करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

सुपुर्दगी चरण

 06-Aug-2025

कल्लू नट उर्फ मयंक कुमार नागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य 

"जब एक बार अपराध का संज्ञान ले लिया जाता है, तब दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 193 के अंतर्गत जो निषेध (bar) है, वह समाप्त हो जाता है, और अतिरिक्त अभियुक्तों को समन करना सामान्य प्रक्रिया का अंग बन जाता है, इसके लिये पुनः सुपुर्दगी की आवश्यकता नहीं होती।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने निर्णय दिया कि सेशन न्यायालय सुपुर्दगी की चरण पर, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 193 के अंतर्गत किसी अतिरिक्त अभियुक्त को समन कर सकता है, क्योंकि संज्ञान अपराध का लिया जाता है, न कि विशेष रूप से अपराधी का 

  • उच्चतम न्यायालय ने कल्लू नट उर्फ मयंक कुमार नागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया 

कल्लू नट उर्फ मयंक कुमार नागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • परिवादकर्त्ता विजयलाल की पत्नी शिववती, दिनांक 21 नवम्बर 2018 को लापता हो गई थीं, तथा 24 नवम्बर 2018 को उनका शव झाड़ियों में पड़ा मिला, जिसकी गर्दन पर साल के फंदे के निशान थे 
  • पति ने अजय को संदिग्ध बताते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई और अभिकथित किया कि उसका पीड़िता के साथ अवैध संबंध था 
  • अन्वेषण के दौरान याचिकाकर्त्ता कल्लू नट उर्फ मयंक कुमार नागर का नाम तब सामने आया जब साक्षियों ने बताया कि उसनेअपनी संलिप्तता के बारे मेंन्यायेतर संस्वीकृति की थी 
  • बाद में क्राइम ब्रांच ने याचिकाकर्त्ता को क्लीन चिट दे दी और 21 फरवरी 2019 को केवल अजय के विरुद्ध आरोपपत्र दायर किया।  
  • 11 मार्च 2019 को मामला सेशन न्यायालय को सुपुर्द कर दिया गया और 2 अप्रैल 2019 को पीड़िता के पति ने याचिकाकर्त्ता को अभियुक्त के रूप में समन करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 193 के अधीन एक आवेदन दायर किया। 
  • विचारण न्यायालय कोइस आवेदन पर निर्णय लेनेमें पाँच वर्ष लगे और अंततः साक्षियों के कथनों, मृतक और याचिकाकर्त्ता के बीच 17 कॉलों के विवरण रिकॉर्ड, पीड़िता के साथ याचिकाकर्त्ता के प्रत्यक्षदर्शी बयान, न्यायेतर संस्वीकृति और बलात्संग तथा गला घोंटने की पुष्टि करने वाले पोस्टमार्टम सहित साक्ष्यों के आधार पर इसे अनुमति दे दी गई।  

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • विचारण न्यायालय की टिप्पणियाँ: 
    • विचारण न्यायालय ने मृतक और दोनों अभियुक्तों के बीच अवैध संबंधों का अवलोकन किया, जिन्होंने मिलकर षड्यंत्र रचा था 
    • न्यायालय ने मृतक और याचिकाकर्त्ता के बीच संदिग्ध गतिविधियों और व्यापक फोन संचार (17 कॉल) का उल्लेख किया। 
    • न्यायालय ने न्यायेतर संस्वीकृति और पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बलात्संग और गला घोंटकर हत्या की पुष्टि को महत्त्व दिया। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 और 302 के अधीन समन भेजने के लिये प्रथम दृष्टया पर्याप्त साक्ष्य विद्यमान थे। 
  • उच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ: 
    • उच्च न्यायालय ने पाया कि समान अनुतोष के लिये पूर्व में धारा 482 के अधीन आवेदन किये जाने के कारण आपराधिक पुनरीक्षण पोषणीय नहीं था। 
    • न्यायालय ने कहा कि सेशन न्यायालय ने धारा 193 की अधिकारिता का वैध रूप से प्रयोग किया है और धर्मपाल मामले पर विश्वास करते हुए आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती। 
  • उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियाँ 
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायालय "अपराध" का संज्ञान लेती हैं, "अपराधी" का नहीं और संलिप्तता स्पष्ट होने पर अतिरिक्त अभियुक्तों को समन कर सकती हैं। न्यायालय ने कहा कि पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता के विपरीत, वर्तमान दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन सुपुर्दगी "मामले" की है, न कि "अभियुक्त" की। 
    • न्यायालय ने कहा कि सेशन न्यायालय को किसी भी अभियुक्त को दण्ड दिये जाने के पश्चात् समन भेजने का पूर्ण अधिकार है। 
    • न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता की धारा 319 संबंधी दलील गलत है, क्योंकि यह भिन्न आधार पर है। 
    • न्यायालय ने कहा कि वास्तविक अपराधियों को ढूंढना और अपराध में सम्मिलित अन्य लोगों को समन भेजना न्यायालय का कर्त्तव्य है। 
    • न्यायालय ने कहा कि अन्वेषण एजेंसियों को अभियुक्तों को दोषमुक्त करने की अनुमति देने से न्याय में बाधा उत्पन्न होगी। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि प्रक्रिया न्याय की दासी होनी चाहिये न कि बाधा उत्पन्न करने वाली। 

सुपुर्दगी चरण क्या है? 

  • सुपुर्दगी चरण एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रियात्मक चरण है, जहाँमजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट और सामग्री की परीक्षा करके यह निर्धारित करता है कि मामले का विचारण सेशन न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिये या नहीं। 
  • सुपुर्दगी कार्यवाही के दौरान, मजिस्ट्रेट यह आकलन करता है कि क्या अपराध विशेष रूप से सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है, तथा व्यक्तिगत अभियुक्तों के बजाय "मामले" को सुपुर्द करता है। 
  • सुपुर्दगी चरण में, मजिस्ट्रेट सुपुर्द होने के सीमित उद्देश्य के लिये अपराध का संज्ञान करता है, जिसके पश्चात् सेशन न्यायालय मामले पर पूर्ण मूल अधिकारिता मान लेता है। 
  • सुपुर्दगी चरण एक फिल्टर तंत्र के रूप में कार्य करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि केवल उपयुक्त मामले ही सेशन न्यायालय तक पहुँचे, जबकि अभिलेख पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर अतिरिक्त अभियुक्तों को समन करने की न्यायालय की शक्ति को संरक्षित किया जाता है। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 213 क्या है? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 213, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 193 के अनुरूप है, यह उपबंधित करती है कि कोई भी सेशन न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान मूल अधिकारिता वाले न्यायालय के रूप में तब तक नहीं लेगा जब तक कि मामला मजिस्ट्रेट द्वारा उसे सुपुर्द न कर दिया गया हो। 
  • यह उपबंध इस मौलिक सिद्धांत को स्थापित करता है कि सेशन न्यायालयों को मजिस्ट्रेट द्वारा संचालित सुपुर्दगी प्रक्रिया के माध्यम से मामलों पर विचारण करने का अधिकार प्राप्त होता है। 

आपराधिक कानून

संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट

 06-Aug-2025

नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य 

"किसी अभियुक्त व्यक्ति द्वारा दर्ज कराई गई संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) उसके विरुद्ध साक्ष्य के रूप में अग्राह्य है, सिवाय इसके कि यह दर्शाया जाए कि उसने अपराध के तुरंत बाद एक कथन दिया था, जिसमें साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के अधीन रिपोर्ट बनाने वाले के रूप में उसकी पहचान की गई थी।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025)मेंन्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवनकी पीठ नेअपीलकर्त्ता को दोषमुक्त करते हुए एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया और संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), विशेषज्ञ साक्षी का साक्ष्य और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 300 के अधीन अपवादों के आवेदन के संबंध में महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णयों की स्थापना की 

नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

मामले की उत्पत्ति: 

  • अपीलकर्त्ता ने स्वयं 27 सितंबर, 2019 को कोरबा कोतवाली पुलिस थाने मेंराम बाबू शर्मा कीहत्या की संस्वीकृति करते हुएप्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई थी । 
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में विस्तृत संस्वीकृति युक्त कथन सम्मिलित थे कि कैसे अपीलकर्त्ता ने अपनी प्रेमिका की तस्वीर दिखाने को लेकर हुए झगड़े के बाद मृतक की हत्या कर दी। 
  • विचारण न्यायालय नेअपीलकर्त्ता कोभारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 (हत्या) के अधीन दोषसिद्ध ठहराया और उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया 
  • उच्च न्यायालय ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया, तथा धारा 302 से धारा 304 भाग I भारतीय दण्ड संहिता में दोषसिद्धि को परिवर्तित कर दिया, तथा धारा 300 में अपवाद 4 को लागू किया। 

चिकित्सक साक्ष्य: 

  • पोस्टमार्टम परीक्षा में मृतक के शरीर पर छह घाव पाए गए, जिनमें छाती और सिर पर घातक चोटें भी शामिल थीं। 
  • मृत्यु का कारणछाती के दाहिने भाग से अत्यधिक रक्तस्राव और दाहिने फेफड़े के ऊपरी भाग में चोट के कारण उत्पन्नआघात निर्धारित किया गया । 
  • आर.के. दिव्या (PW-10) ने पोस्टमार्टम किया तथा मृत्यु की प्रकृति के बारे में साक्ष्य दिया 

अन्वेषण विवरण: 

  • अन्वेषण अधिकारी ने मृतक के घर से अपराध में कथित तौर पर प्रयुक्त चाकू बरामद कर लिया। 
  • कपड़े और अन्य सामान एकत्र कर फोरेंसिक विश्लेषण के लिये भेज दिया गया। 
  • विचारण के दौरान अधिकांश साक्षी पक्षद्रोही साक्षी हो गए, जिससे अभियोजन पक्ष का मामला कमजोर हो गया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

उच्चतम न्यायालय ने साक्ष्य मूल्यांकन के प्रति अधीनस्थ न्यायालयों के दृष्टिकोण में मूलभूत त्रुटियों को उजागर करते हुए कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं: 

  • संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) की अग्राह्यता:उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को साक्ष्य के रूप में गलत तरीके से आधार बनाया, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 (IEA) की धारा 25 का उल्लंघन है, जो पुलिस अधिकारियों के समक्ष दिये गए संस्वीकृति युक्त कथनों को पूर्णत: अग्राह्य बनाती है। ऐसीप्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का उपयोग केवल धारा 8 के अधीन आचरण के साक्ष्य के रूप में या धारा 27 के अधीन खोजों के लिये किया जा सकता है। 
  • विशेषज्ञ साक्षी के साक्ष्य की परिसीमाएँ:न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि चिकित्सकीय विशेषज्ञ साक्ष्य मात्र सलाहात्मक प्रकृति का होता है और हत्या के दोषसिद्धि के लिये इसे अकेले आधार नहीं बनाया जा सकता। चिकित्सक तथ्यों के साक्षी नहीं होते, अपितु वे विशेषज्ञ राय प्रस्तुत करते हैं। अतः अभियुक्त को केवल चिकित्सकीय साक्ष्य के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि उस साक्ष्य की पुष्टि प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के माध्यम से न की गई हो। 
  • अपवाद 4 का गलत अनुप्रयोग:उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 (आकस्मिक झगड़ा) का अनुचित रूप से प्रयोग किया गया। इस अपवाद के लिये समान स्तर पर पक्षकारों के बीच आपसी लड़ाई, बिना किसी पूर्व-योजना, अनुचित लाभ और क्रूर आचरण की आवश्यकता होती है। यहाँ, मृतक निहत्था और हानिरहित था, जिससे यह अनुचित हो जाता है। यदि कोई अपवाद लागू होता, तो वह अपवाद 1 (गंभीर और अचानक प्रकोपन) होना चाहिये था। 
  • धारा 27 और धारा 8 के विवद्यक:धारा 27 के अधीन कोई उचित खोज स्थापित नहीं हुई क्योंकि पंच गवाहों (panch witnesses) ने खोजों तक पहुँचने वाले सटीक कथन देने में असफल रहे। यद्यपि धारा 8 के अधीन आचरण सुसंगत था, किंतु केवल यहीहत्या जैसे गंभीर आरोपों में दोषसिद्धि को उचित नहीं ठहरा सकता। 
  • समग्र साक्ष्य की विफलता:मामला "कोई विधिक साक्ष्य नहीं"पर आधारित था, क्योंकि इसमें संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) (मुख्य साक्ष्य को छोड़कर) को स्वीकार नहीं किया गया था, अपर्याप्त चिकित्सकीय साक्ष्य, प्रतिकूल पंच गवाहों द्वारा कोई पुष्टि करने वाला परिसाक्ष्य नहीं दिया गया था, तथा अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा गलत विधिक आवेदन प्रस्तुत किये गए थे। 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 8/  भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 6 क्या है? 

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 6 विधिक कार्यवाही में हेतु, तैयारी और आचरण को दर्शाने वाले तथ्यों की सुसंगति स्थापित करती है।  
  • इससे पूर्व, यहभारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत आता थी 

इस प्रावधान में दो प्रमुख पहलू सम्मिलित हैं: 

  • उपधारा (1) - हेतु और तैयारी 
    • कोई भी तथ्य, जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य का हेतु या तैयारी दर्शित या गठित करता है, सुसंगत है 
  • उपधारा (2) - पूर्व या पश्चात् का आचरण 
    • किसी भी पक्षकार, अभिकर्त्ता या व्यक्ति का आचरण (आपराधिक कार्यवाही में) सुसंगत है यदि ऐसा आचरण किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य को प्रभावित करता है या उससे प्रभावित होता है, चाहे ऐसा आचरण विवाद्यक तथ्य से पूर्व का हो या पश्चात् का। 
  • प्रमुख सिद्धांत 
    • हेतु संबंधी साक्ष्य: ऐसे तथ्य जो यह दर्शाते हैं कि कोई व्यक्ति किसी कार्य को क्यों करेगा, अभियुक्त और अपराध के बीच संबंध स्थापित करने के लिये ग्राह्य हैं।  
    • तैयारी संबंधी साक्ष्य: अपराध करने के लिये व्यवस्थित योजना या तत्परता दिखाने वाले कार्य आशय और पूर्वचिंतन को साबित करने के लिये सुसंगत हैं। 
    • आचरण की सुसंगति: अपराध-पूर्व और अपराध-पश्चात् दोनों प्रकार का आचरण ग्राह्य है, यदि उसका संबंधित तथ्यों से तार्किक संबंध हो, जिसमें सम्मिलित हैं: 
      • अपराध करने के पश्चात् फरार होना  
      • साक्ष्य नष्ट करना या छिपाना 
      • मिथ्या साक्षियों को प्रस्तुत करना 
      • अपराध की जानकारी मिलते ही भाग जाना 
      • चोरी की संपत्ति का कब्ज़ा 
    • अस्थायी दायरा: यह धारा कथित घटना से पूर्व, उसके दौरान या उसके पश्चात् होने वाले आचरण की बात करती है, बशर्ते कि वह विवाद्यक के तथ्य को प्रभावित करती हो या उससे प्रभावित हो। 
    • कथनों का अपवर्जन: शुद्ध कथनों को तब तक अपवर्जित किया जाता है जब तक कि वे कृत्यों के साथ न हों और उन्हें स्पष्ट न करें, यद्यपि वे अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अंतर्गत सुसंगत हो सकते हैं। 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 क्या है 

  • यह धारा इस बात से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त कितनी जानकारी को साबित किया जा सकता है। 
  • यहभारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 23 (2) के उपबंध के अंतर्गत आता है। 
  • इसमें कहा गया है कि जब किसी तथ्य को पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से प्राप्त सूचना के परिणामस्वरूप खोजा गया माना जाता है, तो ऐसी सूचना का उतना भाग, चाहे वह संस्वीकृति हो या न हो, जो उसके द्वारा खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो, साबित किया जा सकेगा। 
  • यह धारा अनुवर्ती घटनाओं द्वारा पुष्टि के सिद्धांत पर आधारित है - दी गई जानकारी के परिणामस्वरूप वास्तव में एक तथ्य की खोज होती है, जिसके परिणामस्वरूप एक भौतिक वस्तु की पुनर्प्राप्ति होती है। 

सांविधानिक विधि

राष्ट्रीय ध्वज फहराना मौलिक अधिकार है

 06-Aug-2025

विनु सी. कुंजप्पन बनाम केरल राज्य 

सूर्यास्त के पश्चात् राष्ट्रीय ध्वज को नीचे न उतारना, जानबूझकर अपमान या अनादर करने के आशय के बिना, राष्ट्र-गौरव अपमान निवारण अधिनियम, 1971 के प्रावधानों को आकर्षित नहीं करता है।” 

डॉ. न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ 

स्रोत:केरल उच्च न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति डॉ. कौसर एडप्पागथ ने निर्णय दिया कि सूर्यास्त के पश्चात् राष्ट्रीय ध्वज को नीचे करने में अनजाने में हुई विफलता, कोई जानबूझकर साशय किया गया कृत्य अथवा दुराशय (mens rea) नहीं है, ऐसी स्थिति में राष्ट्र-गौरव अपमान निवारण अधिनियम, 1971 के अंतर्गत कोई दण्डनीय अपराध स्थापित नहीं होता 

  • केरलउच्च न्यायालय नेविनु सी. कुंजप्पन बनाम केरल राज्य (2025)  मामले में यह निर्णय दिया 

विनु सी. कुंजप्पन बनाम केरल राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • याचिकाकर्त्ता 2015 में अंगमाली नगर पालिका के सचिव के रूप में कार्यरत थे। उस वर्ष स्वतंत्रता दिवस समारोह के दौरान, नगरपालिका कार्यालय में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का दायित्त्व उनका था 
  • स्वतंत्रता दिवस 2015 पर, आधिकारिक समारोह के एक भाग के रूप मेंराष्ट्रीय ध्वज फहराया गया । यद्यपि, ध्वज फहराए जाने के लगभग दो दिन बाद तक, दो दिन बाद दोपहर तक, फहराता रहा, औरप्रोटोकॉल के अनुसार सूर्यास्त के पश्चात् उसे नीचे नहीं उतारा गया। 
  • अंगमाली पुलिस स्टेशन ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध स्वतः संज्ञान लेते हुए FIR (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज की, अर्थात् पुलिस ने बिना कोई परिवाद दर्ज किये ही स्वतः ही मामला दर्ज कर लिया। यह मामला राष्ट्र-गौरव अपमान निवारण अधिनियम, 1971 की धारा 2(क) और भारतीय ध्वज संहिता, 2002 के भाग-3, धारा 3, नियम 3.6 के अधीन दर्ज किया गया था। 
  • याचिकाकर्त्ता पर सूर्यास्त के पश्चात् राष्ट्रीय ध्वज कोनीचे न उतारकर अपराध करने का अभिकथन किया गयाथा, जिसे राष्ट्र- गौरव अपमान निवारण अधिनियम, 1971 और भारतीय ध्वज संहिता, 2002 का उल्लंघन बताया गया था। 
  • पुलिस द्वारा मामले में अपनी अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के बाद, मजिस्ट्रेट न्यायालय ने मामले का संज्ञान लिया, अर्थात् न्यायालय ने आधिकारिक तौर पर मामले को मान्यता दी और आगे बढ़ने का निर्णय किया। आपराधिक कार्यवाही का सामना करते हुए, याचिकाकर्त्ता ने अपने विरुद्ध मामला रद्द करने की मांग करते हुए केरल उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि सूर्यास्त के पश्चात् राष्ट्रीय ध्वज को नीचे न उतारनाराष्ट्रीय ध्वज के प्रति घोर अनादर या अपमान करने वाला कृत्य नहीं माना जा सकता। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जब तक राष्ट्रीय गौरव का अपमान करने या राष्ट्रीय ध्वज के प्रति अनादर दिखाने के स्पष्ट आशय से जानबूझकर कार्रवाई नहीं की जाती है, तब तक राष्ट्र- गौरव अपमान निवारण अधिनियम, 1971 के प्रावधान लागू नहीं किये जा सकते। 
  • न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिससे पता चले कि याचिकाकर्त्ता का राष्ट्रीय ध्वज का अनादर करने या राष्ट्र की संप्रभुता को कमज़ोर करने का कोई आपराधिक आशय (mens rea) था। न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता द्वारा ध्वज को नीचे न झुकाना उपेक्षा या भूल के कारण था, जानबूझकर अनादर के कारण नहीं। 
  • न्यायालय ने माना कि राष्ट्रीय ध्वज को सम्मान और गरिमा के साथ फहराने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के अधीन प्रत्याभूत एकमौलिक अधिकारहै, किंतु यह अधिकार अनुच्छेद 19(2) के अधीन युक्तियुक्त निर्बंधनों के अधीन है। 
  • न्यायालय ने 1971 के अधिनियम की धारा 2 और उसके स्पष्टीकरण 4 की जांच की और पाया कि सूर्यास्त के पश्चात् ध्वज को नीचे न करने के विशिष्ट कृत्य कोइस प्रावधान के अंतर्गत स्पष्ट रूप से अपराध नहीं माना गया है।चूँकि इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि याचिकाकर्त्ता ने स्पष्टीकरण 4 में परिभाषित "राष्ट्रीय ध्वज का घोर अपमान या अनादर" किया था, इसलिये न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अधिनियम के अंतर्गत कोई अपराध सिद्ध नहीं होता। 
  • न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की कि 2002 की ध्वज संहिता में केंद्र सरकार के कार्यकारी निदेश सम्मिलित हैं और इसलिये यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13(3)(क) के अर्थ में "विधि" नहीं है। न्यायालय ने कहा कि ध्वज संहिता सभी भारतीय नागरिकों के लिये एक अनिवार्य आचार संहिता है, किंतु दण्डात्मक परिणाम तब तक नहीं अधिरोपित किये जा सकते जब तक कि ऐसे दण्ड को अधिकृत करने वाला कोई विशिष्ट सांविधिक प्रावधान न हो। 

संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के अधीन राष्ट्रीय ध्वज फहराना मौलिक अधिकार क्यों माना जाता है? 

  • सांविधानिक अधिकार:राष्ट्रीय ध्वज को सम्मानपूर्वक फहराना, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के भाग के रूप में अनुच्छेद 19(1)(क) के अधीन एक मौलिक अधिकार है। 
  • प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति:यह देशभक्ति, गर्व और राष्ट्रीय निष्ठा को दर्शाने वाला गैर-मौखिक, प्रतीकात्मक भाषण का एक रूप है। 
  • योग्य अधिकार:यह अधिकार पूर्ण नहीं है और लोक व्यवस्था, नैतिकता और राष्ट्रीय गरिमा के लिये अनुच्छेद 19(2) के अधीन युक्तियुत निर्बंधनों के अधीन है। 
  • उपयोग की सीमाएँ:ध्वज का अपमानजनक या व्यावसायिक उपयोग संरक्षित नहीं है। 
  • ध्वज संहिता की स्थिति:ध्वज संहिता कोई विधि नहीं है, अपितु केवल कार्यकारी निदेश है और यह मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित नहीं कर सकती। 
  • सांविधिक विनियमन:ध्वज के दुरुपयोग और अपमान को रोकने के लिये 1950 और 1971 के अधिनियमों द्वारा ध्वज के उपयोग को विनियमित किया गया है। 
  • कर्त्तव्य और संरक्षण:नागरिकों का मौलिक कर्त्तव्य (अनुच्छेद 51-क) है कि वे ध्वज का सम्मान करें, और न्यायालय इसकी गरिमा को बनाए रखते हुए इस अधिकार की रक्षा करते हैं। 

भारत संघ बनाम नवीन जिंदल (2004) 

  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रीय ध्वज को सम्मानपूर्वक फहरानाअनुच्छेद 19(1)(क) के अधीनअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक मौलिक अधिकार है। न्यायालय ने स्पष्ट किया किभारतीय ध्वज संहिता कोई विधि नहीं है, अपितु केवल कार्यकारी निदेश है, और यहसांविधानिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकता । यद्यपि, यह अधिकार अनुच्छेद 19(2) के अधीनयुक्तियुक्त निर्बंधनों के अधीनहै । न्यायालय ने उच्च न्यायालय के उस निर्णय को बरकरार रखा, जिसमें ध्वज के सम्मानपूर्वक प्रदर्शन की अनुमति दी गई थी, जबकिअलग-अलग विधियों के अधीनइसके दुरुपयोग पर रोक लगाई गई थी ।