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आपराधिक कानून
अतिरिक्त अपराधों का संज्ञान
03-Oct-2025
दीपक यादव एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य "उच्चतम न्यायालय ने कहा कि केवल परिवादकर्त्ता द्वारा दायर शपथपत्रों के आधार पर संज्ञान नहीं लिया जा सकता है और उसने विचारण न्यायालय को निदेश दिया कि वह आरोपों की उपयुक्तता का उचित आकलन करने के लिये पुलिस द्वारा नए सिरे से अन्वेषण का आदेश दे।" न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और सतीश चंद्र शर्मा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
दीपक यादव एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और सतीश चंद्र शर्मा की न्यायपीठ ने निर्णय दिया कि विचारण न्यायालय पूरे अन्वेषण अभिलेख की परीक्षा किये बिना या नए सिरे से अन्वेषण का आदेश दिये बिना केवल परिवादकर्त्ता के साक्षियों द्वारा दायर शपथपत्रों के आधार पर अतिरिक्त अपराधों का संज्ञान नहीं ले सकते ।
दीपक यादव एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) शुरू में 2017 में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 394, 452, 323, 504 और 506 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (2) (v) के अधीन दर्ज की गई थी।
- अन्वेषण के पश्चात् पुलिस ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 452, 323, 504 और 506 तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 394 को हटाकर अधिनियम 1989 की धारा 3(1)(घ) के अधीन आरोप पत्र प्रस्तुत किया ।
- परिवादकर्त्ता ने विचारण न्यायालय के समक्ष भारतीय दण्ड संहिता की धारा 394 के अधीन आरोप जोड़ने की प्रार्थना करते हुए एक आवेदन दायर किया, जिसे नामंजूर कर दिया गया और अन्य धाराओं के अधीन आरोप विरचित किये गए।
- परिवादकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसने मामले का निपटारा करते हुए उसे साक्ष्य प्रस्तुत करने और दस्तावेज़ दाखिल करने के लिये विचारण न्यायालय में आवेदन दायर करने की छूट दे दी।
- दूसरे दौर में, विचारण न्यायालय ने फिर से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 394 के अधीन आरोप विरचित नहीं किया, जिससे परिवादकर्त्ता को फिर से उच्च न्यायालय का रुख करना पड़ा।
- उच्च न्यायालय ने मामले को दूसरी बार विचारण न्यायालय को प्रतिप्रेषित किया।
- तीसरे दौर में, विचारण न्यायालय ने परिवादकर्त्ता के साक्षियों द्वारा दायर शपथपत्रों के आधार पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 394 के अधीन संज्ञान लिया।
- अपीलकर्त्ताओं ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन एक आवेदन के माध्यम से इस आदेश को उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी, जिसे उच्च न्यायालय ने 11.11.2024 के आदेश के अधीन खारिज कर दिया ।
- इसके बाद अपीलकर्त्ताओं ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
विचारण न्यायालय को क्या करना चाहिये:
- स्वतंत्र संतुष्टि का प्रारूप: न्यायालयों को केवल परिवादकर्त्ता के शपथपत्रों के आधार पर नहीं, अपितु उचित अन्वेषण सामग्री के आधार पर आरोपों की प्रयोज्यता का स्वतंत्र रूप से आकलन करना चाहिये।
- संपूर्ण केस डायरी की जांच करें: दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 172 के अधीन संपूर्ण पुलिस केस डायरी मँगवाएँ, जिसमें दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अधीन अभिलिखित सभी साक्षियों के कथन सम्मिलित हों।
- दबाई गई सामग्री की समीक्षा करें: अपराध के तत्त्वों के बारे में स्वतंत्र राय बनाने के लिये, उन अंशों की जांच करें जिन्हें शुरू में न्यायालय को नहीं भेजा गया था।
नवीन अन्वेषण हेतु प्रोटोकॉल:
- पुलिस को संपूर्ण अन्वेषण अभिलेख और सभी साक्षियों के कथन प्रस्तुत करने होंगे।
- यदि किसी साक्षी का कथन छूट गया हो तो परिवादकर्त्ता द्वारा प्रस्तुत शपथपत्र पुलिस को भेजे जाएंगे।
- पुलिस को आगे अन्वेषण करना होगा और छह सप्ताह के भीतर रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
- न्यायालय को संपूर्ण सामग्री के आधार पर संज्ञान, विरचित आरोप और विचारण की कार्यवाही आगे बढ़ानी होगी।
विधिक महत्त्व:
यह निर्णय इस बात को पुष्ट करता है कि:
- केवल निजी शपथपत्रों के आधार पर संज्ञान यांत्रिक नहीं हो सकता।
- अभियोजन पक्ष को न्यायिक जांच के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अधीन संपूर्ण विवरण प्रस्तुत करना होगा।
- विचारण न्यायालय को उचित अन्वेषण प्रक्रियाओं के माध्यम से निष्पक्षता सुनिश्चित करनी चाहिये।
- आरोपों को जोड़ने के लिये अन्वेषण अभिलेख के आधार पर स्वतंत्र न्यायिक संतुष्टि की आवश्यकता होती है।
- साक्ष्य को दबाने के लिये अधिकारियों को व्यक्तिगत दायित्त्व का सामना करना पड़ सकता है।
किसी अपराध का संज्ञान लेने का क्या अर्थ है?
बारे में:
- "अपराध का संज्ञान लेने" की अवधारणा आपराधिक विधि और प्रक्रिया में एक मौलिक सिद्धांत है जो यह निर्धारित करता है कि न्यायिक प्राधिकारी को कब प्रथम बार किसी कथित अपराध के बारे में पता चलता है और वह कब उसका न्यायिक संज्ञान लेता है।
- यह विधिक ढाँचा उस महत्त्वपूर्ण सीमा को स्थापित करता है जिसे किसी भी आपराधिक कार्यवाही को शुरू करने से पहले पार करना आवश्यक है। आपराधिक विधि के पेशेवरों के लिये इस अवधारणा को समझना आवश्यक है, क्योंकि यह उस आधार का काम करता है जिस पर संपूर्ण आपराधिक न्याय प्रक्रिया आधारित होती है।
- संज्ञान का अर्थ:
- आपराधिक विधि में "संज्ञान" शब्द उस निर्णायक क्षण का प्रतिनिधित्व करता है जब एक मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश किसी कथित अपराध के बारे में अनभिज्ञ होने से अपनी न्यायिक क्षमता के भीतर उस पर सक्रिय रूप से विचार करने की ओर अग्रसर होता है।
- यह परिवर्तन केवल प्रशासनिक नहीं है, अपितु अभियुक्त और अभियोजन पक्ष दोनों के लिये महत्त्वपूर्ण विधिक निहितार्थ रखता है।
व्यावहारिक अनुप्रयोग:
- संज्ञान लेने के व्यावहारिक पहलुओं को एम्परर बनाम सौरिन्द्र मोहन चकरबुट्टी (1910) के मामले में विस्तार से बताया गया था:
- "संज्ञान लेने में कोई औपचारिक कार्रवाई या किसी भी प्रकार की कार्रवाई सम्मिलित नहीं होती है, अपितु जैसे ही मजिस्ट्रेट, किसी अपराध के संदिग्ध होने पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, संज्ञान लेना शुरू हो जाता है।"
- व्युत्पन्न प्रमुख सिद्धांत:
- कोई औपचारिक आवश्यकता नहीं : इस प्रक्रिया के लिये विशिष्ट औपचारिक कार्रवाई या प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं है।
- मानसिक अनुप्रयोग : यह तब होता है जब संदिग्ध अपराध पर न्यायिक मस्तिष्क का प्रयोग किया जाता है।
- सांविधिक अनुपालन : जब विधि न्यायिक विचार के लिये विशिष्ट सामग्री निर्धारित करती हैं, तो उन आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिये।
सांविधिक ढाँचा:
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 210 और दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 190, जो “मजिस्ट्रेट द्वारा अपराधों के संज्ञान” से संबंधित है, इस प्रकार है –
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 210 |
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 |
“धारा 210: मजिस्ट्रेटों द्वारा अपराधों का संज्ञान– (1) इस अध्याय के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अधीन विशेषतया सशक्त किया गया कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी भी अपराध का संज्ञान निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है- (क) उन तथ्यों का, जिसमें किसी विशेष विधि के अधीन प्राधिकृत किये गए किसी व्यक्ति द्वारा दाखिल किया गया कोई परिवाद शामिल है, जिनसे ऐसा अपराध बनता है परिवाद प्राप्त होने पर; (ख) ऐसे तथ्यों के बारे में (इलैक्ट्रॉनिक रीति सहित किसी रीति में प्रस्तुत) पुलिस रिपोर्ट पर; (ग) पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त इस इत्तिला पर या स्वयं अपनी इस जानकारी पर कि ऐसा अपराध किया गया है। (2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे अपराधों का, जिनकी जांच या विचारण करना उसकी क्षमता के भीतर है, उपधारा (1) के अधीन संज्ञान करने के लिए सशक्त कर सकता है।” |
“धारा 190 मजिस्ट्रेटों द्वारा अपराधों का संज्ञान– (1) इस अध्याय के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अधीन विशेषतया सशक्त किया गया कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी भी अपराध का संज्ञान निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है- (क) उन तथ्यों का, जिनसे ऐसा अपराध बनता है, परिवाद प्राप्त होने पर; (ख) ऐसे तथ्यों के बारे में पुलिस रिपोर्ट पर; (ग) पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त इस इत्तिला पर या स्वयं अपनी इस जानकारी पर कि ऐसा अपराध किया गया है। (2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे अपराधों का, जिनकी जांच या विचारण करना उसकी क्षमता के अंदर है, उपधारा (1) के अधीन संज्ञान करने के लिये सशक्त कर सकता है।” |
सिविल कानून
लिखित कथन दाखिल करने में विलंब के लिये क्षमा
03-Oct-2025
गौतम धाम को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम पारसी पंचायत, बॉम्बे के फंड और प्रॉपर्टीज और अन्य "बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि लिखित कथन दाखिल करने की परिसीमा, वादपत्र की प्रति के साथ समन की रिट की वास्तविक तामील से प्रारंभ होती है, वकालतनामा दाखिल करने की तारीख से नहीं, तथा एक सोसायटी मामले में अधिवक्ता के कार्यालय की चूक के कारण हुए विलंब को क्षमा कर दिया।" न्यायमूर्ति जितेंद्र जैन |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
गौतम धाम को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम पारसी पंचायत, बॉम्बे के फंड और प्रॉपर्टीज और अन्य (2025) के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जितेंद्र जैन ने एक गैर-वाणिज्यिक वाद में लिखित कथन दाखिल करने में 75 दिनों का विलंब को क्षमा कर दिया, यह मानते हुए कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 नियम 1 के अधीन परिसीमा काल वादपत्र की प्रति के साथ समन की रिट की वास्तविक सेवा की तारीख से प्रारंभ होता है, वकालतनामा दाखिल करने की तारीख से नहीं।
गौतम धाम को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम पारसी पंचायत, बॉम्बे के फंड और प्रॉपर्टीज और अन्य (2025) के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह अंतरिम आवेदन सं. 4761/2025 वाद सं. 393/2022 में मूल प्रतिवादी सं.1 (गौतम धाम को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड) द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसमें गैर- वाणिज्यिक वाद में लिखित कथन दाखिल करने में हुए 75 दिनों की विलंब की क्षमायाचना का निवेदन किया गया।
- वादी पारसी पंचायत, बॉम्बे और फंड और प्रॉपर्टीज के न्यासी थे, जिन्होंने प्रतिवादी सोसायटी और अन्य के विरुद्ध वाद दायर किया था।
- प्रतिवादी संख्या 1 की ओर से वकालतनामा 11.06.2021 को दायर किया गया था।
- वादपत्र की प्रति के साथ समन की रिट प्रतिवादी संख्या 1 को 08.03.2023 को दी गई।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 8 नियम 1 के अनुसार, प्रतिवादी को समन की तामील से 30 दिनों के भीतर लिखित कथन दाखिल करना था, जो 07.04.2023 को समाप्त हो गया।
- हालाँकि, लिखित कथन वास्तव में 21.06.2023 को दायर किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप 08.04.2023 से प्रारंभ होकर 75 दिनों का विलंब हुआ।
- प्रतिवादी ने बताया कि विलंब इसलिये हुआ क्योंकि अधिवक्ता के कार्यालय ने अनजाने में समन प्राप्त होने पर अधिवक्ता को इसके बारे में सूचित नहीं किया।
- बाद में, प्रतिवादी संख्या 1 सोसायटी के पदाधिकारियों द्वारा पूछताछ करने पर, अधिवक्ता ने अपने कर्मचारियों से पूछताछ की और उन्हें पता चला कि समन की रिट 08.03.2023 को तामील कर दी गई थी।
- तत्पश्चात्, लिखित कथन का मसौदा तैयार करने, पदाधिकारियों से उसका अनुमोदन कराने तथा अंतिम रूप देने के लिये सम्मेलन आयोजित करने जैसे कार्य तत्काल शुरू कर दिये गए।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
परिसीमा काल के प्रारंभिक बिंदु पर:
- न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 नियम 1 का उद्देश्य प्रतिवादी को वादपत्र में प्रस्तुत मामले में बचाव प्रस्तुत करने में सक्षम बनाना है, जिसके लिये वादपत्र की वास्तविक प्रति प्राप्त होना आवश्यक है।
- आदेश 8 नियम 1 के अधीन परिसीमा, वादपत्र की प्रति के साथ समन की रिट की तामील की तारीख से प्रारंभ होता है, जो इस मामले में 08.03.2023 थी।
विलंब के लिये पर्याप्त कारण पर:
- कारण "पर्याप्त कारण" थे क्योंकि प्रतिवादी संख्या 1 मानद सदस्यों द्वारा संचालित एक सोसायटी है।
- अधिवक्ता के कार्यालय में हुई चूक के लिये वादी को कष्ट नहीं दिया जा सकता, विशेषकर जब विलंब केवल 75 दिन का हो।
- पदाधिकारियों ने अधिवक्ता से संपर्क कर सतर्कता दिखाई और चूक का पता चलते ही तत्काल कदम उठाए गए।
- प्रतिवादी नंबर 1 को विलंब से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है।
अंतिम निर्णय:
- न्यायालय इस बात से संतुष्ट था कि आवेदक ने लिखित कथन दाखिल करने में हुए विलंब के बारे में बताया तथा इस विलंब को क्षमा किया जाना चाहिये।
- अंतरिम आवेदन को स्वीकार कर लिया गया तथा रजिस्ट्री को लिखित कथन अभिलेख में लेने का निदेश दिया गया।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 8 नियम 1 क्या है?
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 8 में लिखित कथन के संबंध में उपबंध हैं।
नियम
- आदेश 8 का नियम 1 लिखित बयान से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
प्रतिवादी को, उस पर समन तामील किये जाने की तारीख से तीस दिन के भीतर, अपनी प्रतिरक्षा का लिखित कथन प्रस्तुत करेगा।
परंतु जहाँ प्रतिवादी उक्त तीस दिन की अवधि के भीतर लिखित कथन दाखिल करने में असफल रहता है, वहाँ उसे ऐसे किसी अन्य दिन को जो न्यायालय द्वारा ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किये जाएंगे, विनिर्दिष्ट किया जाए, दाखिल करने के लिये अनुज्ञात किया जाएगा, किंतु जो समन की तारीख से नब्बे दिन के पश्चात् का नहीं होगा।
परंतु जहाँ प्रतिवादी तीस दिन की उक्त अवधि के भीतर लिखित कथन फाइल करने में असफल रहता है वहाँ उसे ऐसे किसी अन्य दिन को लिखित कथन फाइल करने के लिये अनुज्ञात किया जाएगा जो न्यायालय द्वारा, उसके कारणों को लेखबद्ध करके और ऐसे खचों का, जो न्यायालय ठीक समझे, संदाय करने पर विनिर्दिष्ट किया जाये, किंतु जो समन के तामील की तारीख से एक सौ बीस दिन के बाद का नहीं होगा और समन की तामील की तारीख से एक सौ बीस दिन की समाप्ति पर प्रतिवादी लिखित कथन फाइल करने का अधिकार खो देगा और न्यायालय लिखित कथन अभिलेख पर लेने के लिये अनुज्ञात नहीं करेगा।
उद्देश्य एवं प्रयोजन:
इसका उद्देश्य प्रतिवादी को वादी के मामले में प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने में सक्षम बनाना है, जिसके लिये वादपत्र की वास्तविक प्रति प्राप्त होना आवश्यक है।
इसलिये, परिसीमा काल वादपत्र के साथ समन की वास्तविक तामील से प्रारंभ होता है, किसी मान्य तिथि से नहीं।