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आपराधिक कानून
लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984 के अंतर्गत परिवाद
25-Nov-2025
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"लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984 के अधीन कोई भी व्यक्ति आपराधिक विधि आरंभ कर सकता है, क्योंकि परिवाद करने वाले व्यक्ति की पात्रता को सीमित करने वाला कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है।" न्यायमूर्ति पंकज मिथल और प्रसन्ना बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
लाल चंद्र राम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति पंकज मिथल और प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने निर्णय दिया कि लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984 के अधीन अपराधों के लिये परिवाद किसी भी व्यक्ति द्वारा शुरू किया जा सकता है, क्योंकि अधिनियम में इस बात पर कोई निर्बंधन नहीं लगाया गया है कि आपराधिक विधि को कौन आरंभ कर सकता है।
लाल चंद्र राम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- एक ग्राम प्रधान ने अभियुक्त के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के विभिन्न प्रावधानों के साथ-साथ लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984 के अधीन परिवाद दायर कराया था।
- मजिस्ट्रेट ने परिवाद का संज्ञान लिया और अभियुक्त को विचारण का सामना करने के लिये समन किया।
- अभियुक्तों ने मजिस्ट्रेट के आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को समन जारी करने के मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द कर दिया।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 के अधीन केवल भूमि प्रबंधक समिति ही लोक संपत्ति को हुए नुकसान के विरुद्ध कार्रवाई शुरू कर सकते है।
- चूँकि ग्राम प्रधान को उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता के अधीन सक्षम प्राधिकारी नहीं माना गया था, इसलिये उच्च न्यायालय ने परिवाद को पोषणीय नहीं माना।
- तत्पश्चात् मामले को उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक विधिशास्त्र के इस सुप्रसिद्ध सिद्धांत पर बल दिया कि "कोई भी व्यक्ति आपराधिक विधि को आरंभ कर सकता है, सिवाय इसके कि जहाँ कोई अपराध अधिनियमित या सृजित करने वाली विधि इसके विपरीत संकेत देती हो।"
- न्यायालय ने कहा कि लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984 में ऐसा कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है जो परिवाद करने वाले व्यक्ति की पात्रता को सीमित करता हो।
- न्यायालय ने सिविल और आपराधिक कार्यवाही के बीच अंतर करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 के प्रावधान, प्रकृति में सिविल होने के कारण, क्षति के आकलन या अतिचारियों को बेदखल करने से संबंधित पूरी तरह से अलग संदर्भ में काम करते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने यह मानकर स्पष्ट रूप से विधिक त्रुटी की है कि चूँकि ग्राम प्रधान प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने के लिये सक्षम प्राधिकारी नहीं है, इसलिये विशेष न्यायाधीश द्वारा संज्ञान लेने और अभियुक्त को समन भेजने की कार्रवाई विधिक रूप से गलत थी।
- उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक कार्यवाही शुरू करने पर निर्बंधन लगाने के लिये सिविल विधि के प्रावधानों को लागू करने के उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण को खारिज कर दिया।
- न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया तथा मजिस्ट्रेट के संज्ञान लेने तथा अभियुक्त को समन जारी करने के आदेश को बहाल कर दिया।
- अपील को स्वीकार करते हुए यह पुष्टि की गई कि 1984 अधिनियम के अधीन आपराधिक कार्यवाही किसी भी व्यक्ति द्वारा शुरू की जा सकती है।
लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984 क्या है?
मुख्य विवरण:
- पूर्ण शीर्षक : लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984
- अधिनियम संख्या : 1984 का अधिनियमन संख्यांक 3
- अधिनियमन की तिथि : 16 मार्च, 1984
- माना गया प्रारंभ : 28 जनवरी, 1984
- प्रादेशिक विस्तार : संपूर्ण भारत तक फैला हुआ है
परिभाषाएँ:
- रिष्टि : इसका वही अर्थ है जो भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 425 में परिभाषित है।
- लोक संपत्ति : इसमें निम्नलिखित के स्वामित्व, कब्जे या नियंत्रण में स्थावर या जंगम संपत्ति (मशीनरी सहित) सम्मिलित है:
केंद्र सरकार
राज्य सरकारें
स्थानीय प्राधिकारी
केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियमों के अधीन स्थापित निगम
कंपनी अधिनियम, 1956 में परिभाषित कंपनियां
केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट संस्थाएँ, प्रतिष्ठान या उपक्रम जो पूर्णतः या पर्याप्तत: सरकारी निधियों द्वारा वित्तपोषित हैं।
अपराध और दण्ड:
धारा 3(1) – लोक संपत्ति को सामान्य रिष्टि :
- दण्ड: 5 वर्ष तक का कारावास और जुर्माना।
- धारा 3(2) के अंतर्गत न आने वाली लोक संपत्ति को हुए नुकसान पर लागू होता है।
धारा 3(2) – महत्त्वपूर्ण लोक संपत्ति को रिष्टि:
- जल/प्रकाश/बिजली उत्पादन सुविधाओं, तेल प्रतिष्ठानों, मल संकर्म, खानों, कारखानों, लोक परिवहन और दूरसंचार अवसंरचना सहित अन्य अनिवार्य सार्वजनिक संरचनाएँ सम्मिलित है।
- दण्ड: 6 मास से 5 वर्ष तक का कठोर कारावास और जुर्माना।
- न्यायालय लिखित कारणों को लेखबद्ध कर के 6 मास से कम किसी अवधि के कारावास का दण्डादेश दे सकता है।
धारा 4 – अग्नि या विस्फोटक पदार्थ से नुकसान :
- यह तब लागू होता है जब धारा 3 के अंतर्गत अपराध अग्नि या विस्फोटकों का उपयोग करके किये जाते हैं।
- दण्ड: 1 वर्ष से 10 वर्ष तक का कठोर कारावास और जुर्माना।
- न्यायालय विशेष कारणों से एक वर्ष से कम का दण्डादेश दे सकता है।
विशेष उपबंध
जमानत प्रतिबंध (धारा 5) :
- अभिरक्षा में लिये गए अभियुक्त या दोषसिद्ध व्यक्ति को जमानत या व्यक्तिगत बंधपत्र पर तब तक छोड़ा नहीं जा सकता जब तक अभियोजन पक्ष को आवेदन का विरोध करने का अवसर न दिया गया हो।
व्यावृत्ति खण्ड (धारा 6) :
- ये उपबंध अन्य विद्यमान विधियों के अतिरिक्त हैं, उनका उल्लंघन नहीं करते।
- यह अधिनियम व्यक्तियों को अन्य कार्यवाहियों से छूट नहीं देता है जो इस अधिनियम के सिवाय शुरू की जा सकती हैं।
निरसन प्रावधान
- लोक संपत्ति नुकसान निवारण अध्यादेश, 1984 को निरस्त कर दिया गया।
- अध्यादेश के अधीन की गई सभी कार्रवाइयां अधिनियम के अधीन की गई मानी जाएंगी।
आपराधिक कानून
नियोजन के होते हुए भी पत्नी का भरणपोषण पाने का अधिकार
25-Nov-2025
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"केवल कमाने की क्षमता या कुछ आय अर्जित करने से पत्नी को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने से वंचित नहीं किया जा सकता है।" न्यायमूर्ति डॉ. कौसर एडप्पागथ |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति डॉ. कौसर एडप्पागथ की पीठ ने राजीवन एम. बनाम जीशा पी. एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया कि यदि पत्नी कमा रही है या कमाने की क्षमता रखती है, तो भी वह अपने पति से भरणपोषण का दावा करने से वंचित नहीं है, यदि वह दावा करती है कि उसकी आय उसके भरणपोषण के लिये अपर्याप्त है।
राजीवन एम. बनाम जीशा पी. एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला विधिक रूप से विवाहित दंपति - जीशा पी. (पत्नी) और राजीवन एम. (पति) - तथा उनके दो नाबालिग बच्चे थे।
- पत्नी और बच्चों ने थालास्सेरी के कुटुंब न्यायालय में भरणपोषण का मामला दायर किया, जिसमें पत्नी के लिये 15,000 रुपए और दोनों बच्चों के लिये 10,000 रुपए की दर से भरणपोषण का दावा किया गया।
- कुटुंब न्यायालय ने पत्नी के भरणपोषण के दावे को खारिज कर दिया, किंतु बच्चों को 6,000 रुपए प्रति माह का भरणपोषण देने का आदेश दिया।
- पत्नी ने अपने भरण-पोषण के दावे की अस्वीकृति और बच्चों को दी गई राशि को चुनौती देते हुए RP(FC) संख्या 409/2017 दायर की।
- पति ने बच्चों को दिए जाने वाले भरणपोषण की राशि को चुनौती देते हुए RP(FC) संख्या 476/2017 दायर की।
- कुटुंब न्यायालय ने दो आधारों पर पत्नी को भरणपोषण देने से इंकार कर दिया था: (i) पत्नी पेशे से दर्जी है और उसके पास अपना भरणपोषण करने के लिये पर्याप्त साधन हैं, और (ii) पत्नी ने बिना किसी वैध कारण के पति का साथ छोड़ दिया था।
- पत्नी के साक्ष्य के अनुसार, पति ने उस पर क्रूरता बरती, 19.09.2014 को उसे उसके माता-पिता के घर ले गया, और उसे वापस लेने कभी नहीं आया।
- पति ने तर्क दिया कि वह एक दर्जी के रूप में कार्यरत है और उसे प्रतिदिन केवल 750 रुपए की आय होती है, जबकि पत्नी ने दावा किया कि वह अपनी स्वयं की दर्जी की दुकान चलाता है, जिससे उसे अच्छी-खासी आय होती है।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) महिलाओं और बालकों की सुरक्षा के लिये लागू सामाजिक न्याय का एक उपाय है, जो अनुच्छेद 39 द्वारा सुदृढ़ किये गए अनुच्छेद 15(3) की सांविधानिक योजना के अंतर्गत आता है, और इसकी व्याख्या उदारतापूर्वक की जानी चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि "अपना भरणपोषण करने में असमर्थ" का अर्थ यह नहीं है कि पत्नी गरीबी की स्थिति में है, और यदि पत्नी कमा रही है या कमाने में सक्षम है, तो भी यह उसे भरणपोषण का दावा करने से वंचित नहीं करता है।
- न्यायालय ने इस सिद्धांत को स्थापित करते हुए रजनेश बनाम नेहा (2021), सुनीता कछवाहा बनाम अनिल कछवाहा (2014), और शैलजा बनाम खोबन्ना (2018) सहित उच्चतम न्यायालय के प्रमुख पूर्व निर्णयों का हवाला दिया।
- न्यायालय ने पाया कि विवाह प्रमाण पत्र में व्यवसाय के रूप में "दर्जी" दर्शाना तथा वास्तविक नियोजन और आय के साक्ष्य के बिना दर्जी संघ की सदस्यता दर्शाना, भरणपोषण के दावों पर रोक नहीं लगाएगा।
- न्यायालय ने कहा कि अस्थायी या कभी-कभार कुछ आय प्रदान करने वाला काम पत्नी को भरणपोषण का दावा करने से वंचित नहीं कर सकता, यदि वह दावा करती है कि आय उसकी आवश्यकताओं के लिये अपर्याप्त है।
- न्यायालय ने पत्नी द्वारा प्रस्तुत क्रूरता के साक्ष्य का मूल्यांकन किया, जिसमें शारीरिक और मानसिक यातना, फर्श पर सोने के लिये विवश करना, तथा वैवाहिक संबंध समाप्त करना सम्मिलित था, तथा पाया कि ये उदाहरण उसके पति से पृथक् से रहने को उचित ठहराने के लिये पर्याप्त हैं।
- न्यायालय ने कहा कि 46 वर्षीय सक्षम व्यक्ति के रूप में पति केवल असत्यापित वेतन प्रमाण पत्र प्रस्तुत करके अपनी पत्नी और संतानों का भरणपोषण करने में असमर्थता का दावा नहीं कर सकता।
- न्यायालय ने पति की पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी, पत्नी की याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया, संतानों के भरणपोषण के लिये 6,000 रुपए प्रति माह की दर से राशि को बरकरार रखा तथा याचिका की तिथि से पत्नी को 8,000 रुपए प्रति माह देने का आदेश दिया।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144 क्या है?
बारे में:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144 एक सामाजिक न्याय उपबंध है जिसका उद्देश्य उपेक्षित पति/पत्नी और संतान की विपन्नता और आर्थिक तंगी को रोकना है। यह प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे व्यक्ति की पत्नी, वैध या अवैध संतान, जो अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है, को मासिक भरणपोषण, अंतरिम भरणपोषण और कार्यवाही व्यय प्रदान करने का अधिकार देता है, जिसके पास पर्याप्त साधन होते हुए भी वह ऐसा करने से इंकार करता है या उपेक्षा करता है।
- प्रमुख सांविधिक विशेषताओं में सम्मिलित हैं:
- धारा 144(1): मजिस्ट्रेट को पत्नी और संतान को मासिक भरणपोषण देने का आदेश देने का अधिकार देता है।
- धारा 144(1) का दूसरा परंतुक: मजिस्ट्रेट को कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अंतरिम भरणपोषण और व्यय प्रदान करने की अनुमति देता है।
- धारा 144(1) का तीसरा परंतुक: निदेश देता है कि अंतरिम भरणपोषण आवेदनों का निपटारा आदर्श रूप से नोटिस की तामील की तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाना चाहिये।
- धारा 144(2): भरणपोषण आवेदन या आदेश की तिथि से देय हो सकता है, जैसा मजिस्ट्रेट उचित समझे।
- धारा 144(3): भरणपोषण का संदाय न करने पर वारण्ट कार्यवाही और एक मास तक कारावास हो सकता है।
- धारा 144(4): जारता, पर्याप्त कारण के बिना पति के साथ रहने से इंकार, या पृथक् रहने की आपसी सहमति के मामलों में पत्नी को भरणपोषण प्राप्त करने से अयोग्य घोषित करता है।
- धारा 145(2) के अधीन आगे की प्रक्रियागत स्पष्टता प्रदान की गई है, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि साक्ष्य प्रत्यर्थी या उनके अधिवक्ता की उपस्थिति में अभिलिखित किया जाना चाहिये, जिसमें एकपक्षीय कार्यवाही का उपबंध है और तीन मास के भीतर पर्याप्त कारण बताने पर ऐसे आदेशों को अपास्त किया जा सकता है।