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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सिविल कानून

निर्णय से पूर्व कपटपूर्ण अंतरण और कुर्की

 01-Dec-2025

एल.के. प्रभु उर्फ़ एल. कृष्णा प्रभु (मृत) एल.आर.एस. बनाम के.टी. मैथ्यू उर्फ़ थम्पन थॉमस और अन्य  

"सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 38 नियम के अधीन निर्णय से पहले कुर्कीवाद संस्थित होने से पहले ही अंतरित संपत्ति तक विस्तारित नहीं हो सकती हैऔर सद्भावी पर-पक्षकारों के पहले से विद्यमान अधिकार सुरक्षित रहते हैं।" 

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ नेएल.के. प्रभु उर्फ़ एल. कृष्णा प्रभु (मृत) एल.आरएस. बनाम के.टी. मैथ्यू उर्फ़ थम्पन थॉमस एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया कि निर्णय से पहले कुर्की उस संपत्ति तक विस्तारित नहीं हो सकती जो वाद संस्थित करने से पहले ही अंतरित हो चुकी हैऔर कपटपूर्ण अंतरण के आरोपों का अवधारण दावा याचिका प्रक्रियाओं के बजाय संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 53 के अधीन कार्यवाही के माध्यम से किया जाना चाहिये 

एल.के. प्रभु उर्फ़ एल. कृष्णा प्रभु (मृत) एल.आरएस. बनाम के.टी. मैथ्यू उर्फ़ थम्पन थॉमस एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी 

  • एल.के. प्रभु (मूल आवेदक) ने 10.05.2002 को वी. रामानंद प्रभु (प्रतिवादी संख्या 3) के साथ विक्रय के लियेएक करार कियाजिन्होंने 17,25,000/- रुपए की देनदारी स्वीकार की। 
  • करार में यह शर्त रखी गई थी कि व्यतिक्रम की स्थिति में प्रतिवादी संख्या एर्नाकुलम गाँव में भवन सहित 5.100 सेंट की संपत्ति 35 लाख रुपए में अंतरित कर देगा। 
  • आंशिक संदाय (दिनांक 25.06.2004 को लाख रुपए नकद और 2.5 लाख रुपए चेक द्वारा) के पश्चात्, मूल आवेदक के पक्ष में 28.06.2004 को एकरजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख निष्पादित किया गया । 
  • मूल आवेदक ने संपत्ति पर कब्जा कर लिया और पर्यटन विभाग द्वारा मान्यता प्राप्त गेस्ट हाउस के रूप में इसका उपयोग किया। 
  • 18.12.2004 को के.टी. मैथ्यू (वादी/प्रतिवादी संख्या 1) ने प्रतिवादी संख्या 2-4 से 43,82,767/- रुपए की वसूली के लिये वाद दायर किया। 
  • वाद के साथसिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 38 नियम के अधीन एक आवेदन दायर किया गया था जिसमें निर्णय से पहले संपत्ति की कुर्की की मांग की गई थीजिसमें दावा किया गया था कि यह प्रतिवादी संख्या की है। 
  • विक्रय विलेख के निष्पादन के लगभग छह महीने बाद 13.02.2005 को संपत्ति कुर्क कर ली गई। 
  • मूल आवेदक को 2007 में कुर्की के बारे में पता चला और उसने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 38 नियम के अधीन संपत्ति मुक्ति की मांग करते हुए दावा याचिका दायर की।  
  • वादी ने इसका विरोध किया और आरोप लगाया कि यह अंतरण कपटपूर्ण है तथा इसका उद्देश्य लेनदार को पराजित करना है। 
  • विचारण न्यायालय ने 24.02.2009 को दावा याचिका को खारिज कर दियायह मानते हुए कि संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 53 के अधीन अंतरण कपटपूर्ण था। 
  • केरल उच्च न्यायालय ने 13.02.2023 कोइस निर्णय को बरकरार रखातथा क्रेता को देय किसी भी राशि के अवधारण का निदेश दिया। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

निर्णय से पहले कुर्की के दायरे पर: 

  • न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 38 नियम के अधीन केवलवाद संस्थित होने की तिथि परप्रतिवादी की संपत्ति ही कुर्क की जा सकती है - वाद संस्थित होने से पूर्व ही अंतरित की गई संपत्ति कुर्क नहीं की जा सकती। 
  • निर्णय से पहले कुर्की केवल एक सुरक्षात्मक उपाय है और इससे वादी के पक्ष में कोई भार या स्वामित्व नहीं बनता है। 
  • आदेश 38 नियम 10 पर-व्यक्तियों के पूर्व-विद्यमान अधिकारों की रक्षा करता हैजो कुर्की से अप्रभावित रहते हैं। 

कपटपूर्ण अंतरण और प्रक्रियात्मक परिसीमाएँ: 

  • कपटपूर्ण अंतरण के आरोपों के लिये संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 53 के अधीन स्वतंत्र कार्यवाही की आवश्यकता होती हैन कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 38 नियम के अधीन दावा याचिका प्रक्रियाओं की। 
  • जबकि 1976 के संशोधन अधिनियम 104 ने आदेश 21 नियम 58 के अधीन न्यायनिर्णयन के दायरे को बढ़ायायह तंत्र संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 53 के अधीन कुर्की प्रक्रिया को मूल जांच में नहीं परिवर्तित कर सकता है। 
  • कपट का आशय साबित करने का भार कपटपूर्ण का आरोप लगाने वाले पक्षकार पर होता है - केवल संदेहप्रतिफल की अपर्याप्तताया पक्षकारों के बीच संबंध सबूत नहीं बन सकते। 

वर्तमान मामले के तथ्यों पर: 

  • रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख 28.06.2004 को निष्पादित किया गया थाजो 18.12.2004 को वाद दायर करने से कई महीने पहले थाइस प्रकार कुर्की के लिये आवश्यक शर्त अनुपस्थित थी। 
  • दस्तावेज़ों सेयह पता नहीं चला कि मूल आवेदक किसी दुरभिसंधि में शामिल था – विक्रय को पूर्ववर्ती करारसंदाय समर्थन और कब्जे के अंतरण के साथ रजिस्ट्रीकृत विलेख द्वारा समर्थित किया गया था। 
  • 2002 के करार के अधीन पूर्व दायित्त्व भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 25 के अधीन वैध प्रतिफल का गठन करता है। 
  • प्रत्यर्थी संख्या यह दिखाने वाले ठोस साक्ष्य पेश करने में असफल रहा कि अंतरण का प्रमुख उद्देश्य लेनदार के अधिकारों को पराजित करना था - जिन परिस्थितियों पर विश्वास किया गयाउनसे संदेह उत्पन्न हुआकिंतु संदेह विधिक सबूत का विकल्प नहीं हो सकता। 

पूर्व अधिकारों के संरक्षण पर: 

  • न्यायालय ने दोहराया कि विक्रय के लिये करारसंपत्ति के स्वामित्व से जुड़ा न्यायसंगत दायित्त्व बनाता है। 
  • कुर्की करने वाला लेनदार केवल निर्णीतऋणी के अधिकारहक और हित को कुर्क करने का हकदार है - कुर्की पूर्ववर्ती करार से संविदात्मक दायित्त्वों पर अधिभावी  नहीं हो सकता है। 
  • विक्रय विलेख का निष्पादनभले ही रजिस्ट्रीकरण बाद में होकुर्की से पूर्व संपत्ति को अंतरित करने के लिये कार्य करता है। 

संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 53 क्या है? 

बारे में: 

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 53 कपटपूर्ण अंतरण से संबंधित है और मुख्य रूप सेलेनदारों को कपट देनेके उद्देश्य से संपत्ति के साशय अंतरण से संबंधित है । 
  • जैसा कि धारा 53 में रेखांकित किया गया हैसंपत्ति अंतरण को शून्यकरणीय माना जाता हैजिससे किसी भी कपट करने वाले लेनदार को अंतरण को शून्य करने का विकल्प मिल जाता हैजब तक कि अन्तरिति ने संपत्ति को सद्भावनापूर्वक और मूल्यवान प्रतिफल के लिये अर्जित नहीं किया हो। 
  • इसके अतिरिक्तयह धारा ऐसे अंतरणों को अकृत करने की प्रक्रिया का भी उल्लेख करती है। 
  • यह धारा अंतरण को अपास्त करने के लिये एक तंत्र भी प्रदान करती है। 

धारा 53 का पाठ: 

  • स्थावर संपत्ति का हर एक ऐसा अंतरणजो अंतरक के लेनदारों को विफल करने या उन्हें देरी कराने के आशय से किया गया हैऐसे किसी भी लेनदारों के विकल्प पर शून्यकरणीय होगा जिसे इस प्रकार विफल या देरी कराई गयी है। इस उपधारा की कोई भी बात किसी स‌द्भावपूर्ण सप्रतिफल अंतरिती के अधिकारों का ह्रास न करेगी 
    • उदाहरण के लिये:-जब 'अपनी संपत्ति को उसके लेनदार की पहुँच से दूर रखने के आशय से उसे संपत्ति का स्वामित्व दिये बिना 'को अंतरित करता हैतो ऐसे अंतरण को कपटपूर्ण अंतरण कहा जाता है। 
  • संपत्ति का कपटपूर्ण अंतरण एक सिविल वाद -हेतुक बनता है। न्यायालय कपट करने वाले लेनदार के अनुरोध पर कपटपूर्ण अंतरण को अपास्त कर सकता है। 

आवश्यक वस्तुएँ: 

  • अंतरणकर्त्ताबिना कोई प्रतिफल प्राप्त कियेअचल संपत्ति का अंतरण करता है। 
  • अंतरण के पीछे का उद्देश्यभावी अंतरिती को प्रवंचित करनाऔर लेनदारों के अधिकारों में बाधा डालना या उन्हें स्थगित करना है। 
  • इस प्रकार का अंतरणशून्य हो सकता हैजिसका अर्थ है कि यहपश्चात्वर्ती अंतरिती के विवेक पर शून्यकरणीय है। 

अपवाद: 

  • धारा 53(क) के अधीन सद्भावना: 
    • यदि संपत्ति प्राप्त करने वाले व्यक्ति (अंतरिती) ने सद्भावनापूर्वक कार्य किया है और उसे अंतरणकर्त्ता के कपटपूर्ण आशय की कोई जानकारी नहीं थीतो अंतरण शून्यकरणीय नहीं है।  
    • यहां सद्भावना से तात्पर्य ईमानदार विश्वास तथा अंतरणकर्त्ता की ओर से किसी कपटपूर्ण आशय के बारे में जानकारी के अभाव से है। 
    • यदि अंतरिती यह साबित कर सके कि उसने कपटपूर्ण आशय के बारे में बिना किसी जानकारी के संपत्ति अर्जित की हैतो अंतरण को वैध माना जा सकता है। 
  • धारा 53(ख) के अधीन लेनदार का दिवालिया होना: 
    • एक अन्य अपवाद तब है जब अंतरणकर्त्ता को अंतरण के कारण दिवालिया नहीं बनाया गया थातथा अंतरण पर्याप्त प्रतिफल के लिये किया गया था। 
    • यदि अंतरणकर्त्ता अंतरण पश्चात् भी दिवालियापन की स्थिति में न पहुँचता हो तथा अंतरण वैध उद्देश्य से एवं पर्याप्त प्रतिफल पर किया गया होतो लेनदार के हित प्रभावित होते हुए भीऐसे अंतरण को कपटपूर्ण नहीं माना जाएगा 

कपटपूर्ण अंतरण के अधीन वाद को विरचित करना: 

  • संविदा की निजता का पालन किया जाता हैजिसका अर्थ है कि केवल संविदा के पक्षकार ही वाद कर सकते हैं। इसलियेकोई भी पर-व्यक्तिजो वाद का पक्षकार नहीं है, लेनदार की ओर से वाद नहीं कर सकता। 
    • लेनदार द्वारा यह वाद इस आधार पर संस्थित किया जाता है कि अंतरणअंतरणकर्त्ता के लेनदारों को पराजित करने या विलंबित करने के लिये किया गया है। 
  • यह वादप्रतिनिधि श्रेणीमें या सभी लेनदारों के लाभ के लिये संस्थित किया जाता है। 
    • ऐसा एक ही विषय पर एक ही विरोधी पक्ष/पक्षकारों के विरुद्ध अनेक वादों से बचने के लिये किया जाता है। किसी लेनदार के वाद को खारिज करना सभी लेनदारों पर बाध्यकारी होगा। 

निर्णय विधि  

  • करीम दाद बनाम सहायक आयुक्त (1999): 
    • यदि पूरा संव्यवहार कपट और दुर्व्यपदेशन पर आधारित हैतो कूटरचित और मनगढ़ंत विलेख का उपयोग करके अंतरिती को कोई वैध स्वामित्व नहीं दिया जा सकता। 
  • मुसहर साहू बनाम लाला हाकिम लाल (1951): 
    • यह कपट नहीं होगा यदि देनदार एक लेनदार को संदाय करने का विकल्प चुनता है और अन्य को संदाय न करने का विकल्प चुनता हैबशर्ते कि उसे कोई लाभ न मिले। 

वाणिज्यिक विधि

मध्यस्थ नियुक्ति आदेश के विरुद्ध कोई पुनर्विलोकन या अपील नहीं

 01-Dec-2025

हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड और अन्य 

"एक बार मध्यस्थ नियुक्त हो जाने के बादमध्यस्थता प्रक्रिया निर्बाध रूप से आगे बढ़नी चाहिये। धारा 11 के अधीन किसी आदेश के पुनर्विलोकन या अपील के लिये कोई सांविधिक प्रावधान नहीं हैजो एक सचेत विधायी विकल्प को दर्शाता है।" 

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड और अन्य (2025)के मामले में न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की पीठ नेनिर्णय दिया कि माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के अधीन मध्यस्थ नियुक्त करने के आदेश के विरुद्ध कोई पुनर्विलोकन या अपील नहीं की जा सकती है। 

हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (HCC) और बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड (BRPNNL) के बीच 2014 के एक संविदा को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। 
  • संविदा में माध्यस्थम् खण्ड का प्रयोग पहले भी एक विवाद में किया गया थाजिसके परिणामस्वरूप अंतिम निर्णय हुआजिसका दोनों पक्षकारों द्वारा सम्मान किया गया। 
  • जब दूसरा विवाद सामने आयातो हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (HCC) ने उसी माध्यस्थम् खण्ड का उपयोग किया और बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड (BRPNNL) के प्रबंध निदेशक से मध्यस्थ नियुक्त करने का अनुरोध किया। 
  • प्रबंध निदेशक द्वारा अनुरोध पर कार्रवाई करने में असफल रहने के बादहिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (HCC) ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 11 के अधीन पटना उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।  
  • 2021 मेंपटना उच्च न्यायालय ने विवाद को सुलझाने के लिये न्यायमूर्ति शिवाजी पांडे (सेवानिवृत्त) को एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया। 
  • दोनों पक्षकारों ने तीन वर्षों से अधिक समय तक माध्यस्थम् कार्यवाही में सक्रिय रूप से भाग लिया तथा 70 से अधिक सुनवाइयों में भाग लिया।  
  • दोनों पक्षकारों ने संयुक्त रूप से कई अवसरों पर अधिनियम की धारा 29क के अधीन मध्यस्थ के कार्यकाल में विस्तार की मांग की। 
  • 2024 की शुरुआत मेंजब बहस लगभग पूरी हो गई थीबिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड (BRPNNL) ने माध्यस्थम् करार के अस्तित्व को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनर्विलोकन याचिका दायर की।  
  • पटना उच्च न्यायालय ने पुनर्विलोकन याचिका स्वीकार कर लीचल रही माध्यस्थम् कार्यवाही को निलंबित कर दियाऔर तत्पश्चात हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (HCC) की मूल धारा 11 याचिका को खारिज कर दिया।    
  • इस निर्णय से व्यथित होकर हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (HCC) ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की। 

न्यायालय की टिप्पणियां  

  • न्यायालय ने कहा कि एक बार जब पटना उच्च न्यायालय ने धारा 11(6) के अधीन 2021 में मध्यस्थ नियुक्त कर दियातो यह पदेन कार्यात्मक हो गया और वह अपने आदेश को पुन: नहीं खोल सकता या उसका पुनर्विलोकन नहीं कर सकता। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यद्यपि उच्च न्यायालयों के पास सीमित पुनर्विलोकन शक्तियां हैंकिंतु माध्यस्थम् के मामलों में ऐसी शक्तियां अत्यंत सीमित हैं और इसका प्रयोग केवल अभिलेख में स्पष्ट त्रुटि को सुधारने या किसी अनदेखी तथ्य को संबोधित करने के लिये किया जा सकता हैन कि विधि के निष्कर्षों पर पुनर्विचार करने के लिये।  
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 11 के अधीन किसी आदेश के पुनर्विलोकन या अपील के लिये कोई सांविधिक प्रावधान नहीं हैजो एक सचेत विधायी विकल्प को दर्शाता है कि एक बार मध्यस्थ नियुक्त हो जाने के पश्चात्माध्यस्थम् प्रक्रिया निर्बाध रूप से आगे बढ़नी चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड (BRPNNL) के पास उपलब्ध उचित उपचार अधिकरण के समक्ष धारा 16 का प्रयोग करना या अनुच्छेद 136 के अधीन विशेष अनुमति याचिका दायर करना हैन कि पुनर्विलोकन याचिका दायर करना। 
  • तीन वर्षों तक माध्यस्थम् कार्यवाही में पूर्ण रूप से भाग लेने के बादजिसमें मध्यस्थ के अधिदेश को बढ़ाने के लिये संयुक्त आवेदन भी सम्मिलित हैबिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड (BRPNNL) को पुनर्विलोकन के माध्यम से मामले को पुनः खोलने से रोक दिया गया था। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि उच्च न्यायालय द्वारा अपने ही नियुक्ति आदेश को भूतलक्षी रूप से अमान्य घोषित करने से निश्चितता कमजोर हुईन्यायिक आदेशों की पवित्रता कमजोर हुईतथा माध्यस्थम् में न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप के सिद्धांत का खंडन हुआ।  
  • उच्चतम न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के पुनरीक्षण आदेश को अपास्त कर दिया तथा अपील को स्वीकार कर लियाजिससे माध्यस्थम् कार्यवाही जारी रह सके।  

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 क्या है? 

  • मध्यस्थों की राष्ट्रीयता: 
    • किसी भी राष्ट्रीयता का कोई भी व्यक्ति मध्यस्थ हो सकता हैजब तक कि दोनों पक्ष में अन्यथा करार न हों। 
    • नियुक्ति प्रक्रिया: 
    • उपधारा (6) के अधीनपक्षकार मध्यस्थों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर करार करने के लिये स्वतंत्र हैं। 
    • किसी करार के अभाव मेंतीन मध्यस्थ अधिकरण के लियेप्रत्येक पक्षकार एक मध्यस्थ नियुक्त करता हैऔर दो नियुक्त मध्यस्थ तीसरे (अध्यक्ष) मध्यस्थ का चयन करते हैं। 
  • मध्यस्थ संस्थाओं की भूमिका: 
    • उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये श्रेणीबद्ध मध्यस्थ संस्थाओं को नामित कर सकते हैं। 
    • जिन न्यायक्षेत्रों में श्रेणीबद्ध संस्थाएँ नहीं हैंवहाँ उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मध्यस्थों का एक पैनल बना सकते हैं। 
    • इन मध्यस्थों को मध्यस्थ संस्थाएँ माना जाता है तथा वे चौथी अनुसूची में निर्दिष्ट शुल्क के हकदार होते हैं। 
  • विफलता की स्थिति में नियुक्ति: 
    • यदि कोई पक्षकार अनुरोध प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर मध्यस्थ नियुक्त करने में विफल रहता हैया यदि दो नियुक्त मध्यस्थ 30 दिनों के भीतर तीसरे पर सहमत होने में विफल रहते हैंतो नियुक्ति नामित मध्यस्थ संस्था द्वारा की जाती है। 
    • अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् के लिये उच्चतम न्यायालय संस्था को नामित करता हैअन्य मध्यस्थताओं के लिये उच्च न्यायालय ऐसा करता है। 
  • एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति: 
    • यदि पक्षकार 30 दिनों के भीतर एकमात्र मध्यस्थ पर करार करने में विफल रहते हैंतो नियुक्ति उपधारा (4) के अनुसार की जाती है। 
  • करार प्रक्रिया के अधीन कार्य करने में विफलता: 
    • यदि कोई पक्षनियुक्त मध्यस्थया नामित व्यक्ति/संस्था करार प्रक्रिया के अधीन कार्य करने में विफल रहता हैतो न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्था नियुक्ति करती है। 
  • प्रकटीकरण आवश्यकताएँ: 
    • मध्यस्थ नियुक्त करने से पहलेमध्यस्थ संस्था को धारा 12(1) के अनुसार भावी मध्यस्थ से लिखित प्रकटीकरण प्राप्त करना होगा। 
    • संस्था को पक्षकारों के करार और प्रकटीकरण की विषय-वस्तु द्वारा अपेक्षित किसी भी योग्यता पर विचार करना होगा। 
  • अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम्: 
    • अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् में एकमात्र या तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति के लियेनामित संस्था पक्षकारों से भिन्न राष्ट्रीयता वाले मध्यस्थ की नियुक्ति कर सकती है। 
  • एकाधिक नियुक्ति अनुरोध: 
    • यदि विभिन्न संस्थाओं से कई अनुरोध किए जाते हैंतो पहला अनुरोध प्राप्त करने वाली संस्था ही नियुक्ति करने के लिए सक्षम होगी। 
  • नियुक्ति हेतु समय-सीमा: 
    • मध्यस्थ संस्था को नियुक्ति के लिये आवेदन का निपटारा विपक्षी पक्षकार को नोटिस देने के 30 दिनों के भीतर करना होगा। 
  • शुल्क अवधारण: 
    • मध्यस्थ संस्थाचौथी अनुसूची में दी गई दरों के अधीनमध्यस्थ अधिकरण की फीस और संदाय पद्धति अवधारित करती है। 
    • यह अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थताओं पर लागू नहीं होता है या जहाँ पक्षकार मध्यस्थ संस्था के नियमों के अनुसार फीस अवधारण पर करार हो गए हों। 
  • न्यायिक शक्ति का गैर-प्रत्यायोजन: 
    • उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था को नामित करना न्यायिक शक्ति का प्रत्यायोजन नहीं माना जाता है।