कि उच्च न्यायालयों के पास सांविधानिक योजना के अधीन पहले से ही अंतर्निहित शक्तियां हैं। 
  • त्रि-आयामी उद्देश्य:धारा 528 तीन विशिष्ट उद्देश्यों का उल्लेख करती है जिनके लिये उच्च न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं। पहला उद्देश्य संहिता के अधीन किसी भी आदेश को प्रभावी बनाने के लिये आवश्यक आदेश देना है। दूसरा उद्देश्य किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना है। तीसरा उद्देश्य न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करना है। 
  • निहित शक्तियों के प्रयोग की परिसीमाएँ:उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग किसी संज्ञेय मामले में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के परिणामस्वरूप पुलिस अन्वेषण की कार्यवाही को रद्द करने या पुलिस के अन्वेषण के सांविधिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने के लिये नहीं किया जा सकता। न्यायालय केवल इसलिये अन्वेषण रद्द नहीं कर सकते क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में किसी अपराध का प्रकटन नहीं हुआ है, जबकि अन्वेषण अन्य सामग्रियों के आधार पर किया जा सकता है। इस शक्ति का उपयोग प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद  में लगाए गए आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता की जांच करने के लिये नहीं किया जा सकता। 
  • प्रक्रियात्मक प्रतिबंध:अंतर्निहित अधिकारिता का प्रयोग केवल अंतिम आदेशों के विरुद्ध ही किया जा सकता है, अंतरवर्ती आदेशों के विरुद्ध नहीं। अन्वेषण के दौरान अभियुक्त की गिरफ्तारी पर रोक लगाने का आदेश देने के लिये इस शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता। 
  • ज़मानत संबंधी परिसीमाएँ:धारा 528 के अधीन निहित शक्ति का उपयोग उच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत याचिका के गुण-दोष के आधार पर निपटारे के बाद किसी आदेश को पुनः खोलने या परिवर्तित के लिये नहीं किया जा सकता। केवल धारा 528 के आधार पर ज़मानत नहीं दी जा सकती। 
  • कार्यवाही रद्द करना:आरपी कपूर बनाम पंजाब राज्य (1960) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार, अंतर्निहित अधिकारिता का प्रयोग उन कार्यवाहियों को रद्द करने के लिये किया जा सकता है जहाँ कार्यवाही शुरू करने या जारी रखने पर विधिक रोक हो। इसका प्रयोग तब भी किया जा सकता है जब प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) या परिवाद में लगाए गए आरोप कथित अपराध का गठन नहीं करते। इसके अतिरिक्त, यह तब भी लागू होता है जब आरोप के समर्थन में कोई विधिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया हो या प्रस्तुत साक्ष्य स्पष्ट रूप से आरोप को साबित करने में विफल रहे हों। 
  • न्यायिक पूर्व निर्णय:मेसर्स पेप्सी फ़ूड लिमिटेड बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (1998) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित रखने के लिये अंतर्निहित शक्तियों के अंतर्गत आरोपपत्र दाखिल करने के बाद नया अन्वेषण या पुनः अन्वेषण का आदेश दिया जा सकता है। साकिरी वासु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2008) में, न्यायालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के अपंजीकृत रहने पर याचिकाओं पर विचार न करने की चेतावनी दी थी और वैकल्पिक उपायों की वकालत की थी। भीष्म लाल वर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) में, न्यायालय ने निर्णय दिया कि अंतर्निहित शक्तियों के अंतर्गत दूसरी याचिका, पहली याचिका के दौरान चुनौती के लिये उपलब्ध आधारों पर विचारणीय नहीं होगी। 

आपराधिक कानून

आत्म-अभिसंशय का अधिकार

 19-Sep-2025

मोहम्मद कामरान बनाम दिल्ली राज्य 

अन्वेषण अधिकारी आवेदक की औपचारिक गिरफ्तारी करेगा और उसे भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 (2) के अधीन निहित शर्तों और प्रावधानों के अनुसार उसकी संतुष्टि के लिये समतुल्य राशि के एक जमानत के साथ व्यक्तिगत बंधपत्र प्रस्तुत करने के अधीन तुरंत छोड़ देगा, यदि ऐसा पहले से नहीं किया गया है” 

न्यायमूर्ति अरुण मोंगा 

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति अरुण मोंगा नेकहा कि अन्वेषण के दौरान किसी अभियुक्त द्वारा संस्वीकृति से इंकार करना या आपत्तिजनक उत्तर देना "असहयोग" नहीं माना जा सकता। उद्दापन के एक मामले में अग्रिम ज़मानत देते हुए, न्यायालय ने कहा कि टालमटोल वाले उत्तर विचारण का विषय हैं और कहा कि परिवादकर्त्ता का जमानत का विरोध विधिक आधार के बजाय अहंकार से प्रेरित प्रतीत होता है। 

  • दिल्लीउच्च न्यायालय नेमोहम्मद कामरान बनाम दिल्ली राज्य एन.सी.टी. (2025)के मामले में यह निर्णय दिया 

मोहम्मद कामरान बनाम दिल्ली राज्य एन.सी.टी. (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • परिवादकर्त्ता मोहम्मद आमिर, जो इरशाद हुसैन के साथ पाँच वर्षों से जुड़े एक भवन निर्माण ठेकेदार हैं, ने घटना से लगभग दस महीने पहले एक मकान के विध्वंस और पुनर्निर्माण के लिये अमानुद्दीन के साथ एक लिखित करार किया था। 
  • निर्माण प्रक्रिया के दौरान, अभियुक्त मोहम्मद कामरान ने सह-अभियुक्त हारून और बारिश के साथ मिलकर कथित तौर पर निर्माण कार्य रोकने के लिये दिल्ली नगर निगम में परिवाद और उच्च न्यायालय में रिट याचिका (सी.) संख्या 5607/2022 दायर करके परिवादकर्त्ता से 20 लाख रुपए का उद्दापन करने का प्रयत्न किया। 
  • परिवादकर्त्ता ने कथित तौर पर मौके पर ही 10,000 रुपए और दबाव में 06.02.2024 को 20,000 रुपए का संदाय किया, इन संव्यवहार की ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग की गई और बाद में सबूत के तौर पर पुलिस को प्रस्तुत किया गया। 
  • 03.02.2024 की एक घटना से संबंधित 11.02.2024 के परिवाद के आधार पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 384, 385, 120ख और 34 के अधीन 10.06.2024 को पुलिस थाने चांदनी महल में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 150/2024 दर्ज की गई थी। 
  • तीस हजारी स्थित अतिरिक्त सेशन न्यायाधीश ने दिनांक 04.07.2024 के आदेश द्वारा आवेदक की पिछली अग्रिम जमानत याचिका को खारिज कर दिया, जिसके बाद आवेदक को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41क और 41 के अधीन नोटिस जारी किया गया। 
  • आवेदक, जो एक रजिस्ट्रीकृत लोक कल्याण न्यास का अध्यक्ष और स्वच्छ पृष्ठभूमि वाला स्थायी निवासी है, ने स्वास्थ्य कारणों से छूट मांगी और वर्तमान अग्रिम जमानत आवेदन दायर किया, जबकि कथित तौर पर उक्त संपत्ति को अनधिकृत निर्माण के विरुद्ध उसकी जनहित याचिका में सम्मिलित किया गया था। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने पाया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में परिवादकर्त्ता को धमकी या भय दिये जाने के किसी भी आरोप पर पूरी तरह से चुप्पी साधी गई है, जो कि उद्दापन के अपराध का एक अनिवार्य तत्त्व है, तथा इसमें इस बारे में विशिष्ट विवरण देने में भी विफलता रही कि आवेदक को कथित संदाय कैसे, कब या किस तरीके से किया गया। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि केवल इसलिये कि आवेदक ने अन्वेषण अधिकारी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया है या कोई संस्वीकृति नहीं की है या अपने विरुद्ध कोई दोषपूर्ण बात नहीं कही है, इसे असहयोग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आवेदक को अपना बचाव करने का मौलिक अधिकार है। 
  • न्यायालय ने कहा कि परिवादकर्त्ता वैध विधिक आधार पर नहीं अपितु केवल अपने अहंकार की संतुष्टि के लिये जमानत आवेदन का विरोध कर रहा था, तथा आवेदक के विरुद्ध लगाए गए आरोपों का निर्धारण विचारण कार्यवाही के दौरान किया जाना था, जहाँ दोष सिद्ध होने पर विधि अपना काम करेगी 
  • न्यायालय ने पाया कि चूँकि आवेदक ने अन्वेषण में पूर्ण सहयोग दिया था, फोरेंसिक जांच के लिये आवाज के नमूने उपलब्ध कराए थे, तथा उससे और कुछ भी बरामद करने की आवश्यकता नहीं थी, इसलिये यह निवारक अभिरक्षा का मामला नहीं था। 
  • न्यायालय ने कहा कि उद्दापन के अप्रत्यक्ष उद्देश्य से जनहित याचिकाएँ दायर करने के आरोपों के संबंध में, परिवादकर्त्ता को जनहित याचिका की कार्यवाही में उचित कार्रवाई करने की स्वतंत्रता है, तथा न्यायालय को जमानत आवेदन पर इस पर टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है। 
  • न्यायालय ने आवेदक की औपचारिक गिरफ्तारी के निदेश दिये तथा उसके बाद भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482(2) के अनुसार समतुल्य राशि की जमानत के साथ व्यक्तिगत बंधपत्र प्रस्तुत करने पर तत्काल रिहाई का निदेश दिया, जिससे दिनांक 12.07.2024 के आदेश द्वारा प्रदत्त अंतरिम संरक्षण पूर्ण हो गया। 

आत्म- अभिसंशय का अधिकार क्या है? 

  • सांविधानिक आधार और दायरा 
    • आत्म- अभिसंशय के विरुद्ध अधिकार, भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत एक मौलिक संरक्षण प्रदान करता है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिये आबद्ध नहीं किया जाएगा। यह सांविधानिक प्रत्याभूति अमेरिकी संविधान के पाँचवें संशोधन से प्रेरित है और " Nemo teneteur prodre accussare seipsum," नामक विधिक सिद्धांत पर आधारित है, जो यह स्थापित करता है कि व्यक्तियों को आत्म- अभिसंशय संबंधी कथन देने के लिये आबद्ध नहीं किया जा सकता। 
    • यह सुरक्षा अभियुक्तों से आगे बढ़कर आपराधिक कार्यवाही में साक्षियों को भी सम्मिलित करती है, जो दुर्व्यवहार, प्रपीड़न और अन्यायपूर्ण अभियोजन के विरुद्ध एक बाधा के रूप में कार्य करती है। यद्यपि व्यक्तियों को आत्म- अभिसंशय जानकारी देने के लिये आबद्ध नहीं किया जा सकता, यह मौलिक अधिकार अन्य वैध साक्ष्यों के आधार पर उनकी गिरफ्तारी या अभियोजन को नहीं रोकता, जिससे व्यक्तिगत संरक्षण और आपराधिक न्याय प्रशासन के बीच संतुलन बना रहता है। 
  • न्यायिक निर्वचन और विकास 
    • उच्चतम न्यायालय के विधिशास्त्र ने ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से आत्म- अभिसंशय अधिकारों की समझ को महत्त्वपूर्ण रूप से आकार दिया है। नंदिनी सत्पथी बनाम पीएल दानी (1978) मामले में, न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किसी को भी किसी भी परिस्थिति में स्वयं को दोषी ठहराने के लिये विवश नहीं किया जा सकता। सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) के निर्णय में कहा गया कि बिना सम्मति के किये गए नार्कोएनालिसिस परीक्षण, ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ़ परीक्षण अनुच्छेद 20(3) के संरक्षण का उल्लंघन करते हैं। 
    • हाल के घटनाक्रमों में रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019) सम्मिलित है, जहाँ न्यायालय ने सांविधानिक संरक्षण का उल्लंघन किये बिना हस्तलेखन के नमूनों के साथ-साथ अनिवार्य रूप से आवाज़ के नमूने एकत्र करने की अनुमति दी। गौरतलब है कि चंदा दीपक कोचर बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2023) में, न्यायालय ने कहा था कि सहयोग न करना या पूर्ण जानकारी न देना गिरफ्तारी का पर्याप्त आधार नहीं है। 
  • गिरफ्तारी प्रक्रिया और सांविधिक ढाँचा 
    • डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) के दिशानिर्देशों ने गिरफ्तारी और निरोध के लिये व्यापक प्रोटोकॉल स्थापित किये, जिनमें उचित पहचान, गिरफ्तारी ज्ञापन और अधिसूचना अधिकार अनिवार्य किये गए। अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) ने इस बात पर बल दिया कि गिरफ्तारी के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 और 41क की आवश्यकताओं को पूरा करना आवश्यक है, जबकि सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम सी.बी.आई. (2022) ने इस बात पर बल दिया कि गिरफ्तारी के अधिकार का अर्थ गिरफ्तारी के लिये बाध्यता नहीं है। 
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अंतर्गत, धारा 35 अनिवार्य सूचना प्रावधानों के साथ संरचित गिरफ्तारी शक्तियां प्रदान करती है। धारा 35(3) के नोटिसों का अनुपालन सहयोग माना जाता है, और बिना किसी औचित्य के अनुपालन न करने पर अभियुक्त को जमानत का अधिकार प्राप्त होता है। संवेदनशील व्यक्तियों के लिये विशेष सुरक्षा उपलब्ध है, जहाँ अभियुक्त के कमज़ोर या वृद्ध होने पर मामूली अपराधों से संबंधित गिरफ्तारी के लिये वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति आवश्यक होती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि अन्वेषण संबंधी आवश्यकताओं को संतुलित करते हुए आत्म-अभिसंशय के अधिकार सुरक्षित रहें।