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सांविधानिक विधि
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(छ)
07-Oct-2025
विनीश्मा टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड बनाम छत्तीसगढ़ राज्य एवं अन्य “छत्तीसगढ़ में पूर्व अनुभव वाले आपूर्तिकर्त्ताओं तक भागीदारी को सीमित करने वाली निविदा शर्त मनमानी थी और इसने गुटबाजी को बढ़ावा दिया, समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन किया और संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1) (छ) का उल्लंघन किया।” न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति आलोक अराधे |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति आलोक अराधे ने छत्तीसगढ़ सरकार की निविदा शर्त को रद्द कर दिया, जिसमें बोलीदाताओं को राज्य अभिकरणों के साथ केवल 6 करोड़ रुपए मूल्य की आपूर्ति का पूर्व अनुभव होना आवश्यक था , इसे तर्कहीन, अनुपातहीन और अनुच्छेद 19(1)(छ) का उल्लंघन माना गया क्योंकि इसने योग्य राष्ट्रीय आपूर्तिकर्ताओं के विरुद्ध एक कृत्रिम बाधा उत्पन्न की।
- उच्चतम न्यायालय ने विनिष्मा टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड बनाम छत्तीसगढ़ राज्य एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
विनिष्मा टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड बनाम छत्तीसगढ़ राज्य एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- विनिष्मा टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड, जो कि कंपनी अधिनियम, 2013 के अधीन रजिस्ट्रीकृत मुंबई स्थित कंपनी है, अपीलकर्त्ता है, जिसे बिहार, कर्नाटक, गुजरात और दिल्ली में विभिन्न राज्य विभागों को खेल किट की आपूर्ति करने का पूर्व अनुभव है।
- छत्तीसगढ़ राज्य और राज्य परियोजना निदेशक, समग्र शिक्षा छत्तीसगढ़ प्रत्यर्थी हैं।
- 21 जुलाई 2025 को, छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों को खेल किट की आपूर्ति के लिये सरकारी ई-मार्केट प्लेस पोर्टल के माध्यम से तीन निविदा सूचनाएँ जारी की गईं। संविदाओं का मूल्य क्रमशः 15.24 करोड़ रुपए, 13.08 करोड़ रुपए और 11.49 करोड़ रुपए था, जो 33 जिलों के 5,540 क्लस्टर संसाधन केंद्रों की बात करते थे।
- "पिछले प्रदर्शन प्रतिबंध" शीर्षक वाली शर्त संख्या 4 के अनुसार, बोलीदाताओं को पिछले तीन वित्तीय वर्षों में छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार की अभिकरणों को कम से कम ₹6.00 करोड़ (संचयी) मूल्य के खेल सामान की आपूर्ति करनी होगी। इस शर्त के कारण अपीलकर्त्ता भाग लेने के लिये अयोग्य हो गया।
- अपीलकर्त्ता के 29 जुलाई 2025 के अभ्यावेदन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। तत्पश्चात्, निविदा शर्तों को चुनौती देते हुए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में तीन रिट याचिकाएँ दायर की गईं।
- लंबित रहने के दौरान, 7 अगस्त 2025 को जारी शुद्धिपत्र में शर्त 1, 11 और 13 को हटा दिया गया, किंतु शर्त संख्या 4 को बरकरार रखा गया।
- उच्च न्यायालय ने 11 और 12 अगस्त 2025 के आदेशों द्वारा रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया, तथा इस शर्त को इस आधार पर बरकरार रखा कि यह सक्षम बोलीदाताओं का चयन सुनिश्चित करती है और अन्य राज्यों में भी प्रचलित है।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि यह शर्त संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1)(छ) का उल्लंघन करती है, राज्य के बाहर के सक्षम आपूर्तिकर्त्ताओं को बाहर करती है, व्यापक भागीदारी को हतोत्साहित करती है, और गुटबाजी (cartelisation) को बढ़ावा देती है।
- प्रत्यथियों ने तर्क दिया कि छत्तीसगढ़ की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों, विशेषकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को देखते हुए, समय पर वितरण और गुणवत्ता अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये यह शर्त आवश्यक थी।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि यद्यपि सरकार के पास निविदा की शर्तें तय करने का विवेकाधिकार है, किंतु यह विवेकाधिकार असीमित नहीं है और इसका मनमाने ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सकता। जहाँ निविदा की शर्तें मनमानी, भेदभावपूर्ण या दुर्भावना से प्रेरित हों, वहाँ न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक है।
- न्यायालय ने दोहराया कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(छ) में निहित समान अवसर के सिद्धांत के अनुसार, सभी समान प्रतिस्पर्धियों को व्यापार और वाणिज्य में भाग लेने का समान अवसर दिया जाना चाहिये। यह सिद्धांत राज्य को कृत्रिम अवरोध खड़े करके बाज़ार को कुछ लोगों के पक्ष में मोड़ने से रोकने के लिये बनाया गया है।
- न्यायालय ने कहा कि पात्रता मानदंड का उस उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध होना चाहिये जिसे प्राप्त किया जाना है - सर्वोत्तम मूल्य पर अच्छी गुणवत्ता वाले खेल किटों की आपूर्ति - तथा सरकारी खजाने की सुरक्षा के लिये व्यापक भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि उक्त शर्त ने पात्रता को पूर्व की स्थानीय आपूर्तियों से जोड़कर एक कृत्रिम अवरोध उत्पन्न कर दिया, जिससे उन बोलीदाताओं को बाहर कर दिया गया, जो आर्थिक रूप से सुदृढ़ और तकनीकी रूप से सक्षम होते हुए भी छत्तीसगढ़ सरकार की अभिकरणों के साथ उनका कोई पूर्व लेन-देन नहीं था।
- न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक खरीद का उद्देश्य सरकारी खजाने के लाभ के लिये गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं और सेवाओं को सुरक्षित करना है, जिसे बोलीदाताओं से वित्तीय क्षमता, तकनीकी अनुभव और समान प्रकृति के संविदाओं में पूर्व पालन को प्रदर्शित करने की अपेक्षा करके प्राप्त किया जा सकता है, चाहे पालन का स्थान कुछ भी हो।
- न्यायालय ने माना कि पात्रता को एक राज्य तक सीमित रखना तर्कहीन है और प्रभावी वितरण सुनिश्चित करने के लक्ष्य के अनुपात में नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 19(6) के अधीन इस तरह के प्रतिबंध को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
- न्यायालय ने पाया कि यह शर्त बाहरी लोगों के लिये एक बंद द्वार की तरह काम करती है, सक्षम आपूर्तिकर्त्ताओं को अपवर्जित करती है, जिन्होंने अन्य राज्यों में या केंद्र सरकार के लिये बड़ी संविदा निष्पादित की होंगी, प्रतिस्पर्धा को प्रतिबंधित करती है, तथा गुटबाजी को बढ़ावा देती है।
- न्यायालय ने राज्य के इस तर्क को खारिज कर दिया कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिये स्थानीय अनुभव आवश्यक है, तथा कहा कि:
(i) निविदा खेल किटों के लिये थी, सुरक्षा-संवेदनशील उपकरणों के लिये नहीं, जिनमें कोई विशेष जोखिम नहीं था;
(ii) केवल कुछ जिले ही नक्सल प्रभावित हैं, तथा संपूर्ण राज्य के साथ एक जैसा व्यवहार करना गलत है; तथा
(iii) स्थलाकृति से अपरिचित बोलीदाता स्थानीय आपूर्ति श्रृंखलाओं को सम्मिलित कर सकते हैं। - न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि निविदा की शर्त मनमानी, अनुचित और भेदभावपूर्ण थी, तथा खेल किटों की प्रभावी आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इसमें तर्कसंगत संबंध का अभाव था।
- न्यायालय ने माना कि यह शर्त भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19(1)(छ) का उल्लंघन करती है।
- तदनुसार, न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश और निविदा नोटिस को रद्द कर दिया तथा प्रत्यर्थियों को नई निविदाएँ जारी करने की स्वतंत्रता प्रदान की।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(छ) क्या है और इसका उल्लंघन क्या है?
- अनुच्छेद 19(1)(छ) की प्रकृति और दायरा:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(छ) सभी नागरिकों को कोई भी वृत्ति, या कोई भी उपजीविका, व्यापार या कारबार करने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है।
- यह अधिकार व्यापक और सामान्य प्रकृति का है, जो व्यक्तियों को राज्य के मनमाने प्रतिबंधों के बिना स्वतंत्र रूप से अपना कारबार या वृत्ति चुनने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 19(1)(छ) के अधीन अधिकार पूर्ण नहीं है और यह विधि द्वारा प्रतिषिद्ध अवैध गतिविधियों या वृत्ति तक विस्तारित नहीं है।
- अनुच्छेद 19(1)(छ) संविधान के अनुच्छेद 19(6) के अधीन है, जो राज्य को आम जनता के हित में इस अधिकार पर युक्तियुक्त निर्बंधन अधिरोपित करने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 19(6) किसी वृति को अपनाने या कोई उपजीविका, व्यापार या कारबार करने के लिये आवश्यक उपजीविका या तकनीकी योग्यताएँ विहित करने वाली विधियों को अधिनियमित करने की भी अनुमति देता है।
- समान अवसर का सिद्धांत अनुच्छेद 19(1)(छ) में सन्निहित एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है, जिसके अनुसार सभी समान रूप से स्थित प्रतिस्पर्धियों को व्यापार और वाणिज्य में भाग लेने के लिये समान अवसर दिया जाना चाहिये।
- समान अवसर का सिद्धांत, राज्य को लोक हित के आधार पर कृत्रिम बाधाएँ खड़ी करके बाजार को कुछ लोगों के पक्ष में मोड़ने से रोकने के लिये बनाया गया है।
- अधिकार पर परिसीमाएँ:
- अनुच्छेद 19(1)(छ) के अधीन नागरिक अपनी पसंद का कोई विशिष्ट पद या नौकरी रखने का मौलिक अधिकार नहीं मांग सकते।
- राज्य या किसी भी सांविधिक निकाय पर किसी कारबार को लाभदायक बनाने या किसी व्यक्ति को ग्राहक या कारबार के अवसर प्रदान करने का कोई दायित्त्व नहीं है।
- यदि किसी व्यक्ति का किसी स्थान पर कब्जा विधिविरुद्ध है, तो वे उस स्थान से कारबार करने को उचित ठहराने के लिये अनुच्छेद 19(1)(छ) का सहारा नहीं ले सकते।
- अनुच्छेद 19(1)(छ) के अधीन मौलिक अधिकारों का उपयोग अवैध कार्यों को उचित ठहराने या अधिकारियों को उनके सांविधिक कर्त्तव्यों का पालन करने से रोकने के लिये नहीं किया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने निजी उद्यम पर सामाजिक नियंत्रण के उद्देश्य से बनाए गए विधायन को बरकरार रखा है तथा भारत की नियंत्रित एवं नियोजित अर्थव्यवस्था को मान्यता देते हुए राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के अनुरूप निजी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति दी है।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 37
07-Oct-2025
एग्जीक्यूटिव ट्रेडिंग कंपनी प्राइवेट लिमिटेड बनाम ग्रो वेल मर्केंटाइल प्राइवेट लिमिटेड "हमारा विचार है कि आक्षेपित आदेश में हस्तक्षेप किये जाने की आवश्यकता है, क्योंकि यदि न्यायालय की अनुमति के बिना संक्षिप्त वाद में उत्तर या प्रतिरक्षा को अभिलिखित किये जाने की अनुमति दी जाती है, तो सामान्य रूप से संस्थित वाद और सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 37 के अधीन संक्षिप्त वाद के बीच बनाए रखने का प्रयास किया गया अंतर मिट जाता है।" न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और एस.वी.एन. भट्टी |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और एस.वी.एन. भट्टी की न्यायपीठ ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 37 के अधीन एक संक्षिप्त वाद में, न्यायालय की अनुमति के बिना कोई प्रतिरक्षा दायर नहीं की जा सकती है, बॉम्बे उच्च न्यायालय के आदेश को पलट दिया जिसने प्रतिवादी को ऐसी अनुमति के बिना उत्तर दाखिल करने की अनुमति दी थी – संक्षिप्त वादों के त्वरित निपटान के लिये विशिष्ट प्रक्रिया को स्पष्ट किया।
- उच्चतम न्यायालय ने एग्जीक्यूटिव ट्रेडिंग कंपनी प्राइवेट लिमिटेड बनाम ग्रो वेल मर्केंटाइल प्राइवेट लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
एग्जीक्यूटिव ट्रेडिंग कंपनी प्राइवेट लिमिटेड बनाम ग्रो वेल मर्केंटाइल प्राइवेट लिमिटेड (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- अपीलकर्त्ता, एग्जीक्यूटिव ट्रेडिंग कंपनी प्राइवेट लिमिटेड, और प्रत्यर्थी, ग्रो वेल मर्केंटाइल प्राइवेट लिमिटेड, के बीच काफी समय से कारबार का संव्यवहार चल रहा था।
- अपीलकर्त्ता ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष 2020 का वाणिज्यिक संक्षिप्त वाद संख्या 19 दायर किया, जिसमें कथित रूप से स्वीकार की गई और पुष्टि की गई कुल देयता 2,15,54,383.50/- रुपए के साथ-साथ 24% प्रति वर्ष ब्याज के साथ 2,38,50,845.00/- रुपए की वसूली की मांग की गई।
- यह वाद 15 अक्टूबर 2019 को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 37 के अधीन दायर किया गया था।
- 15 जनवरी 2020 को वादपत्र और अनुलग्नकों के साथ समन जारी किया गया, जो 18 जनवरी 2020 को प्रतिवादी को दिया गया।
- 28 जनवरी 2020 को प्रतिवादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 37 के नियम 3 के उप-नियम (3) के अनुसार उपस्थिति दर्ज कराई।
- वादी ने वाणिज्यिक संक्षिप्त वाद संख्या 19/2020 में निर्णय संख्या 75/2021 के लिये समन दायर किया, जो 11 जनवरी 2022 को प्रतिवादी को दिया गया।
- वाद से प्रतिरक्षा करने की अनुमति मांगने के लिये आवेदन दायर करने के बजाय, प्रतिवादी ने 2022 का I.A. (L) No.7771 दायर किया, जिसमें वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 12क का अनुपालन न करने के कारण वाद को खारिज करने की प्रार्थना की गई, जो पूर्व-संस्थित मध्यस्थता को अनिवार्य बनाती है।
- 8 अप्रैल 2022 को उक्त आवेदन को स्वीकार कर लिया गया, पक्षकारों को मध्यस्थता के लिये भेज दिया गया और संक्षिप्त वाद को स्थगित रखा गया।
- मध्यस्थ द्वारा 9 फरवरी 2023 को एक मध्यस्थता रिपोर्ट दायर की गई, जिसमें यह दर्शाया गया कि मध्यस्थता विवाद को हल करने में असफल रही।
- वादी ने 2023 में I.A. संख्या 1353 दायर की, जिसमें वादपत्र में संशोधन करने और संलग्न अनुसूची के अनुसार निर्णय के लिये समन जारी करने की अनुमति मांगी गई।
- उक्त आवेदन को 29 अगस्त 2023 के आदेश द्वारा स्वीकार कर लिया गया तथा वादी को निदेश दिया गया कि वह वादपत्र में संशोधन करे तथा दो सप्ताह के भीतर निर्णय के लिये समन जारी करे तथा उसके बाद एक सप्ताह के भीतर उसे दूसरे पक्षकार को भी तामील करे।
- 5 दिसंबर 2023 को उच्च न्यायालय ने एक आदेश पारित किया जिसमें प्रतिवादी को 20 दिसंबर 2023 तक निर्णय के लिये समन का उत्तर दाखिल करने का निदेश दिया गया, जिसकी एक प्रति दूसरे पक्षकार को भी दी जाए तथा यदि कोई प्रत्युत्तर हो तो उसे 9 जनवरी 2024 तक दाखिल किया जाए।
- प्रतिवादी ने 23 जनवरी 2024 को बचाव पक्ष की अनुमति के लिये आवेदन करने में हुई देरी को माफ करने के लिए आवेदन दायर किया, जो उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित रहा।
- वादी ने उच्च न्यायालय के 5 दिसंबर 2023 के आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, जिसमें तर्क दिया गया कि प्रतिरक्षा की अनुमति मांगे बिना निर्णय के लिये समन का उत्तर दाखिल करने का निदेश प्रक्रियात्मक रूप से गलत था और सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 37 की अनिवार्य आवश्यकताओं के विपरीत था।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि यदि न्यायालय की अनुमति के बिना संक्षिप्त वाद में उत्तर या प्रतिरक्षा को अभिलिखित किये जाने की अनुमति दी जाती है, तो सामान्य रूप से संस्थित वाद और सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 37 के अधीन संक्षिप्त वाद के बीच का अंतर मिट जाता है।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा किया गया प्रक्रियागत विचलन मामले की जड़ तक जाता है और विवादित आदेश को बरकरार नहीं रखा जा सकता।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 37 के अधीन, प्रतिवादी को एक वास्तविक और पर्याप्त प्रतिरक्षा का प्रकटन करते हुए शपथपत्र दायर करके प्रतिरक्षा की अनुमति के लिये आवेदन करना होगा।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रतिरक्षा की अनुमति तब तक अस्वीकार नहीं की जाएगी जब तक कि प्रतिरक्षा तुच्छ या परेशान करने वाली न हो, और यदि प्रतिवादी यह स्वीकार करता है कि उस पर राशि का कुछ भाग बकाया है, तो प्रतिरक्षा की अनुमति प्राप्त करने के लिये वह राशि न्यायालय में जमा करनी होगी।
- न्यायालय ने कहा कि यदि प्रतिवादी अनुमति के लिये आवेदन नहीं करता है या आवेदन अस्वीकार कर दिया जाता है, तो वादी तत्काल निर्णय का हकदार है।
- न्यायालय ने स्वीकार किया कि यदि प्रतिवादी के पास पर्याप्त हेतुक है तो न्यायालय के पास प्रतिरक्षा के लिये अनुमति हेतु आवेदन करने में किसी भी विलंब को क्षमा करने का विवेकाधिकार है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि विवादित आदेश को अपास्त करने से प्रतिवादी को पहले से जारी किये गए निर्णय समन में उपलब्ध विकल्प समाप्त नहीं होंगे, तथा टिप्पणियों से किसी भी पक्ष के मामले पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
- न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया तथा पक्षकारों को सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 37 के नियम 3 में उल्लिखित कदमों के अनुसार उपचार का विकल्प छोड़ दिया।
आदेश 37 के अधीन संक्षिप्त वाद दायर करने के लिये चरणों का क्रम क्या है?
- संक्षिप्त वाद दायर करने पर, वादी को प्रतिवादी को वादपत्र और अनुलग्नक के साथ-साथ समन भी भेजना होगा।
- प्रतिवादी के पास व्यक्तिगत रूप से या अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित होने तथा तामील का पता उपलब्ध कराने के लिये दस दिन का समय होता है।
- उपस्थिति दर्ज करने के उसी दिन, प्रतिवादी को वादी या उसके अधिवक्ता को अपनी उपस्थिति की सूचना देनी होगी।
- तत्पश्चात् वादी, न्यायालय द्वारा विहित प्रारूप में प्रतिवादी को निर्णय के लिये समन भेजता है, जिसके साथ एक शपथपत्र भी होता है, जिसमें वाद-हेतुक, दवाकृत अनुतोष, तथा यह विश्वास होता है कि प्रतिवादी के पास कोई प्रतिरक्षा नहीं है।
- तत्पश्चात्, प्रतिवादी के पास वास्तविक और पर्याप्त प्रतिरक्षा का प्रकटन करते हुए शपथपत्र दायर करके प्रतिरक्षा की अनुमति के लिये आवेदन करने हेतु दस दिन का समय होता है।
- न्यायालय बिना शर्त या ऐसी शर्तों पर प्रतिरक्षा की अनुमति दे सकता है जो न्यायोचित प्रतीत हों।
- न्यायालय तब तक अनुमति देने से इंकार नहीं करेगा जब तक कि प्रतिरक्षा पक्ष तुच्छ या परेशान करने वाला न हो।
- यदि प्रतिवादी यह स्वीकार करता है कि उस पर राशि का कुछ भाग बकाया है, तो उसे प्रतिरक्षा की अनुमति प्राप्त करने के लिये वह राशि न्यायालय में जमा करनी होगी।
- यदि प्रतिवादी अनुमति के लिये आवेदन नहीं करता है या उसकी अनुमति मांगने वाली अर्जी अस्वीकार कर दी जाती है, तो वादी तत्काल निर्णय का हकदार है।
- यदि न्यायालय प्रतिरक्षा की अनुमति देता है, किंतु प्रतिवादी किसी शर्त या अन्य निदेशों का पालन करने में असफल रहता है, तो वादी भी तत्काल निर्णय का हकदार है।
- यदि प्रतिवादी पर्याप्त हेतुक बताता है तो न्यायालय को उपस्थिति दर्ज कराने या प्रतिरक्षा के लिये अनुमति हेतु आवेदन करने में किसी भी प्रकार के विलंब को क्षमा करने का विवेकाधिकार है।