एडमिशन ओपन: UP APO प्रिलिम्स + मेंस कोर्स 2025, बैच 6th October से   |   ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (प्रयागराज)   |   अपनी सीट आज ही कन्फर्म करें - UP APO प्रिलिम्स कोर्स 2025, बैच 6th October से









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

किशोर न्याय अधिनियम, 2000 भूतलक्षी रूप से लागू होता है

 10-Oct-2025

हंसराज बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 

वे सभी व्यक्ति, जो अपराध किये जाने की तिथि पर अठारह वर्ष से कम आयु के थे, उन्हें किशोर माना जाएगा, भले ही यह अपराध 1 अप्रैल 2001 से पूर्व किया गया हो। यदि किशोरता का दावा उस समय प्रस्तुत किया जाता है जब वे अठारह वर्ष की आयु पूर्ण कर चुके हों या किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के प्रवर्तन की तिथि तक दण्ड भोग रहे हों, तब भी उन्हें उक्त अधिनियम के प्रावधानों के अधीन किशोर के रूप में ही विचारित किया जाएगा।” 

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और ए.जी. मसीह 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की न्यायपीठ ने एक हत्या के दोषी को रिहा करने का आदेश दिया, जो 1981 में किशोर था। न्यायालय ने यह कहते हुए कि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 भूतलक्षी रूप से लागू होता है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के अधीन तीन वर्ष की अवधि से अधिक समय तक का निरोध उसके प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।  

  • उच्चतम न्यायालय ने हंसराज बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया ।  

हंसराज बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • याचिकाकर्त्ता हंसराज का जन्म 10 जून 1969 को हुआ था। 
  • 2 नवंबर 1981 को, जब याचिकाकर्त्ता 12 वर्ष और 5 महीने का था, उसके और पाँच सह-अभियुक्तों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 302/149, 147 और 148 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी, जिसमें प्रथम सूचक के पिता पर चाकू और लाठियों से हमला करने का आरोप लगाया गया था। 
  • पीड़ित की 3 नवंबर 1981 को मृत्यु हो गई। 
  • याचिकाकर्त्ता को 6 नवंबर 1981 को गिरफ्तार किया गया तथा 1 माह 3 दिन विचाराधीन कैदी के रूप में अभिरक्षा में रहने के बाद 8 दिसंबर 1981 को जमानत दे दी गई।  
  • याचिकाकर्त्ता और सह-अभियुक्तों पर विशेष अपर सेशन न्यायाधीश, सुल्तानपुर के समक्ष विचारण संख्या 8/1983 में विचारण चलाया गया। 
  • 14 अगस्त 1984 को सेशन न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता और सह-अभियुक्त को हत्या का दोषी पाया और 16 अगस्त 1984 को दण्ड का आदेश दिया। 
  • जबकि सह-अभियुक्त को आजीवन कारावास का दण्ड मिला, सेशन न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता लगभग 16 वर्ष का था और बाल अधिनियम, 1960 के अधीन लाभ पाने का हकदार था, इसलिये उसे कारागार में रखने के बजाय सुधार के लिये बाल गृह में रखने का निदेश दिया गया। 
  • सभी दोषियों ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 374(2) के अंतर्गत इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष दाण्डिक अपील संख्या 631/1984 दायर की। 
  • 7 अप्रैल 2000 को उच्च न्यायालय ने सभी अपीलकर्त्ताओं को दोषमुक्त कर दिया। 
  • उत्तर प्रदेश राज्य ने दाण्डिक अपील संख्या 276/2002 में उच्चतम न्यायालय में अपील की। 
  • 8 मई 2009 को उच्चतम न्यायालय ने दोषमुक्त करने के निर्णय को पलट दिया तथा सेशन न्यायालय के दोषसिद्धि और दण्ड को बहाल कर दिया। 
  • इस आदेश के बाद, याचिकाकर्त्ता फरार हो गया और लगभग 13 वर्षों तक गिरफ्तारी से बचने के बाद अंततः 19 मई, 2022 को उसे गिरफ्तार कर लिया गया। 
  • 14 अगस्त, 2025 के अभिरक्षा प्रमाण पत्र के अनुसार, याचिकाकर्त्ता 3 वर्ष, 10 महीने और 28 दिनों तक निरंतर अभिरक्षा में रहा था। 
  • याचिकाकर्त्ता ने संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता का हवाला देते हुए तत्काल रिहाई की मांग की, तथा तर्क दिया कि अपराध के समय वह किशोर था और किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अधीन लाभ पाने का हकदार है। 
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि उसकी अभिरक्षा किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की धारा 15(1)(छ) के अधीन अधिकतम तीन वर्ष की अवधि से अधिक है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि मुख्य प्रश्न यह है कि क्या याचिकाकर्त्ता किशोर न्याय अधिनियम, 2000, विशेष रूप से 2006 के अधिनियम 33 द्वारा जोड़ी गई धारा 7-क के अधीन लाभ पाने का हकदार है, जो मामलों के अंतिम निपटान के बाद भी किसी भी स्तर पर किशोरता के दावों की अनुमति देता है। 
  • न्यायालय ने राज्य के इस तर्क को नामंजूर कर दिया कि बाल अधिनियम, 1960 केवल इसलिये लागू होना चाहिये क्योंकि अपराध 1981 में हुआ था। 
  • प्रताप सिंह बनाम झारखंड राज्य (2005) 3 एस.सी.सी. 551 और धर्मबीर बनाम राज्य (दिल्ली एन.सी.टी.) (2010) 5 एस.सी.सी. 344 में संविधान पीठ के निर्णय पर विश्वास करते हुए, न्यायालय ने कहा कि अपराध की तारीख को 18 वर्ष से कम आयु के सभी व्यक्तियों को, यहाँ तक ​​कि 1 अप्रैल 2001 से पहले भी, किशोर माना जाएगा, भले ही दावा 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद या दोषसिद्धि के बाद उठाया गया हो। 
  • न्यायालय ने पाया कि यह निर्विवाद है कि घटना की तारीख पर याचिकाकर्त्ता की आयु 12 वर्ष और 5 महीने थी, इस तथ्य को स्वयं उच्चतम न्यायालय ने 8 मई, 2009 के अपने आदेश में स्वीकार किया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि सेशन न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के अधीन विधिविरुद्ध जमाव के सदस्य के रूप में दोषी ठहराया था, तथा उसकी कोई विशेष भूमिका नहीं बताई थी। 
  • न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता ने विधि में अनुमेय अवधि से अधिक कारावास भोगा है, तथा उसे बाल गृह में रखने का सेशन न्यायालय का मूल उद्देश्य अब व्यवहार्य नहीं रह गया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि 1960 के अधिनियम का कोई भी प्रावधान अनुतोष प्रदान करने में कोई विधिक बाधा उत्पन्न नहीं करता है, तथा किशोर न्याय में विधायी विकास को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि धारा 7-क न्यायालयों को संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन विशेष अनुमति याचिकाओं के अंतिम निपटान के बाद भी किशोर होने के अभिवचनों पर विचार करने और उचित अनुतोष प्रदान करने के लिये बाध्य करती है। 
  • न्यायालय ने माना कि चूँकि याचिकाकर्त्ता अपराध के समय निर्विवाद रूप से एक बालक था और उसे तीन वर्षों से अधिक समय तक निरोध में रखा गया था, इसलिये उसकी स्वतंत्रता को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार सीमित नहीं किया गया, जो अनुच्छेद 21 के अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है। 
  • न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को वाराणसी के केंद्रीय कारागार से तत्काल रिहा करने का आदेश दिया तथा प्राधिकारियों को निदेश दिया कि वे प्रमाणित प्रति पर बल दिये बिना निर्णय की डाउनलोड की गई प्रति के आधार पर कार्रवाई करें। 

किशोर अधिनियम, 2000, भूतलक्षी रूप से किशोरों की सुरक्षा कैसे करता है? 

  • किशोर न्याय अधिनियम, 2000 का भूतलक्षी अनुप्रयोग 
    • किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000, 1 अप्रैल, 2001 को अधिनियमित होने से पहले किये गए अपराधों पर भूतलक्षी रूप से लागू होता है। 
    • किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की धारा 7-, जिसे 2006 के अधिनियम 33 द्वारा जोड़ा गया है, किसी भी स्तर पर किसी भी न्यायालय के समक्ष किशोर होने का दावा करने की अनुमति देती है, यहाँ तक ​​कि मामले के अंतिम निपटारे के बाद भी। 
    • धारा 7-क का उपबंध किशोर होने के दावों को मान्यता देने और अवधारित करने का आदेश देता है, भले ही किशोर, किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के लागू होने से पूर्व या उसके पश्चात् किशोर न रहा हो। 
    • अपराध की तिथि को 18 वर्ष से कम आयु के सभी व्यक्ति, यहाँ तक ​​कि 1 अप्रैल, 2001 से पहले भी, किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के अधीन किशोरों के रूप में व्यवहार के हकदार हैं। 
    • किशोर न्याय अधिनियम, 2000, किशोर न्याय अधिनियम, 1986 या बाल अधिनियम, 1960 के अधीन किसी भी न्यायालय के समक्ष लंबित कार्यवाही पर लागू होता है। 
  • किशोर अवस्था का अवधारण 
    • जब किसी अभियुक्त के विरुद्ध किशोर होने का दावा किया जाता है तो न्यायालय का यह अनिवार्य दायित्त्व है कि वह उसकी आयु की जांच करे तथा उसका अवधारण करे। 
    • जहाँ अपराध की तिथि पर जन्म तिथि और आयु निर्विवाद हो, वहाँ किशोरवय होने का पता लगाने के लिये किसी औपचारिक जांच की आवश्यकता नहीं है। 
    • किशोर अवस्था का अवधारण अपराध की तिथि के संदर्भ में किया जाता है, न कि गिरफ्तारी, विचारण, दोषसिद्धि या दण्ड की तिथि के संदर्भ में। 
    • एक बार किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की धारा 7- (2) के अधीन किशोरता सिद्ध हो जाने पर, दोषसिद्धि और दण्ड का कोई प्रभाव नहीं माना जाता है। 
  • निरोध की अधिकतम अवधि 
    • किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की धारा 15(1)(छ) के अधीन किशोर के लिये अनुमेय अधिकतम निरोध अवधि तीन वर्ष है। 
    • तीन वर्ष से अधिक समय तक निरोध में रखना अवैध निरोध माना जाता है तथा यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जो प्राण और दैहिक स्वतंत्रता को प्रत्याभूत करता है। 
    • अनुमत अवधि से अधिक समय तक निरोध में रखने पर सांविधानिक अधिकार के रूप में तत्काल रिहाई का प्रावधान है। 
  • विधायी ढांचा 
    • किशोर न्याय अधिनियम, 2015 की धारा 9 की उपधारा (2) का परंतुक, किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की धारा 7-क का स्थान लेगा, जो किसी भी प्रक्रम पर किशोरता के दावों को मान्यता देने की नीति को जारी रखेगा। 
    • किशोर न्याय के क्षेत्र में विधायी विकास, अपराध के समय किशोर रहे व्यक्तियों को सुरक्षात्मक लाभ प्रदान करने के लिये संसद के सतत आशय को प्रदर्शित करता है। 
    • बाल अधिनियम, 1960 में विधिक बाधा का अभाव, किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के लाभकारी प्रावधानों के अनुप्रयोग पर रोक नहीं लगाता है। 
  • अपराध की प्रकृति और किशोर अवस्था 
    • जहाँ किसी किशोर को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के अधीन किसी विधिविरुद्ध जमाव के सदस्य के रूप में बिना किसी विशिष्ट प्रत्यक्ष कृत्य के दोषी ठहराया जाता है, वहाँ किशोर न्याय प्रावधान समान रूप से लागू होते हैं। 
    • अपराध की प्रकृति या गंभीरता, जिसमें हत्या जैसे जघन्य अपराध भी साम्मिलित हैं, किशोर को किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के अधीन सुरक्षात्मक लाभ का दावा करने से वंचित नहीं करती है। 
  • प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय 
    • बाल अधिनियम, 1960 की धारा 24, किसी बालक के साथ किसी ऐसे व्यक्ति के संयुक्त विचारण पर प्रतिबंध लगाती है जो बालक नहीं है। 
    • बाल अधिनियम, 1960 के अंतर्गत अनिवार्य प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन, किशोर अपराधी को अनुतोष प्रदान करने के मामले को मजबूत करता है। 
  • सांविधानिक अधिकार 
    • विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार स्वतंत्रता में कटौती संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। 
    • अनुच्छेद 32 के अधीन रिट अधिकारिता का प्रयोग किसी दोषी द्वारा रिहाई के लिये किया जा सकता है, जहाँ किशोर न्याय विधि के अधीन अधिकतम अनुमेय अवधि की समाप्ति के कारण निरोध अवैध हो गया हो। 
    • एक बार किशोर होने की पुष्टि हो जाने पर, फरार होना या गिरफ्तारी से बचना सहित अभियुक्त का आचरण किशोर को किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के अधीन सांविधिक लाभों का दावा करने से वंचित नहीं करता है। 

वाणिज्यिक विधि

न्यासी के विरुद्ध चेक अनादरण का परिवाद पोषणीय

 10-Oct-2025

शंकर पदम थापा बनाम विजयकुमार दिनेशचंद्र अग्रवाल 

"जब चेक के कथित अनादरण के कारण वाद-हेतुक उत्पन्न होता है और परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन परिवाद प्रारंभ किया जाता है, तो वह चेक पर हस्ताक्षर करने वाले न्यासी के विरुद्ध पोषणीय होता है, बिना न्यास को अभियुक्त बनाए।" 

न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा की न्यायपीठ नेनिर्णय दिया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन चेक अनादरण का परिवाद उस न्यासी (trustee) के विरुद्ध पोषणीय है जिसने न्यास (trust) की ओर से चेक पर हस्ताक्षर किये हैं, भले ही न्यास को अभियुक्त नहीं बनाया गया हो, क्योंकि न्यास एक न्यायिक व्यक्ति नहीं है और दायित्त्व हस्ताक्षर करने वाले न्यासी पर होता है 

  • उच्चतम न्यायालय ने शंकर पदम थापा बनाम विजयकुमार दिनेशचंद्र अग्रवाल (2025)के मामले में यह निर्णय दिया 

शंकर पदम थापा बनाम विजयकुमार दिनेशचंद्र अग्रवाल (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • एग्रीकल्चर क्राफ्ट्स ट्रेड्स एंड स्टडीज ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस (ACTS Group) के स्वामित्व वाली विलियम कैरी यूनिवर्सिटी गंभीर वित्तीय संकट से जूझ रही थी। ACTS Group ने 12 अक्टूबर 2017 को ओरियन एजुकेशन ट्रस्ट (Orion) के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये, जिसके अधीन विश्वविद्यालय का प्रबंधन और प्रशासन ओरियन को सौंप दिया गया। 
  • प्रत्यर्थी ओरियन एजुकेशन न्यास (ट्रस्ट) के अध्यक्ष थे। अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने अपीलकर्त्ता को सरकारी अधिकारियों के साथ संपर्क स्थापित करने और विश्वविद्यालय के प्रशासनिक हस्तांतरण को ACTS समूह से ओरियन में सुगम बनाने के लिये प्राधिकृत किया था। 
  • इस व्यवस्था के अनुसार, प्रत्यर्थी ने, ओरियन के प्राधिकृत हस्ताक्षरकर्त्ता के रूप में, अपीलकर्त्ता के पक्ष में प्रदान की गई सेवाओं के लिये 13 अक्टूबर 2018 को ₹5,00,00,000/- (पाँच करोड़ रुपए) का चेक जारी किया। यह चेक कोटक महिंद्रा बैंक, वडोदरा शाखा के नाम से जारी किया गया था। 
  • जब अपीलकर्त्ता ने 7 दिसंबर 2018 को अपनी ICICI बैंक शाखा, शिलांग में चेक प्रस्तुत किया, तो इसे "अपर्याप्त निधि" लिखकर अनादरण कर दिया गया। 
  • अपीलकर्त्ता ने 19 दिसंबर 2018 को परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अधीन एक विधिक नोटिस जारी किया, जो प्रत्यर्थी को 27 दिसंबर 2018 को प्राप्त हुआ। इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध व्यक्तिगत रूप से परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 और 142 और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अधीन अपराधों के लिये विचारण न्यायालय के समक्ष परिवाद मामला संख्या 44 (S) / 2019 दायर किया। 
  • प्रत्यर्थी ने आवश्यक पक्षकारों के शामिल न होने के आधार पर परिवाद की ग्राह्यता को चुनौती दी और तर्क दिया कि ओरियन एजुकेशन ट्रस्ट, एक न्यायिक संस्था और मुख्य अभियुक्त होने के नाते, पक्षकार के रूप में सम्मिलित नहीं किया गया था। उन्होंने तर्क दिया कि ट्रस्ट को अभियुक्त के रूप में नामित किये बिना, उन पर कोई प्रतिनिधि दायित्त्व नहीं लगाया जा सकता।  
  • मेघालय उच्च न्यायालय ने प्रत्यर्थी की याचिका स्वीकार कर ली और 11 फ़रवरी 2019 के परिवाद और समन आदेश को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि ट्रस्ट को अभियुक्त बनाया जाना चाहियेतत्पश्चात् अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय न्यास अधिनियम, 1882 के अंतर्गत परिभाषित एक न्यास एक दायित्त्व है, न कि कोई विधिक इकाई या न्यायिक व्यक्ति। किसी कंपनी के विपरीत, एक न्यास का कोई पृथक् विधिक अस्तित्व नहीं होता है और वह अपने नाम से वाद नहीं कर सकता या उस पर वाद नहीं चलाया जा सकता। न्यास अधिनियम की धारा 13 के अनुसार, वादों को चलाने और प्रतिरक्षा का दायित्त्व न्यासियों पर है, न कि स्वयं न्यास पर। एक न्यास केवल अपने न्यासियों के माध्यम से ही संचालित होता है, जो न्यास की संपत्ति के प्रबंधन के लिये उत्तरदायी विधिक संस्थाएँ हैं। 
  • न्यायालय नेएस.एम.एस. फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड बनाम नीता भल्ला (2005) और के.के. आहूजा बनाम वी.के. वोरा (2009)के सिद्धांतों को दोहराते हुए कहा कि अनादरण चेक पर हस्ताक्षर करने वाला व्यक्ति स्पष्ट रूप से उस अपराध के लिये उत्तरदायी है और परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 के अंतर्गत आता है। जब कोई व्यक्ति अध्यक्ष या प्रबंध निदेशक जैसे पद पर होता है और चेक पर हस्ताक्षर करता है, तो वह प्रथम दृष्टया दैनिक कार्यों के लिये उत्तरदायी होता है और अपने विशिष्ट उत्तरदायित्त्वों के बारे में ठोस कथन दिये बिना भी उस पर अभियोजन चलाया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जब किसी चेक के अनादरण के कारण वाद-हेतुक उत्पन्न होता है और परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत परिवाद दर्ज किया जाता है, तो चेक पर हस्ताक्षर करने वाले न्यासी के विरुद्ध परिवाद पोषणीय होता है, और न्यास को अभियुक्त बनाने की आवश्यकता नहीं है। चूँकि न्यास की ओर से किये गए कार्यों के लिये केवल न्यासी ही उत्तरदायी और जवाबदेह होते हैं, इसलिये परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही में न्यास को पक्षकार बनाने की कोई विधिक आवश्यकता नहीं है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली, उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया और प्रत्यर्थी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को विचारण न्यायालय में बहाल कर दिया। न्यायालय ने उच्च न्यायालय के कई विपरीत निर्णयों को खारिज कर दिया, जिनमें न्यास को परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन अभियोजन योग्य एक न्यायिक व्यक्ति माना गया था, और स्पष्ट किया कि ऐसे निर्णय गलत तरीके से न्यास को कंपनी के समान मानते थे। 

परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 और 141 क्या है? 

  • परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 
    • परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138, खातों में अपर्याप्त निधियों, आदि के कारण चेक के अनादरण के अपराध से संबंधित है। 
    • यह उपबंध, 1988 में अधिनियम के अध्याय 17 में सम्मिलित किया गया, विशेष रूप से उन स्थितियों को संबोधित करता है, जहाँ ऋण चुकाने के लिये जारी किया गया चेक बैंक द्वारा बिना संदाय किये वापस कर दिया जाता है। 
    • आवश्यक तत्त्व:अपराध तब स्थापित होता है जब चेक अपर्याप्त धनराशि के कारण या बैंक के साथ की गई व्यवस्था से अधिक राशि होने पर अनादरण हो जाता है। अंतर्निहित संव्यवहार की प्रकृति चाहे जो भी हो, लेखीवाल  पर आपराधिक दायित्त्व लागू होता है। आवश्यक शर्तों में विधिक रूप से लागू करने योग्य ऋण या देयता का अस्तित्व, उस ऋण के संदाय हेतु चेक जारी करना और उसके बाद चेक का अनादरण होना सम्मिलित है। 
    • अभियोजन की प्रक्रिया:अनादरण होने पर, पाने वाले को अनादरण की सूचना मिलने के तीस दिनों के भीतर लेखीवाल  को एक लिखित सूचना जारी करनी होगी। लेखीवाल  के पास सूचना प्राप्त होने के पंद्रह दिनों के भीतर संदाय करने का समय होता है। यदि इस अवधि के भीतर संदाय नहीं किया जाता है, तो पंद्रह दिनों की सूचना अवधि समाप्त होने के एक मास के भीतर परिवाद दर्ज करनी होगापरिवाद उस न्यायालय में दायर किया जा सकता है जिसकी अधिकारिता में पाने वाले का बैंक स्थित है। 
    • दण्ड:धारा 138 के अधीन दोषसिद्धि पर दो वर्ष तक का कारावास और/या चेक या ऋण की राशि से दोगुनी राशि तक का जुर्माना हो सकता है। 
  • परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 141 
    • धारा 141, अधिनियम के अधीन कंपनियों द्वारा किये गए अपराधों के लिये प्रतिनिधिक दायित्त्व के सिद्धांत को स्थापित करती है। यह उपबंध किसी कंपनी से संबंधित व्यक्तियों को कंपनी के कार्यों के लिये व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी बनाता है। 
    • दायित्त्व का दायरा:यदि धारा 138 के अंतर्गत कोई अपराध किसी कंपनी द्वारा किया जाता है, तो कंपनी के कारबार के संचालन के लिये भारसाधक और उत्तरदायी प्रत्येक व्यक्ति दोषी माना जाएगा। स्पष्टीकरण में "कंपनी" की परिभाषा में कोई भी निगमित निकाय, फर्म या व्यक्तियों का अन्य संघ सम्मिलित है। 
    • दायित्त्व का सबूत:दायित्त्व स्थापित करने के लिये कंपनी के कारबार में सक्रिय भागीदारी और अपराध से प्रत्यक्ष संबंध साबित करना आवश्यक है। केवल निदेशक या नाममात्र प्रमुख के रूप में पदनाम पर्याप्त नहीं है। परिवाद में स्पष्ट रूप से यह बताना होगा कि अभियुक्त कंपनी के कारबार का भारसाधक या उत्तरदायी कैसे था। 
    • उपधारा (2) मेंयह उपबंधित है कि यदि अपराध किसी निदेशक, प्रबंधक, सचिव या अन्य अधिकारी की सहमति, मौनानुकुलता या उपेक्षा के कारण किया गया हो तो ऐसा व्यक्ति भी दोषी माना जाएगा। 
    • उपलब्ध प्रतिरक्षा:अभियुक्त यह साबित करके दायित्त्व से बच सकता है कि अपराध उसकी जानकारी के बिना किया गया था या उसने इसे रोकने के लिये युक्तियुक्त सावधानी बरती थी। यद्यपि, सबूत पेश करने का भार अभियुक्त पर ही होता है। निदेशक के रूप में सरकारी नामित व्यक्तियों को इस उपबंध के अधीन अभियोजन से छूट प्राप्त है।