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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण मामलों में बाल पीड़ित का परिसाक्ष्य

 15-Nov-2025

"उच्चतम न्यायालय ने एक 4 वर्षीय बच्ची पर गुरुतर लैंगिक हमले के दोषी पाए गए व्यक्ति की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, तथा चिकित्सा साक्ष्य और प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के परिसाक्ष्य के अभाव के आधार पर उसे बरी करने की उसकी याचिका को नामंजूर कर दिया, तथा कहा कि बच्ची के माता-पिता के सुसंगत और विश्वसनीय साक्ष्य दोषसिद्धि को बनाए रखने के लिये पर्याप्त थे।" 

न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

उच्चतम न्यायालय ने एक 4 वर्षीय बच्ची पर गुरुतर लैंगिक हमले के दोषी पाए गए व्यक्ति की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, तथा चिकित्सा साक्ष्य और प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के परिसाक्ष्य के अभाव के आधार पर उसे दोषमुक्त करने की उसकी याचिका को नामंजूर कर दिया, तथा कहा कि बच्ची के माता-पिता के सुसंगत और विश्वसनीय साक्ष्य दोषसिद्धि को बनाए रखने के लिये पर्याप्त थे। 

  • दिनेश कुमार जलधारी बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) केमामले में न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और एन.वी. अंजारिया की पीठ नेलैंगिक अपराधों से बालकों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) की धारा 9 (ड) और 10 के अधीन अपीलकर्त्ता की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, जबकि पहले से भोगे गए दण्ड की अवधि को ध्यान में रखते हुए दण्ड को सात वर्ष से घटाकर छह वर्ष के कठोर कारावास में परिवर्तित कर दिया। 

दिनेश कुमार जलधारी बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

घटना का विवरण: 

  • 15 अगस्त 2021 को, पीड़िता की माता (PW-3) ने पाया कि अपीलकर्त्ता केवल हाफ शॉर्ट्स पहने हुए, लगभग 4:30 बजे उसकी 4 वर्षीय पुत्री के पैरों के पास बैठा था। 
  • टकराव होने पर अपीलकर्त्ता घटनास्थल से भाग गया। 
  • बच्ची के कपड़े अनुपयुक्त पाए गए तथा वह दर्द से रो रही थी तथा अपने गुप्तांग में दर्द की शिकायत कर रही थी। 
  • जन्म प्रमाण पत्र में पीड़िता की जन्मतिथि 13 फरवरी 2017 दर्ज की गई 

विधिक कार्यवाही: 

  • जशपुर के दुलदुला पुलिस थाने में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376, 376कख और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 5 और 6 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) नंबर 52/2021 दर्ज की गई। 
  • पीड़िता का मेडिकल परीक्षा कराई गई और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन उसके कथन अभिलिखित किये गए 
  • विचारण न्यायालय ने अपीलकर्त्ता कोलैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 9(ड) और 10 केअधीनसात वर्ष के कठोर कारावासऔर 2,000 रुपए के जुर्माने का दण्ड दिया 
  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने 6 मार्च 2025 को दोषसिद्धि की पुष्टि की । 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

सुसंगत साक्षी का परिसाक्ष्य: 

  • पीड़िता के माता-पिता (PW-2 और PW-3) ने घटना का सुसंगत और विस्तृत विवरण दिया। 
  • माता ने परिसाक्ष्य में कहा कि अपीलकर्त्ता आपत्तिजनक परिस्थितियों में था, बच्ची का अंडरवियर घुटनों तक खींचा हुआ था और फ्रॉक छाती तक खींची हुई थी। 

चिकित्सा साक्ष्य: 

  • प्रियंका टोप्पो (PW-6) ने योनि में लालिमा देखी, यद्यपि कोई बाहरी चोट या रक्तस्राव नहीं पाया गया। 
  • न्यायालय ने कहा किजब नेत्र संबंधी साक्ष्य सुसंगत और ठोस हो तो चिकित्सा संबंधी साक्ष्य गौण हो जाता है। 

साक्ष्य के रूप में बाल पीड़ित का व्यवहार: 

16 नवंबर 2021 को परिसाक्ष्य के दौरान: 

  • जब अभियुक्त को उसका नकाब उतारकर दिखाया गया तो पीड़िता (PW-1) डर गई और उसने उसकी ओर देखने से इंकार कर दिया। 
  • अभियुक्त को बाहर भेजना पड़ा और साक्ष्य अभिलिखित करना बंद कर दिया गया। 
  • कई प्रयत्नों के बाद भी 4 वर्षीय पीड़िता रोती रही और बोल नहीं सकी, जिसके कारण उसकी परीक्षा बंद कर दी गई। 

न्यायालय का निर्णय: 

  • न्यायालय ने कहा: "यह तथ्य कि पीड़िता अभियुक्त को देखकर भयभीत अवस्था में थी, अपने आप में एक संकेत है। घटना के बाद भी पीड़िता को जो सदमा लगा, वह चार वर्ष की बच्ची के आघात भरे व्यवहार में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया।" 
  • उच्चतम न्यायालय ने विचारण न्यायालय द्वारा दर्ज किये गए दण्ड को बरकरार रखा और उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई, तथा पाया कि साक्ष्य की सराहना "पूरी तरह से विधिक और उचित है, जिसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।" 
  • दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए न्यायालय ने दण्ड को 7 वर्ष से घटाकर 6 वर्ष के कठोर कारावास मेंपरिवर्तित कर दिया । 
  • अपीलकर्त्ता निर्णय के समय लगभग 4 वर्ष और 5 मास कारावास काट चुका था 
  • जुर्माने की राशि को संशोधित कर 6,000/- कर दिया गया तथा संदाय न करने पर एक वर्ष के साधारण कारावास का प्रावधान किया गया। 

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 क्या है? 

बारे में: 

  • यह अधिनियम 2012 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधीन पारित किया गया था। 
  • यह एक व्यापक विधि है जिसेबालकों को लैंगिक हमले, लैंगिक उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी जैसे अपराधों से बचाने के लिये बनाया गया है। 
  • यहलिंग-तटस्थ अधिनियमहै और बालक के कल्याण को सर्वोपरि मानता है। 
  • इसमेंऐसे अपराधों और संबंधित मामलों एवं घटनाओं की सुनवाई के लियेविशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान है। 
  • इस अधिनियम में लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण संशोधन विधेयक, 2019 द्वारा प्रवेशन लैंगिक हमला और गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमला के अपराधों के लिये मृत्युदण्ड का उपबंध किया गया था।  
  • इस अधिनियम की धारा 4 में प्रवेशन लैंगिक हमले के लिये दण्ड का उपबंध है। 
  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम कीधारा 2(1)() के अधीन , बालक को 18 वर्ष से कम आयु केकिसी भी व्यक्ति के रूप मेंपरिभाषित किया गया है । 

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 9 और 10: 

धारा 9 – गुरुतर लैंगिक हमला:अधिक कठोर दण्ड की आवश्यकता वाली परिस्थितियों को परिभाषित करता है, जिनमें सम्मिलित हैं: 

  • धारा 9(ड): बारह वर्ष से कम आयु के बालक पर लैंगिक हमला 
  • विश्वास या प्राधिकार की स्थिति में व्यक्तियों द्वारा हमला।  
  • घोर उपहति या गर्भावस्था का कारण बनना 

धारा 10 – गुरुतर लैंगिक हमले के लिये दण्ड: 

  • न्यूनतमपाँच वर्ष का कारावास, जिसेसात वर्षतक बढ़ाया जा सकता है।  

आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन पूर्व-संज्ञान

 15-Nov-2025

"पटना उच्च न्यायालय ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223(1) के अधीन अनिवार्य पूर्व-संज्ञान सुनवाई की आवश्यकता के उल्लंघन के लिये संज्ञान आदेश को अपास्त कर दिया, और इस बात पर बल दिया कि विहित रीति से सांविधिक प्रावधानों का पालन किया जाना चाहिये।" 

न्यायमूर्ति अरुण कुमार झा 

स्रोत: पटना उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अरुण कुमार झा ने पुष्पराज बजाज बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025)के मामले मेंविशेष न्यायाधीश (PMLA), पटना द्वारा पारित दिनांक 08.01.2025 के संज्ञान आदेश को अपास्त कर दिया, क्योंकि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 223(1) के प्रथम परंतुक के अधीन अभियुक्त को संज्ञान-पूर्व सुनवाई का अवसर प्रदान करने में असफलता हुई थी। 

पुष्पराज बजाज बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • प्रवर्तन निदेशालय ने लोक सेवा में रहते हुए संपत्ति अर्जित करने के मामले में संजीव हंस और अन्य के विरुद्ध दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के आधार पर 14.03.2024 को प्रवर्तन मामला सूचना रिपोर्ट (ECIR) दर्ज की। 
  • याचिकाकर्त्ता पुष्पराज बजाज का नाम मूल प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) या प्रवर्तन मामला सूचना रिपोर्ट (ECIR) में नहीं था, किंतु उन्हें 22.10.2024 कोगिरफ्तार किया गया था । 
  • प्रवर्तन निदेशालय ने धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) के अधीन 16.12.2024 को अभियोजन परिवाद और 08.01.2025 और 09.01.2025 को अनुपूरक परिवाद दायर किये, जिसमें याचिकाकर्त्ता को अभियुक्त संख्या 5 के रूप में नामित किया गया। 
  • 08.01.2025 को विशेष न्यायालय ने अभियुक्तों को सुनवाई का कोई अवसर प्रदान किये बिना धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) की धारा 3 और 4 के अधीन अपराधों के लिये संज्ञान लिया। 
  • याचिकाकर्त्ता ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223(1) के अधीन अनिवार्य पूर्व-संज्ञान सुनवाई की आवश्यकता का उल्लंघन करने के लिये संज्ञान आदेश को चुनौती दी। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा किभारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 का प्रथम परंतुकयह आदेश देता है कि "किसी अपराध का संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना नहीं लिया जाएगा," जिसमें प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत सम्मिलित हैं। 
  • चूँकि परिवाद 01.07.2024 (जब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता लागू हुआ) के बाद दर्ज किया गया था और 08.01.2025 को संज्ञान लिया गया था, इसलिएभारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 पूरी तरह से लागू थी। 
  • न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय के इस तर्क को खारिज कर दिया किकुशाल कुमार अग्रवाल बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2025)में उच्चतम न्यायालय का निर्णय केवल भावी दृष्टि से लागू होगा, तथा कहा कि न्यायिक निर्वचन विधि को प्रथम दिन से ही स्पष्ट करती है, निर्वचन की तिथि से नहीं।  
  • न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय के इस तर्क को खारिज कर दिया कि अनुपालन न करना भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 506 (ङ) के अधीन एक अनियमितता थी, और कहा कि पूर्व-संज्ञान सुनवाई से इंकार करना सांविधिक आदेश के विरुद्ध कार्य करने के समान है। 
  • न्यायालय ने माना किजब कोई विधि मूल्यवान अधिकार प्रदान करती है तो किसी पूर्वाग्रह को प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं है, तथा इस सिद्धांत का हवाला दिया: "यदि कोई विधि किसी कार्य को किसी विशेष रीति से करने का प्रावधान करती है, तो उसे उसी रीति से किया जाना चाहिये, अन्यथा नहीं किया जाना चाहिये।" 
  • न्यायालय ने उन तर्कों को खारिज कर दिया कि अन्वेषण के दौरान या भविष्य के चरणों (आरोपों का विरचित करना) में अवसर प्रदान करके दोष को दूर किया जा सकता है, तथा कहा: "यदि प्रारंभिक कार्यवाही दोषपूर्ण थी, तो पश्चात्वर्ती उपचारात्मक उपाय आगामी कार्यवाही पर वैधता का आवरण नहीं डाल सकते।" 
  • न्यायालय ने दिनांक 08.01.2025 केसंज्ञान आदेश को अपास्त कर दियाऔर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223(1) के संदर्भ में याचिकाकर्त्ता की सुनवाई के बाद मामले को नए सिरे से निर्णय के लिये विशेष न्यायाधीश के पास भेज दिया। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 क्या है? 

  • धारा 223 (1)निम्नलिखित उपबंध करती है: 
    • परिवादकर्त्ता और साक्षियों की परीक्षा 
      • किसी परिवाद पर अपराध का संज्ञान लेने वाले मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता और साक्षियों की शपथ के अधीन परीक्षा करनी चाहिये 
      • यह परीक्षा लिखित रूप में अभिलिखित की जाती है तथा मजिस्ट्रेट सहित सभी पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित की जाती है। 
    • अभियुक्त के लिये अवसर 
      • अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना संज्ञान नहीं लिया जा सकता। 
    • परीक्षा आवश्यकता के अपवाद 
      • मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता और साक्षियों से पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है यदि: 
      • परिवाद किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा आधिकारिक हैसियत में या न्यायालय द्वारा की जाती है। 
      • धारा 212 के अंतर्गत मामला दूसरे मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित कर दिया जाता है। 
    • मामला स्थानांतरित होने पर पुन:परीक्षा नहीं 
      • यदि प्रारंभिक परीक्षा के पश्चात् मामला स्थानांतरित कर दिया जाता है, तो नए मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता और साक्षियों की पुनः परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होगी। 
    • धारा 223 (2)आगे निम्नलिखित उपबंध करती है: 
      • किसी लोक सेवक के विरुद्ध पदीय कृत्यों या कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान किये गए परिवाद का संज्ञान लेने के लिये निम्नलिखित की आवश्यकता होती है: 
      • लोक सेवक को स्थिति स्पष्ट करने का अवसर दिया जाएगा। 
      • घटना के संबंध में एक वरिष्ठ अधिकारी की तथ्यात्मक रिपोर्ट।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के बीच क्या अंतर है? 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223  

परिवाद पर किसी अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट, परिवादी की और यदि कोई साक्षी उपस्थित है तो उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा और ऐसी परीक्षा का सारांश लेखबद्ध किया जाएगा और परिवादी और साक्षियों द्वारा तथा मजिस्ट्रेट द्वारा भी हस्ताक्षरित किया जाएगा:  

परंतु जब परिवाद लिख कर किया जाता है तब मजिस्ट्रेट के लिये परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करना आवश्यक न होगा- 

(क) यदि परिवाद अपने पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में कार्य करने वाले या कार्य करने का तात्पर्य रखने वाले लोक सेवक द्वारा या न्यायालय द्वारा किया गया है, अथवा 

(ख) यदि मजिस्ट्रेट जांच या विचारण के लिये मामले को धारा 192 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले कर देता है: 

परंतु यह और कि यदि मजिस्ट्रेट परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करने के पश्चात् मामले को धारा 192 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले करता है तो बाद बाले मजिस्ट्रेट के लिये उनकी फिर से परीक्षा करना आवश्यक न होगा। 

 

(1) किसी परिवाद पर अपराध का संज्ञान लेते समय अधिकारिता रखने वाला मजिस्ट्रेट परिवादी की और यदि कोई साक्षी उपस्थित हैं तो उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा और ऐसी परीक्षा का सारांश लेखबद्ध करेगा और परिवादी और साक्षियों द्वारा तथा मजिस्ट्रेट द्वारा भी हस्ताक्षरित किया जाएगा : 

परंतु किसी अपराध का संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना नहीं किया जाएगा : 

परंतु यह और कि जब परिवाद लिख कर किया जाता है तब मजिस्ट्रेट के लिये परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करना आवश्यक न होगा- 

(क) यदि परिवाद अपने पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में कार्य करने वाले या कार्य करने का तात्पर्य रखने वाले लोक सेवक द्वारा या न्यायालय द्वारा किया गया है; या 

(ख) यदि मजिस्ट्रेट जांच या विचारण के लिये मामले को धारा 212 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले कर देता है: 

परंतु यह भी कि यदि मजिस्ट्रेट परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करने के पश्चात् मामले को धारा 212 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले करता है तो बाद वाले मजिस्ट्रेट के लिये उनकी फिर से परीक्षा करना आवश्यक न होगा। 

(2) कोई मजिस्ट्रेट ऐसे किसी अपराध के लिये लोक सेवक के विरुद्ध परिवाद पर संज्ञान ग्रहण नहीं करेगा जो उसके द्वारा अपने पदीय कृत्यों या कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान किया जाना अभिकथित है, जब तक - 

(क) ऐसे लोक सेवक को उस परिस्थिति के बारे में प्राख्यान करने का अवसर नहीं दिया जाता है, जिसके कारण ऐसी अभिकथित घटना घटित हुई; और 

(ख) ऐसे लोक सेवक के वरिष्ठ अधिकारी से घटना के तथ्यों और परिस्थितियों को अंतर्विष्ट करने वाली रिपोर्ट प्राप्त नहीं हो जाती है।