करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

एक अभियुक्त का प्रथम सूचना रिपोर्ट में दिया गया कथन दूसरे के विरुद्ध साक्ष्य रूप में प्रयोज्य नहीं है

 14-Aug-2025

नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य 

"किसी एक अभियुक्त द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में दिये गए कथन को किसी भी प्रकार से दूसरे अभियुक्त के विरुद्ध प्रयोग नहीं किया जा सकता।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) मामलेमें उच्चतम न्यायालय नेस्पष्ट किया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में एक अभियुक्त द्वारा दिये गए कथन का प्रयोग दूसरे अभियुक्त के विरुद्ध नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि "किसी एक अभियुक्त द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में दिये गए कथन का प्रयोग किसी भी प्रकार से दूसरे अभियुक्त के विरुद्ध नहीं किया जा सकता है। यहाँ तक कि कथन करने वाले अभियुक्त के विरुद्ध भी, यदि कथन की प्रकृति दोषारोपण करने वाली है तो उसका प्रयोग नहीं किया जा सकता है।" 

नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्त्ता ने स्वयं दिनांक 27.09.2019 को कोरबा कोतवाली पुलिस स्टेशन, जिला कोरबा में एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई, जो भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये पंजीकृत की गई थी। 
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में अपीलकर्त्ता द्वारा विस्तृत संस्वीकृति दी गई थीजिसमें बताया गया था कि कैसे उसने अपनी प्रेमिका की तस्वीर दिखाने को लेकर हुए झगड़े के बाद राम बाबू शर्मा की हत्या कर दी थी। 
  • अन्वेषण करने पर मृतक का शव उसके घर से बरामद हुआ तथा हत्या के कथित हथियार (चाकू) सहित विभिन्न वस्तुएँ बरामद की गईं। 
  • पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृतक के शरीर पर छह घाव पाए गए, जिनमें से मृत्यु का कारण दाहिनी छाती से अत्यधिक रक्तस्राव और दाहिने फेफड़े के ऊपरी भाग में चोट के कारण उत्पन्न आघात बताया गया। 
  • विचारण न्यायालय ने अपीलकर्त्ता कोभारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दोसिद्ध ठहराया और उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया 
  • उच्च न्यायालय नेअपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया, तथा दोषसिद्धि को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 से धारा 304 भाग 1 में परिवर्तित कर दिया, तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 का लाभ दिया। 
  • अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने आपराधिक अपील को स्वीकार कर लिया और अपीलकर्त्ता को सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया तथा उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण मेंकई मौलिक त्रुटियों कीपहचान की और निम्नलिखित प्रमुख टिप्पणियाँ कीं: 

  • संस्वीकृतिपूर्ण प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) पर : यह प्रतिपादित किया गया कि उच्च न्यायालय की प्रथम त्रुटि संस्वीकृतिपूर्ण प्रथम सूचना रिपोर्ट को ग्राह्य साक्ष्य मानना था। न्यायालय ने बल देकर कहा कि अभियुक्त द्वारा पुलिस के समक्ष की गई  कोई भी संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 के अधीन वर्जित है और उसे चिकित्सकीय साक्ष्य के साथ संपुष्ट नहीं किया जा सकता 
  • विशेषज्ञ साक्ष्य पर: पीठ ने चिकित्सकीय साक्ष्य पर उच्च न्यायालय की निर्भरता की आलोचना करते हुए यह रेखांकित किया किचिकित्सक तथ्य का प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं होता” तथा विशेषज्ञ साक्ष्य मात्रपरामर्शात्मक प्रकृति का” होता है। न्यायमूर्ति पारदीवाला ने बल देते हुए कहा किहत्या के मामलों में सिर्फ़ चिकित्सकीय साक्ष्य से दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता।  
  • धारा 300 भारतीय दण्ड संहिता के अपवाद 4 के दुरुपयोग पर: उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 कोविधिक रूप से गलतपायाऔर कहा कि "मृतक निहत्था था" और कोई "आपसी झगड़ा" नहीं हुआ था, जैसा कि अपेक्षित था। न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता नेएक निर्दोष पीड़ित पर हमला करके "अनुचित लाभ उठाया और क्रूरतापूर्वक कार्य किया" । 
  • साक्ष्य की पर्याप्तता पर : पीठ ने निष्कर्ष निकाला किअधिकांश पंच साक्षियों के पक्षद्रोही हो जानेतथा अपीलकर्त्ता को अपराध से जोड़ने वाला कोई विधिक रूप से ग्राह्य साक्ष्य उपलब्ध नहीं था। अतः यहऐसा मामला है जिसमें कोई विधिक साक्ष्य विद्यमान नहीं है और इसलिये अपीलकर्त्ता को दोषमुक्त किया जाना चाहिये।" 

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) क्या है? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 173 संज्ञेय मामलों में सूचना से संबंधित उपबंध बताए गए हैं। 
  • इससे पहले यह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 154 के अंतर्गत आता था। 
  • इसे सामान्यत: प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के नाम से जाना जाता है, यद्यपि इस शब्द का प्रयोग संहिता में नहीं किया गया है। जैसा कि इसके उपनाम से पता चलता है, यह किसी पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी द्वारा दर्ज की गई किसी संज्ञेय अपराध की सबसे प्रारंभिक और प्रथम सूचना होती है। 
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का मुख्य उद्देश्यआपराधिक विधि को लागू करना, कथित आपराधिक गतिविधि के बारे में जानकारी प्राप्त करना और अपराध से जुड़ी घटनाओं का सही या लगभग सही विवरण प्राप्त करना है। 
  • यहअभियोजन पक्ष की ओर से स्वयं ही खामियों को भरने कीअवांछनीय प्रवृत्ति पर अंकुश लगाता है। 
  • अभियुक्त को बाद में होने वाले परिवर्तनों या परिवर्धनों सेबचाना । 
  • इसका उपयोग केवलकुछ सीमित उद्देश्योंके लिये ही किया जा सकता है जैसे: 
    • अभियोजन पक्ष द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्जकरने वाले के कथन  कीसंपुष्टिके लिये इसे साबित किया जाता है। इसका प्रयोग प्रथम इत्तिलाकर्त्ता के कथनका खण्डन करने के लिये भी किया जा सकता है। 
    • इसका उपयोग यह दर्शाने के लिये किया जा सकता है किमामले में अभियुक्तों कोफंसाना बाद में नहीं सोचा गया था। 
    • जहाँ प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को इत्तिला देने वाले के आचरण के एक भाग के रूप में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, वहाँ इसका उपयोगठोस साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है।  
    • यदिइत्तिलाकर्त्ता की मृत्यु हो जाती हैऔर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में उसकी मृत्यु के कारण या उसकी मृत्यु से संबंधित परिस्थितियों के बारे में कथन होता है, तो इसेठोस साक्ष्य के रूप मेंप्रयोग किया जा सकता है । 

सिविल कानून

जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र संशोधन

 14-Aug-2025

सुहास एल बनाम मुख्य रजिस्ट्रार जन्म और मृत्यु एवं अन्य 

"सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 के अधीन सिविल न्यायालयों की अधिकारिता को विधानमंडल द्वारा एक विशेष विधि बनाकर अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित रूप से अपवर्जित रखा जा सकता है जो किसी विनिदिष्ट प्राधिकारी के समक्ष एक विशिष्ट उपचार उपबंधित करती है।" 

न्यायमूर्ति सचिन शंकर मगादुम 

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

सुहास एल बनाम मुख्य रजिस्ट्रार जन्म और मृत्यु एवं अन्य (2025) मामलेमें कर्नाटक उच्च न्यायालयने स्थापित किया किसिविल न्यायालय जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्रों में प्रविष्टियों में संशोधन की मांग करने वाले वादों पर विचार नहीं कर सकता हैं, तथायह निर्णय दिया कि ऐसे मामले जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 की धारा 15 के अधीन विशेष रूप से रजिस्ट्रार की अधिकारिता में आते हैं। 

सुहास एल बनाम मुख्य रजिस्ट्रार (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्त्ता, सुहास एल, नेअपनी माता के मृत्यु प्रमाण पत्र में उनके नाम को "श्रीमती लता बी." से सही नाम "श्रीमती मल्लिका बी.वी." में परिवर्तित करने की मांग करते हुए एक वाद दायर किया। 
  • वादी ने कर्नाटक सरकार के जन्म एवं मृत्यु के मुख्य रजिस्ट्रार तथा अन्य बी.बी.एम.पी. अधिकारियों के विरुद्ध वाद दायर कर मृत्यु प्रमाण पत्र में संशोधन के लिये घोषणा और निदेश की मांग की। 
  • विचारण न्यायालय ने 1 अक्टूबर 2022 को वाद खारिज कर दिया, यहमानते हुए कि वादी पर्याप्त साक्ष्य पेश करने और अस्पताल के सक्षम आधिकारिक साक्षियों की परीक्षा करने में असफल रहा। 
  • प्रत्यर्थी प्राधिकारियों ने अधिकारिता संबंधी आक्षेप उठाया और तर्क दिया कि सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (CPC) की धारा 9 और जन्म एवं मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 की धारा 15 के अधीन उपलब्ध सांविधिक उपचार के मद्देनजर सिविल न्यायालय के पास अधिकारिता का अभाव है। 
  • वाद खारिज किये जाने से व्यथित होकर, वादी ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष नियमित प्रथम अपील संख्या 2454/2024 दायर किया 
  • इस मामले ने सिविल न्यायालय की अधिकारिता के संबंध में मौलिक प्रश्न प्रस्तुत किये, जब प्रशासनिक संशोधन हेतु विशेष सांविधिक उपचार विद्यमान हों। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायमूर्ति सचिन शंकर मगदुम नेअपील खारिज करते हुए कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं: 
  • अनन्य सांविधिक प्राधिकार पर:न्यायमूर्ति मगदुम ने कहा कि "जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 की धारा 15 रजिस्ट्रार को जन्म और मृत्यु से संबंधित प्रविष्टियों की जांच करने और उनमें संशोधन करने या उन्हें रद्द करने का अनन्य प्राधिकार प्रदान करती है।" 
  • सिविल न्यायालय की अधिकारिता के अपवर्जन पर:न्यायालय ने निर्णय दिया कि "सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 के अधीन सिविल न्यायालयों की अधिकारिता को विधानमंडल द्वारा एक विशेष विधि बनाकर अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित रूप से अपवर्जित किया जा सकता है जो किसी निर्दिष्ट प्राधिकारी के समक्ष विशिष्ट उपचार प्रदान करता है।" 
  • विधायी आशय पर:न्यायमूर्ति मगदुम ने कहा कि "धारा 15 को स्पष्ट रूप से पढ़ने पर यह स्पष्ट है कि विधानमंडल का आशय जन्म और मृत्यु अभिलेखों में संशोधन से संबंधित मामलों में सिविल न्यायालयों की अधिकारिता को समाप्त करना था, जो पूरी तरह से प्रशासनिक प्रकृति के हैं।" 
  • घुमावदार विधिक मार्ग पर:न्यायालय ने इस दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए कहा कि "वादी ने दुर्भाग्यवश विशेष विधि के अधीन प्रदान किये गए प्रभावी और संक्षिप्त उपचार को अपनाने के बजाय, सिविल वाद दायर करके घुमावदार और समय लेने वाला विधिक मार्ग चुना है।" 
  • रजिस्ट्रार की शक्तियों पर:न्यायालय ने स्पष्ट किया कि "रजिस्ट्रार की शक्तियां केवल लिपिकीय या मुद्रण संबंधी त्रुटियों तक ही सीमित नहीं हैं, अपितु पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत किये जाने पर मूल संशोधनों तक भी विस्तारित हैं।" 

जन्म एवं मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 क्या है? 

बारे में: 

  • जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 एक व्यापक केंद्रीय विधि है जो भारत में होने वालेसभी जन्मों और मृत्युओं के रजिस्ट्रीकरण कोअनिवार्य बनाता है और सटीक महत्त्वपूर्ण आंकड़े बनाए रखने के लिये विधिक ढाँचा प्रदान करता है। 
  • यह अधिनियम पूर्ववर्ती औपनिवेशिक युग की विधि को प्रतिस्थापित करने तथा देश भर में जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण की एक समान प्रणाली बनाने के लिये बनाया गया था, जिससे प्रशासनिक और सांख्यिकीय उद्देश्यों के लिये विश्वसनीय जनसांख्यिकीय डेटा सुनिश्चित हो सके।  
  • यह विधि तीन स्तरीय रजिस्ट्रीकरण प्रणाली स्थापित करता है, जिसमें विभिन्न स्तरों - स्थानीय, उप-जिला और जिला - पर रजिस्ट्रार सम्मिलित होते हैं, जिससे महत्त्वपूर्ण अभिलेखों की व्यापक व्याप्ति और उचित रखरखाव सुनिश्चित किया जा सके। 
  • यह अधिनियमराज्य सरकारों को कार्यान्वयन के लिये नियम बनाने काअधिकार देता है, जिसके परिणामस्वरूप कर्नाटक जन्म एवं मृत्यु रजिस्ट्रीकरण नियम, 1999 जैसे राज्य-विशिष्ट रजिस्ट्रीकरण नियम बनते हैं। 

धारा 15 – जन्म और मृत्यु रजिस्टर में प्रविष्टि को ठीक या रद्द करना : 

  • यदि रजिस्ट्रार को समाधान प्रदान करने वाले रूप में यह साबित कर दिया जाए कि रजिस्टर में जन्म या मृत्यु की प्रविष्टि त्रुटिपूर्ण है (प्रारूपत: या सारत:) या कपटपूर्वक/अनुचित तौर पर की गई है, तो वह राज्य सरकार के नियमों का पालन करते हुए उसे ठीक या रद्द कर सकता है। 
  • परिवर्तन या रद्द मूल प्रविष्टि में कोई परिवर्तन किये बिना पार्श्व प्रविष्टि पर नोट के रूप में किया जाना चाहिये, तथा रजिस्ट्रार को उस पर हस्ताक्षर करना चाहिये तथा परिवर्तन या रद्द की तारीख का उल्लेख करना चाहिये 

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 क्या है? 

  • सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9यह मौलिक सिद्धांत स्थापित करती है कि सिविल न्यायालयों को सिविल प्रकृति के सभी वादों पर विचारण करने का अधिकार है, जब तक कि उनकी अधिकारिता को अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित रूप से वर्जित न किया गया हो।  
  • उपबंध में कहा गया है:"न्यायालयों को (इसमें निहित उपबंधों के अधीन) सिविल प्रकृति के सभी वादों पर विचारण करने का अधिकार होगा, सिवाय उन वादों के जिनके संज्ञान पर अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित रूप से वर्जित न किया गया हो।" 
  • इससेसिविल न्यायालय की अधिकारिता के पक्ष में एक उपधारणाबनती है, किंतु इस उपधारणा को तब खारिज किया जा सकता है जब विशेष विधि वैकल्पिक उपचार और मंच प्रदान करता है।