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सिविल कानून
सौतेली माता को पेंशन लाभ
11-Aug-2025
जयश्री वाई. जोगी बनाम भारत संघ और अन्य "यह प्रश्न उठाया गया कि पेंशन योजनाओं में "माता" की परिभाषा स्थिर क्यों होनी चाहिये, सुझाव दिया गया कि इसमें उन लोगों को सम्मिलित करने के लिये लचीलापन होना चाहिये - जैसे सौतेली माता या दत्तक माताएँ - जिन्होंने बालक का पालन-पोषण किया है।" न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान और न्यायमूर्ति एन. कोटिस्वर सिंह |
स्रोत: उचतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति उज्जल भुयान और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह ने निर्णय दिया कि पेंशन योजनाओं जैसी कल्याणकारी विधियों के लिये, "माता" शब्द का निर्वचन उद्देश्यपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिये, जिसमें सौतेली माता को भी सम्मिलित किया जाना चाहिये, जिसने माता की भूमिका पूरी की है, और इसे केवल जैविक माता तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने जयश्री वाई. जोगी बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
जयश्री वाई. जोगी बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला एक सौतेली माता का है जो अपने सौतेले पुत्र, जो भारतीय वायु सेना में एयरमैन के रूप में कार्यरत था, की मृत्यु के पश्चात् पेंशन लाभ की मांग कर रही थी। जब मृतक अधिकारी छह वर्ष का था, तब उसकी जैविक माता का निधन हो गया था। इसके पश्चात्, उसके पिता ने पुनर्विवाह कर लिया, और अपीलकर्त्ता (सौतेली माता) ने उस छोटी सी आयु से ही बालक के पालन-पोषण का उत्तरदायित्त्व ले लिया।
- सौतेला पुत्र अपनी सौतेली माता की देखरेख और संरक्षण में पला-बढ़ा और अंततः भारतीय वायु सेना में भर्ती हो गया, जहाँ उसने एक वायु सेना शिविर में वायुसैनिक के रूप में सेवा की। दुर्भाग्य से, 30 अप्रैल 2008 को, एल्युमिनियम फॉस्फाइड विषाक्तता के कारण अधिकारी की मृत्यु हो गई, जिसे अधिकारियों द्वारा की गई आंतरिक जांच के पश्चात् आत्महत्या के रूप में वर्गीकृत किया गया।
- 2010 में, सौतेली माता ने मृतक अधिकारी की माता होने के नाते विशेष पारिवारिक पेंशन की मांग करते हुए वायु सेना रिकॉर्ड कार्यालय से संपर्क किया। उसका आवेदन इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि वह मृतक की जैविक माता नहीं थी।
- इसके अतिरिक्त, आय मानदंड के कारण साधारण पारिवारिक पेंशन के लिये उनका दावा भी अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि माता-पिता की संयुक्त वार्षिक आय (लगभग 84,000 रुपये) रक्षा मंत्रालय के 1998 के संसूचना में विहित 30,000 रुपए की सीमा से अधिक थी।
- प्रशासनिक अस्वीकृति से व्यथित होकर, अपीलकर्त्ता ने सशस्त्र बल अधिकरण, कोच्चि में पेंशन लाभ देने से इंकार को चुनौती दी। अधिकरण ने प्रशासनिक निर्णय को बरकरार रखते हुए कहा कि विद्यमान नियमों के अधीन विशेष पारिवारिक पेंशन देने के उद्देश्य से सौतेली माता को माता के समकक्ष नहीं माना जा सकता। अधिकरण ने आय सीमा मानदंड को अवधारित कारक बताते हुए साधारण पारिवारिक पेंशन के लिये उसके दावे को भी खारिज कर दिया।
- सशस्त्र बल अधिकरण के प्रतिकूल निर्णय के पश्चात्, अपीलकर्त्ता ने भारत के उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, पेंशन विनियमों में "माता" शब्द की प्रतिबंधात्मक निर्वचन को चुनौती दी और मृतक अधिकारी को बचपन से पालने वाली प्राथमिक देखभालकर्त्ता के रूप में उसकी भूमिका को मान्यता देने की मांग की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि कल्याणकारी उद्देश्यों के लिये, विशेष रूप से पेंशन योजनाओं में, "माता" शब्द की व्याख्या एक स्थिर या कठोर शब्द के रूप में नहीं की जानी चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक मामले की जांच उसके विशेष तथ्यों के आधार पर की जानी चाहिये, जिससे यह अवधारित किया जा सके कि बालक के जीवन में मातृ भूमिका किसने निभाई, न कि केवल जैविक माताओं तक ही लाभ सीमित रखा जाए।
- न्यायमूर्ति कांत ने कठोर निर्वचन के संभावित अन्याय को उजागर करने के लिये भारतीय वायु सेना के अधिवक्ता के समक्ष काल्पनिक स्थितियाँ प्रस्तुत कीं।
- न्यायालय ने प्रश्न किया कि ऐसी परिस्थिति में क्या होगा, जहाँ जैविक माता अपने बालक को छोड़ देती है और पिता या दादी उसकी देखभाल का उत्तरदायित्त्व लेते हैं, और जैविक माता हक का दावा करते हुए दशकों बाद वापस लौटती है।
- इसके विपरीत, न्यायालय ने उन परिदृश्यों की जांच की जहाँ जैविक माता की प्रसव संबंधी जटिलताओं के दौरान मृत्यु हो जाती है, और सौतेली माता बालक के पालन-पोषण का पूर्ण उत्तरदायित्त्व ले लेती है।
- न्यायालय ने सुझाव दिया कि "माता" की परिभाषा का निर्वचन तथ्यात्मक परिस्थितियों के आधार पर लचीले ढंग से किया जा सकता है जिससे यह अवधारित किया जा सके कि वास्तव में मातृ भूमिका किसने निभाई। पीठ ने प्रश्न किया कि "माता" शब्द स्थिर क्यों रहना चाहिये और दत्तक माता-पिता को पेंशन लाभों से क्यों बाहर रखा जाना चाहिये, जबकि उन्होंने माता-पिता के कर्त्तव्यों का पालन किया है।
- जब भारतीय वायु सेना के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि उच्चतम न्यायालय के विद्यमान पूर्व निर्णयों में "माता" शब्द का प्रयोग केवल जैविक माताओं तक ही सीमित है, और वायु सेना के लिये पेंशन विनियमन, 1961 के अधीन नियम स्पष्ट और निर्विवाद हैं, तो न्यायालय ने ऐसे पूर्व निर्णयों को अलग कर दिया। न्यायमूर्ति कांत ने कहा कि पेंशन नियम सांविधानिक आदेश नहीं, अपितु प्रशासनिक निर्णय हैं, और उन्होंने सौतेली माताओं को पेंशन लाभों से वंचित करने के मूल तर्क पर प्रश्न उठाया।
- न्यायालय ने कहा कि पेंशन विधि का निर्वचन प्रतिबंधात्मक तकनीकी निर्वचन के बजाय एक उद्देश्यपूर्ण और सामाजिक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये। पीठ ने कहा कि विद्यमान नियमों में "मातृहीन बालक" की परिभाषा उस बालक के रूप में दी गई है जो न तो माता की और न ही सौतेली माता की देखरेख में है, इसलिये यह सुझाव दिया गया कि नियामक ढाँचे के अंतर्गत "माता" शब्द में सौतेली माताओं को भी सम्मिलित किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने भारतीय वायु सेना पर बल दिया कि प्रावधानों में लचीलापन आवश्यक है जिससे मामले-दर-मामला आधार पर निर्णय लिया जा सके, न कि व्यापक बहिष्कार लागू किया जा सके। पीठ ने बल देकर कहा कि कल्याणकारी योजनाओं में केवल जैविक संबंधों के बजाय मूल संबंधों और देखभाल करने वाली भूमिका पर विचार किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने अधिवक्ताओं को समान परिभाषा वाले तुलनात्मक विधियों, नियमों और विनियमों की जांच करने का निदेश दिया, तथा विश्लेषण करने को कहा कि किस प्रकार न्यायालयों ने अपने निर्वचन का विस्तार किया है, इस विस्तार के पीछे क्या तर्क है, तथा सामाजिक और कल्याणकारी विधान के मामलों में किस प्रकार उदार दृष्टिकोण अपनाया गया है।
स्थापित विधिक बिंदु क्या हैं?
- सांविधिक निर्वचन - कल्याणकारी विधि में "माता" का अर्थ
- प्राथमिक विवाद्यक: क्या पेंशन विनियमों में "माता" शब्द का निर्वचन प्रतिबंधात्मक रूप से किया जाना चाहिये, जिसमें केवल जैविक माताएँ सम्मिलित हों, या व्यापक रूप से उन लोगों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिये, जिन्होंने कार्यात्मक रूप से मातृ भूमिकाएँ निभाईं।
- विधिक सिद्धांत: यह मामला सांविधिक निर्वचन के बारे में मौलिक प्रश्न उठाता है, विशेष रूप से यह कि क्या कल्याणकारी विधि की व्याख्या उसके उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये उदारतापूर्वक की जानी चाहिये या केवल शाब्दिक अर्थ के अनुसार की जानी चाहिये।
- सांविधानिक विधि - समता और गैर-विभेदकारी का अधिकार
- समान उपचार का सिद्धांत: इस मामले में जैविक और गैर-जैविक माताओं के बीच कृत्रिम भेद उत्पन्न करके भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार) का संभावित उल्लंघन सम्मिलित है, जिन्होंने समान देखभाल कार्य किये हैं।
- मौलिक बनाम औपचारिक समता: विधिक प्रश्न इस बात पर केंद्रित है कि क्या समता का अर्थ सभी समान स्थिति वाले व्यक्तियों के साथ एक जैसा व्यवहार करना (औपचारिक समता) है या रिश्तों में कार्यात्मक तुल्यता को मान्यता देना (मूल समता)।
- प्रशासनिक विधि - वर्गीकरण की तर्कसंगतता
- तर्कसंगत वर्गीकरण परीक्षण: यह मामला इस बात की जांच करता है कि पेंशन विनियमों में जैविक माताओं और सौतेली माताओं के बीच प्रशासनिक भेद, प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध रखने वाले सुबोध अंतर पर आधारित एक उचित वर्गीकरण का गठन करता है या नहीं।
- मनमानी सरकारी कार्यवाई: चुनौती यह है कि क्या मृत अधिकारियों का पालन-पोषण करने वाली सौतेली माताओं को पेंशन लाभ देने से इंकार करना मनमानी प्रशासनिक कार्यवाई है, जिसका कोई तर्कसंगत आधार नहीं है।
- पारिवारिक विधि - सौतेले संबंधों की विधिक मान्यता
- वास्तविक बनाम वैधानिक अभिभावकत्व (De Facto v. De Jure Parentage): यह वाद ऐसे कार्यात्मक माता-पिता एवं संतान संबंधों की विधिक मान्यता से संबंधित है, जो वास्तविकता में अस्तित्व में हैं (De Facto), बनाम वे जो विधि द्वारा औपचारिक रूप से मान्य हैं (De Jure)।
- माता-पिता के अधिकार और उत्तरदायित्त्व : यह विधिक परीक्षण इस प्रश्न पर केंद्रित है कि क्या अभिभावकीय दायित्वों के स्वेच्छा से निर्वहन से संबंधित अभिभावकीय अधिकार - जैसे उत्तराधिकार एवं लाभ प्राप्ति के अधिकार - स्वतः प्राप्त होने चाहिये।
- पूर्ववर्ती विधि - पूर्ववर्ती निर्णयों में अंतर
- अनुप्रयोग: इस मामले में विभिन्न विधिक संदर्भों के बीच अंतर करना सम्मिलित है, जहाँ "माता" शब्द का निर्वचन किया गया है, जैसे कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण बनाम सेवा विनियमों के अधीन पेंशन लाभ।
- विकासशील न्यायशास्त्र: यह मान्यता कि परिवर्तित सामाजिक वास्तविकताओं और पारिवारिक संरचनाओं को संबोधित करने के लिये विधिक परिभाषाओं में विकास की आवश्यकता हो सकती है।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80
11-Aug-2025
ओडिशा राज्य वित्तीय निगम बनाम विज्ञान केमिकल इंडस्ट्रीज और अन्य “सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 सूचना की तामील न होने पर डिक्री अकृत हो जाती है, और निष्पादन न्यायालय को निष्पादन कार्यवाही के दौरान ऐसे अभिवचन पर विचार करना चाहिये।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने निर्णय दिया कि किसी डिक्री के अकृत होने का अभिवचन निष्पादन कार्यवाही के दौरान उठाया जा सकता है, और निष्पादन न्यायालय को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 47 के अधीन गुण-दोष के आधार पर इसका निर्णय करना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने ओडिशा राज्य वित्तीय निगम बनाम विज्ञान केमिकल इंडस्ट्रीज एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
ओडिशा राज्य वित्तीय निगम बनाम विज्ञान केमिकल इंडस्ट्रीज एवं अन्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- अपीलकर्त्ता, ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) ने ओडिशा औद्योगिक संवर्धन एवं निवेश निगम (Industrial Promotion & Investment Corporation of Odisha (IPICOL)) के साथ मिलकर 22 नवंबर 1984 को मेसर्स मनोरमा केमिकल्स वर्क्स लिमिटेड को गंजम, ओडिशा में ब्लीचिंग पाउडर संस्था स्थापित करने के लिये संयुक्त रूप से वित्तपोषित किया।
- मेसर्स विज्ञान केमिकल इंडस्ट्रीज लिमिटेड देहरादून (प्रत्यर्थी संख्या 1) ने 29 जुलाई 1985 को मनोरमा केमिकल्स को 66,454.65 रुपए मूल्य का कच्चा माल आपूर्ति किया, किंतु मनोरमा केमिकल्स ने भुगतान दायित्त्वों में व्यतिक्रम किया।
- मनोरमा केमिकल्स द्वारा वित्तीय सहायता चुकाने में असफल रहने के कारण, ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) ने राज्य वित्तीय निगम अधिनियम, 1951 की धारा 29 के अधीन 18.08.1987 को औद्योगिक संस्था का कब्जा ले लिया।
- प्रत्यर्थी संख्या 1 ने द्वितीय अपर सिविल न्यायाधीश, देहरादून के न्यायालय में मनोरमा केमिकल्स और अन्य के विरुद्ध 24% प्रति वर्ष ब्याज के साथ 90,400/- रुपए का दावा करते हुए 1988 में वसूली वाद संख्या 103 दायर किया।
- तत्पश्चात, 11 फरवरी 1993 को ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) को प्रतिवादी संख्या 4 के रूप में पक्षकार बनाया गया, जिसे 6 दिसंबर 1994 को विचारण न्यायालय द्वारा अनुमति दे दी गई, जबकि ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) ने विविध अपील और रिट याचिका के माध्यम से आपत्तियाँ व्यक्त की थीं।
- विचारण न्यायालय ने 20.08.2001 को आंशिक रूप से वाद का निपटारा करते हुए ₹84,170/- की डिक्री पारित की, जिसमें 01 मार्च 1988 से 23 सितम्बर 1992 तक प्रतिवर्ष 24% की दर से लंबित वाद एवं भविष्य का ब्याज तथा 23.09.1992 से संदाय की तिथि तक प्रति माह 2% चक्रवृद्धि ब्याज सम्मिलित था।
- ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) ने कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान कुल 9,86,243/- रुपए (1998 में 6,36,243/- रुपए तथा 1999 में 3,50,000/- रुपए) की दो बैंक गारंटिया प्रस्तुत की थीं, जिन्हें तत्पश्चात नकद कर लिया गया।
- लगभग चार दशकों तक चली अनेक अपीलों और विधिक चुनौतियों के होते हुए भी, निष्पादन की कार्यवाही जारी रही, जिसमें ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) को लगभग 22 करोड़ रुपए मूल्य के बैंक खातों और परिसंपत्तियों की कुर्की का सामना करना पड़ा, जिससे कुल राशि बढ़कर 8,89,33,416.30 रुपए हो गई।
- इस मामले में ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) के विरुद्ध वाद की स्थिरता, लघु एवं सहायक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित संदाय पर ब्याज अधिनियम, 1993 की प्रयोज्यता, तथा सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अधीन अनिवार्य प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के अनुपालन से संबंधित मूलभूत प्रश्न सम्मिलित थे।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि राज्य के स्वामित्व वाली संस्था के विरुद्ध वाद संस्थित करने से पहले सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अधीन सूचना देने की अनिवार्य आवश्यकता का पालन नहीं किया गया था, जिससे डिक्री अकृत हो गई और सिविल प्रक्रिया संहित की धारा 47 के अधीन निष्पादन कार्यवाही के दौरान चुनौती दी जा सकती है।
- न्यायालय ने कहा कि धारा 80 के अधीन सूचना देने में विचारण न्यायालय की असफलता ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) के विरुद्ध वाद स्वीकार करने की उसकी अधिकारिता के मूल में जाती है, क्योंकि ऐसी पूर्व शर्तों को सिविल विवादों में अनिवार्य माना जाता है, जहाँ सांविधि में ऐसा विहित किया गया है।
- न्यायालय ने कहा कि लघु एवं सहायक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित संदाय पर ब्याज अधिनियम, 1993 लागू नहीं होता, क्योंकि कच्चे माल की आपूर्ति 1985 में हुई थी, जो कि अधिनियम के 23.09.1992 को लागू होने से काफी पहले की बात है।
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) की प्रत्यर्थी संख्या 1 के साथ कोई संविदा नहीं थी, तथा इसका दायित्त्व राज्य वित्तीय निगम अधिनियम, 1951 की धारा 29 के अधीन परिकल्पित सीमा तक ही सीमित था, जो कि केवल उसके बकाया के समायोजन के बाद प्राप्त आय का न्यासी था।
- न्यायालय ने कहा कि विचारण न्यायालय ने स्थिरता, अधिकारिता और परिसीमा से संबंधित विवाद्यकों को विरचित करने में असफल रहने तथा अधिकारिता के मूल तक जाने वाले इन आधारभूत प्रश्नों पर निष्कर्ष न देने के कारण एक मौलिक त्रुटि की है।
- उच्चतम न्यायालय ने मुकदमेबाजी के तरीके को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया, तथा कहा कि लोक धन के प्रबंधन का उत्तरदायित्त्व जिन लोक संस्थाओं को सौंपा गया है, उन्हें विधिक कार्यवाही में तत्परता और जवाबदेही के उच्चतम मानकों को बनाए रखना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि प्रक्रियागत अनुपालन केवल औपचारिकता नहीं है, अपितु यह राज्य के संस्थानों और सरकारी खजाने के हितों की रक्षा के लिये बनाया गया एक ठोस सुरक्षा उपाय है, विशेषकर तब जब करोड़ों रुपए का लोक धन दांव पर लगा हो।
- उच्चतम न्यायालय ने इस आदेश को अप्रवर्तनीय घोषित कर दिया तथा प्रत्यर्थी संख्या 1 को बैंक प्रत्याभूति नकदीकरण और जमा कुर्की के माध्यम से प्राप्त 2,92,57,559 रुपए की राशि, बिना ब्याज के, तीन महीने के भीतर वापस करने का निदेश दिया।
- न्यायालय ने विधि के शासन को कायम रखने तथा निष्पक्षता और न्याय की रक्षा करने के लिये, आदेशों की जांच करने तथा उनकी नींव को कमजोर करने वाली विधिक कमियों को दूर करने के लिये निष्पादन के चरण में भी हस्तक्षेप करने के अपने कर्त्तव्य पर बल दिया।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 क्या है?
- अनिवार्य सूचना की आवश्यकता : सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 में यह अनिवार्य किया गया है कि सरकार या किसी लोक अधिकारी के विरुद्ध उनकी आधिकारिक क्षमता में पूर्व लिखित सूचना दिये बिना और ऐसी सूचना दिये जाने के दो मास बाद तक इंतजार किये बिना कोई वाद संस्थित नहीं किया जाएगा।
- सूचना प्राप्तकर्ता : सूचना विशिष्ट प्राधिकारियों को दी जानी चाहिये - केंद्र सरकार के वादों के लिये उस सरकार सचिव को, रेलवे से संबंधित मामलों के लिये प्रधान प्रबंधक को, जम्मू और कश्मीर सरकार के लिये मुख्य सचिव को, तथा अन्य राज्य सरकारों के लिये सचिव या जिला कलेक्टर को।
- सूचना की विषय-वस्तु : लिखित सूचना में वाद-हेतुक, वादी का नाम, विवरण और निवास स्थान तथा प्रस्तावित वाद से मांगे गए विनिर्दिष्ट अनुतोष का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिये।
- दो मास की प्रतीक्षा अवधि : सूचना देने के पश्चात्, वादी को वाद संस्थित करने से पूर्व दो मास की अवधि समाप्त होने तक प्रतीक्षा करनी होगी, जिससे सरकार को मामले पर विचार करने और मुकदमेबाजी के बिना संभावित रूप से समाधान करने का समय मिल जाएगा।
- वादपत्र की आवश्यकताएँ : वादपत्र (औपचारिक परिवाद) में एक विशिष्ट कथन होना चाहिये जिसमें यह घोषित किया गया हो कि अनिवार्य सूचना विधि द्वारा अपेक्षित रूप से उचित कार्यालय में उचित रूप से वितरित या छोड़ दी गई है।
- अत्यावश्यक अनुतोष के लिये अपवाद : उपधारा (2) में एक अपवाद का उपबंध है जिसके अधीन अत्यावश्यक या तत्काल अनुतोष के लिये वाद न्यायालय की अनुमति से बिना पूर्व सूचना दिये संस्थित किया जा सकता है, किंतु सरकार को कारण बताने का उचित अवसर दिये बिना अनुतोष प्रदान नहीं किया जा सकता।
- न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति : जब बिना सूचना के तत्काल अनुतोष मांगा जाता है, तो न्यायालय को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि यदि वह यह अवधारित करता है कि तत्काल अनुतोष की आवश्यकता नहीं है, तो वह सूचना की आवश्यकताओं का अनुपालन करने के पश्चात् वादपत्र को पुनः प्रस्तुतीकरण के लिये वापस कर सकता है।
- तकनीकी दोषों के विरुद्ध संरक्षण : उपधारा (3) यह सुनिश्चित करती है कि वाद को केवल सूचना में त्रुटि या दोष के कारण खारिज नहीं किया जाएगा, बशर्ते कि वादी की पहचान स्पष्ट हो और वाद का कारण तथा अनुतोष पर्याप्त रूप से इंगित किया गया हो।
- पर्याप्त अनुपालन सिद्धांत : यह प्रावधान पर्याप्त अनुपालन के सिद्धांत का पालन करता है, जिसका अर्थ है कि सूचना में मामूली तकनीकी त्रुटियों के कारण वाद अमान्य नहीं होगा, यदि आवश्यक आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं और सरकार परिवादकर्त्ता की पहचान कर सकती है।
- अधिकारिता सुरक्षा : धारा 80 एक अधिकारिता सुरक्षा के रूप में कार्य करती है जो सरकारी संस्थाओं को तुच्छ मुकदमेबाजी से बचाती है, साथ ही यह सुनिश्चित करती है कि औपचारिक विधिक कार्यवाही शुरू होने से पहले उन्हें शिकायतों का समाधान करने का पर्याप्त अवसर मिले।