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सिविल कानून
सिविल वादों में सह-प्रतिवादी के विरुद्ध प्रतिदावा
13-Nov-2025
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"उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी वाद में सह-प्रतिवादी के विरुद्ध प्रतिदावा नहीं उठाया जा सकता तथा उसे अनिवार्यतः वादी के विरुद्ध ही निदेशित किया जाना चाहिये।" न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और एन.वी. अंजारिया |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
संजय तिवारी बनाम युगल किशोर प्रसाद साओ एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया की पीठ ने निर्णय दिया कि सिविल वाद में प्रति-दावा सह-प्रतिवादी के विरुद्ध नहीं किया जा सकता है और प्रतिवादी 1 के विरुद्ध प्रतिवादी 2 और 3 द्वारा उठाए गए प्रति-दावे को अपास्त कर दिया।
संजय तिवारी बनाम युगल किशोर प्रसाद साव एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वादी (अपीलकर्त्ता) ने विनिर्दिष्ट पालन हेतु एक वाद दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि प्रतिवादी संख्या 1 ने 2 दिसंबर, 2002 को 0.93 एकड़ ज़मीन बेचने के लिये एक मौखिक करार किया था।
- कथित तौर पर संपूर्ण राशि का संदाय 3 दिसंबर 2002 को तीन डिमांड ड्राफ्ट के माध्यम से किया गया था, जिसके बाद भूमि के अंतरण का वादा करते हुए एक रसीद जारी की गई थी।
- वादी ने दावा किया कि उसे संपत्ति पर कब्जा दे दिया गया था और उसने चारदीवारी भी बनवाई थी।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने लिखित कथन दायर कर तर्क दिया कि दो अन्य व्यक्ति (जिन्हें बाद में प्रतिवादी 2 और 3 के रूप में प्रतिवादी बनाया गया) वाद की संपत्ति के एक भाग पर कब्जा किये हुए थे, जिससे आवश्यक पक्षकारों के सम्मिलित न होने के कारण वाद दोषपूर्ण हो गया।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने दावा किया कि 1 दिसंबर, 2002 को उसी भूमि के 50 डेसिमल भाग को प्रतिवादी 2 और 3 को 2,95,000 रुपए में अंतरित करने पर सहमति हुई थी, जिसका संदाय 3 दिसंबर, 2002 को किया जाना था।
- यह स्वीकार किया गया कि प्रतिवादी संख्या 1 ने वित्तीय आवश्यकता के कारण 43 डेसीमल जमीन वादी के पिता को 2,55,000/- रुपए में बेच दी थी।
- प्रतिवादी 2 और 3 ने अभियोग के लिये आवेदन दायर किया, जिसे विचारण न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।
- अभियोग लगाए जाने के बाद, प्रतिवादी 2 और 3 ने प्रतिवादी संख्या 1 के विरुद्ध प्रतिदावा प्रस्तुत किया तथा संपूर्ण भूमि के अंतरण का अधिकार होने का दावा किया।
- विचारण न्यायालय ने प्रतिदावा स्वीकार कर लिया, जिसे वादी ने अनुच्छेद 227 के अधीन उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
- उच्च न्यायालय ने चुनौती को यह तर्क देते हुए खारिज कर दिया कि मुकदमेबाजी की बहुलता से बचने के लिये प्रतिदावे की ग्राह्यता सहित पूरे विवाद्यक का निर्णय मुकदमे में ही किया जा सकता है।
- वादी ने प्रतिदावे की स्वीकृति को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी 2 और 3 के पास कोई ठोस मामला नहीं था, क्योंकि उनके दावे विरोधाभासी थे - पहले उन्होंने 5,55,000 रुपए में पूरी भूमि के लिये करार का दावा किया, फिर स्वीकार किया कि 43 डेसीमल भूमि वादी के लिये थी, और अंत में आंशिक संदाय के आधार पर 50 डेसीमल भूमि का दावा किया।
- न्यायालय ने पाया कि अभियोग आवेदन 2006 में दायर किया गया था, परिसीमा काल समाप्त हो जाने के बाद, क्योंकि वाद हेतुक 2 दिसंबर, 2002 को उत्पन्न हुआ था।
- न्यायालय ने रोहित सिंह एवं अन्य बनाम बिहार राज्य (2006) के मामले पर विश्वास किया, जिसमें कहा गया था कि प्रतिदावा आकस्मिक होना चाहिये या वादी के वाद हेतुक से जुड़ा होना चाहिये तथा आवश्यक रूप से वादी के विरुद्ध होना चाहिये, न कि सह-प्रतिवादी के विरुद्ध।
- न्यायालय ने राजुल मनो शाह बनाम किरणभाई शकराभाई पटेल (2025) के मामले पर भी विश्वास किया, जिसमें स्थापित किया गया था कि विनिर्दिष्ट पालन के लिये प्रतिदावे के लिये वादी के विरुद्ध दावा उठाने से पहले अधिकार स्थापित करना आवश्यक है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि सह-प्रतिवादी के विरुद्ध प्रतिदावा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 8, नियम 6क के अधीन जीवित नहीं रह सकता है और स्पष्ट किया कि प्रतिवादी 2 और 3 को सम्मिलित करने से वाद को गैर-संयुक्त दोष से बचाया गया, किंतु उनके प्रतिदावे को मान्य नहीं किया गया।
- न्यायालय को पृथक् से वाद दायर करने की स्वतंत्रता देने का कोई कारण नहीं मिला, क्योंकि दावा परिसीमा के कारण वर्जित था, तथा सिविल अपील को स्वीकार करते हुए प्रतिदावे को अपास्त कर दिया गया।
प्रतिदावा क्या है?
बारे में:
- यह सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 नियम 6क-6छ में निहित है ।
- 1964 की 27 वीं विधि आयोग रिपोर्ट में प्रतिवादी के लिये सिविल प्रक्रिया में प्रतिदावा दायर करने का अधिकार स्थापित करने की सिफारिश की गई थी।
- सिफारिश के परिणामस्वरूप, सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा विद्यमान अधिनियम में नियम 6क से 6छ को जोड़ा गया।
प्रतिदावे की अवधारणा:
- यह एक ऐसा दावा है जो स्वतंत्र प्रकृति का है या वादी के दावे से पृथक् किया जा सकता है ।
- जब वादी के विरुद्ध वाद हेतुक उत्पन्न होता है तो प्रतिवादी को लिखित कथन के साथ उस दावे को प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त होता है।
- इसे प्रतिवादी द्वारा वादी के दावे के विरुद्ध एक वादपत्र माना जाता है और वादपत्र की तरह ही निपटाया जाता है।
- इसके अतिरिक्त, वादी को प्रतिदावे सहित वादपत्र के विरुद्ध लिखित कथन दाखिल करने का अवसर मिलता है।
- लक्ष्मीदास बनाम नानाभाई (1964) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने प्रतिदावा दायर करने के अधिकार को सांविधिक अधिकार माना ।
- गैस्टेक प्रोसेस इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड बनाम सैपेम (2009) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसे प्रतिवादी के हाथ में एक हथियार के रूप में परिभाषित किया।
प्रतिदावे का उद्देश्य:
- वादों की बहुलता को रोकने के लिये।
- न्यायालय का समय बचाने के लिये।
- सिविल प्रक्रिया को पक्षकारों के लिये सुविधाजनक बनाना।
- समय पर विचारण करना।
प्रतिदावा दाखिल करने का समय:
नीचे दी गई तीन स्थितियों में प्रतिदावा दायर किया जा सकता है: -
- वाद दायर करने से पूर्व या पश्चात्,
- प्रतिवादी द्वारा अपनी प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने से पहले,
- इससे पहले कि उनकी प्रतिरक्षा में अभिवचन के लिये समय सीमा समाप्त हो जाती।
प्रतिदावा दायर करने की पद्धति:
- न्यायालय की अनुमति से लिखित कथन में संशोधन करके तथा प्रतिदावा स्थापित करके;
- आदेश 8 नियम 9 के अधीन विहित पाश्चिक अभिवचन में उल्लेख करके।
प्रतिदावा दायर करने की अनिवार्यताएँ
- इसे प्रतिवादी द्वारा दायर किया जाना चाहिये ।
- यह एक स्वतंत्र या पृथक् प्रकृति का दावा होना चाहिये।
- इसे वादी के विरुद्ध दायर किया जाना चाहिये। कुछ मामलों में इसे सह-प्रतिवादियों के विरुद्ध भी दायर किया जा सकता है।
- यह वाद दायर करने से पूर्व या पश्चात् में घटित किसी भी घटना के संबंध में होना चाहिये।
- इसे अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष अपीलीय स्तर पर दायर नहीं किया जा सकता।
सिविल कानून
लंबित आपराधिक कार्यवाही के दौरान पासपोर्ट जारी करना
13-Nov-2025
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"पासपोर्ट जारी करने वाला प्राधिकारी केवल एक वर्ष की वैधता वाला पासपोर्ट जारी करने के अपने अधिकार के अंतर्गत है और याचिकाकर्त्ता अधिकार के रूप में दस वर्ष के लिये पासपोर्ट या उसके नवीकरण की मांग नहीं कर सकता है।" न्यायमूर्ति अजीत कुमार और स्वरूपमा चतुर्वेदी |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अजीत कुमार और स्वरूपमा चतुर्वेदी की खंडपीठ ने रहीमुद्दीन बनाम भारत संघ और अन्य (2025) के मामले में निर्णय दिया कि पासपोर्ट प्राधिकारी एक वर्ष के लिये वैध पासपोर्ट जारी कर सकते हैं, जब यात्रा के लिये न्यायालय की अनुमति में अवधि निर्दिष्ट नहीं होती है, और पुलिस विभागों को विलंब से बचने के लिये निर्धारित समय सीमा के भीतर पासपोर्ट सत्यापन पूरा करने का निदेश दिया।
रहीमुद्दीन बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध एक आपराधिक मामला लंबित था (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 447 और लोक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम, 1984 की धारा 3 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 181/2016)।
- प्रारंभ में, लंबित आपराधिक कार्यवाही के कारण पासपोर्ट आवेदन अस्वीकार कर दिया गया था।
- याचिकाकर्त्ता ने पासपोर्ट जारी करने के लिये निदेश मांगते हुए रिट सी संख्या 30083/2024 के माध्यम से इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- न्यायालय के दिनांक 10.09.2024 के आदेश के अनुसरण में, याचिकाकर्त्ता ने 10.10.2024 को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, पीलीभीत से अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) प्राप्त किया।
- क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारी, बरेली ने एक वर्ष (20.01.2025 से 19.01.2026) के लिये वैध पासपोर्ट जारी किया।
- याचिकाकर्त्ता ने एक वर्ष के बजाय दस वर्षों के लिये पासपोर्ट का नवीकरण/पुनः जारी करने की मांग करते हुए वर्तमान याचिका दायर की।
- याचिकाकर्त्ता ने पवन कुमार राजभर बनाम भारत संघ और 2 अन्य (2024) के निर्णय पर विश्वास किया।
- पासपोर्ट कार्यालय ने तर्क दिया कि चूँकि न्यायालय के आदेश में अवधि निर्दिष्ट नहीं की गई थी, इसलिये 28.8.1993 की अधिसूचना के अनुसार एक वर्ष की वैधता सही ढंग से प्रदान की गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
विधिक ढाँचा विश्लेषण:
न्यायालय ने पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 6(2)(च) की जाँच की, जिसके अनुसार यदि आवेदक के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही लंबित है तो पासपोर्ट देने से इंकार किया जा सकता है। यद्यपि, केंद्र सरकार ने धारा 22 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए 25.08.1993 की अधिसूचना G.S.R. 570(ङ) जारी की, जिसमें न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने वाले ऐसे व्यक्तियों को छूट प्रदान की गई।
अधिसूचना G.S.R. 570(ङ) - प्रमुख प्रावधान
अधिसूचना में न्यायालय के आदेश के आधार पर पासपोर्ट की वैधता अवधि निर्धारित की गई है:
- यदि न्यायालय अवधि निर्दिष्ट करता है - उस अवधि के लिये पासपोर्ट जारी करें।
- यदि न्यायालय अवधि निर्दिष्ट नहीं करता है - तो केवल एक वर्ष के लिये पासपोर्ट जारी करें।
- यदि आवेदक ने यात्रा नहीं की है और न्यायालय का आदेश वैध है तो एक वर्षीय पासपोर्ट का वार्षिक नवीनीकरण किया जा सकता है।
दिनांक 10.10.2019 के कार्यालय ज्ञापन में स्पष्ट किया गया है कि G.S.R. 570(ङ) में सांविधिक बल है और इसे कठोरता से लागू किया जाना चाहिये।
सांविधानिक सिद्धांत
न्यायालय ने मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978) के मामले का हवाला देते हुए कहा कि यात्रा का अधिकार अनुच्छेद 21 का भाग है और प्रशासनिक कार्रवाई निष्पक्ष, उचित और मनमानी रहित होनी चाहिये। न्यायालय ने सतवंत सिंह साहनी (1967) के मामले का भी हवाला दिया, जिसमें यह स्थापित किया गया था कि व्यक्ति सामान्यतः पासपोर्ट पाने का हकदार है, जब तक कि इंकार करने के लिये वैध आधार विद्यमान न हों।
न्यायालय के निर्णय और निदेश
मुख्य निर्णय:
- एक वर्ष की वैधता उचित: चूँकि न्यायालय की NOC में अवधि निर्दिष्ट नहीं थी, इसलिये पासपोर्ट प्राधिकरण ने 1993 की अधिसूचना के अधीन एक वर्ष के लिये वैध पासपोर्ट जारी किया।
- दस वर्षीय पासपोर्ट का कोई स्वतः अधिकार नहीं: जब आपराधिक कार्यवाही लंबित हो तो याचिकाकर्त्ता अधिकार के रूप में दस वर्षीय पासपोर्ट की मांग नहीं कर सकता।
- वार्षिक नवीकरण उपलब्ध: यदि आवेदक ने यात्रा नहीं की है और न्यायालय का आदेश अपरिवर्तित रहता है तो एक वर्ष के पासपोर्ट की अवधि को प्रतिवर्ष बढ़ाया जा सकता है।
प्राधिकारियों के लिये निदेश:
- यदि पासपोर्ट जारी नहीं किया जा सकता है तो क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारियों को एक मास के भीतर आवेदकों को सूचित करना होगा।
- NOC प्राप्त होने के बाद, एक मास के भीतर आवेदन का निपटारा करें।
- पुलिस को चार सप्ताह के भीतर सत्यापन रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
सामान्य निदेश:
- आवेदकों को न्यायालय जाने से पहले आवश्यक NOC प्राप्त करनी चाहिये।
- पुलिस विभागों को विलंब से बचने के लिये समय पर सत्यापन सुनिश्चित करना चाहिये।
- निर्णय की प्रति उत्तर प्रदेश के सभी क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालयों और अपर मुख्य सचिव गृह, उत्तर प्रदेश को भेजी जानी चाहिये।
पासपोर्ट अधिनियम, 1967 क्या है?
बारे में:
- पासपोर्ट अधिनियम, 1967 भारत की संसद द्वारा पारित एक व्यापक विधि है जो भारतीय नागरिकों को पासपोर्ट और यात्रा दस्तावेज़ जारी करने और भारत से उनके प्रस्थान को नियंत्रित करता है। यह अधिनियम भारत में पासपोर्ट प्रशासन के लिये प्राथमिक विधिक ढाँचे के रूप में कार्य करता है और पासपोर्ट जारी करने के लिये प्राधिकरण, प्रक्रियाएँ और शर्तें निर्धारित करता है।
- यह अधिनियम 24 जून, 1967 को लागू हुआ और पूरे भारत में लागू है, साथ ही भारत के बाहर रहने वाले भारतीय नागरिकों पर भी लागू होता है। यह पासपोर्ट और यात्रा दस्तावेज़ जारी करने, भारतीय नागरिकों और अन्य व्यक्तियों के भारत से प्रस्थान को विनियमित करने, और पासपोर्ट प्रशासन से संबंधित या उससे संबंधित मामलों का समाधान करने का प्रावधान करता है।
पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 6(2) :
- धारा 6(2) - पासपोर्ट, यात्रा दस्तावेज़ आदि देने से इंकार करना।
- इसमें उन विशिष्ट आधारों का उल्लेख है जिनके आधार पर पासपोर्ट प्राधिकारी पासपोर्ट जारी करने से इंकार कर सकता है, जिनमें सम्मिलित हैं:
- भारत की गैर-नागरिकता
- भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिये हानिकारक गतिविधियाँ
- सुरक्षा संबंधी चिंताएँ
- आपराधिक दोषसिद्धि
- लंबित आपराधिक कार्यवाही
- बकाया वारण्ट
- जनहित संबंधी विचार
पासपोर्ट कितने प्रकार के होते हैं?

पासपोर्ट और वीज़ा में क्या अंतर है?

