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सांविधानिक विधि
मंदिर में अनुष्ठानिक पूजा के अधिकार
04-Dec-2025
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पी.बी. राजहंसम बनाम एस. नारायणन "भारत के संविधान के अधीन प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का विस्तार पदाधिकारियों के अधिकारों को प्रभावित करने तथा मंदिर में शांतिपूर्ण माहौल को बिगाड़ने के लिये नहीं किया जा सकता।" न्यायमूर्ति आर. सुरेश कुमार और एस. सौंथर |
स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
पी.बी. राजहंसम बनाम एस नारायणन (2025) के मामले में न्यायमूर्ति आर. सुरेश कुमार और न्यायमूर्ति एस. सौंथर की पीठ ने कांचीपुरम में श्री देवराज स्वामी मंदिर में अनुष्ठानिक पूजा करने के लिये थेंगलई संप्रदाय (दक्षिणी पंथ) को अनुतोष प्रदान किया, जबकि वडागलई संप्रदाय (उत्तरी पंथ) के इस तर्क को नामंजूर कर दिया कि इससे भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 25 और 26 के अधीन उनके अधिकारों का उल्लंघन होगा।
पी.बी. राजहंसम बनाम एस. नारायणन (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
संप्रदायों के बारे में:
- थेंगलई और वडागलई दोनों संप्रदाय रामानुजाचार्य के उपासक हैं, जो एक हिंदू दार्शनिक, गुरु और समाज सुधारक थे, जो हिंदू धर्म में वैष्णववाद के एक महत्त्वपूर्ण प्रतिपादक थे।
- थेंगलई संप्रदाय मनवाला मामुनिगल की शिक्षाओं का पालन करता है, जबकि वडागलई संप्रदाय वेदांत देसिकन की शिक्षाओं का पालन करता है, जो रामानुज के दो अलग-अलग शिष्य थे।
विवाद का इतिहास:
- दोनों संप्रदायों के बीच विवाद भगवान की पूजा के दौरान अपने-अपने गुरुओं की प्रशंसा में छंद पढ़ने को लेकर था।
- 1882, 1915, 1939 और 1970 में मुकदमें थेंगलई संप्रदाय के पक्ष में समाप्त हुए, जिससे उन्हें पूजा सेवाओं के दौरान अपने मंत्रम और प्रबंधम का पाठ करने की अनुमति मिल गई।
- 18वीं शताब्दी के पूर्व के मुकदमों के अनुसार, दक्षिणी पंथ को देवता की कुछ सेवाओं के आधिकारिक प्रदर्शन का अधिकार दिया गया था।
वर्तमान मुकदमेबाजी:
- वर्तमान मुकदमा वडागलाई संप्रदाय द्वारा शुरू किया गया था, जिसमें मंदिर के कार्यकारी न्यासी द्वारा जारी नोटिस को चुनौती दी गई थी।
- नोटिस में बताया गया कि पूजा के दौरान केवल थेंगलई संप्रदाय के मंत्र का ही पाठ किया जाएगा तथा वडागलई संप्रदाय के सदस्य प्रार्थना पाठ में पहली दो पंक्तियों में नहीं बैठ सकते।
- एकल न्यायाधीश ने वडागलाई संप्रदाय को अपनी प्रार्थना पढ़ने की अनुमति दी थी, तथा कहा था कि धार्मिक स्वतंत्रता धर्म से जुड़े अनुष्ठानों और समारोहों तक विस्तारित है।
- बाद में इस आदेश को एक खंडपीठ ने स्थगित कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
पदधारी बनाम साधारण उपासक:
- न्यायालय ने कहा कि एक साधारण उपासक जो कोई पदधारी नहीं है, वह आधिकारिक सेवाएँ करने का हकदार नहीं है, जो पदधारियों द्वारा की जानी हैं।
- साधारण भक्तों को पदधारियों के पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में हस्तक्षेप किये बिना भगवान की पूजा करने का अधिकार है।
मौलिक अधिकार और लोक व्यवस्था पर:
- न्यायालय ने कहा कि उत्तरी पंथ को अपना मंत्र पढ़ने की अनुमति देने से लोक व्यवस्था प्रभावित होगी, जो कि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार पर अधिरोपित किया जा सकने वाला एक युक्तियुक्त निर्बंधन है।
- न्यायालय ने कहा कि पहले के मुकदमों में भी वडागलाई संप्रदाय के धार्मिक अधिकार को मान्यता दी गई थी और उन्हें सामान्य श्रद्धालुओं की तरह पूजा समारोहों में भाग लेने की अनुमति दी गई थी।
- वडागलाई संप्रदाय के सदस्यों पर अधिरोपित किया गया निर्बंधन केवल मंत्रोच्चार के विरुद्ध था, जो लोक व्यवस्था के मद्देनजर संविधान के अनुच्छेद 25(1) के अधीन अपवाद के अंतर्गत आएगा।
मंदिर के वातावरण पर:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि यदि व्यक्तिगत श्रद्धालुओं को अनुष्ठानिक पूजा के समय ऊँची आवाज में अपने पवित्र गीत और कविताएँ सुनाने की अनुमति दी गई तो मंदिर का अनुकूल वातावरण खराब हो जाएगा और लोग शांतिपूर्ण पूजा करने की स्थिति में नहीं होंगे।
- धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का विस्तार पदाधिकारियों के अधिकारों को प्रभावित करने तथा मंदिर के शांतिपूर्ण माहौल को बिगाड़ने के लिये नहीं किया जा सकता।
- यदि ऐसी चीजों की अनुमति दी गई तो इससे निश्चित रूप से अन्य भक्तों को मिलने वाले पूजा के अधिकार पर असर पड़ेगा।
अनुष्ठानिक उपासना के दौरान व्यवस्था बनाए रखने के संबंध में:
- न्यायालय ने कहा कि मंदिर में भगवान की पूजा के दौरान लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिये केवल पदाधिकारियों को ही अपने कर्त्तव्यों और सेवाओं का निर्वहन करने की अनुमति होगी।
- साधारण उपासक केवल ईश्वर के दर्शन ही कर सकते हैं, और यदि कर भी सकें तो अपने मन में पवित्र श्लोकों का पाठ कर सकते हैं, बिना किसी शोर-शराबे के, जिससे पदाधिकारियों द्वारा की जा रही आधिकारिक सेवा प्रभावित न हो।
अंतिम निर्णय:
- न्यायालय ने एकल न्यायाधीश के आदेश को अपास्त कर दिया, क्योंकि यह पहले के मुकदमे के माध्यम से दिये गए अधिकारों में हस्तक्षेप करता था।
- न्यायालय ने थेंगालाई संप्रदाय द्वारा दायर याचिकाओं को स्वीकार कर लिया, जिसमें अनुष्ठानिक कार्यों के लिये सुरक्षा की मांग की गई थी।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 25 और 26 क्या हैं?
भारत के संविधान का अनुच्छेद 25:
- यह अनुच्छेद अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता संबंधित है । इसमें कहा गया है कि-
(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी।
(क) धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बंधन करती है।
(ख) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिये या सार्वजनिक प्रकार की हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिये खोलने का उपबंध करती है।- स्पष्टीकरण 1 - कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा।
- स्पष्टीकरण 2 - खंड (2) के उपखंड (ख) में हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तदनुसार लगाया जाएगा।
- इसमें न केवल धार्मिक विश्वासों अपितु धार्मिक प्रथाओं को भी सम्मिलित किया गया है।
- ये अधिकार सभी व्यक्तियों को उपलब्ध हैं - नागरिकों के साथ-साथ गैर-नागरिकों को भी।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 26:
- अनुच्छेद 26 धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को -
(क) धार्मिक और पूर्त प्रयोजनों के लिये संस्थाओं की स्थापना और पोषण का;
(ख) अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का;
(ग) जंगम और स्थावर संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का; और
(घ) ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार होगा। - यह अनुच्छेद धार्मिक स्वतंत्रता की सामूहिक सुरक्षा करता है।
- अनुच्छेद 26 द्वारा प्रत्याभूत अधिकार धार्मिक संप्रदाय या उनके वर्गों जैसे संगठित निकाय का अधिकार है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी धार्मिक संप्रदाय को निम्नलिखित तीन शर्तें पूरी करनी होंगी:
- यह ऐसे व्यक्तियों का समूह होना चाहिये जिनके पास ऐसी विश्वास प्रणाली हो जिसे वे अपनी आध्यात्मिक भलाई के लिये अनुकूल मानते हों।
- इसका एक साझा संगठन होना चाहिये।
- इसे एक विशिष्ट नाम से नामित किया जाना चाहिये।
पारिवारिक कानून
केवल ‘वर्क-फ़्रॉम-होम’ व्यवस्था के आधार पर अकेले बच्चे की अभिरक्षा का निर्णय नहीं किया जा सकता
04-Dec-2025
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पूनम वाधवा बनाम अजय वाधवा एवं अन्य "घर से काम करना या कार्यालय से काम करना, बच्चों की अभिरक्षा अवधारित करने का आधार नहीं हो सकती, तथा दोनों कामकाजी माता-पिता को अपने बच्चों की अभिरक्षा पर समान अधिकार है।" न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और उज्ज्वल भुयान |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
पूनम वाधवा बनाम अजय वाधवा एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और उज्ज्वल भुयान की पीठ ने कामकाजी माता-पिता के बीच अवयस्क पुत्र की अभिरक्षा के विवाद को संबोधित किया, जिसमें इस बात पर बल दिया गया कि नियोजन के तरीके, घर से काम करने की व्यवस्था और स्कूल तक की कम यात्रा दूरी बच्चे की अभिरक्षा का अवधारण करने में प्राथमिक विचार नहीं होने चाहिये।
पूनम वाधवा बनाम अजय वाधवा एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला पूनम वाधवा (माता/अपीलकर्त्ता) और अजय वाधवा (पिता/प्रत्यर्थी) के बीच उनके अवयस्क पुत्र अर्जुन वाधवा और पुत्री आरुषि वाधवा की अभिरक्षा संबंधी विवाद से उत्पन्न हुआ।
- प्रारंभ में, अधीनस्थ न्यायालय ने 30 जुलाई 2022 और 23 सितंबर 2022 के आदेशों के माध्यम से अर्जुन की अभिरक्षा उसकी माता को दे दी थी, जब वह 5 वर्ष से कम आयु का था।
- पिता ने अभिरक्षा आदेश को चुनौती देते हुए चंडीगढ़ स्थित पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में एक पुनरीक्षण याचिका (CRR No.2069/2022) दायर की।
- 1 जुलाई 2024 को उच्च न्यायालय ने पिता की याचिका को स्वीकार कर लिया और अधीनस्थ न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया, तथा अर्जुन की अभिरक्षा उसके पिता को अंतरित कर दी।
- उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय कई कारकों के आधार पर दिया, जिनमें यह भी सम्मिलित था कि पिता (ओरेकल में कार्यरत) घर से काम कर रहे थे, जबकि माता (गुरुग्राम के वर्चुसा में एसोसिएट मैनेजर) कार्यालय में लंबे समय तक काम करती थीं।
- उच्च न्यायालय ने वसंत कुंज स्थित हेरिटेज स्कूल से प्रत्येक माता-पिता के निवास की दूरी पर भी विचार किया तथा सुझाव दिया कि पिता का स्थान अधिक सुविधाजनक है।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि माता ने कोविड-19 के चरम काल के दौरान विदेश यात्रा की थी, जिसे गैरजिम्मेदाराना आचरण बताया गया।
- पुत्री आरुषि की कस्टडी माता के पास ही रही, क्योंकि वह उसके साथ रहना चाहती थी।
- उच्चतम न्यायालय ने 25 नवंबर 2024 को उच्चतम न्यायालय मध्यस्थता केंद्र के अधीन मध्यस्थता का प्रयास किया था, जो असफल रहा।
- 21 अगस्त 2025 को उच्चतम न्यायालय ने दोनों बच्चों से बातचीत की और कहा कि अर्जुन और आरुषि एक-दूसरे का साथ चाहते हैं, किंतु अपने-अपने माता-पिता से पृथक् नहीं होना चाहते।
- न्यायालय ने सुलह के प्रयासों के लिये पक्षकारों के बीच सभी कार्यवाहियों पर तीन महीने तक रोक लगा दी थी, जो अंततः विफल हो गयी।
- माता ने उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जबकि पिता ने माता को दिये गए मुलाकात के अधिकार को वापस लेने की मांग करते हुए आवेदन दायर किया।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस तर्क को खारिज कर दिया कि घर से काम करने से माता-पिता बच्चों की देखरेख के लिये बेहतर स्थिति में आ जाते हैं, तथा कहा कि परिवार की आकांक्षाओं को पूरा करने तथा अपने बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिये अक्सर दोनों पति-पत्नी को काम करना पड़ता है।
- न्यायालय ने कहा कि नियोजन पैटर्न (घर से काम बनाम कार्यालय का काम) और घर से स्कूल की दूरी सुसंगत विचार नहीं हैं, प्राय: तब जब दोनों माता-पिता राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहते हों।
- उच्च न्यायालय के तर्क में त्रुटियाँ पाए जाते हुए भी, उच्चतम न्यायालय ने अन्य कारणों के आधार पर हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया: अर्जुन एक लड़का था जो अब 5 वर्ष से अधिक आयु का हो चुका था, जो बातचीत के दौरान अपने पिता का साथ छोड़ने को तैयार नहीं था।
- न्यायालय ने कहा कि पिता के घर पर परिवार के बड़े सदस्य थे, जिनमें अर्जुन के दादा भी सम्मिलित थे, जो अतिरिक्त सहायता प्रदान कर रहे थे, तथा हेरिटेज स्कूल में अर्जुन की शिक्षा निर्बाध रूप से जारी रही।
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि उच्च न्यायालय ने अभिरक्षा के विवाद्यक को स्थायी रूप से बंद नहीं किया है, अपितु माता के लिये सुसंगत संविधि के अधीन कुटुंब न्यायालय की कार्यवाही के माध्यम से अभिरक्षा की मांग करने का विकल्प खुला छोड़ दिया है।
- न्यायालय ने 3 मई 2024 के पूर्व आदेश के माध्यम से प्रदान किये गए माता के मुलाकात के अधिकार (शनिवार दोपहर 12 बजे से रविवार शाम 6 बजे तक) को बरकरार रखा तथा इन अधिकारों से मुक्ति की मांग करने वाले पिता के आवेदन को नामंजूर कर दिया।
- अपील को खारिज कर दिया गया, जबकि माता के बच्चे से मिलने के अधिकार को बरकरार रखा गया, तथा न्यायालय ने कहा कि बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है।
बाल अभिरक्षा क्या है?
परिभाषा और अवधारणा:
- भारतीय विधिक प्रणाली में ‘अभिरक्षा’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
- बच्चों की अभिरक्षा से संबंधित विधि संरक्षकता से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है।
- संरक्षकता से तात्पर्य उन अधिकारों और शक्तियों के समूह से है जो एक वयस्क को अवयस्क के शरीर और संपत्ति के संबंध में प्राप्त होते हैं।
- संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के अंतर्गत 'संरक्षक' की परिभाषा इस प्रकार की गई है, "ऐसा व्यक्ति जो किसी अप्राप्तवय के शरीर या उसकी संपत्ति या उसके शरीर और संपत्ति दोनों की देखरेख करता है।"
- अभिरक्षा एक संकीर्ण अवधारणा है जो अप्राप्तवय के पालन-पोषण और दिन-प्रतिदिन की देखरेख और नियंत्रण से संबंधित है।
बाल अभिरक्षा को नियंत्रित करने वाली प्रमुख विधि:
हिंदू विधि:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (धारा 26) :
- यह विधेयक न्यायालयों को अप्राप्तवय संतानों की अभिरक्षा, भरणपोषण और शिक्षा के संबंध में अंतरिम आदेश पारित करने का अधिकार देता है।
- न्यायालयों को बच्चों की इच्छाओं पर विचार करना चाहिये।
- न्यायालय पहले पारित किसी भी अंतरिम आदेश को रद्द, निलंबित या संशोधित कर सकते हैं।
- हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 (HAMA) :
- हिंदुओं में अप्राप्तवयता और संरक्षकता से संबंधित विधि प्रदान करता है।
- इसमें नैसर्गिक तथा वसीयती संरक्षकों का प्रावधान है।
मुस्लिम विधि:
- मुस्लिम विधि अभिरक्षा और संरक्षकता के बीच अंतर करने वाली प्रथम विधि थी।
- पिता नैसर्गिक संरक्षक है, किंतु अभिरक्षा तब तक माता के पास रहती है जब तक:
- पुत्र सात वर्ष का न हो जाए।
- पुत्री यौवनावस्था में न आ जाए।
- हिज़ानत की अवधारणा : विवाह के दौरान और उसके विघटन के पश्चात्, एक निश्चित आयु तक संतान की अभिरक्षा के लिये माता सबसे उपयुक्त होती है।
पारसी विधि:
- पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 (धारा 49) :
- यह विधेयक न्यायालयों को अप्राप्तवय संतान की अभिरक्षा, भरणपोषण और शिक्षा के लिये अंतरिम आदेश पारित करने का अधिकार देता है।
- पारसी संतान के लिये संरक्षकता संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 द्वारा शासित होती है।
ईसाई विधि:
- तलाक अधिनियम, 1869 (धारा 41) :
- यह विधेयक न्यायालयों को अप्राप्तवय संतानों की अभिरक्षा, भरणपोषण और शिक्षा के लिये अंतरिम आदेश पारित करने का अधिकार देता है।
- ईसाई संतान के लिये संरक्षकता संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 द्वारा शासित होती है।
पंथनिरपेक्ष विधि:
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (धारा 38) :
- इसमें संतान की अभिरक्षा का प्रावधान है।
- जिला न्यायालयों को अप्राप्तवय संतानों की इच्छा पर विचार करते हुए उनकी अभिरक्षा, भरणपोषण और शिक्षा के संबंध में अंतरिम आदेश पारित करने का अधिकार देता है।
- न्यायालय पहले पारित आदेशों को बना सकते हैं, उनमें परिवर्तन कर सकते हैं, उन्हें रद्द कर सकते हैं या निलंबित कर सकते हैं।
- संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (GWA) :
- एक पंथनिरपेक्ष विधि जो सभी नागरिकों पर लागू हो, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो।
- इस अधिनियम से पहले, अप्राप्तवय की संरक्षकता से संबंधित कोई अखिल भारतीय अधिनियम नहीं था।
- संरक्षकों के सभी अधिकारों और दायित्त्वों को निर्धारित करने वाली व्यापक विधि।
- संरक्षकों को हटाने और उनके स्थान पर नए संरक्षक नियुक्त करने की प्रक्रिया का प्रावधान है।
- संरक्षकों द्वारा दुर्व्यवहार के लिये उपचार प्रदान करता है।
सर्वोपरि विचार: बाल कल्याण
- इस्लामिक विधि के सिवाय सभी संविधि (व्यक्तिगत या पंथनिरपेक्ष) में "बच्चे के कल्याण" के सिद्धांत को मान्यता दी गई है।
- न्यायपालिका बच्चे की अभिरक्षा देते समय उसके कल्याण और इच्छाओं पर विचार करती है।
- बच्चों के कल्याण के लिये कोई निश्चित सूत्र नहीं है।
- यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
- न्यायालयों को निम्नलिखित सहित सभी कारकों पर विचार करना चाहिये:
- वित्तीय स्थिति
- नैतिक व्यवहार
- मानसिक स्थिरता
- परिवार का समर्थन
- परिवेश
- बच्चे की इच्छा