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आपराधिक कानून
गैर-प्राइवेट कृत्य फिल्मांकन के लिये दृश्यरतिकता नहीं
05-Dec-2025
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तुहिन कुमार बिस्वास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य "किसी महिला की तस्वीरें खींचना और उसकी सम्मति के बिना मोबाइल फोन पर उसका वीडियो बनाना, जब वह कोई "प्राइवेट कृत्य" न कर रही हो, तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354ग के अधीन दृश्यरतिकता का अपराध नहीं माना जाएगा ।" न्यायमूर्ति नोंगमेइकापम कोटिस्वर सिंह और न्यायमूर्ति मनमोहन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
तुहिन कुमार बिस्वास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति नोंगमेइकापम कोटिश्वर सिंह और मनमोहन की पीठ ने अपील को स्वीकार कर लिया और अपीलकर्त्ता-अभियुक्त को यह कहते हुए उन्मोचित कर दिया कि किसी महिला की तस्वीरें क्लिक करना और उसकी सम्मति के बिना मोबाइल फोन पर उसका वीडियो बनाना, जब वह कोई " प्राइवेट कृत्य" नहीं कर रही हो, तो भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 354ग के अधीन दृश्यरतिकता का अपराध नहीं माना जाएगा।
तुहिन कुमार बिस्वास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 19 मार्च, 2020 को परिवादकर्त्ता सुश्री ममता अग्रवाल द्वारा तुहिन कुमार विश्वास के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 341, 354 ग और 506 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
- विचाराधीन संपत्ति (CF-231, सेक्टर 1, साल्ट लेक, कोलकाता) दो भाइयों - बिमलेंदु बिस्वास (अपीलकर्त्ता के पिता) और अमलेंदु बिस्वास के संयुक्त स्वामित्व में थी।
- संपत्ति के संबंध में एक सिविल वाद (शीर्षक वाद संख्या 20/2018) लंबित था, जिसमें सिविल न्यायालय ने 29 नवंबर, 2018 को व्यादेश आदेश पारित किया था, जिसमें दोनों पक्षकारों को संयुक्त कब्जा बनाए रखने और पर-पक्षकार के हितों का सृजन करने से रोकने का निदेश दिया गया था।
- परिवादकर्त्ता ने आरोप लगाया कि 18 मार्च, 2020 को जब उसने अपने मित्र और कामगारों के साथ संपत्ति में प्रवेश करने की कोशिश की, तो अपीलकर्त्ता ने उन्हें धमकाया और उनका अवरोध किया, उसकी तस्वीरें खींचीं और बिना सम्मति के वीडियो बनाए, जिससे उसकी गरिमा को ठेस पहुँची।
- अपीलकर्त्ता के विरुद्ध 16 अगस्त, 2020 को आरोप पत्र दायर किया गया था, जिसमें विशेष रूप से उल्लेख किया गया था कि परिवादकर्त्ता ने न्यायिक कथन देने में अनिच्छा व्यक्त की थी।
- अपीलकर्त्ता, सह-स्वामियों में से एक का पुत्र होने के नाते, ने एक उन्मोचन आवेदन दायर किया जिसे 29 अगस्त, 2023 को विचारण न्यायालय ने खारिज कर दिया।
- उच्च न्यायालय ने 30 जनवरी, 2024 को पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत की गई।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- धारा 354ग के अनुसार, दृश्यरतिकता को किसी महिला को ‘प्राइवेट कृत्य' करते हुए देखना या उसकी तस्वीरें लेने के रूप में परिभाषित करता है, जहाँ उसे उम्मीद होगी कि उसे कोई नहीं देखेगा।
- न्यायालय को ऐसा कोई अभिकथन नहीं मिला कि परिवादकर्त्ता किसी ‘प्राइवेट कृत्य' में संलिप्त था, जब उसकी कथित रूप से फोटो खींची गई या वीडियोग्राफी की गई।
- उच्च न्यायालय ने स्वयं यह निष्कर्ष निकाला था कि अभिकथनों से धारा 354ग के अधीन अपराध का पता नहीं चलता, किंतु वह इस आधार पर अपीलकर्त्ता को उन्मोचित करने में अस्पष्ट रूप से असफल रहा।
- न्यायालय ने कहा कि संपत्ति विवाद में केवल तस्वीरें खींचना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354ग के अधीन दृश्यरतिकता नहीं माना जाएगा ।
- उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली, उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया और अपीलकर्त्ता को सभी आरोपों से उन्मोचित कर दिया। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि इस मामले में आपराधिक कार्यवाही जारी रखना प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, क्योंकि अभियुक्त के तीनों अपराधों में से किसी के भी समर्थन में विधिक रूप से पुष्ट साक्ष्य विद्यमान नहीं थे।
दृश्यरतिकता क्या है ?
परिभाषा:
- दृश्यरतिकता में तीन प्रमुख कार्य सम्मिलित हैं:
- एक महिला को प्राइवेट कृत्य करते हुए देखना।
- एक प्राइवेट कृत्य में संलग्न महिला की छवि को कैद करना।
- ऐसी छवियों का प्रसार करना।
- सभी कार्य ऐसी परिस्थितियों में होने चाहिये जहाँ महिला को उचित रूप से यह उम्मीद हो कि उसे नहीं देखा जाएगा।
आवश्यक सामग्री:
"प्राइवेट कृत्य" क्या है (स्पष्टीकरण 1)
- किसी ऐसे स्थान पर किया गया कार्य जिससे एकांतता की उचित उम्मीद की जाती है।
- पीड़िता के जननांगों, नितंबों या वक्षस्थलों को अभिदर्शित किया जाता हैं या केवल अधोवस्त्र से ढके रहते हैं।
- पीड़िता शौचघर का प्रयोग कर रही है।
- पीड़िता एक ऐसा लैंगिक कृत्य कर रही है जो सामान्यतः सार्वजनिक तौर पर नहीं किया जाता।
अपराधी का आचरण:
- अपराधी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से देखना या पकड़ना, अथवा।
- अपराधी के कहने पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा देखना या पकड़ना।
- ऐसी छवियों का पर-व्यक्तियों तक प्रसार।
सम्मति और प्रसार (स्पष्टीकरण 2)
- पीड़िता चित्र लेने के लिये सम्मति दे सकती है, किंतु उसको प्रसारित करने के लिये नहीं।
- यदि प्रसारित हेतु सम्मति के बिना छवियों का प्रसार किया जाता है, तो यह अपराध माना जाएगा।
- कैप्चर करने की सम्मति ≠ साझा करने की सहमति।
दण्ड संरचना:
प्रथम दोषसिद्धि
- कारावास: न्यूनतम 1 वर्ष, 3 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
- जुर्माना: अनिवार्य।
- प्रकृति: जमानतीय।
द्वितीय या पश्चात्वर्ती दोषसिद्धि
- कारावास: न्यूनतम 3 वर्ष से 7 वर्ष तक की अवधि का।
- जुर्माना: अनिवार्य।
- प्रकृति: अजमानतीय।
प्रक्रियात्मक वर्गीकरण (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS))
- संज्ञेय अपराध : पुलिस बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकती है।
- जमानतीय : प्रथम दोषसिद्धि के लिये।
- गैर-जमानती : दूसरी या बाद की दोषसिद्धि के लिए।
- सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय।
विधायी विकास:
- पूर्ववर्ती विधि : भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 354ग।
- वर्तमान कानून : भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 77 ।
- मुख्य परिवर्तन : प्रक्रियागत स्पष्टता के साथ मूल प्रावधानों को बड़े पैमाने पर बरकरार रखा गया।
आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528
05-Dec-2025
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विश्व बंधु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य "यदि आवेदक आरोपपत्र और संज्ञान आदेश को अभिलेख पर रखे बिना केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को चुनौती देता है तो भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन याचिका पोषणीय नहीं है।" न्यायमूर्ति जितेंद्र कुमार सिन्हा |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
विश्व बंधु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य (2025) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जितेंद्र कुमार सिन्हा ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के अधीन दायर एक आवेदन को खारिज कर दिया, जिसमें प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की मांग की गई थी, यह देखते हुए कि आरोप पत्र और संज्ञान आदेश अभिलेख पर नहीं लाए गए थे।
विश्व बंधु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 3 अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- आवेदक (विश्व बंधु) ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420, 467, 468 और 471 के अधीन अपराधों का आरोप लगाते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- चुनौती का प्राथमिक आधार यह था कि समान तथ्यों पर दूसरी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करना, टी.टी. एंटनी बनाम केरल राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार, विधि की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।
- राज्य ने आवेदन की स्वीकार्यता के संबंध में प्रारंभिक आक्षेप उठाया और तर्क दिया कि अन्वेषण के प्रक्रम में, उपचार संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन रिट याचिका दायर करने में निहित है, न कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 (पूर्व में धारा 482 दण्ड प्रक्रिया संहिता) के अधीन आवेदन करने में।
- आवेदक ने न्यायालय के समक्ष आरोपपत्र या संज्ञान आदेश प्रस्तुत किये बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की मांग की।
- सुनवाई के समय मामले में कोई आरोपपत्र दाखिल नहीं किया गया था, जिसका अर्थ है कि आवेदक ऐसे दस्तावेज़ भौतिक रूप से प्रस्तुत नहीं कर सकता था।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायमूर्ति सिन्हा ने न्यायिक हस्तक्षेप के प्रक्रमो के बीच स्पष्ट अंतर स्थापित करने के लिये प्रज्ञा प्रांजल कुलकर्णी बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025) में उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय का हवाला दिया।
- न्यायालय ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने माना है कि संज्ञान लेने से पहले अनुच्छेद 226 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) या आरोप-पत्र को रद्द किया जा सकता है, किंतु एक बार संज्ञान लेने के बाद, यदि विधिवत अभिवचन दिया जाए तो प्रथम सूचना रिपोर्ट/आरोप-पत्र और संज्ञान आदेश दोनों को चुनौती देने के लिये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन उपचार विद्यमान है।
- न्यायालय ने कहा: "वर्तमान आवेदन में की गई प्रार्थनाओं के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि आवेदक ने केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की मांग की है और उसने आरोप पत्र के साथ-साथ सक्षम न्यायालय द्वारा आरोप पत्र पर लिये गए संज्ञान को भी प्रस्तुत नहीं किया है।"
- न्यायमूर्ति सिन्हा ने कहा: "प्रज्ञा प्रांजल कुलकर्णी (सुप्रा) में माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय के मद्देनजर, चूँकि आरोप पत्र और संज्ञान अभिलेख पर नहीं रखा गया है, इसलिये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 (पुरानी धारा 482 दण्ड प्रक्रिया संहिता) के प्रावधानों को लागू करके प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द नहीं किया जा सकता है।"
- याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि आरोपपत्र और संज्ञान आदेश अभिलेख पर नहीं रखे गए थे।
- राज्य ने राम लाल यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की 1989 की पूर्ण पीठ के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि धारा 482 दण्ड प्रक्रिया संहिता (अब धारा 528 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) केवल संज्ञान लेने के बाद न्यायिक कार्यवाही पर लागू होती है, पुलिस अन्वेषण पर नहीं।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 528 क्या है?
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 का स्थान लेती है, तथा न्यायालय प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने तथा न्याय सुनिश्चित करने के लिये उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को संरक्षित करती है।
- यह उपबंध नई शक्तियां प्रदान नहीं करता है, अपितु संहिता के अधीन किसी भी आदेश को प्रभावी करने के लिये आवश्यक आदेश देने के लिये उच्च न्यायालय की पूर्व-विद्यमान अंतर्निहित शक्तियों को मान्यता देता है।
- धारा 528 के अंतर्गत निहित शक्तियों का प्रयोग संज्ञेय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के बाद पुलिस अन्वेषण को रद्द करने, सांविधिक अन्वेषण अधिकारों में हस्तक्षेप करने या प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के अभिकथनों की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाने के लिये नहीं किया जा सकता।
- निर्णय विधि यह स्थापित करती है कि इन शक्तियों का प्रयोग कार्यवाही को रद्द करने के लिये किया जा सकता है, जहाँ कोई विधिक बाधा हो, जहाँ आरोप अपराध न हों, या जहाँ आरोपों का समर्थन करने में साक्ष्य असफल हों।
- उच्चतम न्यायालय ने धारा 528 के अधीन दायर याचिकाओं पर विचार करने के प्रति आगाह किया है, यदि वैकल्पिक उपचार नहीं अपनाए गए हैं, तथा पहली याचिका दायर करते समय उपलब्ध आधारों पर दूसरी याचिका दायर करने पर रोक लगा दी है।
- एक व्यावृति प्रावधान के रूप में, धारा 528 उच्च न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति को असाधारण परिस्थितियों में हस्तक्षेप करने के लिये संरक्षित करती है, जब पूर्ण न्याय के लिये सामान्य उपचार अपर्याप्त होते हैं।
- धारा 528 के अधीन शक्तियों के प्रयोग के लिये न्यायिक संयम की आवश्यकता होती है, विशेषकर उन मामलों में जहाँ अन्वेषण प्रारंभिक अवस्था में हो।
- ऐसी याचिकाओं पर विचार करते समय, न्यायालयों को व्यक्तियों को अनुचित अभियोजन से बचाने तथा वैध अन्वेषण की अनुमति देने के बीच संतुलन बनाना होगा, विशेष रूप से आर्थिक अपराधों के लिये।
- ये शक्तियां दुरुपयोग को रोक सकती हैं, जहाँ आपराधिक कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण आशय से या निजी द्वेष से उपजे गुप्त उद्देश्यों से शुरू की जाती है।
- न्यायालय सामान्यत: धारा 528 के अधीन आर्थिक अपराध के मामलों में कार्यवाही को रद्द करने के बारे में अधिक सतर्क रहते हैं, क्योंकि वे उनकी विशिष्ट प्रकृति और वित्तीय प्रणाली पर उनके व्यापक प्रभाव को समझते हैं।