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आपराधिक कानून

भारतीय न्याय संहिता की धारा

 12-Sep-2025

जुपल्ली लक्ष्मीकांत रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य। 

"कूटरचित दस्तावेज प्रस्तुत करना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अधीन छल नहीं माना जाता है, यदि इससे न तो प्राधिकारी को तात्विक लाभ देने के लिये प्रेरित किया गया हो और न ही सदोष लाभ कारित किया गया हो, जिससे अग्नि सुरक्षा एनओसी को लेकर कॉलेज प्रमुख के विरुद्ध मामला खारिज हो गया।" 

जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जॉयमाल्या बागची

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की न्यायपीठने एक शैक्षणिक संस्थान के प्रमुख के विरुद्ध छल का मामला खारिज कर दिया, जिस पर संबद्धता के लिये अग्निशमन विभाग की फर्जी एनओसी का इस्तेमाल करने का आरोप था। न्यायालय ने कहा कि चूँकि 15 मीटर से कम ऊँची इमारतों के लिये ऐसी एनओसी की आवश्यकता नहीं होती, इसलिये कोई बेईमानीपूर्ण या सदोष लाभ नहीं कारित किया गया, इसलिये छल का अपराध नहीं बनता। 

  • उच्चतम न्यायालय ने जुपल्ली लक्ष्मीकांत रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) के मामले में यह अवधारित किया 

जुपल्ली लक्ष्मीकांत रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • जुपल्ली लक्ष्मीकांत रेड्डी जेवीआरआर एजुकेशन सोसाइटी के प्रमुख थे, जो 2016 से 14.20 मीटर ऊंची एक गैर-बहुमंजिला इमारत में कॉलेज संचालित कर रही थी। 
  • 13 जुलाई 2018 को, कुरनूल के जिला अग्निशमन अधिकारी वी. श्रीनिवास रेड्डी ने एक लिखित परिवाद किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि कॉलेज ने सहायक जिला अग्निशमन अधिकारी, कुरनूल द्वारा कथित रूप से जारी एक कूटरचित अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) प्रस्तुत करके स्कूल शिक्षा विभाग से मान्यता प्राप्त की थी। 
  • इस परिवाद के आधार पर, 15 जुलाई 2018 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420, 465, 468 और 471 के अधीन कथित छल और कूटरचना के लिये एक प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज की गई थी। 
  • अन्वेषण के दौरान पुलिस को पता चला कि जिला अग्निशमन अधिकारी ने संबंधित एनओसी जारी नहीं की थी, तथा मान्यता प्राप्त करने के लिये राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) को कथित अग्निशमन एनओसी की केवल एक फोटोकॉपी प्रस्तुत की गई थी। 
  • अन्वेषण के प्रयासों के बावजूद, पुलिस को कथित रूप से गढ़ा गया मूल दस्तावेज बरामद नहीं हो सका। 
  • भारतीय राष्ट्रीय भवन संहिता, 2016 के अधीन 15 मीटर से कम ऊंचाई वाले शैक्षणिक भवनों के लिये अग्नि सुरक्षा एनओसी की आवश्यकता नहीं होती है, और अपीलकर्ता की इमारत केवल 14.20 मीटर ऊंची थी। 
  • आपराधिक मामले से पहले, अपीलकर्ता की सोसायटी ने राज्य आपदा प्रतिक्रिया और अग्निशमन सेवा विभाग से अग्नि अनापत्ति प्रमाण पत्र की आवश्यकता के बिना संबद्धता के नवीनीकरण की मांग करते हुए उच्च न्यायालय के समक्ष रिट कार्यवाही (डब्ल्यूपी संख्या 14542/2018) दायर की थी। 
  • उच्च न्यायालय ने 25 अप्रैल 2018 को रिट याचिका को अनुमति दे दी और शिक्षा विभाग को निर्देश दिया कि वह निर्धारित ऊंचाई से कम ऊंचाई वाले भवनों के लिये अग्नि अनापत्ति प्रमाण पत्र पर जोर दिए बिना संबद्धता का नवीनीकरण करे। 
  • जब शिक्षा विभाग न्यायालय के निर्देश का पालन करने में विफल रहा, तो शिक्षा और अग्निशमन विभाग दोनों के विरुद्ध अवमानना ​​की कार्यवाही शुरू की गई। 
  • अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि सफल रिट याचिका के बाद उसे डराने और परेशान करने के लिये जवाबी कार्यवाही के रूप में आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अधीन छल के आवश्यक तत्वों की जांच की, जिसमें मिथ्या व्यपदेशन और कपटपूर्ण या बेईमानी से प्रलोभन के माध्यम से प्रवंचना देने की आवश्यकता होती है, जिससे पीड़ित अलग तरह से कार्य करता है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि केवल धोखा देना ही छल नहीं माना जाएगा, जब तक कि बेईमानी से प्रलोभन साबित न हो जाए, जिसके लिये सदोष लाभ या सदोष हानि कारित करने का जानबूझकर आशय आवश्यक हो। 
  • न्यायालय ने पाया कि बेईमानी से कोई प्रलोभन नहीं दिया गया था, क्योंकि अपीलकर्ता विधिक रूप से बिना एनओसी के मान्यता पाने का हकदार था, जिसके परिणामस्वरूप किसी भी पक्षकार को कोई सदोष लाभ या हानि नहीं हुई। 
  • मान्यता प्रदान करने के लिये कथित छल महत्वहीन था, क्योंकि 15 मीटर से कम ऊंचाई वाले शैक्षणिक भवनों के लिये अग्निशमन विभाग की एनओसी आवश्यक नहीं थी, जैसा कि निर्विवाद साक्ष्य और रिट न्यायालय के आदेश से पुष्टि होती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि दण्डात्मक परिणामों के लिये यह सबूत आवश्यक है कि मिथ्या व्यपदेशन एक महत्वपूर्ण तथ्य था जिसने पीड़ित को अलग तरह से कार्य करने के लिये प्रेरित किया - वर्तमान मामले में यह महत्वपूर्ण कड़ी गायब थी। 
  • कूटरचना के आरोपों के संबंध में, न्यायालय को कोई सबूत नहीं मिला कि अपीलकर्ता ने कथित नकली दस्तावेज तैयार किया था, जो कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 465 के लिये आवश्यक है, और मूल दस्तावेज कभी बरामद नहीं हुआ। 
  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 468 और 471 के अंतर्गत अपराध नहीं लगाए गए, क्योंकि अपेक्षित आपराधिक आशय प्रदर्शित नहीं किया गया था, क्योंकि मान्यता कथित कूटरचित एनओसी पर निर्भर नहीं थी। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय इन विधिक विवाद्यकों पर विचार करने में विफल रहा तथा आरोपों में छल या कूटरचना के अपराधों के आवश्यक तत्वों का प्रकटीकरण नहीं किया गया, जिसके कारण आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया गया। 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 318 क्या है? 

  • पहले यह धारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 420 के अंतर्गत आती थी। 
  • धारा 318 छल को एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करती है, जो तब किया जाता है जब कोई व्यक्ति धोखे से, कपटपूर्ण या बेईमानी से किसी अन्य व्यक्ति को उसके हितों के लिये हानिकारक तरीके से कार्य करने के लिये प्रेरित करता है। 
  • यह प्रावधान छल के दो अलग-अलग तरीके स्थापित करता है: पहला, जहां प्रवंचित व्यक्ति को संपत्ति सौंपने या किसी अन्य द्वारा उसे रखने की सहमति देने के लिये प्रेरित किया जाता है; और दूसरा, जहां प्रवंचित व्यक्ति को जानबूझकर कोई ऐसा कार्य करने या छोड़ने के लिये प्रेरित किया जाता है जो वह छल के बिना नहीं करता। 
  • इस धारा के अंतर्गत छल के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं: 
    • (क) किसी व्यक्ति को प्रवंचित करना, 
    • (ख) संपत्ति परिदान के मामले में कपटपूर्ण या बेईमानी से प्रेरित करना, या कार्यों या लोपों के मामले में जानबूझकर प्रेरित करना, 
    • (ग) प्रवंचित व्यक्ति ऐसे तरीके से कार्य करता है, जैसा वह प्रवंचना के बिना नहीं करता, और 
    • (घ) ऐसा कार्य या लोप जिससे प्रवंचित व्यक्ति के शरीर, मन, ख्याति या संपत्ति को क्षति या नुकसान हो या होने की संभावना हो। 
  • यह धारा यह मानती है कि प्रवंचना न केवल सक्रिय गलतबयानी के माध्यम से हो सकता है, बल्कि तात्विक तथ्यों को बेईमानी से छिपाने के माध्यम से भी हो सकती है, जैसा कि स्पष्टीकरण खंड में स्पष्ट किया गया है। 
  • संपत्ति से संबंधित प्रथम श्रेणी के लिये, प्रलोभन या तो कपटपूर्ण या बेईमानी से होना चाहिये, जिसमें एक व्यक्ति को सदोष लाभ कारित करने या किसी अन्य को सदोष हानि कारित करने का आशय होना चाहिये 
  • दूसरे वर्ग में, जिसमें कार्य या लोप शामिल हैं, प्रवंचना केवल जानबूझकर की जानी चाहिये, यद्यपि परिणामी कार्य या लोप से प्रवंचित व्यक्ति को नुकसान कारित किया जाना चाहिये या कारित किये जाने की संभावना होनी चाहिये 
  • यह प्रावधान प्रवंचना और हानिकारक परिणाम के बीच कारणात्मक संबंध पर जोर देता है, तथा यह अपेक्षा करता है कि प्रवंचित व्यक्ति का कार्य या निष्क्रियता सीधे तौर पर भ्रामक आचरण के कारण होनी चाहिये 
  • इस धारा के अंतर्गत परिकल्पित हानि व्यापक है, जिसमें भ्रामक व्यवहार के शिकार को शारीरिक अपहानि, मानसिक कष्ट, ख्याति को क्षति या वित्तीय हानि शामिल है। 

आपराधिक कानून

प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार

 12-Sep-2025

राकेश दत्त शर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य 

"प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को दरकिनार नहीं किया जा सकता और न ही इसे सोने के तराजू पर तौला जा सकता है। ऐसे मामले में, न्यायालय का दृष्टिकोण पांडित्यपूर्ण नहीं होगा।" 

जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और नोंग्मीकापम कोटिश्वर सिंह 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

राकेश दत्त शर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और नोंग्मीकापम कोटिश्वर सिंह की न्यायपीठ नेएक चिकित्सक को, जिसे आपराधिक मानववध के लिये दोषी ठहराया गया था, दोषमुक्त कर दिया, तथा कहा कि उसके कृत्य प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के वैध प्रयोग थे। 

राकेश दत्त शर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य (2025) के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्ता राकेश दत्त शर्मा एक चिकित्सक था, जिसका मृतक के साथ आर्थिक विवाद था। 
  • मृतक पिस्तौल से सज्जित होकर अपीलकर्ता के क्लिनिक में गया और उसे गोली मार दी, जिससे उसके सिर में चोट आई। 
  • जवाबी कार्यवाही में, अपीलकर्ता ने मृतक से पिस्तौल छीन ली औरउसे गोली मार दी, जिसके परिणामस्वरूप मृतक की मृत्यु हो गई। 
  • दोनों पक्षकारों ने एक-दूसरे के विरुद्ध प्रथम इत्तिला रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज कराई थी, लेकिन मृतक की मृत्यु के बाद उसके विरुद्ध मामला बंद कर दिया गया। 
  • अपीलकर्ता पर मूलतः भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 302 के अधीन आरोप लगाया गया था। 
  • विचारण न्यायालय ने उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग-I (आपराधिक मानववध) के अधीन दोषी ठहराया और आजीवन कारावास का दण्डादेश दिया 
  • उच्च न्यायालय ने अपील पर दोषसिद्धि और दण्ड की संपुष्टि की। 
  • अपीलकर्ता ने दोषसिद्धि को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय की शरण ली तथा दावा किया कि उसके कृत्य प्राइवेट प्रतिरक्षा के अपने अधिकार के प्रयोग थे। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मृतक स्पष्ट रूप से हमलावर था, जिसने अपीलकर्ता के क्लिनिक में पिस्तौल ले जाकर हमला शुरू किया था। 
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि "प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को दरकिनार नहीं किया जा सकता और न ही इसे सोने के तराजू पर तौला जा सकता है।" 
  • न्यायपीठ ने कहा कि आसन्न संकट की स्थिति में, "ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे अभियुक्त व्यक्ति प्राइवेट प्रतिरक्षा के अपने अधिकार का प्रयोग करते समय अपने तर्कसंगत मस्तिष्क का उपयोग कर सके।" 
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि दृष्टिकोण पांडित्यपूर्ण नहीं होना चाहिये तथा इसे एक सामान्य एवं विवेकवान व्यक्ति के नजरिए से देखा जाना चाहिये 
  • उच्चतम न्यायालय ने दर्शन सिंह बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2010) के मामले में स्थापित पूर्व-निर्णय में दिये गए निम्नलिखित सिद्धांतों का हवाला दिया: 
    • आत्म-रक्षा एक मूलभूत मानवीय प्रवृत्ति है जिसे सभ्य देशों में आपराधिक विधि में मान्यता प्राप्त है, जिसमें उचित सीमाओं के भीतर प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार भी शामिल है। 
    • प्राइवेट प्रतिरक्षा तभी लागू होती है जब किसी व्यक्ति को अचानक आसन्न संकट का सामना करना पड़ता है, तब नहीं जब खतरा स्वयं निर्मित हो। 
    • संकट की उचित आशंका ही प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने के लिये पर्याप्त है, वास्तविक अपराध घटित होना आवश्यक नहीं है। 
    • यह अधिकार तभी प्रारंभ होता है जब युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है और जब तक आशंका बनी रहती है तब तक जारी रहता है। 
    • हमले के शिकार व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह गणितीय परिशुद्धता के साथ अपने बचाव में कोई बदलाव करेगा। 
    • प्राइवेट प्रतिरक्षा में प्रयुक्त बल पूरी तरह से अनुपातहीन या सुरक्षा के लिये आवश्यक से अधिक नहीं होना चाहिये 
    • न्यायालय आत्मरक्षा पर विचार कर सकता है, भले ही अभियुक्त ने विशेष रूप से इसका अनुरोध न किया हो, बशर्ते कि यह साक्ष्य से उत्पन्न हो। 
    • अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को उचित संदेह से परे साबित करने की आवश्यकता नहीं है। 
    • भारतीय दण्ड संहिता केवल विधिविरुद्ध या दोषपूर्ण कार्यों के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार देती है जो अपराध की कोटि में आते हैं। 
    • मृत्यु या गंभीर चोट के आसन्न और युक्तियुक्त खतरे का सामना कर रहा व्यक्ति, आत्मरक्षा में, हमलावर की मृत्यु तक भी कारित सकता है। 
  • इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, न्यायालय ने माना कि शर्मा का कृत्य प्राइवेट प्रतिरक्षा के दायरे में आता है और विचारण न्यायालय तथा उच्च न्यायालय दोनों नेउसे दोषी ठहराने में गलती की है। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्राइवेट प्रतिरक्षा से संबंधित स्थितियों का "उस समय की उत्तेजना और भ्रम की स्थिति में संबंधित अभियुक्त के व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से मूल्यांकन किया जाना चाहिये।" 
  • न्यायपीठ ने अभियोजन पक्ष के इस अभिवचन को खारिज कर दिया कि अपीलकर्ता नेमृतक के महत्वपूर्ण अंगों पर गोली मारकर अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया है। 
  • न्यायालय ने विचारण न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों के निर्णयों को रद्द करते हुए अपीलकर्ता को पूर्णतः दोषमुक्त कर दिया। 

भारतीय न्याय संहिता के अधीन प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार क्या है? 

बारे में: 

प्रमुख विधिक ढांचा: 

  • मौलिक सिद्धांत:भारतीय न्याय संहिता की धारा 34 में कहा गया है कि "कोई बात अपराध नहीं है जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में की जाती है। 
  • प्रमुख धाराएं: 
    • धारा 34 : मौलिक सिद्धांत - वैध प्राइवेट प्रतिरक्षा में किये गए कार्य क्षमा योग्य हैं। 
    • धारा 35 : आपराधिक हमलों के विरुद्ध अपने शरीर/संपत्ति या दूसरों के शरीर/संपत्ति की प्रतिरक्षा करने का अधिकार। 
    • धारा 36 : पागल या उन्मत्त हमलावरों के विरुद्ध प्रतिरक्षा (समान अधिकार लागू होते हैं)। 
    • धारा 37 : प्रतिबंध - वैध लोक सेवक के कार्यों के विरुद्ध या सुरक्षित विकल्प विद्यमान होने पर कोई अधिकार नहीं 

जब घातक बल का प्रयोग अनुमत हो: 

शारीरिक की प्रतिरक्षा के लिये (धारा 38): 

  • जब हमलावर के हमले से मृत्यु या घोर उपहति की आशंका हो, या बलात्संग, प्रकृति विरुद्ध काम तृष्णा, व्यपहरण, अपहरण, सदोष परिरोध या तेजाब फेंकने के आशय से हमला किया गया हो। 

संपत्ति की प्रतिरक्षा के लिये (धारा 41): 

  • लूट, रात्रिकालीन गृहभेदन (सूर्यास्त के बाद सूर्योदय से पहले), या किसी आवास में आग लगाकर नुकसान पहुंचाने के विरुद्ध। 

उल्लेखनीय विशेषताएं: 

  • भारतीय न्याय संहिता ने आत्मरक्षा पर पुराने भारतीय दण्ड संहिता के नियमों को बरकरार रखा और उन्हें परिष्कृत किया, साथ ही अद्यतन भाषा और उदाहरणों का उपयोग किया। 
  • इस ढांचे में व्यक्ति और संपत्ति दोनों की प्रतिरक्षा शामिल है। 
  • निर्दोष दर्शकों से संबंधित परिदृश्यों के लिये विशेष प्रावधान मौजूद हैं (धारा 44)। 
  • विधि निर्दोष लोगों के जीवन को खतरे में डालकर भी उनकी प्रतिरक्षा करने की अनुमति देता है, जो रक्षक के जीवन को बचाने की प्राथमिकता को दर्शाता है।