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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सिविल कानून

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन वादपत्र का नामंजूर किया जाना

 19-Nov-2025

"ऐसे वादपत्र को नामंजूर करना जहाँ वादी वाद की संपत्ति के साथ अपना विधिक संबंध और वाद दायर करने का अपना अधिकार स्थापित करने में असफल रहा।" 

न्यायमूर्ति राहुल भारती 

स्रोत: जम्मू एवं कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

जम्मू एवं कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राहुल भारती ने सुनील सिंह बनाम कृष्ण लाल गुप्ता एवं अन्य (2025)के मामले में, वाद-हेतुक प्रकट करने और वाद दायर करने का अधिकार स्थापित करने में असफल रहने के कारण, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 के अधीन वादी के वादपत्र को नामंजूर करने के विचारण न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा। 

सुनील सिंह बनाम कृष्ण लाल गुप्ता एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्त्ता सुनील सिंह ने तालाब तिल्लो, जम्मू में स्थितएक संपत्ति के संबंध में घोषणा और परिणामी अनुतोष की मांग करते हुए एक सिविल वाददायर किया , जिसका क्षेत्रफल उत्तर में 45 फीट, दक्षिण में 40 फीट, पूर्व में 125 फीट और पश्चिम में 125 फीट है, जो खसरा संख्या 119, 120 और 121 के अंतर्गत आता है। 
  • वाद में कई दस्तावेज़ों को अकृत और शून्य घोषित करने की मांग की गई, जिसमें प्रतिवादी संख्या 2 (ओम प्रकाश गुप्ता, अधिवक्ता सुरेशता देवी के माध्यम से) और प्रतिवादी संख्या 4 (शशि ठाकुर) के बीच निष्पादित 28 फरवरी 2006 का दान विलेख भी समिलित है। 
  • वादी ने प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा प्रतिवादी संख्या 3 को दी गई पावर ऑफ अटॉर्नी तथा प्रतिवादी संख्या 1 (कृष्ण लाल गुप्ता) और प्रतिवादी संख्या 2 (ओम प्रकाश गुप्ता) के बीच 27 मई 1994 को हुए दान विलेख को चुनौती दी। 
  • वाद में मृतक चाचा योगेश्वर सिंह द्वारा 23 जनवरी 1993 को सरला स्याल के पक्ष में निष्पादित दान विलेख को भी अकृत और शून्य घोषित करने की मांग की गई थी, जिसमें दावा किया गया था कि उन्हें इसे निष्पादित करने का कोई अधिकार नहीं था। 
  • वादी ने प्रतिवादी संख्या 4 को उसके पक्ष में कब्जा बहाल करने तथा वादग्रस्त संपत्ति के सभी अधिकारों और स्वामित्व को उसके नाम पर स्थानांतरित करने का निदेश देने के लिये अनिवार्य व्यादेश की मांग की। 
  • वादी ने चार व्यक्तियों को प्रतिवादी के रूप में तथा दो व्यक्तियों को प्रोफार्मा प्रतिवादी के रूप में नामित किया, जिसमें प्रोफार्मा प्रतिवादी संख्या 2 उनके पिता (जगजीत सिंह बंद्राल) थे तथा प्रोफार्मा प्रतिवादी संख्या 1 उनके दिवंगत चाचा योगेश्वर सिंह की विधवा थी। 
  • प्रथम अपर जिला न्यायाधीश, जम्मू के विचारण न्यायालय ने 2 अगस्त 2021 के आदेश द्वारा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 कोलागू करते हुए वाद को प्रारंभिक प्रक्रम में ही नामंजूर कर दिया। 
  • नामंजूर इस एकमात्र आधार पर किया गया कि वादी ने कहीं भी यह अभिवचन नहीं दिया या यह नहीं दिखाया कि वाद की संपत्ति विधिक रूप से उससे कैसे संबंधित है, जिससे उसे घोषणा और अनुतोष के लिये वाद दायर करने का अधिकार प्राप्त हो सके। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • उच्च न्यायालय ने संपूर्ण वादपत्र की गहन जांच की जिससे यह अवधारित किया जा सके कि क्या वादी ने वाद दायर करने का अधिकार अर्जित करने के लिये वादग्रस्त संपत्ति के संबंध में अपनी विधिक स्थिति स्थापित कर ली है। 
  • न्यायालय ने कहा कि वादपत्र को पढ़ने के बाद भी एक पंक्ति भी यह स्पष्ट नहीं हो पाई कि वादी को वादग्रस्त संपत्ति का स्वामी या दावेदार कैसे माना जा सकता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि वादी अपने ही कथनों के जाल में उलझ गया था, क्योंकि उसने कथित तौर पर वाद की संपत्ति को अपने पिता और मृतक चाचा से संबंधित बताया, किंतु स्वयं से संबंधित नहीं, जबकि उसने वाद अपने नाम से ही दायर किया था। 
  • न्यायालय नेराज नारायण सरीन (मृत) एल.आर.एस. एवं अन्य बनाम लक्ष्मी देवी एवं अन्य (2002) 10 एस.सी.सी. 501 के मामलेमें प्रतिपादित सिद्धांतों पर बल दिया, जहाँ उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि न्यायालयों को आदेश 7 नियम 11 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करने में तब तक संकोच करना चाहियेजब तक कि तथ्यात्मक स्थिति में ऐसे प्रयोग को आवश्यक न समझा जाए 
  • न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि उच्चतम न्यायालय ने आदेश 7 नियम 11 के अधीन नामंजूर या नामंजूर न करने के आधार के रूप में वादपत्र में दिये गए तथ्य-कथन की भूमिका पर बल दिया है, और यदि वादपत्र में वाद-हेतुक प्रकट करने वाले तथ्य गायब हैं या अपर्याप्त हैं, तो उसे नामंजूर किया जाना उचित है। 
  • न्यायालय ने कहा कि आदेश 7 नियम 11 के अधीन वादपत्र को नामंजूर करना एक ऐसा मामला है, जिसमें सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है, तथा यह ध्यान में रखना होगा कि सिविल वाद का सार तथ्य और विधि के विवाद्यकों को विरचित करने के बाद अधिकारों के औपचारिक निर्णय के माध्यम से डिक्री की मांग करना है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि वादपत्र को नामंजूर करनासामान्य न्यायनिर्णयन प्रक्रिया से विचलनहै और इसे तब तक प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिये जब तक कि वादपत्र स्वयं ही नामंजूरी को आमंत्रित न कर रहा हो। 
  • कुलदीप सिंह पठानिया बनाम बिक्रम सिंह जरयाल (2017)का संदर्भ दिया गया, जहाँ उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आदेश 7 नियम 11 के अधीन, न्यायालय को केवल वादी के अभिवचनों की जांच करनी चाहिये जिससे यह अवधारित किया जा सके कि क्या वे वाद-हेतुक प्रकृत करते हैं, प्रतिवादी के खंडन को पूरी तरह से अपवर्जित करके 
  • न्यायालय नेदहिबेन बनाम अरविंदभाई कल्याणजी भानुसाली (गजरा) मृत विधिक प्रतिनिधियों और अन्य के माध्यम से (2020)के मामले पर प्रकाश डाला, जहाँ उच्चतम न्यायालय ने आदेश 7 नियम 11 को एक स्वतंत्र उपचार के रूप में मान्यता दी, जो न्यायालयों को साक्ष्य अभिलिखित किये बिना वादों को तुरंत खारिज करने का अधिकार देता है यदि समाप्ति के आधार से संतुष्ट हैं। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि आदेश 7 नियम 11 के अधीन शक्ति एक कठोर शक्ति है, जिसके लिये शर्तों का कठोरता से पालन करना आवश्यक है, और न्यायालयों को यह अवधारित करना होगा कि क्या कोई वादपत्र, दावे के साथ-साथ, जिन दस्तावेज़ों पर विश्वास किया गया है, उनकी जांच करके वाद-हेतुक का प्रकटीकरण करता है। 
  • उच्च न्यायालय नेसिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 के अधीनवाद को नामंजूर करने के विचारण न्यायालय के 2 अगस्त 2021 के आदेश से पूर्ण सहमति व्यक्त की और सभी संबंधित मामलों के साथ अपील को खारिज कर दिया। 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 7 नियम 11 - वादपत्र का नामंजूर किया जाना क्या है? 

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 में इसके अंतर्गत उल्लिखित विशिष्ट परिस्थितियों में वादपत्र को नामंजूर करने का उपबंध है। 
  • खण्ड (क) के अनुसार, जहाँ वह वाद-हेतुक प्रकट नहीं करता है, वहाँ वाद-पत्र को नामंजूर कर दिया जाएगा। 
  • खण्ड (ख) में जहाँ दावाकृत अनुतोष का मूल्यांकन कम किया गया है और वादी मूल्यांकन को ठीक करने के लिये न्यायालय द्वारा अपेक्षित किये जाने पर उस समय के भीतर जो न्यायालय ने नियत किया है, ऐसा करने में असफल रहता है 
  • खण्ड (ग) उन मामलों से संबंधित है जहाँ दावाकृत अनुतोष का मूल्यांकन ठीक है किंतु वादपत्र अपर्याप्त स्टाम्प-पत्र पर लिखा गया है और वादी अपेक्षित स्टाम्प पत्र के देने के लिये न्यायालय द्वारा अपेक्षित किये जाने पर उस समय के भीतर, जो न्यायालय ने नियत किया है, ऐसा करने में असफल रहता है 
  • खण्ड (घ) के अनुसार, जहाँ वादपत्र में के कथन से यह प्रतीत होता है कि वाद किसी विधि द्वारा वर्जित है 
  • खण्ड (ङ) में उस स्थिति में जहाँ यह दो प्रतियों में फाइल नहीं किया जाता है 
  • खण्ड (च) में नामंजूरी का उपबंध है, जहाँ वादी नियम 9 के उपबंधों का अनुपालन करने में असफल रहता है 
  • परंतुक मूल्यांकन की शुद्धि के लिये या अपेक्षित स्टाम्प पत्र के देने के लिये न्यायालय द्वारा नियत समय तब तक नहीं बढ़ाया जाएगा जब तक कि न्यायालय का अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से यह समाधान नहीं हो जाता है कि वाद किसी असाधारण कारण से, न्यायालय द्वारा नियत समय के भौतर, यथास्थिति, मूल्यांकन की शुद्धि करने या अपेक्षित स्टाम्प-पत्र के देने से रोक दिया गया था और ऐसे समय के बढ़ाने से इंकार किये जाने से वादी के प्रति गंभीर अन्याय होग 
  • आदेश 7 नियम 11 के अधीन किसी वादपत्र को नामंजूर करने की शक्ति एक असाधारण शक्ति है और इसका प्रयोग बहुत सावधानी और सतर्कता के साथ किया जाना चाहिये 
  • खण्ड (घ) के अंतर्गत न्यायालय को वादपत्र में दिये गए कथनों से ही यह अवधारित करना होगा कि क्या वाद किसी विधि द्वारा वर्जित है, जिसमें परिसीमा विधि भी सम्मिलित है। 
  • आदेश 7 नियम 11(घ) के अधीन जांच का दायरा वादपत्र और उसके साथ संलग्न या उसमें संदर्भित दस्तावेज़ों तक सीमित है। 
  • सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन आवेदन पर निर्णय करते समय प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत प्रतिरक्षा पर विचार नहीं किया जा सकता। 
  • इस शक्ति का प्रयोग केवल स्पष्ट और प्रत्यक्ष मामलों में ही किया जाना चाहिये, जहाँ वादपत्र पूर्वदृष्टया वर्जित हो 
  • जहाँ परिसीमा अवधारण के लिये साक्ष्य की जांच या विधि और तथ्य के मिश्रित प्रश्नों पर विचार की आवश्यकता होती है, वहाँ वादपत्र को खण्ड (घ) के अधीन नामंजूर नहीं किया जा सकता। 
  • आदेश 7 नियम 11 के अधीन नामंजूर करने के लिये आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय वादपत्र की चारदीवारी से आगे नहीं जा सकता 
  • जहाँ कई अनुतोषों का दावा किया गया हो और एक अनुतोष भी सीमा के भीतर हो, वहाँ वादपत्र को विधि द्वारा वर्जित मानकर पूरी तरह से नामंजूर नहीं किया जा सकता। 
  • इस उपबंध का उपयोग केवल तकनीकी आधार पर, योग्यता के आधार पर पूर्ण निर्णय लिये बिना, वास्तविक दावों को खारिज करने के लिये नहीं किया जाना चाहिये 

पारिवारिक कानून

आचरण द्वारा हिंदू धर्म में संपरिवर्तन

 19-Nov-2025

"हिंदू धर्म अपनाने का वास्तविक आशय, और साथ ही उस आशय को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने वाला आचरण, संपरिवर्तन का पर्याप्त प्रमाण होगा। संपरिवर्तन के लिये शुद्धिकरण या समाप्ति का कोई औपचारिक संस्कार आवश्यक नहीं है।" 

न्यायमूर्ति पी.बी. बालाजी 

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

के.कृष्णप्रियन और आयशा सिद्दीका बनाम अधीनस्थ न्यायालय, अंबत्तूर (2025) के मामलेमें मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पी.बी. बालाजी नेपारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद की याचिका को खारिज करने के निर्णय को खारिज कर दिया और कहा कि हिंदू धर्म में संपरिवर्तन आचरण के माध्यम से स्थापित किया जा सकता है, इसके लिये  किसी औपचारिक संस्कार या घोषणा की आवश्यकता नहीं है। 

के.कृष्णप्रिय और आयशा सिद्दीका बनाम अधीनस्थ न्यायालय, अंबत्तूर (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ता, पति और पत्नी, नेहिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (ख) के अधीनपारस्परिक सम्मति से अपने विवाह को भंग करने की मांग की। 
  • उन्होंने अधीनस्थ न्यायाधीश, अम्बत्तूर के समक्ष एक याचिका दायर की, जिसे 2024 की H.M.O.P. No.77 के रूप में क्रमांकित किया गया।  
  • अंतिम सुनवाई के दौरान, न्यायालय ने पाया कि पत्नी (दूसरी याचिकाकर्त्ता) जन्म से मुस्लिम थी और मामले को सुनवाई योग्य होने पर बहस के लिये स्थगित कर दिया। 
  • विद्वान उप न्यायाधीश ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2 का हवाला देते हुए कहा कि यह अधिनियम केवल हिंदुओं, बौद्धों, जैनों या सिखों पर लागू होता है, न कि मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों या यहूदियों पर। 
  • उप न्यायाधीश ने याचिका को पोषणीय न मानते हुए खारिज कर दिया तथा पाया किपत्नी का मुस्लिम होनादंपति को हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन अनुतोष पाने के लिये अयोग्य बनाता है। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने इस खारिजी को चुनौती देते हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन एक सिविल पुनरीक्षण याचिका दायर की। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

आचरण के माध्यम से संपरिवर्तन पर: 

  • न्यायालय ने इस बात पर गौर किया कि पेरुमल नादर मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था: "कोई व्यक्ति जन्म से या संपरिवर्तन से हिंदू हो सकता है। किसी अन्य धर्म में जन्मे व्यक्ति द्वारा हिंदू धर्म के प्रति मात्र सैद्धांतिक निष्ठा उसे हिंदू नहीं बनाती, न ही यह मात्र घोषणा कि वह हिंदू है, उसे हिंदू धर्म में परिवर्तित करने के लिये पर्याप्त है।" 
  • तथापि, "हिंदू धर्म में संपरिवर्तन का वास्तविक आशय, तथा उस आशय को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने वाला आचरण, संपरिवर्तन का पर्याप्त साक्ष्य होगा।" 
  • उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि "संपरिवर्तन को प्रभावी बनाने के लिये शुद्धिकरण या समाप्ति का कोई औपचारिक संस्कार आवश्यक नहीं है।" 

मुख्य निष्कर्ष: 

  • यह विवाह बालमुरुगन मंदिर में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार अनुष्ठित हुआ, जैसा कि तस्वीरों और मंदिर के पुष्टिकरण पत्र से स्पष्ट है। 
  • पत्नी ने हिंदू विवाह संस्कारों में भाग लिया और आचरण के माध्यम से संपरिवर्तन का प्रदर्शन करते हुए हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कुटुंब न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 
  • न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये कि पत्नी ने अपना मूल मुस्लिम नाम बरकरार रखा है, इस मामले में जांच की कोई आवश्यकता नहीं है। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने जानबूझकर हिंदू धर्म का हवाला देते हुए हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों का हवाला दिया। 
  • यद्यपि पत्नी जन्म से मुस्लिम थी, किंतु उसके आचरण से स्पष्ट रूप से हिंदू धर्म में परिवर्तन प्रदर्शित हुआ। मात्र औपचारिक संस्कार का अभावपारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद के आवेदन को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता। 

    न्यायालय का निदेश: 

    • उच्च न्यायालय नेयाचिका खारिज करने के अधीनस्थ न्यायाधीश के आदेश कोअपास्त कर दिया । 
    • याचिका पर गुण-दोष के आधार पर तथा विधि के अनुसार निर्णय करने के लिये मामला अम्बत्तूर अधीनस्थ न्यायालय को भेज दिया गया। 
    • अधीनस्थ न्यायालय को उच्च न्यायालय का आदेश प्राप्त होने के चार सप्ताह के भीतर अंतिम आदेश पारित करने का निदेश दिया गया।

    हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 क्या है? 

    बारे में: 

    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) भारत में हिंदुओं के बीच विवाह को नियंत्रित करने वाली प्राथमिक विधि है। 
    • यह विधेयक हिंदू विवाह विधियों को संहिताबद्ध और सुधारित करता है, तथा वैध विवाहों के लिये शर्तें और विवाह-विच्छेद के आधार निर्धारित करता है। 

    धारा 2 के अंतर्गत प्रयोज्यता: 

    • अधिनियम की धारा 2 में परिभाषित किया गया है कि अधिनियम के प्रयोजनों के लिये कौन "हिंदू" के रूप में योग्य है। 
    • यह अधिनियम किसी भी ऐसे व्यक्ति पर लागू होता है जो धर्म से हिंदू, बौद्ध, जैन या सिख है। 
    • यह उन क्षेत्रों में निवास करने वाले व्यक्तियों पर लागू होता है जिन पर अधिनियम लागू होता है। 
    • अधिनियम में विशेष रूप से मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों को सम्मिलित नहीं किया गया है, जब तक कि उन्हें अधिनियम के अधीन हिंदू नहीं माना जा सकता। 
    • कोई व्यक्ति जन्म, वंश या संपरिवर्तन से हिंदू हो सकता है। 

    धारा 13() – पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद : 

    • धारा 13() दंपतियों को पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद की अनुमति देती है। 
    • दोनों पक्षकारों को संयुक्त रूप से एक याचिका दायर करनी होगी जिसमें यह कहा जाएगा कि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से पृथक् रह रहे हैं। 
    • उन्हें इस बात पर सहमत होना होगा कि वे एक साथ नहीं रह पाए हैं और उन्होंने पारस्परिक सम्मति से विवाह विच्छेद पर सहमति व्यक्त की है। 
    • आवेदन दाखिल करने के छह महीने बाद किंतु अठारह महीने के भीतर, दोनों पक्षकारों को दूसरे प्रस्ताव के माध्यम से अपनी सम्मति की पुष्टि करनी होगी। 
    • यदि न्यायालय संतुष्ट हो जाता है कि सम्मति वास्तविक है और सांविधिक आवश्यकताएँ पूरी हो गई हैं, तो वह तलाक का आदेश पारित कर सकता है। 

    संपरिवर्तन और प्रयोज्यता: 

    • न्यायालय ने माना कि जब कोई व्यक्ति हिंदू विवाह संस्कारों में भाग लेकर तथा निरंतर हिंदू के रूप में पहचान बनाकर हिंदू धर्म अपनाता है, तो हिंदू विवाह अधिनियम लागू होता है। 
    • इसमें औपचारिक संपरिवर्तन समारोह या दस्तावेज़ीकरण की कोई आवश्यकता नहीं है।  
    • सद्भावनापूर्ण आशय के साथ-साथ उस आशय को व्यक्त करने वाला स्पष्ट आचरण ही संपरिवर्तन के साक्ष्य के रूप में पर्याप्त है।  
    • जो व्यक्ति हिंदू मंदिर में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह करता है और हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों का उपयोग करता है, वह आचरण के माध्यम से संपरिवर्तन प्रदर्शित करता है, जिससे वह अधिनियम के अधीन पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद सहित अन्य उपचार प्राप्त करने का पात्र हो जाता है।