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आपराधिक कानून
अनाचारजन्य लैंगिक हिंसा
08-Aug-2025
भनेई प्रसाद उर्फ़ राजू बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य "यह न्यायालय पुनः दोहराता है कि न्याय केवल दोषसिद्धि तक सीमित नहीं होना चाहिये, अपितु जहाँ विधि इसकी अनुमति देती है, वहाँ इसमें पुनर्स्थापन भी सम्मिलित होना चाहिये।" न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और संदीप मेहता की पीठ ने भानेई प्रसाद उर्फ़ राजू बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2025) के मामले में लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) के अधीन दोषसिद्धि को चुनौती देने वाली एक विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिया, जबकि पीड़ित बच्चे के लिये पर्याप्त प्रतिकर का आदेश दिया और संवेदनशील बालकों के संरक्षण हेतु सांविधानिक दायित्त्व पर बल दिया।
- उच्चतम न्यायालय का निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि किसी भी परिस्थिति में अनाचारजन्य लैंगिक हिंसा को क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह पारिवारिक विश्वास की नींव को मूलतः कमजोर करता है।
अनाचारजन्य लैंगिक हिंसा
अनाचारजन्य वह लैंगिक हिंसा है जो निकट संबंधी पारिवारिक सदस्यों के मध्य होता है, जिसमें रक्त संबंध, सौतेले, पालक तथा दत्तक संबंध सम्मिलित हैं। यह कृत्य पारिवारिक विश्वास एवं संरक्षण की मूल भावना का गंभीर उल्लंघन है और यह विश्वभर में सभी सामाजिक वर्गों में पाया जाता है।
भनेई प्रसाद उर्फ़ राजू बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता (पिता) को अपनी लगभग 10 वर्ष की अवयस्क पुत्री पर बार-बार गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमला करने के लिये विचारण न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध ठहराया गया था।
- यह दण्ड लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO), 2012 की धारा 6 और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 506 के अधीन दिया गया।
- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने 3 जुलाई 2024 के निर्णय के माध्यम से आपराधिक अपील संख्या 562/2019 में दोषसिद्धि और आजीवन कारावास के दण्ड की पुष्टि की।
- ये कृत्य घरेलू वातावरण में एक निश्चित समयावधि में निरंतर, जानबूझकर किये गए हमले थे।
- पीड़िता के परिसाक्ष्य की पुष्टि उसकी बड़ी बहन ने की तथा DNA साक्ष्य सहित फोरेंसिक और मेडिकल रिकॉर्ड से भी इसकी पुष्टि हुई।
- याचिकाकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय से अपील के लिये विशेष अनुमति और अंतरिम जमानत की मांग की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
साक्ष्य और दोषसिद्धि पर:
- न्यायालय ने कहा कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 29 मूलभूत तथ्य स्थापित हो जाने पर दोष की सांविधिक उपधारणा बनाती है, जिसका इस मामले में खंडन नहीं किया जा सका।
- पीड़िता का अभिसाक्ष्य "अटूट, चिकित्सकीय रूप से पुष्ट, तथा दिखावटीपन से मुक्त" पाई गया।
- DNA रिपोर्ट ने "साक्ष्य श्रृंखला को सील कर दिया और अभियोजन पक्ष के मामले में सभी संदेहों को दूर कर दिया।"
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि यदि पीड़ित बालक का अभिसाक्ष्य विश्वसनीय और भरोसेमंद है तो उसे किसी संपुष्टि की आवश्यकता नहीं है।
मिथ्या निहितार्थ तर्क पर:
- न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि याचिकाकर्त्ता को तनावपूर्ण घरेलू संबंधों के कारण मिथ्या फंसाया गया था, और कहा: "कोई भी पुत्री, चाहे कितनी भी पीड़ित क्यों न हो, केवल घरेलू अनुशासन से बचने के लिये अपने पिता के विरुद्ध इस तरह के आरोप नहीं लगाएगी।"
अपराध की प्रकृति पर:
- न्यायालय ने इस अपराध को "पीड़िता के पिता द्वारा किया गया अविश्वसनीय विश्वासघात" बताया।
- जब अपराधी पिता होता है, तो "अपराध राक्षसी स्वरूप धारण कर लेता है।"
- ऐसे अपराध "केवल कठोरतम निंदा और कठोरतम दंड" के अधिकारी हैं।"
जमानत अस्वीकार किये जाने पर:
- न्यायालय का "न्यायिक विवेक" जमानत में आकस्मिक छूट की अनुमति नहीं देता है, जहाँ पूर्ण विचारण के पश्चात् दोषसिद्धि की जाती है और अपील में इसकी पुष्टि की जाती है।
- पारिवारिक विश्वासघात से संबंधित गंभीर लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अपराधों में, "अनुतोष को नियमित रूप से प्रदान नहीं किया जा सकता है।"
प्रतिकर आदेश:
- हिमाचल प्रदेश राज्य द्वारा पीड़ित को 10,50,000/- रुपए का संदाय करने का निदेश दिया गया।
- 7,00,000/- को त्रैमासिक ब्याज निकासी अधिकार के साथ 5 वर्षों के लिये सावधि जमा में रखे जाएँगे।
- 3,50,000/- रुपए की धनराशि सीधे पीड़ित के खाते में स्थानांतरित की जाएगी।
- इस प्रक्रिया का निरीक्षण हिमाचल प्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा किया जाएगा।
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 क्या है?
बारे में:
- वर्ष 2012 में अधिनियमित लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, बालकों को लैंगिक दुर्व्यवहार और शोषण से बचाने के उद्देश्य से एक ऐतिहासिक विधि है।
- इसका उद्देश्य बालक की भेद्यता को संबोधित करना तथा उनकी सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करना है।
- इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाए गए बाल अधिकार अभिसमय के अनुरूप अधिनियमित किया गया था, जिसे भारत सरकार ने 11 दिसंबर, 1992 को स्वीकार किया था।
उद्देशिका:
- यह अधिनियम बालकों को लैंगिक हमला, लैंगिक उत्पीड़न, और अश्लील साहित्य के अपराधों से बचाने के लिये बनाया गया है।
- तथा ऐसे अपराधों के विचारण तथा उनसे संबंधित या उनके आनुषंगिक विषयों के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना का उपबंध कर सकेंगे।
प्रमुख तिथियाँ:
- इसकी अधिनियमन तिथि 19 जून 2012 है जबकि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण को 14 नवंबर 2012 को लागू किया गया था।
संदर्भित प्रमुख प्रावधान:
- धारा 6 – गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमले के लिये दण्ड:
- न्यूनतम 20 वर्ष का कठोर कारावास, जिसे आजीवन कारावास या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकता है।
- चिकित्सा व्यय और पुनर्वास के लिये पीड़ित को अनिवार्य जुर्माना देना होगा।
- धारा 29 – कतिपय अपराधों के बारे में उपधारणा:
- विशेष न्यायालय धारा 3, 5, 7 और 9 के अधीन मामलों में, अभियुक्त को दोषी मानने की उपधारणा करता है।
- निर्दोषता साबित करने का भार अभियुक्त पर आ जाता है।
- अधिनियम में मामलों की शीघ्र विचारण के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान है।
- इसमें बाल पीड़ितों के पुनर्वास और प्रतिकर का प्रावधान है।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 नियम 17
08-Aug-2025
प्रबोध कुमार तिवारी बनाम राकेश कुमार तिवारी एवं अन्य "अपील-स्तर के संशोधन पहले की स्वीकृति को मिटा नहीं सकते या विचारण में पहले से विचार किये जा चुके अभिवचनों में परिवर्तन नहीं कर सकते। ऐसे परिवर्तन विरोधी पक्ष के अर्जित अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे।" न्यायमूर्ति संजय कुमार द्विवेदी |
स्रोत: झारखंड उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय कुमार द्विवेदी ने निर्णय दिया कि अपीलीय स्तर पर अभिवचनों में संशोधन की अनुमति विलंब के लिये मजबूत औचित्य या विचारण के दौरान पहले अनुमत संशोधनों के अनुपालन के बिना नहीं दी जा सकती।
- झारखंड उच्च न्यायालय ने प्रबोध कुमार तिवारी बनाम राकेश कुमार तिवारी और अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
प्रबोध कुमार तिवारी बनाम राकेश कुमार तिवारी एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला 1997 में दायर एक विभाजन वाद से उत्पन्न हुआ, जिसमें याचिकाकर्त्ता ने परिवार के सदस्यों के बीच पैतृक संपत्ति का विभाजन मांगा था।
- प्रबोध कुमार तिवारी ने शीर्षक (विभाजन) वाद संख्या 497/1997 दायर किया, जिसमें अनुसूची-A (संपूर्ण अंश) और अनुसूची-B और C (प्रत्येक का आधा अंश) में सूचीबद्ध पैतृक संपत्ति में अपने सही अंशों के विभाजन और आवंटन के लिये एक डिक्री की मांग की गई थी।
- विचारण की कार्यवाही के दौरान, याचिकाकर्त्ता ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 6 नियम 17 के अधीन एक संशोधन याचिका दायर की, जिसे 2024 के विविध सिविल आवेदन संख्या 171 के रूप में रजिस्ट्रीकृत किया गया।
- विचारण न्यायालय ने 19.04.2024 के आदेश द्वारा संशोधन याचिका को स्वीकार कर लिया। इस संशोधन (संशोधन संख्या 7) में विशेष रूप से सहदेव तिवारी की पहली पत्नी और याचिकाकर्त्ता की जैविक माता के रूप में वर्णित कुंती देवी का नाम परिवार की वंशावली तालिका में सम्मिलित करने का प्रयास किया गया था।
- विचारण न्यायालय की अनुमति की अनुमति होते हुए भी, याचिकाकर्त्ता अनजाने में वादपत्र में स्वीकृत संशोधन करने में असफल रहा। संशोधन को औपचारिक रूप से याचिका के दस्तावेज़ों में सम्मिलित नहीं किया गया था।
- वाद विचारण के लिये आगे बढ़ा और 26 अप्रैल 2024 के निर्णय और 09.05.2025 के आदेश के अधीन याचिकाकर्त्ता के पक्ष में निर्णय सुनाया गया , जिसमें संशोधन को अंतिम दस्तावेज़ों में प्रतिबिंबित नहीं किया गया।
- प्रतिवादियों ने विचारण न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए सिविल अपील संख्या 82/2024 दायर की।
- अपीलीय कार्यवाही के दौरान, यह बात प्रकाश में आई कि संशोधन संख्या 7, यद्यपि विचारण न्यायालय द्वारा स्वीकृत था, को वादपत्र में सम्मिलित नहीं किया गया था।
- इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने पहले से स्वीकृत संशोधन को औपचारिक रूप से लागू करने के लिये प्रथम अपील न्यायालय (जिला न्यायाधीश- तृतीय, देवघर) के समक्ष आदेश 6 नियम 17 सहपठित नियम 18 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन एक नया आवेदन दायर किया।
- प्रतिवादियों को दी गई संशोधन की प्रति में संशोधन हस्तलिखित रूप में था, जबकि याचिका का शेष भाग टाइप किया गया था।
- संशोधन को गलती से 7 क्रमांकित कर दिया गया, जबकि इसे 8 क्रमांकित किया जाना चाहिये था।
- याचिकाकर्त्ता ने संशोधन को लागू करने में विलंब के लिये कोई उचित स्पष्टीकरण नहीं दिया, या यह भी नहीं बताया कि इसे केवल अपीलीय स्तर पर ही क्यों मांगा जा रहा है।
- याचिकाकर्त्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन झारखंड उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और संशोधन आवेदन को नामंजूर करने वाले अपीलीय न्यायालय के आदेश को अपास्त करने की मांग की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 नियम 17 कार्यवाही के किसी भी चरण में संशोधन की अनुमति देने के लिये विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है, किंतु ऐसी अनुमति आवेदक द्वारा स्पष्ट रूप से बताए जाने पर निर्भर करती है कि क्या छोड़ा जाना है, क्या परिवर्तित किया जाना है, क्या प्रतिस्थापित किया जाना है, या क्या जोड़ा जाना है।
- न्यायालय ने कहा कि जब विचारण पूर्ण होने के पश्चात् अपीलीय स्तर पर संशोधन की मांग की जाती है, तो पक्षकार को विचारण न्यायालय के समक्ष ऐसा न करने के लिये मजबूत, वैध कारण प्रस्तुत करने चाहिये।
- न्यायालय ने दोहराया कि किसी भी संशोधन की अनुमति नहीं दी जा सकती, यदि वह विरोधी पक्षकार के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता हो या उन्हें विचारण न्यायालय के निर्णय से प्राप्त निहित लाभ से वंचित करता हो।
- इसने आगे कहा कि अपील में एक पूरी तरह से नया मामला पेश करने के लिये विचारण न्यायालय पहले से विचार किये गए अभिवचनों या स्वीकृतियों को समाप्त करने वाला संशोधन गंभीर पूर्वाग्रह पैदा करेगा और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।
- वर्तमान मामले में, यद्यपि विचारण न्यायालय ने संशोधन संख्या 7 को अनुमति दे दी थी, किंतु याचिकाकर्त्ता इसे वादपत्र में लागू करने में असफल रहा; याचिका टाइप की गई थी जबकि संशोधन वाला भाग हस्तलिखित था, जो उचित अनुपालन का अभाव दर्शाता है।
- न्यायालय ने बल देकर कहा कि अनुतोष मांगने से पहले उचित सावधानी बरतनी अनिवार्य है, और याचिकाकर्त्ता ऐसी सावधानी बरतने में असफल रहा। न्यायालय ने
यह भी कहा कि याचिकाकर्त्ता ने विलंब या लोप के लिये कोई उचित स्पष्टीकरण नहीं दिया, जबकि विचारण के दौरान उसे परिवर्तित करने को शामिल करने का अवसर दिया गया था। - न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपील न्यायालय द्वारा विलंबित संशोधन आवेदन को अस्वीकार करने में कोई त्रुटि नहीं थी तथा याचिका को नामंजूर कर दिया।
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 क्या है?
- सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 दीवानी मामलों में अभिवचनों से संबंधित है। अभिवचनों का तात्पर्य वादी द्वारा दायर वादपत्र और प्रतिवादी द्वारा वादपत्र के प्रत्युत्तर में दायर लिखित अभिकथन से है।
- अभिवचन लिखित कथन होते हैं जिन्हें प्रत्येक पक्षकार न्यायालय और विरोधी पक्षकार को अपने मामले और उन तथ्यों के बारे में सूचित करने के लिये दायर करता है जिन्हें वे विचारण के दौरान साबित करना चाहते हैं। इन दस्तावेज़ों में सभी महत्त्वपूर्ण तथ्य और आवश्यक विवरण सम्मिलित होने चाहिये जिससे प्रत्येक पक्षकार को पता हो कि उन्हें किस मामले में उत्तर देना है।
- यह एक मूलभूत आवश्यकता है कि सभी महत्त्वपूर्ण तथ्य और आवश्यक विवरण स्पष्ट रूप से अभिवचनों में बताए जाने चाहिये, तथा न्यायालय उन तथ्यों या आधारों के आधार पर मामलों का निर्णय नहीं कर सकते जिनका अभिवचनों में उल्लेख नहीं किया गया है।
आदेश 6 का नियम 17 क्या है?
- आदेश 6 का नियम 17 विशेष रूप से न्यायालय में याचिका दायर होने के पश्चात् उसमें संशोधन या परिवर्तन से संबंधित है।
- यह नियम न्यायालय को किसी भी पक्षकार को कार्यवाही के किसी भी चरण में अपने अभिवचनों को परिवर्तित या संशोधित करने की अनुमति देने के लिये विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है, बशर्ते कि ऐसा संशोधन न्यायसंगत हो और पक्षकारों के बीच विवाद के वास्तविक विवाद्यकों को अवधारित करने के लिये आवश्यक हो।
- न्यायालय ऐसे तरीके से और ऐसी शर्तों पर अभिवचनों में संशोधन की अनुमति दे सकता है, जिसे वह उचित समझे, तथा यह सुनिश्चित कर सकता है कि पक्षकारों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्नों को हल करने के लिये सभी आवश्यक संशोधन किये जाएं।
- यद्यपि, एक महत्त्वपूर्ण प्रतिबंध यह है कि विचारण आरंभ होने के पश्चात् संशोधन के लिये कोई आवेदन स्वीकार नहीं किया जाएगा, जब तक कि न्यायालय इस बात से संतुष्ट न हो जाए कि उचित तत्परता बरतते हुए भी, पक्षकार विचारण प्रारंभ होने से पूर्व मामला नहीं उठा सकता था।
- उचित परिश्रम का अर्थ है कि पक्षकार को यह दिखाना होगा कि उन्होंने उचित प्रयास किये तथा उचित जांच की, किंतु फिर भी उनकी अपनी कोई त्रुटि न होने के कारण वे इस मामले को पहले नहीं खोज पाए या उठा नहीं पाए।
- नियम 17 का प्राथमिक उद्देश्य मुकदमेबाजी को कम करना, न्यायालय कार्यवाही में विलंब को न्यूनतम करना, तथा पक्षकारों को एक ही कार्यवाही में अपना पूरा मामला उचित ढंग से प्रस्तुत करने की अनुमति देकर पृथक् -पृथक् विधिक वादों की आवश्यकता को रोकना है।
- यह नियम विधिक कार्यवाही में अंतिमता की आवश्यकता को इस सिद्धांत के साथ संतुलित करता है कि न्याय पूर्ण तथ्यों और पक्षकारों के बीच वास्तविक विवाद्यकों के आधार पर किया जाना चाहिये।