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आपराधिक कानून
कोई भी विलंब या चूक अंतरिम भरण-पोषण को रोक नहीं सकती
07-Aug-2025
एक्स बनाम वाई "यद्यपि निष्पक्ष अवसर का अधिकार और प्राकृतिक न्याय का पालन आवश्यक है, यह भी उतना ही सत्य है कि तकनीकी विलंब या प्रक्रियागत त्रुटियाँ प्रावधान के मूल उद्देश्य को विफल नहीं कर सकती।" न्यायमूर्ति स्वर्णकांता शर्मा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति स्वर्ण कांत शर्मा ने निर्णय दिया कि तकनीकी विलंब या प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अधीन अंतरिम भरण-पोषण के उद्देश्य को विफल नहीं कर सकती हैं।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक्स बनाम वाई (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
एक्स बनाम वाई (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- सागर फोगट ने 26 मई 2017 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार, रामहेर वाटिका, प्रह्लादपुर बांगर, दिल्ली में प्रियंका से विवाह किया। 23 अगस्त 2019 को उनके विवाह से एक पुत्र का जन्म हुआ। प्रत्यर्थी (प्रियंका) वर्तमान में पुनरीक्षणकर्त्ता (सागर फोगाट) से पृथक् रह रही है और अवयस्क संतान की अभिरक्षा उसके पास है।
- 6 अक्टूबर 2023 को प्रियंका ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत अपने एवं अपने अवयस्क पुत्र के लिये भरण-पोषण की याचिका कुटुंब न्यायालय में दायर की। याचिका में यह आरोप लगाया गया कि सागर फोगाट एवं उनके पारिवारिक सदस्यों द्वारा मानसिक एवं शारीरिक क्रूरता की गई। साथ ही यह दावा किया गया कि सागर फोगाट ₹4,00,000 प्रति माह से अधिक की किराए की आय प्राप्त कर रहे हैं, तथा उन्हें ₹2,00,000 प्रति माह भरण-पोषण के रूप में आवश्यक हैं।
- कुटुंब न्यायालय ने सागर को निदेश दिया कि वह याचिका दायर करने की तिथि से प्रियंका और अवयस्क संतान को अंतरिम भरण-पोषण के रूप में प्रति माह ₹50,000 का भुगतान करे । सागर ने इस आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय में एक पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से चुनौती दी।
- सागर ने तर्क दिया कि आदेश तथ्यों की उचित समीक्षा किये बिना पारित किया गया था और यह केवल प्रियंका के अभिवचनों पर आधारित था, तथा उन्हें अपना मामला प्रस्तुत करने का उचित अवसर नहीं दिया गया था।
- उन्होंने दावा किया कि वे बेरोज़गार हैं और अपनी बीमार माँ पर निर्भर हैं, जिन्हें स्टेज-3 ब्रेन ट्यूमर है। उन्होंने तर्क दिया कि भरण-पोषण की राशि उनकी आर्थिक क्षमता से बाहर है और पैतृक संपत्ति से परिवार के सदस्यों के बीच सीमित आय होती है।
- राज्य ने तर्क दिया कि कुटुंब न्यायालय ने रिकार्ड पर उपलब्ध सामग्री पर विचार करने के पश्चात् एक तर्कसंगत आदेश पारित किया।
- प्रियंका और अवयस्क संतान की आवश्यकताओं और उनके जीवन स्तर को देखते हुए भरण-पोषण की राशि न तो अत्यधिक थी और न ही मनमानी थी ।
- राज्य ने तर्क दिया कि सागर के बेरोजगारी के दावे निराधार हैं, क्योंकि उन्होंने पैतृक संपत्ति में अपनी अंशदारी स्वीकार की है, जिससे किराए की आय होती है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत अंतरिम भरण-पोषण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि निर्भर पत्नी कार्यवाही की लंबित अवधि के दौरान दरिद्रता अथवा उपेक्षा की स्थिति में न छोड़ी जाए। यह उपबंध सामाजिक न्याय का उपाय है, जिसका अभिप्राय उपेक्षित पत्नी एवं संतान को आर्थिक संकट एवं भुखमरी से संरक्षित करना है।
- न्यायालय ने अवलोकन किया कि सागर ने अपनी कम आय के दावे को पुष्ट करने के लिये कोई ठोस दस्तावेज़ी साक्ष्य पेश नहीं किया, जबकि प्रियंका ने अपनी पर्याप्त किराए की आय के अभिकथनों का खंडन किया था। उनके इस सीधे-सादे इंकार को यूँ ही स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन्होंने अपने दावे की पुष्टि के लिये आयकर रिटर्न या बैंक स्टेटमेंट दाखिल नहीं किये थे।
- अंतरिम भरण-पोषण के चरण में, वास्तविक आय पर विस्तृत सुनवाई न तो आवश्यक है और न ही संभव है, और प्रथम दृष्टया मूल्यांकन अभिवचनों, शपथपत्रों और उपलब्ध सामग्री के आधार पर किया जाना चाहिये। कुटुंब न्यायालय ने दोनों पक्षकारों की परिस्थितियों पर संतुलित विचार किया और ऐसी राशि का आदेश दिया जो अत्यधिक या अनुपातहीन न लगे।
- अवयस्क संतान की देखरेख व अभिरक्षा प्रियंका के पास है, और भोजन, वस्त्र, शिक्षा, एवं चिकित्सा जैसी सभी दैनिक आवश्यकताओं का वह स्वयं वहन कर रही हैं। नैसर्गिक पिता होने के नाते, सागर फोगाट अपने पुत्र के भरण-पोषण से नैतिक एवं विधिक उत्तरदायित्त्व से विमुख नहीं हो सकते, भले ही प्रियंका की शैक्षिक योग्यता या आय-क्षमता कुछ भी हो।
- संपूर्णतः सक्षम व्यक्ति केवल बेरोजगारी के आधार पर पत्नी एवं बच्चों के भरण-पोषण की विधिक उत्तरदायित्त्व से बच नहीं सकता। सागर ने स्वीकार किया कि उसकी पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी है जिससे उसे ₹73,000 प्रति माह किराया मिलता है और वह संयुक्त परिवार में रहता है, जिससे पता चलता है कि वह पूरी तरह से साधनहीन नहीं है।
- यद्यपि उचित अवसर और प्राकृतिक न्याय आवश्यक हैं, तकनीकी विलंब या प्रक्रियात्मक चूक अंतरिम भरण-पोषण प्रावधान के मूल उद्देश्य को विफल नहीं कर सकती। ₹50,000 प्रति माह की भरण-पोषण राशि पक्षकारों के जीवन स्तर और अवयस्क बालक की आवश्यकताओं के अनुपात में प्रतीत होती है, इसलिये पुनरीक्षण अधिकारिता के अंतर्गत इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 144 के अधीन विधिक ढाँचा और न्यायिक निर्वचन क्या हैं?
बारे में:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144 एक सामाजिक न्याय उपबंध है जिसका उद्देश्य उपेक्षित पति/पत्नी और संतान की विपन्नता और आर्थिक तंगी को रोकना है। यह प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे व्यक्ति की पत्नी, धर्मज या अधर्मज संतान, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, को मासिक भरण-पोषण, अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही व्यय प्रदान करने का अधिकार देता है, जिसके पास पर्याप्त साधन होते हुए भी वह ऐसा करने से इंकार करता है या उपेक्षा करता है।
- प्रमुख सांविधिक विशेषताओं में सम्मिलित हैं:
- धारा 144(1): मजिस्ट्रेट को पत्नी और संतान को मासिक भरण-पोषण देने का आदेश देने का अधिकार देता है।
- धारा 144(1) का दूसरा परंतु: मजिस्ट्रेट को कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अंतरिम भरण-पोषण और व्यय प्रदान करने की अनुमति देता है।
- धारा 144(1) का तीसरा परंतु: निदेश देता है कि अंतरिम भरण-पोषण आवेदनों का निपटारा आदर्श रूप से नोटिस की तामील की तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाना चाहिये।
- धारा 144(2): भरण-पोषण आवेदन या आदेश की तिथि से देय हो सकता है, जैसा मजिस्ट्रेट उचित समझे।
- धारा 144(3): भरण-पोषण का संदाय न करने पर वारण्ट कार्यवाही और एक मास तक कारावास हो सकता है।
- धारा 144(4): जारता, पर्याप्त कारण के बिना पति के साथ रहने से इंकार, या पृथक् रहने की आपसी सहमति के मामलों में पत्नी को भरण-पोषण प्राप्त करने से अयोग्य घोषित करता है।
- धारा 145(2) के अधीन आगे की प्रक्रियागत स्पष्टता प्रदान की गई है, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि साक्ष्य प्रत्यर्थी या उनके अधिवक्ता की उपस्थिति में दर्ज किया जाना चाहिये, जिसमें एकपक्षीय कार्यवाही का उपबंध है और तीन मास के भीतर पर्याप्त कारण बताने पर ऐसे आदेशों को अपास्त किया जा सकता है।
दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक निर्वचन:
- एक महत्त्वपूर्ण निर्वचन में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने दोहराया कि धारा 144 एक कल्याण-उन्मुख और लिंग-संवेदनशील उपबंध है ।
- अंतरिम भरण-पोषण का उद्देश्य अभाव को रोकना तथा चल रही कार्यवाही के दौरान आर्थिक रूप से आश्रित पत्नी/पत्नी और संतानों की जीविका सुनिश्चित करना है ।
- न्यायालयों को आय पर पूर्ण विचारण में उलझे बिना अंतरिम चरण में पात्रता का आकलन करने के लिये प्रथम दृष्टया दृष्टिकोण अपनाना चाहिये ।
- प्रक्रियागत या तकनीकी विलंब से तत्काल अनुतोष प्रदान करने का उद्देश्य विफल नहीं होना चाहिये।
- निष्पक्ष सुनवाई और प्राकृतिक न्याय के अधिकार को सामाजिक न्याय के व्यापक उद्देश्य के साथ संतुलित किया जाना चाहिये।
- पर्याप्त साधन संपन्न पति, चाहे वह बेरोजगार हो या संदाय करने में असमर्थता जता रहा हो, विश्वसनीय साक्ष्य के बिना उत्तरदायित्त्व से बच नहीं सकता ।
- अंतरिम भरण-पोषण दोनों पक्षकारों के जीवन स्तर के अनुपात में होना चाहिये तथा पत्नी और संतान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये उचित होना चाहिये।
- परिस्थितियों के संतुलित विचार के आधार पर कुटुंब न्यायालय द्वारा अंतरिम भरण-पोषण का तर्कसंगत निर्णय सामान्यतः पुनरीक्षण अधिकारिता के अंतर्गत हस्तक्षेप का आधार नहीं होगा ।
आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 430
07-Aug-2025
जमनालाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य "उच्च न्यायालय से यह अपेक्षा की जाती है कि वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के अधीन दण्ड के निलंबन के लिये दायर आवेदन पर सुनवाई करते समय इस बात की परीक्षा करे कि क्या प्रथम दृष्टया अभिलेख में ऐसा कुछ स्पष्ट है जो यह दर्शाता हो कि अभियुक्त के पास दोषसिद्धि को पलटने का उचित अवसर था।" न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने निर्णय दिया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के अधीन दोषसिद्धि के पश्चात् जमानत केवल उसी स्थिति में प्रदान की जा सकती है जब प्रथम दृष्टया ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हों जो यह संकेत करें कि अभियुक्त के दोषमुक्त होने की यथोचित संभावना विद्यमान है।
- उच्चतम न्यायालय ने जमनालाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
जमनालाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- 13 जून, 2023 को, एक 14 वर्षीय लड़की के साथ अभियुक्त ने कथित तौर पर लैंगिक उत्पीड़न किया। पीड़िता ने परिसाक्ष्य में कहा कि जब वह शाम 4 बजे शौच के लिये खेत में गई थी, तो अभियुक्त बंदूक लेकर उसके पीछे से आया, उसका मुँह बंद कर दिया और उसे जबरन पास के एक घर में ले गया जहाँ उसने बलात्कार किया।
- पीड़िता घर लौटी और अपने परिवार को घटना की जानकारी दी। उसके पिता ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई और उसका मेडिकल परीक्षण कराया गया। पीड़िता का दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन कथन अभिलिखित किये गए, जिसमें उसने अपने अभिकथन को बरकरार रखा।
- अभियुक्त के विरुद्ध 11 आपराधिक मामले दर्ज हैं - 5 में उसे दोषमुक्त कर दिया गया है तथा 6 मामले लंबित हैं जिनमें हमला, सेंधमारी, लूट और शस्त्र उल्लंघन सम्मिलित हैं।
- विचारण न्यायालय ने उसे लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) की धारा 3/4(2) और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376(3) के अधीन दोषी ठहराते हुए 20 वर्ष के कठोर कारावास और 50,000 रुपए के जुर्माने की दण्ड सुनाया। 1 वर्ष 3 महीने की दण्ड काटने के पश्चात्, राजस्थान उच्च न्यायालय ने उसके दण्ड को निलंबित कर दिया और ज़मानत दे दी, जिसके पश्चात् पीड़िता के पिता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय यह जांचने में विफल रहा कि क्या अभिलेख में ऐसा कुछ भी स्पष्ट था जो यह दर्शाता हो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के अधीन दण्ड के निलंबन पर विचार करते समय अभियुक्त के दोषमुक्त होने की उचित संभावना थी।
- न्यायालय ने कहा कि एक बार दोषसिद्ध ठहराए जाने के बाद, निर्दोषता की उपधारणा समाप्त हो जाती है, तथा न्यायालयों को दण्ड के निलंबन को उचित ठहराने के लिये अभिलेख में कुछ स्पष्ट या गंभीर बातों पर ध्यान देना चाहिये, न कि अभियोजन पक्ष के मामले में छोटी-मोटी खामियों पर।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने दण्ड को निलंबित करते समय अभियुक्त के आपराधिक इतिहास सहित सुसंगत कारकों को नजरअंदाज कर दिया, जिससे निर्णय अनुचित हो गया।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय का तर्क त्रुटिपूर्ण था - चिकित्सकीय साक्ष्य में यह कहा गया था कि कोई निश्चायक राय नहीं दी जा सकती, तथा इससे पीड़िता के परिसाक्ष्य को नाकारा नहीं सकता था, तथा अभियोजन पक्ष ने फोरेंसिक रिपोर्ट की अनुपलब्धता का स्पष्टीकरण दिया था।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि शौचालय उपलब्ध होते हुए भी पीड़िता के बाहर शौच के लिये जाने के बारे में उच्च न्यायालय का अनुमान अस्वीकार्य तर्क है।
- न्यायालय ने कहा कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) के अधीन गंभीर अपराधों में न्यायालयों को आरोप की प्रकृति, अपराध की गंभीरता और दोषी व्यक्तियों को जमानत पर रिहा करने की वांछनीयता पर विचार करना चाहिये, जो उच्च न्यायालय करने में असफल रहा।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 430/ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 क्या है?
बारे में
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 430 अपील न्यायालयों को दण्ड के निष्पादन को निलंबित करने और दोषसिद्ध व्यक्तियों को उनकी अपील लंबित रहने तक जमानत पर रिहा करने का अधिकार देती है।
- अपील न्यायालय दण्ड को निलंबित कर सकता है तथा दोषी को लिखित रूप में कारण अभिलिखित करके जमानत या व्यक्तिगत बंधपत्र पर छोड़ सकता है।
- मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या दस वर्ष या उससे अधिक के कारावास का दण्ड पाए दोषियों के लिये, न्यायालय को लोक अभियोजक को ऐसे छोड़ने के विरुद्ध लिखित में कारण बताने का अवसर प्रदान करना चाहिये।
- लोक अभियोजक को जमानत मंजूर होने के पश्चात् भी उसे रद्द करने के लिये आवेदन दायर करने का अधिकार है।
- उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों में अपील के मामलों में इस शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं।
- तीन वर्ष तक का दण्ड या जमानतीय अपराधों के लिये, दोषसिद्ध ठहराने वाले न्यायालय स्वयं अपील लंबित रहने तक जमानत दे सकते है, जब तक कि इंकार करने के लिये विशेष कारण विद्यमान न हों।
- यदि दोषी को अंततः कारावास का दण्ड दिया जाता है तो जमानत पर बिताया गया समय कुल दण्ड अवधि से बाहर कर दिया जाता है।
दण्डादेश को निलंबित करने हेतु उच्च न्यायालय को यह परीक्षण करना चाहिये कि क्या दोषसिद्ध व्यक्ति के दोषमुक्त होने की यथोचित संभावना है
- न्यायालय को यह परीक्षण करना आवश्यक है कि क्या अभिलेख में ऐसा कोई ठोस और प्रत्यक्ष तथ्य उपलब्ध है, जो यह इंगित करता हो कि अभियुक्त को दोषसिद्धि पलटने की यथोचित संभावना प्राप्त है।
- मूल्यांकन अभियोजन पक्ष के मामले में अभिलेख पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाली कोई स्पष्ट अथवा गंभीर त्रुटियों पर केंद्रित होना चाहिये।
- न्यायालयों को निलंबन चरण में अभियोजन पक्ष के मामले में साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन या छोटी-मोटी कमियों की खोज नहीं करनी चाहिये।
- मूल्यांकन प्रथम दृष्टया प्रकृति का होना चाहिए, जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि क्या स्पष्ट दोषों के आधार पर दोषसिद्धि टिकाऊ नहीं हो सकती है।
- एक बार दोषसिद्धि हो जाने पर, निर्दोषता की उपधारणा समाप्त हो जाती है, जिससे जमानत का मानक दोषसिद्धि-पूर्व जमानत की तुलना में अधिक कठोर हो जाता है।
- न्यायालयों को आरोप की प्रकृति, अपराध की गंभीरता, अपराध करने का तरीका तथा दोषी के आपराधिक पूर्ववृत्त पर विचार करना चाहिये।
- यह परीक्षण आवश्यक है कि दोषसिद्ध व्यक्ति के अंततः दोषमुक्त होने की संभाव्यता इस सीमा तक हो कि अपील की दीर्घकालिक प्रक्रिया के दौरान उसकी रिहाई न्यायसंगत मानी जा सके।
- लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) जैसे गंभीर अपराधों में न्यायालयों को दोषी व्यक्तियों को जमानत पर छोड़ने के मामले में विशेष रूप से सतर्क रहना चाहिये।
- निलंबन का कारण विधिक मानदंडों के अनुरूप होना चाहिये तथा यह अनुमान या साक्ष्य के सतही विश्लेषण पर आधारित नहीं होना चाहिये।
सांविधानिक विधि
हाथ-रिक्शा खींचने की प्रथा का का उन्मूलन
07-Aug-2025
In Re: टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ और अन्य "हाथ से खींची जाने वाली गाड़ियों/रिक्शाओं की प्रथा को अनुमति देना, भारत जैसे विकासशील देश में, जहाँ मानव गरिमा की मूल अवधारणा सर्वोपरि है, संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के सांविधानिक वचनों को तुच्छ ठहराता है।" मुख्य न्यायाधीश बी.आर .गवई, न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया की पीठ ने टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपद बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले में स्वतंत्रता के 78 वर्षों के पश्चात् भी हाथ-रिक्शा खींचने की प्रथा जारी रहने की कड़ी निंदा की, इसे अमानवीय घोषित किया और महाराष्ट्र के माथेरान में एक पायलट ई-रिक्शा परियोजना के बारे में विवाद्यकों की सुनवाई करते हुए इसे तत्काल समाप्त करने का आदेश दिया ।
टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपद मामले में एक अंतर्वर्ती आवेदन के रूप में सामने आया, जो एक बहुप्रचलित वन संरक्षण मामला है, जो पर्यावरण मुकदमेबाजी में सबसे लंबे समय से जारी परमादेश का प्रतिनिधित्व करता है।
- मई 2022 में, न्यायालय ने महाराष्ट्र को माथेरान पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र में हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शा के स्थान पर प्रायोगिक आधार पर पर्यावरण-अनुकूल ई-रिक्शा लागू करने की अनुमति दी।
- इसके पश्चात् घुड़सवार संघों (घोड़ावाला संगठनों) द्वारा ई-रिक्शा की अनुमति में संशोधन की मांग करते हुए आवेदन दायर किये गए, जिनमें दो मुख्य मुद्दे उठाए गए: माथेरान में ई-रिक्शा की अनुमति देना और सड़कों पर पेवर ब्लॉक बिछाना।
- फरवरी 2023 में, न्यायालय ने निरीक्षण समिति द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत किये जाने तक कंक्रीट पेवर ब्लॉक बिछाने पर रोक लगा दी, साथ ही ई-रिक्शा पायलट परियोजना को जारी रखने की अनुमति दे दी ।
- जनवरी 2024 तक, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ई-रिक्शा केवल वर्तमान हाथ ठेला चालकों के लिये होंगे जिससे रोजगार के नुकसान की भरपाई की जा सके, बाद में अप्रैल में इसकी संख्या 20 तक सीमित कर दी गई।
- पारिस्थितिकीय चिंताओं के कारण माथेरान में ऑटोमोबाइल पर प्रतिबंध है, तथा आपात स्थिति में केवल अग्निशमन ट्रकों और एम्बुलेंस को ही अनुमति दी जाती है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- पीठ ने स्वतंत्रता के 78 वर्षों के पश्चात् भी हाथ से रिक्शा चलाने के चलन को गंभीरता से लिया और कहा कि यह व्यक्ति की गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है और आजीविका की मजबूरियों के कारण लोगों को अमानवीय तरीके अपनाने के लिये मजबूर करता है।
- न्यायालय ने आजाद रिक्शा चालक संघ मामले (1980) का हवाला देते हुए इस बात पर निराशा व्यक्त की कि उस निर्णय के 45 वर्ष पश्चात् भी माथेरान में इंसानों द्वारा दूसरे इंसानों को खींचने की प्रथा जारी है।
- पीठ ने प्रश्न उठाया कि क्या यह प्रथा सामाजिक और आर्थिक समता और न्याय के सांविधानिक वचनों के अनुरूप है, दुर्भाग्यवश इसका निष्कर्ष नकारात्मक रहा।
- न्यायालय ने पीपुल्स ऑफ इंडिया फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1982) मामले पर विश्वास किया, जहाँ न्यूनतम मजदूरी का संदाय न करना भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 23 के अधीन बलात् श्रम माना गया था ।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि संविधान के 75 वर्ष बाद भी ऐसी प्रथाओं को जारी रखना भारतीयों द्वारा स्वयं से किये गए सामाजिक और आर्थिक न्याय के वचन के साथ विश्वासघात होगा।
- पीठ ने महाराष्ट्र को हाथ रिक्शा चालकों का पुनर्वास करने तथा गुजरात के केवडिया की ई-रिक्शा नीति को अपनाने का निदेश दिया। साथ ही स्पष्ट किया कि धन की अनुपलब्धता को कार्यान्वयन न करने का बहाना नहीं बनाया जा सकता।
- न्यायालय ने व्यापक निदेश जारी किये, जिनमें 6 महीने के भीतर चरणबद्ध तरीके से ई-रिक्शा को समाप्त करना, किराये पर आधारित ई-रिक्शा योजना की स्थापना, निरीक्षण समिति के माध्यम से वास्तविक चालकों की पहचान, तथा आजीविका सहायता के लिये आदिवासी महिलाओं और अन्य लोगों को शेष ई-रिक्शा आवंटित करना सम्मिलित है।
हस्तचालित रिक्शा खींचना क्या है?
बारे में:
- हस्तचालित रिक्शा खींचना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति स्वयं शारीरिक रूप से रिक्शा या गाड़ी को खींचते हैं, जिसमें यात्रियों या माल का परिवहन किया जाता है। यह कार्य अत्यंत शारीरिक परिश्रम की मांग करता है और अत्यंत श्रमसाध्य श्रम के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
- इस प्रथा की ऐतिहासिक जड़ें औपनिवेशिक भारत में हैं और तकनीकी विकल्प उपलब्ध होते हुए भी यह स्वतंत्रता के पश्चात् भी जारी रही।
- इस कार्य में काफी शारीरिक तनाव शामिल होता है, जिसे अक्सर आर्थिक रूप से वंचित व्यक्ति करते हैं जिनके पास आजीविका के सीमित विकल्प होते हैं।
- हस्तचालित रिक्शा चलाना विशेष रूप से पहाड़ी स्टेशनों और उन क्षेत्रों में प्रचलित है जहाँ पर्यावरण संबंधी चिंताओं के कारण मोटर चालित वाहनों पर प्रतिबंध है।
सांविधानिक ढाँचा:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 23 मानव दुर्व्यापार, बलात् श्रम और शोषण के अन्य समान रूपों पर प्रतिबंध लगाता है, तथा ऐसी प्रथाओं को विधि द्वारा दण्डनीय बनाता है।
- गरिमा का अधिकार अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) का भाग है, जिसमें अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार से सुरक्षा सम्मिलित है।
- प्रस्तावना के अंतर्गत सामाजिक और आर्थिक न्याय के सांविधानिक वचन के लिये शोषणकारी श्रम प्रथाओं का उन्मूलन आवश्यक है।
ई-रिक्शा में परिवर्तन:
- ई-रिक्शा एक पर्यावरण-अनुकूल एवं मानव गरिमा-सम्मत विकल्प प्रस्तुत करते हैं, जो परंपरागत श्रमिकों के रोजगार को बनाए रखते हुए शारीरिक शोषण की प्रथा का समापन करते हैं ।
- प्रौद्योगिकी मानव गरिमा से समझौता किये बिना या पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना स्थायी आजीविका विकल्प प्रदान करती है।
- कार्यान्वयन के लिये क्रय एवं किराए की योजनाओं के माध्यम से सरकारी सहायता की आवश्यकता है, जिससे पारंपरिक रिक्शा चालकों के लिये किफायती पहुँच सुनिश्चित हो सके।
- यह परिवर्तन, पर्वतीय स्थलों जैसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में मानवाधिकार संबंधी चिंताओं और पर्यावरणीय स्थिरता दोनों को संबोधित करता है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 23 क्या है?
यह अनुच्छेद मानव दुर्व्यापार और बलात् श्रम के प्रतिषेध से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
(1) मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को लोक प्रयोजनों के लिये अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
- यह अधिकार भारत के नागरिकों के साथ-साथ गैर-नागरिकों को भी उपलब्ध है ।
- यह राज्य के साथ-साथ निजी नागरिकों के विरुद्ध भी व्यक्तियों की सुरक्षा करता है ।
- यह अनुच्छेद राज्य पर मानव दुर्व्यापार और अन्य प्रकार के बलात् श्रम जैसे अनैतिक शोषण प्रथाओं को समाप्त करने का सकारात्मक दायित्त्व अधिरोपित करता है।
- यह अनुच्छेद स्पष्ट रूप से निम्नलिखित प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाता है:
- बेगार
- मानव दुर्व्यापार
- बलात् श्रम