एडमिशन ओपन: UP APO प्रिलिम्स + मेंस कोर्स 2025, बैच 6th October से   |   ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (प्रयागराज)   |   अपनी सीट आज ही कन्फर्म करें - UP APO प्रिलिम्स कोर्स 2025, बैच 6th October से









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के अधीन मंजूरी

 24-Nov-2025

"किसी लोक सेवक पर अभियोजन चलाने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के अधीन दी गई मंजूरी में सक्षम प्राधिकारी द्वारा स्पष्ट विवेक का प्रयोग प्रतिबिंबित होना चाहिये तथा यह अस्पष्ट या यांत्रिक कथनों पर आधारित नहीं होनी चाहिये।" 

न्यायमूर्ति संजय करोल और एन. कोटिस्वर सिंह 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?   

रॉबर्ट लालचुंगनुंगा चोंग्थू उर्फ़ आरएल चोंग्थू बनाम बिहार राज्य (2025)के मामले में न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ नेएक IAS अधिकारी की अपील को स्वीकार कर लिया और पटना उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया, जिसमें कहा गया कि मंजूरी आदेश उचित विचार-विमर्श के बिना पारित किया गया था, और पूरक आरोप पत्र अत्यधिक विलंब के पश्चात् दायर किया गया था। 

रॉबर्ट लालचुंगनुंगाचोंगथुउर्फ़ आरएलचोंगथुबनाम बिहार राज्य (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • अपीलकर्त्ता के विरुद्ध 2005 में सहरसा, बिहार में एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी, जो 2002-2005 के दौरान जिला मजिस्ट्रेट-सह-लाइसेंसिंग प्राधिकारी के रूप में कार्यरत था। 
  • आरोप यह था कि अपीलकर्त्ता ने उचित पुलिस सत्यापन के बिना ही मिथ्या और शारीरिक रूप से अयोग्य व्यक्तियों को आयुध लाइसेंस जारी कर दिये थे। 
  • 2006 में की गई प्रारंभिक अन्वेषण में अपीलकर्त्ता को दोषमुक्त करार दिया गया तथाउसके विरुद्ध लगाए गए आरोपों को "मिथ्या" बताया गया। 
  • 2009 में, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने मामले में आगे के अन्वेषण की अनुमति दी। 
  • 11 वर्षों के अंतराल के बाद, 2020 में, अन्वेषण अभिकरण नेअधिकारी को अभियुक्त के रूप में नामित करते हुए एकपूरक आरोपपत्र दायर किया। 
  • दण्ड प्रकिया संहिता की धारा 197 के अधीन अभियोजन की मंजूरी 2022 में दी गई। 
  • अपीलकर्त्ता ने पटना उच्च न्यायालय में कार्यवाही को चुनौती दी, जिसने दोषपूर्ण मंजूरी आदेश के आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने से इंकार कर दिया। 
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

न्यायालय की टिप्पणियांक्या थीं ? 

  • न्यायालय ने कहा किकिसी लोक सेवक पर अभियोजन चलानेके लियेदण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 197 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 218)के अधीन मंजूरी अस्पष्ट या यांत्रिक कथनों पर आधारित नहीं हो सकती है और इसमें सक्षम प्राधिकारी द्वारा स्पष्ट विवेक का प्रयोग प्रतिबिंबित होना चाहिये।  
  • पीठ ने कहा कि, "मंजूरी देने या अस्वीकार करने वाले प्राधिकारियों द्वारा विवेक का प्रयोग स्पष्ट रूप से दिखाई देना चाहिये, जिसमें निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उनके समक्ष रखे गए साक्ष्य पर विचार करना भी सम्मिलित है।" 
  • न्यायालय ने कहा कि संज्ञान से पहले दी जाने वाली मंजूरी का घोषित उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अपने लोक कर्त्तव्य का निर्वहन कर रहे अधिकारियों पर आपराधिक अभियोजन चलाने का खतरा न मंडराए। 
  • निर्णय में कहा गया कि यदि मंजूरी अस्पष्ट कथनों जैसे कि "उपलब्ध केस डायरी में उल्लिखित दस्तावेज़ों और साक्ष्यों के अवलोकन" पर आधारित है, तो यह संरक्षण समाप्त हो जाएगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि मंजूरी आदेश में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के सार को छुआ गया था और यह तथ्य भी कि अपीलकर्त्ता एक लोक सेवक है, जो इसके अंतर्गत आएगा, "तथापि मंजूरी देने वाले प्राधिकारी द्वारा इस बात को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया कि मंजूरी की आवश्यकता क्यों है।" 
  • पीठ ने मंजूरी आदेश को "विधि की दृष्टि से खराब तथा अपास्त किया जाना चाहिये" घोषित किया तथा इसके परिणामस्वरूप संज्ञान लेने के आदेश सहित सभी परिणामी कार्रवाइयों को रद्द कर दिया। 
  • न्यायालय ने आगे की अन्वेषण के लिये, लिये गए 11 वर्षों के "अनुचित रूप से लंबे समय" की निंदा करते हुए कहा कि अपीलकर्त्ता पर "इन सभी वर्षों से आपराधिक अन्वेषण का बादल मंडरा रहा था।" 
  • इस बात की पुष्टि करते हुए कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन त्वरित विचारण का अधिकार अन्वेषण प्रक्रम को भी शामिल करता है, न्यायालय ने कहा कि "अन्वेषण अंतहीन रूप से जारी नहीं रह सकता।"  
  • पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि अभियुक्त को "अन्वेषण जारी रखने की धमकी देकर अंतहीन रूप से पीड़ित नहीं किया जा सकता है"और कहा कि विलंब की कार्यवाही को रद्द करने के लिये पर्याप्त आधार है। 
  • न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया औरअपील को मंजूरी दे दी।  

भारती नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 218 क्या है? 

धारा 218 - न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन 

संरक्षण का दायरा: 

  • यह न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और सरकारी कर्मचारियों पर लागू होता है, जिन्हें सरकारी मंजूरी के बिना पद से हटाया नहीं जा सकता। 
  • संरक्षण में ऐसे अपराध सम्मिलित हैं जो कथित रूप से पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन में कार्य करते समय या कार्य करने का दावा करते समय किये गए हों। 
  • न्यायालय पूर्व अनुमति के बिना ऐसे अपराधों का संज्ञान नहीं ले सकते। 

मंजूरी की आवश्यकताएँ: 

  • संघ के मामलों के संबंध में नियोजित व्यक्तियों के लिये केंद्र सरकार की मंजूरी आवश्यक है। 
  • राज्य के मामलों के संबंध में नियोजित व्यक्तियों के लिये राज्य सरकार की मंजूरी आवश्यक है। 
  • राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) के दौरान, राज्य कर्मचारियों के लिये भी केंद्र सरकार की मंजूरी आवश्यक थी। 

मंजूरी निर्णय की समय सीमा: 

  • सरकार को मंजूरी अनुरोध पर प्राप्ति के 120 दिनों के भीतर निर्णय लेना होगा। 
  • यदि 120 दिनों के भीतर कोई निर्णय नहीं लिया जाता है तो मंजूरी स्वतः ही प्रदान कर दी गई मानी जाएगी। 

अपवाद - किसी मंजूरी की आवश्यकता नहीं: 

  • भारतीय न्याय संहिता, 2023 की विशिष्ट धाराओं के अंतर्गत अपराधों के लिये: धारा 197, 198, 63, 66, 68, 70, 73, 74, 75, 76, 77, 141, या 351।  
  • लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के अंतर्गत भी अपवाद का प्रावधान है। 

सशस्त्र बल सुरक्षा: 

  • सशस्त्र बलों के सदस्यों के लिये केंद्र सरकार की पूर्व मंजूरी के बिना कोई संज्ञान नहीं। 
  • राज्य सरकार अधिसूचना के माध्यम से लोक व्यवस्था बनाए रखने वाले बलों को यह संरक्षण प्रदान कर सकती है। 
  • राष्ट्रपति शासन के दौरान, राज्य बलों के लिये भी केंद्र सरकार की मंजूरी आवश्यक होती है। 

अभियोजन नियंत्रण: 

  • केंद्र/राज्य सरकार यह अवधारित कर सकती है कि अभियोजन कौन करेगा। 
  • सरकार अभियोजन के तरीके और अभियोजन किये जाने वाले विशिष्ट अपराधों को निर्दिष्ट कर सकती है। 
  • सरकार उस न्यायालय को नामित कर सकती है जहाँ विचारण चलाया जाएगा। 

सिविल कानून

माता-पिता की देखरेख करना बालकों का कर्त्तव्य

 24-Nov-2025

"किसी बालक/बालकों का अपने माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक की देखरेख करने का दायित्त्व और कर्त्तव्य, माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति पर कब्जा करने की शर्त पर आधारित नहीं है। यह दायित्त्व बालक पर जन्म से ही आ जाता है और बिना शर्त होता है।" 

न्यायमूर्ति ए.एस. गडकरी और रंजीतसिंह राजा भोंसले 

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति ए.एस.गडकरी और न्यायमूर्ति रंजीतसिंह राजा भोंसले की पीठ नेबांद्रा होली फैमिली हॉस्पिटल सोसायटी एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया कि बालकों का अपने माता-पिता की देखरेख और भरणपोषण करने का दायित्त्व माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007 के अधीन एक बिना शर्त सांविधिक कर्त्तव्य है, और यह इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि बालक के पास माता-पिता की संपत्ति है या नहीं, या वह उसे विरासत में प्राप्त करेगा या नहीं। 

बांद्रा होली फैमिली हॉस्पिटल सोसाइटी एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • यह याचिका बांद्रा होली फैमिली हॉस्पिटल सोसाइटी और उसके अस्पताल द्वारा दायर की गई थी, जो 76 वर्षीय महिला श्रीमती मोहिनी पुरी की देखरेख कर रहा था। 
  • श्रीमती पुरी को 24 अगस्त 2025 को तीव्र स्ट्रोक के कारण गंभीर रूप से कुपोषित और अस्थिर स्थिति में भर्ती कराया गया था। 
  • अस्पताल ने लगभग ₹16,00,000 का बकाया संदाय न होने के बावजूद उसका इलाज जारी रखा। 
  • उसके पुत्र (प्रत्यर्थी संख्या 3) नेबकाया चिकित्सा बिलों कासंदाय करने और उपचार के बाद उसे घर ले जाने से इंकार कर दिया। 
  • पुत्र ने अस्पताल पर चिकित्सा उपेक्षा का अभिकथन किया 
  • पुत्र अपनी माता की देखरेख का उत्तरदायित्त्व लेने से निरंतर बचतारहा, यहाँ तक ​​कि न्यायालय द्वारा प्रस्तावित किये जाने पर उसने माता की देखरेख करने का वचन देने से भी इंकार कर दिया। 
  • न्यायालय ने परित्याग के मामले में संबंधित पुलिस अधिकारी और वरिष्ठ नागरिक अधिकरण की निष्क्रियता पर ध्यान दिया। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि बुजुर्ग और चिकित्सकीय रूप से कमजोर माता-पिता का परित्याग या उपेक्षा, वरिष्ठ नागरिकों के लिये गरिमा, स्वास्थ्य और सार्थक जीवन सुनिश्चित करने वाली सांविधानिक और सांविधिक गारंटी के मूल पर आघात है। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि पुत्र के आचरण से प्रथम दृष्टया पूर्ण उपेक्षा और परित्याग का मामला सामने आया। 
  • वरिष्ठ नागरिक अधिनियम की धारा 23 का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा किमाता-पिता की देखरेख और भरणपोषण करने का बालक का कर्त्तव्य "बिना शर्त है और जन्म से उत्पन्न होता है", जबकि नातेदार का कर्त्तव्य संपत्ति के कब्जे या उत्तराधिकार से जुड़ा होता है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया: "किसी बालक/बालकों का अपने माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक की देखरेख करने का दायित्त्व और कर्त्तव्य, माता-पिता या वरिष्ठ की संपत्ति पर कब्जा करने की शर्त पर आधारित नहीं है। यह दायित्त्व बालक पर जन्म से ही आ जाता है और बिना शर्त होता है। नैतिक और पवित्र कर्त्तव्य होने के अलावा, यहविधि द्वारा अधिरोपित एक सांविधिक कर्त्तव्य भी है।" 
  • न्यायालय ने पुलिस अधिकारी और वरिष्ठ नागरिक अधिकरण की निष्क्रियता की आलोचना करते हुए कहा कि अधिनियम के अधीन कदम उठाने में उनकी असफलता इसके उद्देश्य और लक्ष्य को असफल करती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि पुत्र को अपनी माता के भरणपोषण और देखरेख के अनिवार्य कर्त्तव्य का उल्लंघन करने के बावजूद संपत्ति का उपयोग या उपभोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि भरणपोषण अधिकरण राज्य की देखरेख में रहने की अवधि के दौरान माता की संपत्ति की सुरक्षा के लिये सुरक्षात्मक आदेश पर विचार कर सकता है। 

न्यायालय द्वारा जारी निदेश: 

उच्च न्यायालय ने श्रीमती पुरी की तत्काल चिकित्सा देखरेख के लिये विस्तृत निदेश जारी किये: 

  • उसे चिकित्सीय निगरानी में भाभा अस्पताल में में शिफ्ट करना।  
  • यदि पुत्र ऐसा करने में असफल रहता है तो राज्य को उपचार का खर्च वहन करने का निदेश दिया गया। 
  • भरणपोषण अधिकरण को वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के अंतर्गत आवश्यक कदम उठाने की आवश्यकता है। 
  • न्यायालय की अनुमति के बिना पुत्र को उसकी संपत्तियों से लेन-देन करने से रोकना। 
  • पुत्र को उसकी सभी चल और अचल संपत्तियों का प्रकटन करने का निदेश दिया गया। 
  • याचिका को इन शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया गया। 

माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007 क्या है? 

बारे में: 

  • माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007 भारत में माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण एवं कल्याण हेतु अधिक प्रभावी प्रावधान प्रदान करने हेतु अधिनियमित किया गया था। इस अधिनियम के अनुसार, "वरिष्ठ नागरिक" वह व्यक्ति है जो भारत का नागरिक है और 60 वर्ष या उससे अधिक आयु का हो गया है। 

प्रमुख उपबंध: 

  • भरणपोषण दायित्त्व (धारा 4-18): बालकों का अपने माता-पिता का भरणपोषण करना विधिक दायित्त्व है, तथा नातेदारों का निःसंतान वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण करना दायित्त्व है। 
  • अधिकरणों की स्थापना (धारा 7): राज्य सरकारों को भरणपोषण के दावों पर निर्णय लेने के लिये भरणपोषण अधिकरणों की स्थापना करनी होगी। 
  • वृद्धाश्रम (धारा 19): राज्य सरकारों को प्रत्येक जिले में वृद्धाश्रम स्थापित करना आवश्यक है। 
  • चिकित्सा सहायता (धारा 20): वरिष्ठ नागरिकों के लिये चिकित्सा देखरेख का उपबंध 
  • जीवन और संपत्ति की सुरक्षा (धारा 21-23): वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा के उपाय। 

धारा 22: कार्यान्वयन के लिये प्राधिकारी: 

  • धारा 22 अधिनियम के उपबंधों को लागू करने के लिये उत्तरदायी प्राधिकारियों से संबंधित है: 
  • जिला मजिस्ट्रेट की शक्तियां : 
  • राज्य सरकार अधिनियम का उचित कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिये जिला मजिस्ट्रेटों को शक्तियां और कर्त्तव्य प्रत्यायोजित कर सकते है। 
  • जिला मजिस्ट्रेट इन शक्तियों को निर्दिष्ट स्थानीय सीमाओं के भीतर अधीनस्थ अधिकारियों को प्रत्यायोजित कर सकते हैं।  
  • व्यापक कार्य योजना : 
  • राज्य सरकारों को वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा के लिये विशेष रूप से एक व्यापक कार्य योजना विहित करनी होगी। 
  • यह धारा अनिवार्यतः अधिनियम के प्रवर्तन के लिये प्रशासनिक ढाँचा तैयार करती है, तथा जिला स्तर पर प्राथमिक कार्यान्वयन प्राधिकारी के रूप में जिला मजिस्ट्रेटों पर उत्तरदायित्त्व डालती है। 

धारा 23: संपत्ति अधिकारों का संरक्षण 

  • धारा 23 विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह संपत्ति अंतरण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती है, जिससे वरिष्ठ नागरिकों को खतरा हो सकता है: 
  • शून्य अंतरण (धारा 23(1)): 
    • यदि कोई वरिष्ठ नागरिक संपत्ति (दान या अन्य रूप से) इस शर्त के साथ अंतरित करता है कि अंतरिती मूल सुविधाएँ और भौतिक आवश्यकताएँ प्रदान करेगा।  
    • और यदि अंतरिती व्यक्ति इन सुविधाओं और आवश्यकताओं को प्रदान करने में असफल रहता है।  
    • तब अधिकरण द्वारा संपत्ति अंतरण को शून्य घोषित किया जा सकता है 
    • ऐसे अंतरण कपट, प्रपीड़न या असम्यक् असर से किये गए माने जाते हैं।  
  • संपत्ति से भरणपोषण का अधिकार (धारा 23(2)): 
    • यदि किसी वरिष्ठ नागरिक को संपत्ति से भरणपोषण प्राप्त करने का अधिकार है 
    • और यदि वह संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति को अंतरित कर दी जाती है 
    • भरणपोषण प्राप्त करने का अधिकार अंतरिती के विरुद्ध लागू किया जा सकता है यदि: 
      • अंतरिती को इस अधिकार की सूचना थी, या 
      • अंतरण निःशुल्क था (बिना किसी प्रतिफल के) 
    • यह अधिकार उस अंतरिती व्यक्ति के विरुद्ध लागू नहीं किया जा सकता जिसने प्रतिफल का संदाय किया हो और उसे अधिकार की कोई सूचना न हो 
    • पर-पक्षकार द्वारा कार्रवाई (धारा 23(3)): 
      • यदि कोई वरिष्ठ नागरिक इन अधिकारों को लागू करने में असमर्थ है 
      • अधिकृत संगठन वरिष्ठ नागरिक की ओर से कार्रवाई कर सकते हैं।  
    • धारा 23 मूलतः संपत्ति अंतरण को अमान्य करने के लिये एक तंत्र प्रदान करती है, जहाँ संपत्ति अंतरण के बाद वरिष्ठ नागरिक को देखरेख के बिना छोड़ दिया जाता है, तथा संपत्ति अंतरण के होते हुए भी भरणपोषण के उनके अधिकार की रक्षा करती है।