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सांविधानिक विधि
वैकल्पिक उपचारों की समाप्ति
17-Nov-2025
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"अपीलकर्त्ता द्वारा विशिष्ट सांविधिक तंत्र का लाभ उठाने में असफलता को केवल इसलिये क्षमा नहीं किया जा सकता कि उच्च न्यायालय के समक्ष समानांतर कार्यवाही लंबित थी।" न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा और विपुल एम. पंचोली स्रोत: उच्चतम न्यायालय |
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने कोलांजियाम्मल (मृत) के विधिक प्रतिनिधि बनाम राजस्व संभागीय अधिकारी पेरम्बलूर जिला एवं अन्य (2025) के मामले में एक अपील को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया कि रिट कार्यवाही के लंबित रहने मात्र से वादियों को विशेष विधियों के अधीन प्रदान किये गए वैकल्पिक समयबद्ध उपचारों को समाप्त करने के उनके दायित्त्व से मुक्ति नहीं मिलती है।
कोलांजियाम्मल (मृत) के विधिक प्रतिनिधि बनाम राजस्व मंडल अधिकारी पेरम्बलुर जिला एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता की संपत्ति बकाया राशि की वसूली के लिए तमिलनाडु राजस्व वसूली अधिनियम, 1864 के अंतर्गत नीलामी की कार्यवाही के अधीन थी।
- तमिलनाडु राजस्व वसूली अधिनियम, 1864 की धारा 37-क और 38 के अधीन प्रदान किये गए विशिष्ट सांविधिक उपचार का लाभ उठाने के बजाय, अपीलकर्त्ता ने रिट याचिका के माध्यम से मद्रास उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- उच्च न्यायालय ने रिट कार्यवाही में ‘विक्रय की पुष्टि' पर रोक लगाते हुए अंतरिम आदेश दिया था।
- 29.07.2005 को नीलामी आयोजित की गई।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि अधिनियम के अधीन अलग से आवेदन दायर करना अनावश्यक था, क्योंकि उच्च न्यायालय ने पहले ही रिट कार्यवाही में अंतरिम संरक्षण प्रदान कर दिया था।
- अपीलकर्त्ता तमिलनाडु राजस्व वसूली अधिनियम, 1864 की धारा 37-ए या 38 के अधीन निर्धारित 30 दिनों की सांविधिक अवधि के भीतर नीलामी विक्रय पर आपत्ति दर्ज करने में असफल रहा।
- उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की रिट याचिका को खारिज कर दिया, तथा कहा कि सांविधिक उपचार का प्रयोग नहीं किया गया।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि "अपीलकर्त्ता द्वारा विशिष्ट सांविधिक तंत्र का लाभ उठाने में असफलता को केवल इसलिये क्षमा नहीं किया जा सकता कि उच्च न्यायालय के समक्ष समानांतर कार्यवाही लंबित थी।"
- न्यायालय ने विक्रय की पुष्टि पर रोक लगाने तथा नीलामी के संचालन पर रोक लगाने के बीच महत्त्वपूर्ण अंतर बताया।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि उच्च न्यायालय ने "विक्रय की पुष्टि पर रोक लगाने" का अंतरिम आदेश जारी किया था, किंतु नीलामी के संचालन पर रोक लगाने का कोई आदेश नहीं दिया गया था।
- न्यायालय ने कहा कि "29.07.2005 को आयोजित नीलामी किसी भी न्यायिक प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं थी," तथा इस बात पर बल दिया कि अधिकारियों ने नीलामी की कार्यवाही करके अपने अधिकारों के अंतर्गत कार्य किया।
- न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता का यह विश्वास कि पूरी प्रक्रिया स्थगित कर दी गई है, न्यायालय के सीमित आदेश के "मिथ्या विचार के" निर्वचन पर आधारित है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि "(विक्रय की) पुष्टि पर रोक राजस्व वसूली अधिनियम की धारा 37-क या 38 के अनुसार 30 दिनों के भीतर निवारण प्राप्त करने के सांविधिक दायित्त्व को निलंबित नहीं करती है।"
- राजस्थान हाउसिंग बोर्ड एवं अन्य बनाम कृष्णा कुमारी (2005) का संदर्भ देते हुए न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अंतरिम संरक्षण का उपयोग वसूली के लिये सांविधिक प्रक्रियाओं को असफल करने के लिये नहीं किया जा सकता।
- न्यायालय ने कहा कि विक्रय की पुष्टि पर अंतरिम रोक अपीलकर्त्ता को अधिनियम के अधीन सांविधिक उपचार का लाभ उठाने से नहीं रोकती ।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की रिट याचिका को खारिज करने के उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि रिट याचिका के लंबित रहने मात्र से वादियों को विशेष विधियों के अधीन प्रदत्त वैकल्पिक समयबद्ध उपचारों का उपयोग करने के दायित्त्व से मुक्ति नहीं मिल जाती।
- तदनुसार, अपील खारिज कर दी गई।
वैकल्पिक उपचारों की समाप्ति का सिद्धांत क्या है?
- वैकल्पिक उपचारों की समाप्ति का सिद्धांत प्रशासनिक और सांविधानिक विधि में एक सिद्धांत है, जिसके अधीन वादियों को संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन असाधारण रिट अधिकारिता के माध्यम से न्यायालयों का दरवाजा खटखटाने से पहले सभी उपलब्ध सांविधिक या वैकल्पिक उपचारों का उपयोग करना आवश्यक है।
- यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि विशिष्ट उद्देश्यों के लिये बनाए गए विशेष अधिकरणों और सांविधिक तंत्रों को सांविधानिक न्यायालयों के हस्तक्षेप से पहले प्राथमिकता दी जाए।
- यह सिद्धांत रिट अधिकारिता के दुरुपयोग को रोकता है और न्यायिक प्रणाली की दक्षता को बनाए रखता है, यह सुनिश्चित करके कि मामलों को पहले उन निकायों द्वारा निपटाया जाता है जो विशेष रूप से उन्हें संभालने के लिये बनाए गए हैं।
- न्यायालय सामान्यत: रिट याचिकाओं पर विचार करने से इंकार कर देते हैं, जब कोई प्रभावी वैकल्पिक उपचार विद्यमान हो, जब तक कि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन या अधिकारिता संबंधी त्रुटियाँ जैसी असाधारण परिस्थितियाँ सम्मिलित न हों।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 226 क्या है?
- संविधान के भाग 5 के अंतर्गत अनुच्छेद 226 निहित है जो उच्च न्यायालय को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है ।
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 226(1) में कहा गया है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन और अन्य उद्देश्यों के लिये किसी व्यक्ति या सरकार को बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण सहित आदेश या रिट जारी करने की शक्तियां होंगी।
- अनुच्छेद 226(2) में कहा गया है कि उच्च न्यायालय को किसी भी व्यक्ति, सरकार या प्राधिकरण को रिट या आदेश जारी करने की शक्ति है -
- इसके अधिकारिता में स्थित या
- यदि वाद-हेतुक की परिस्थितियाँ पूर्णतः या आंशिक रूप से उसके प्रादेशिक अधिकारिता के भीतर उत्पन्न होती हैं तो यह उसकी स्थानीय अधिकारिता के बाहर होगा।
- अनुच्छेद 226(3) में कहा गया है कि जब किसी पक्षकार के विरुद्ध उच्च न्यायालय द्वारा व्यादेश, रोक या अन्य माध्यम से अंतरिम आदेश पारित किया जाता है तो वह पक्षकार ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये न्यायालय में आवेदन कर सकता है और ऐसे आवेदन का न्यायालय द्वारा दो सप्ताह की अवधि के भीतर निपटारा किया जाना चाहिये।
- अनुच्छेद 226(4) कहता है कि इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को दी गई शक्ति अनुच्छेद 32 के खण्ड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को दिये गए अधिकार को कम नहीं करना चाहिये।
- यह अनुच्छेद सरकार सहित किसी भी व्यक्ति या प्राधिकारी के विरुद्ध जारी किया जा सकता है।
- यह महज एक सांविधानिक अधिकार है, मौलिक अधिकार नहीं है और इसे आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता।
- अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकारों के मामले में अनिवार्य प्रकृति का है तथा जब इसे “किसी अन्य उद्देश्य” के लिये जारी किया जाता है तो यह विवेकाधीन प्रकृति का है।
- यह न केवल मौलिक अधिकारों को लागू करता है, अपितु अन्य विधिक अधिकारों को भी लागू करता है
सांविधानिक विधि
बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिकारिता का दुरुपयोग
17-Nov-2025
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"उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी आपराधिक मामले में अभियुक्त की अभिरक्षा को विधिविरुद्ध नहीं माना जा सकता, विशेषत: तब जब उसकी जमानत याचिकाएँ खारिज कर दी गई हो।" न्यायमूर्ति राजेश बिंदल और मनमोहन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम कुसुम साहू (2025) के मामले में न्यायमूर्ति राजेश बिंदल और मनमोहन की पीठ ने बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिकारिता के माध्यम से एक अभियुक्त को रिहा करने के उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया, और इस बात पर बल दिया कि इस तरह की अधिकारिता का उपयोग जमानत आवेदनों की अस्वीकृति को रोकने के लिये नहीं किया जा सकता है।
मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम कुसुम साहू (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- जिब्राखान लाल साहू को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 420 (छल) और 409 (आपराधिक न्यासभंग) के अधीन अपराधों के लिए 2021 की प्रथम सुचन रिपोर्ट (FIR) संख्या 157 में अभियुक्त बनाया गया था।
- उन्हें 12 दिसंबर, 2023 को गिरफ्तार किया गया और 9 फरवरी, 2024 को आरोपपत्र दायर किया गया।
- जनवरी और मई 2024 के बीच, अभियुक्तों ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में चार जमानत याचिकाएँ दायर कीं, जिन्हें खारिज कर दिया गया।
- सभी जमानत आवेदन खारिज होने के बाद उनकी पुत्री कुसुम साहू ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर दावा किया कि उनके पिता को विधिविरुद्ध निरोध में रखा गया है।
- उच्च न्यायालय ने 3 अक्टूबर, 2024 के आदेश के अधीन रिट याचिका को स्वीकार कर लिया और 5,000 रुपए के निजी बंधपत्र पर उनकी रिहाई का निदेश दिया।
- उच्च न्यायालय ने स्वीकार किया कि जमानत नामंजूरी आदेश को उच्चतर न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, किंतु उसने अनुच्छेद 226 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करते हुए, पक्षकारों की उच्चतम न्यायालय में अपील करने में असमर्थता और उनकी मानसिक पीड़ा का हवाला दिया।
- राज्य ने इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, जिसने 18 जुलाई, 2025 को आदेश पर रोक लगा दी, तथा कहा कि अधिकारिता का प्रयोग "हमारी अंतरात्मा को झकझोरता है।"
- अभियुक्त ने 25 अक्टूबर 2025 को आत्मसमर्पण कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया "विधि के लिये पूरी तरह से अज्ञात" थी और जिस तरीके से मामले को निपटाया गया, वह "इस न्यायालय की अंतरात्मा को झकझोर देता है।"
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किसी आपराधिक मामले में अभियुक्त की अभिरक्षा को विधिविरुद्ध नहीं ठहराया जा सकता, जब जमानत आवेदन उचित रूप से खारिज कर दिया गया हो।
- पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ने मामले की गुण-दोष के आधार पर जांच ठीक से नहीं की, मानो वह निरोध की अवैधता का अवधारण करने के बजाय जमानत की अपील पर सुनवाई कर रहा हो।
- न्यायालय ने ऐसे पूर्व निर्णय का अनुसरण करने के विरुद्ध चेतावनी दी, क्योंकि इससे "विधि की उचित प्रक्रिया बाधित होगी", और कहा कि "बुराई को जड़ से नष्ट करना" आवश्यक है।
- उच्चतम न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया तथा उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया, तथा स्पष्ट किया कि भविष्य में जमानत आवेदनों पर संबंधित न्यायालय द्वारा उनके गुण-दोष के आधार पर विचार किया जा सकता है।
बंदी प्रत्यक्षीकरण क्या है?
अर्थ और प्रकृति:
- हैबियस कॉर्पस (Habeas corpus) एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है "आपको शरीर प्राप्त कर सकते है।"
- यह एक विधिक प्रक्रिया है जो अवैध रूप से निरोध में लिये गए व्यक्तियों के लिये उपचारात्मक उपाय के रूप में कार्य करती है।
- इसका मूल उद्देश्य किसी व्यक्ति को विधिविरुद्ध निरोध या कारावास से मुक्त कराना है।
- यह न्यायालय द्वारा जारी किया गया आदेश है कि बंदी को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाए तथा यह जांच की जाए कि गिरफ्तारी वैध थी या नहीं।
- यह रिट किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को अवधारित करती है।
सांविधानिक उपबंध:
- अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय और अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है।
- अनुच्छेद 32 के अधीन, उच्चतम न्यायालय मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिये रिट जारी करता है।
- अनुच्छेद 226 के अधीन, उच्च न्यायालयों को विधिक और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिये रिट जारी करने का व्यापक अधिकारिता प्राप्त है।
- उच्चतम न्यायालय को भारत के क्षेत्रीय अधिकारिता के भीतर और बाहर सभी प्राधिकारियों पर अधिकार प्राप्त है।
- उच्च न्यायालय तब मामलों पर विचार करते हैं जब उनका उस प्राधिकार पर नियंत्रण होता है, तथा वाद हेतुक उनकी अधिकारिता में उत्पन्न होता है।
कौन आवेदन कर सकता है:
- अवैध रूप से परिरोध या निरुद्ध किया गया व्यक्ति।
- कोई भी व्यक्ति जो मामले के लाभ से अवगत हो।
- मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित कोई भी व्यक्ति जो स्वेच्छा से अनुच्छेद 32 या 226 के अधीन आवेदन दायर करता है।
- जैसा कि शीला बार्से बनाम महाराष्ट्र राज्य (1983) में कहा गया है, यदि निरुद्ध किया गया व्यक्ति आवेदन दायर नहीं कर सकता है, तो कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से आवेदन दायर कर सकता है।
जब रिट अस्वीकार कर दी जाती है:
- जब न्यायालय के पास बंदी पर क्षेत्रीय अधिकारिता का अभाव हो।
- जब निरोध किसी सक्षम न्यायालय के आदेश से जुड़ा हो।
- जब निरुद्ध किया गया व्यक्ति पहले ही मुक्त हो चुका हो।
- जब दोषों को दूर करके परिरोध को वैध बना दिया गया हो।
- जब कोई सक्षम न्यायालय याचिका को गुण-दोष के आधार पर खारिज कर देता है।
प्रकृति और दायरा:
- यह एक प्रक्रियात्मक रिट है, न कि एक मूल रिट, जैसा कि कानू सान्याल बनाम जिला मजिस्ट्रेट दार्जिलिंग (1974) के मामले में कहा गया है।
- इसमें केवल शरीर को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने के बजाय तथ्यों और परिस्थितियों की जांच करके निरोध की वैधता पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
- रिट न केवल सदोष परिरोध के लिये अपितु निरोध प्राधिकारी द्वारा दुर्व्यवहार और विभेद से सुरक्षा के लिये भी दायर किया जा सकता है, जैसा कि सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1980) में कहा गया है।
- अवैध परिरोध के मामलों में पूर्व-न्याय का सिद्धांत लागू नहीं होता; नए आधारों के साथ निरंतर याचिकाएँ दायर की जा सकती हैं।
सबूत का भार:
- निरुद्ध करने वाले व्यक्ति या प्राधिकारी पर यह दायित्त्व है कि वह न्यायालय को यह संतुष्टि दिलाए कि निरोध विधिक आधार पर किया गया था।
- यदि बंदी व्यक्ति प्राधिकारी की अधिकारिता के बाहर विद्वेषपूर्ण परिरोध का आरोप लगाता है, तो इसका भार बंदी पर स्थानांतरित हो जाता है।