करेंट अफेयर्स और संग्रह
होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह
आपराधिक कानून
दर्शक के दायित्त्व की परीक्षा
08-Oct-2025
ज़ैनुल बनाम बिहार राज्य "जब कई व्यक्तियों के विरुद्ध सामान्य आरोप लगाए जाते हैं, तो दोषसिद्धि केवल स्पष्ट और विश्वसनीय साक्ष्यों के आधार पर होनी चाहिये, जो निरंतर उपस्थिति और विधिविरुद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने के लिये किये गए विशिष्ट प्रत्यक्ष कृत्यों को साबित करते हों। " न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की न्यायपीठ ने 1988 के बिहार सांप्रदायिक संघर्ष के दोषी 10 व्यक्तियों को दोषमुक्त कर दिया। उन्होंने कहा कि अपराध स्थल पर केवल उपस्थिति ही किसी व्यक्ति को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के अधीन विधिविरुद्ध जमाव का भाग नहीं बनाती। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दायित्त्व तभी उत्पन्न होता है जब अभियुक्तों का जमाव का उद्देश्य समान हो।
- उच्चतम न्यायालय ने जैनुल बनाम बिहार राज्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
जैनुल बनाम बिहार राज्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- 20 नवंबर, 1988 को बिहार के कटिहार ज़िले में बस्ती की भूमि को लेकर हुए विवाद में एक हिंसक झड़प हुई, जिसमें दो लोगों की मृत्यु हो गई और पाँच लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। यह घटना सुबह लगभग 8:00 बजे शुरू हुई जब जगदीश महतो और उनके भाई मेघू महतो राज्य सरकार द्वारा उन्हें आधिकारिक तौर पर सौंपी गई भूमि पर धान की फ़सल काटने के बाद अपने खेत का निरीक्षण करने गए थे। अभियोजन पक्ष के अनुसार, महिला गाँव के 400-500 हथियारबंद लोगों का एक बड़ा समूह बंदूक, पिस्तौल, भाले, कुल्हाड़ी, तलवार और लाठियों जैसे हथियारों के साथ बस्ती की भूमि के पास छिपा हुआ था, और जगदीश को अपनी फ़सल काटने से रोकने की कोशिश कर रहा था।
- जब दोनों भाई खेत में पहुँचे, तो कथित तौर पर हथियारबंद समूह ने उन्हें घेर लिया और पथराव शुरू कर दिया। इस हमले में मेघू महतो की गोली मारकर हत्या कर दी गई। शोर सुनकर कई ग्रामीण सहायता के लिये दौड़े, परंतु उन पर भी हमला किया गया। सरजुग महतो की भी गोली मारकर हत्या कर दी गई, जबकि पाँच अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए। अन्वेषण अधिकारी ने दोपहर डेढ़ बजे अस्पताल में जगदीश महतो का कथन अभिलिखित किया, जो 1988 की प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 148 बन गई। उल्लेखनीय रूप से, 72 लोगों को अभियुक्त बनाया गया था, तथापि अंततः केवल 24 के विरुद्ध ही आरोप पत्र दायर किया गया। विचारण न्यायालय ने 21 अभियुक्तों को आजीवन कारावास का दण्ड दिया, जबकि उच्च न्यायालय ने 12 लोगों के दण्ड बरकरार रखते हुए 7 अन्य को दोषमुक्त कर दिया। अंततः, अपील प्रक्रिया के दौरान दो की मृत्यु हो जाने के पश्चात्, 10 अपीलकर्त्ता उच्चतम न्यायालय पहुँचे।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के सिद्धांतों पर विस्तार से प्रकाश डाला, जो विधिविरुद्ध जमाव के सदस्यों के लिये रचनात्मक आपराधिक दायित्त्व निर्धारित करती है। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि धारा 149 का मूल उद्देश्य सभा के सदस्यों का "सामान्य उद्देश्य" है, और अपराध स्थल पर केवल उपस्थिति ही किसी को स्वतः ही विधिविरुद्ध जमाव का सदस्य नहीं बना देती। न्यायालय ने जिज्ञासावश उपस्थित निष्क्रिय दर्शकों और सभा के विधिविरुद्ध उद्देश्य की जानकारी के साथ भाग लेने वाले वास्तविक सदस्यों के बीच अंतर किया।
- न्यायालय ने सामान्य उद्देश्य निर्धारित करने के लिये मानदंड निर्धारित किये, जिनमें जमाव के गठन का समय और स्थान, सदस्यों का आचरण, सामूहिक व्यवहार, उद्देश्य, घटना का तरीका, प्रयुक्त हथियारों की प्रकृति और कारित की गई क्षति की सीमा सम्मिलित है। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि सामान्य उद्देश्य का अनुमान परिस्थितियों से लगया जाना चाहिये और केवल उपस्थिति से इसकी उपधारणा नहीं की जा सकती।
- न्यायालय ने सामूहिक अपराध के मामलों में विवेक का एक महत्त्वपूर्ण नियम प्रतिपादित करते हुए कहा कि ग्रामीण गुटीय विवादों में, कई जिज्ञासु दर्शक उपस्थित होते हैं जिनकी अपराध में कोई भूमिका नहीं होती। न्यायालयों को दोषियों के साथ-साथ निर्दोष व्यक्तियों को भी दोषी ठहराने से बचने के लिये अत्यंत सावधानी बरतनी चाहिये। मसलती बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1964) के सिद्धांत का समर्थन करते हुए, न्यायालय ने कहा कि जहाँ बड़ी संख्या में लोग शामिल हों, दोषसिद्धि तभी कायम रहनी चाहिये जब कम से कम दो या तीन विश्वसनीय साक्षियों के सुसंगत कथनों का समर्थन हो।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जहाँ साक्ष्य पक्षपातपूर्ण हों और साक्षी एक ही गुट के हों, वहाँ निर्दोष व्यक्तियों को मिथ्या मामले में फँसाए जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि पक्षपातपूर्ण साक्ष्य को केवल इसी आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता, फिर भी उसकी पूरी सावधानी से जांच की जानी चाहिये। घायल साक्षियों के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि तथापि चोटें उनकी उपस्थिति को विश्वसनीय बनाती हैं, फिर भी उनके परिसाक्ष्य में कोई ठोस विरोधाभास नहीं होना चाहिये और न्यायालय की अंतरात्मा को संतुष्ट करना चाहिये।
- इन सिद्धांतों को वर्तमान मामले में लागू करते हुए, न्यायालय ने गंभीर कमियाँ पाईं। जगदीश महतो ने हमले के बाद बेहोश होने की बात स्वीकार की, और अपने पुलिस कथन का खंडन किया जिसमें उसने दावा किया था कि अन्य घायलों ने उसे 41 अतिरिक्त हमलावरों के बारे में बताया था। न्यायालय कथनों और पुलिस कथनों में महत्त्वपूर्ण विरोधाभास विद्यमान थे। चिकित्सा साक्ष्य साक्षियों के परिसाक्ष्य की संपुष्टि नहीं करते थे—साक्षियों ने लाठियों से मारे जाने का दावा किया था, किंतु चिकित्सा साक्ष्य में केवल धारदार हथियारों से हुए घाव ही दिखाई दिये।
- न्यायालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) की प्रामाणिकता पर गंभीर चिंता व्यक्त की और कहा कि प्रथम सूचना रिपोर्ट आधिकारिक रूप से दर्ज होने से कई घंटे पहले ही पुलिस तक जानकारी पहुँच गई थी। न्यायालय ने माना कि इससे अन्वेषण दूषित हो गया। प्रत्येक अपीलकर्त्ता की व्यक्तिगत रूप से परीक्षा करने पर, अधिकांश की शिनाख्त (पहचान) केवल व्यापक रूप से की गई, बिना किसी विशिष्ट प्रत्यक्ष कृत्य के। मूल 72 अभियुक्तों में से 48 अभियुक्तों को बिना किसी कारण के हटा दिये जाने से मामले की प्रामाणिकता पर संदेह उत्पन्न हुआ।
- उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को युक्तियुक्त संदेह से परे साबित करने में असफल रहा और सभी 10 अपीलकर्त्ताओं को दोषमुक्त कर दिया, यह मानते हुए कि वे संदेह का लाभ पाने के हकदार थे, क्योंकि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा कि वे विधिविरुद्ध जमाव के सदस्य थे या उन्होंने विधिविरुद्ध उद्देश्य को अग्रसर करने के लिये कोई प्रत्यक्ष कृत्य किया था।
यह निर्धारित करने के लिये क्या परीक्षण किया जाता है कि दर्शक का विधिविरुद्ध जमाव के साथ कोई सामान्य उद्देश्य था?
(क) जमाव के गठन का समय और स्थान
- न्यायालय ने कहा कि यह जांच कि विधिविरुद्ध जमाव कब और कहाँ बना, यह दर्शाता है कि क्या पहले से कोई योजना और समन्वय था। यदि सदस्य किसी विशिष्ट समय और रणनीतिक स्थान पर एकत्र हुए हैं, तो यह सहज या संयोगवश उपस्थिति के बजाय पूर्व-चिंतन और सामान्य आशयको दर्शाता है।
(ख) घटनास्थल पर या उसके आसपास आचरण और व्यवहार
- घटनास्थल पर व्यक्तिगत आचरण सामान्य उद्देश्य का एक महत्त्वपूर्ण संकेतक है। यदि किसी अभियुक्त व्यक्ति के कार्यों से विधिविरुद्ध गतिविधि में सक्रिय भागीदारी, प्रोत्साहन या समर्थन का पता चलता है, तो यह सामान्य उद्देश्य दर्शाता है। बिना किसी भागीदारी के केवल मूकदर्शक बने रहना एक निर्दोष दर्शक की ओर इशारा करता है।
(ग) जमाव का सामूहिक आचरण
- न्यायालय ने व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण में अंतर किया। यदि सदस्य मिलकर कार्य करते हैं—एक साथ चलते हैं, एक साथ आक्रमण करते हैं, या समकालिक रूप से कार्य करते हैं—तो यह सामान्य उद्देश्य को दर्शाता है। समन्वित सामूहिक कार्रवाई सामान्य उद्देश्य के अनुमान को मज़बूत करती है, जबकि स्वतंत्र कार्रवाई इसे कमज़ोर करती है।
(घ) अपराध के पीछे का हेतुक
- सामान्य उद्देश्य निर्धारित करने में उद्देश्य महत्त्वपूर्ण होता है। यदि किसी अभियुक्त का उद्देश्य अन्य सदस्यों के समान था—जैसे विवाद सुलझाना, बदला लेना, या प्रभुत्व स्थापित करना—तो यह सामान्य उद्देश्य दर्शाता है। सामान्य उद्देश्य यह साबित करता है कि वह व्यक्ति दर्शक नहीं था, अपितु जमाव के उद्देश्य को अग्रसर करने के लिये एक सक्रिय भागीदार था।
(ङ) घटना किस प्रकार घटित हुई
- न्यायालय ने घटनाओं के क्रम और विभिन्न सदस्यों की भागीदारी की परीक्षा पर बल दिया। यदि घटना में भूमिका वितरण के साथ व्यवस्थित निष्पादन दिखाई देता है, तो यह सामान्य उद्देश्य का संकेत देता है। घटना के तरीके से पता चलता है कि क्या संगठित कार्रवाई हुई थी या अराजक हिंसा, और क्या हमला निरंतर और समन्वित था।
(च) ले जाए जाने वाले और प्रयोग किये जाने वाले हथियारों की प्रकृति
- सदस्यों के बीच समान हथियार पूर्व तैयारी और सामान्य उद्देश्य का संकेत देते हैं। यदि सदस्य घातक हथियारों से सज्जित होकर आए हैं, तो यह दर्शाता है कि उन्हें हिंसा की योजना के बारे में जानकारी थी। हथियारों के प्रकार से भी सामान्य उद्देश्य की गंभीरता का पता चलता है—चाहे धमकी देना हो, क्षति कारित करना हो या हत्या करना हो।
(छ) कारित क्षति की प्रकृति, सीमा और संख्या
- क्षति का पैटर्न एक ही उद्देश्य के बारे में महत्त्वपूर्ण साक्ष्य प्रदान करता है। यदि कई पीड़ितों को अलग-अलग सदस्यों से एक जैसी चोटें आई हैं, तो यह एक ही उद्देश्य से सामूहिक हमले को दर्शाता है। गंभीरता यह दर्शाती है कि उद्देश्य साधारण उपहति थी, गंभीर क्षति या मृत्यु। शरीर के महत्त्वपूर्ण अंगों पर कई क्षति सामान्य हत्या के आशय का संकेत देती हैं।
आपराधिक कानून
साक्ष्य अधिनियम की धारा 25
08-Oct-2025
राजेंद्र सिंह एवं अन्य बनाम उत्तरांचल राज्य आदि “अभियुक्त के कथन का केवल वह भाग, जो हथियारों की बरामदगी की ओर ले जाता है, साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अधीन ग्राह्य है, जबकि अपराध में हथियारों का प्रयोग किये जाने का दावा करने वाला भाग अग्राह्य है, क्योंकि यह धारा 25 और 26 के अधीन वर्जित संस्वीकृति के समान है।” न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की न्यायपीठ ने हत्या के अभियुक्त तीन व्यक्तियों को दोषमुक्त करते हुए कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अधीन उनके प्रकटीकरण कथनों का केवल वह भाग ही ग्राह्य है जिससे हथियार की बरामदगी का पता चलता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बरामद हथियार को अपराध से जोड़ने वाले कथन धारा 25 और 26 के अधीन अग्राह्य संस्वीकृति के समान हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने राजेंद्र सिंह एवं अन्य बनाम उत्तरांचल राज्य आदि (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
राजेंद्र सिंह एवं अन्य बनाम उत्तरांचल राज्य आदि (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- 3 जून 2000 की सुबह राजेंद्र सिंह और उनके पुत्र भूपेंद्र सिंह ने दिलेर सिंह (मृतक पुष्पेंद्र सिंह के पिता) के खेत में चबूतरा बनाने के लिये खुदाई शुरू कर दी, जिसके कारण दोनों पक्षकारों के बीच विवाद हो गया।
- उसी दिन दोपहर लगभग 1:30 बजे मृतक पुष्पेन्द्र सिंह जोगीठेर मोड़ पर बैठे थे, तभी तीन व्यक्ति - राजेन्द्र सिंह, उनके पुत्र भूपेन्द्र सिंह और दामाद रणजीत सिंह - कथित तौर पर तलवारों और कंटा (तेज धार वाला हथियार) से लैस होकर मोटरसाइकिल पर आए।
- अभियोजन पक्ष के अनुसार, तीनों अपीलकर्त्ताओं ने मृतक का सामना किया और उसका पीछा किया, जो शोर मचाते हुए उत्तरी खेतों की ओर भागा। मृतक स्वयं को बचाने के लिये मुख्तयार सिंह के घर में घुस गया, किंतु अपीलकर्त्ता कथित तौर पर उसका पीछा करते हुए अंदर घुस गए और उस पर जानलेवा वार किये, जिससे उसकी मौके पर ही मृत्यु हो गई।
- दिलेर सिंह ने दोपहर 2:50 बजे नानक मट्टा थाने में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई। पुलिस ने अन्वेषण किया, पंचनामा तैयार किया, साक्षियों के कथन दर्ज किये और शव को पोस्टमार्टम के लिये भेज दिया।
- अपीलकर्त्ताओं को 5 और 7 जून, 2000 को गिरफ्तार किया गया था। उनके प्रकटन के आधार पर कथित तौर पर हथियार—तलवारें और कंटा—बरामद किये गए थे। 14 जून, 2000 को तीनों अभियुक्तों पर धारा 302 और धारा 34 के अधीन आरोप लगाए गए, जिसमें आरोप पत्र दाखिल किया गया।
- विचारण न्यायालय ने सेशन विचारण संख्या 215/2000 में तीनों अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया था। यद्यपि, उच्च न्यायालय ने सरकारी अपील संख्या 347/2007 में 2 जनवरी, 2013 के निर्णय के अधीन इस दोषमुक्ति के निर्णय को उलट दिया, तथा उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन आजीवन कारावास और 10,000/- रुपए प्रत्येक के जुर्माने के साथ दोषी ठहराया।
- तीनों दोषी अभियुक्तों ने दाण्डिक अपील संख्या 476-477/2013 के माध्यम से अपनी दण्ड को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- पहचान और प्रत्यक्षदर्शी के परिसाक्ष्य पर:
- न्यायालय ने यह निणर्य दिया कि मुख्य विवाद्यक प्रत्यक्ष साक्ष्यों के माध्यम से यह निर्धारित करना था कि क्या अपीलकर्त्ता वास्तविक अपराधी थे। यद्यपि सुबह के झगड़े से ही कारण स्पष्ट हो गया था, परंतु संलिप्तता स्थापित करने के लिये ठोस साक्ष्य आवश्यक थे।
- न्यायालय ने स्वतंत्र साक्षी अमरजीत कौर (PW-7), जिसके घर में यह घटना घटी थी, को विश्वसनीय पाया। उसने परिसाक्ष्य दिया कि तीन लोगों ने मृतक की हथियारों से हत्या की थी और जब उसने हस्तक्षेप किया तो उसके कपड़े खून से सने हुए थे। यद्यपि, उसने आलोचनात्मक रूप से कहा कि वह अभियुक्तों के नाम नहीं जानती और उन्हें पहचान नहीं सकती—उसने केवल तीन अज्ञात व्यक्तियों को देखा था। कोई शिनाख्त परेड नहीं कराई गई।
- अभियोजन पक्ष के साक्ष्य में विरोधाभासों पर:
- न्यायालय ने PW-7 और दिलेर सिंह (PW -1, मृतक के पिता) के बीच उल्लेखनीय विरोधाभास पाया। PW -7 के विश्वसनीय परिसाक्ष्य से पता चला कि PW -1 घटना के लगभग आधे घंटे बाद पहुँचा, जिससे वह वास्तविक प्रत्यक्षदर्शी नहीं बन पाया।
- न्यायालय ने कहा कि यह अस्वाभाविक है कि PW -1 के खून से सने कपड़े पुलिस थाने जाने के बावजूद न तो पुलिस को दिये गए और न ही ज़ब्त किये गए। उसने कथित तौर पर उन्हें धोकर दोबारा पहना, जिससे पता चलता है कि उसकी कहानी मनगढ़ंत थी।
- PW-1 को एक संयोगवश साक्षी माना गया, क्योंकि जोगीथर मोड़ पर उसकी उपस्थिति अस्वाभाविक थी क्योंकि यह उसके मार्ग में नहीं था। PW-4 ने PW-1 के अपने आटा चक्की पर जाने के दावे की पुष्टि नहीं की, जिससे PW-1 की उपस्थिति संदिग्ध हो गई।
- ज्वाला सिंह (PW-2), जो PW -1 से 60-70 कदम पीछे था, भी एक संयोगवश साक्षी था। चूँकि PW-1 की उपस्थिति संदिग्ध थी, इसलिये PW-2 की उपस्थिति मिथ्या साबित हुई। साक्ष्य की पुष्टि के लिये कोई स्वतंत्र साक्षी नहीं बुलाया गया।
- हथियारों की बरामदगी और धारा 27 साक्ष्य अधिनियम पर:
- यद्यपि अपीलकर्त्ताओं के प्रकटीकरण के आधार पर हथियार बरामद कर लिये गए थे, परंतु किसी भी फोरेंसिक प्रयोगशाला रिपोर्ट से यह साबित नहीं हुआ कि उनका प्रयोग वास्तव में हत्या में किया गया था।
- न्यायालय ने राज्य के इस तर्क को नामंजूर कर दिया कि अपीलकर्त्ताओं के कथन, जिनमें उन्होंने बरामद हथियारों से अपराध करने की बात स्वीकार की थी, उनके विरुद्ध प्रयोग किये जा सकते हैं। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 और 26 के साथ धारा 27 के अधीन, केवल हथियार बरामदगी से संबंधित कथन वाला भाग ही ग्राह्य है, न कि वह भाग जिसमें आरोप लगाया गया है कि अपराध में हथियारों का प्रयोग किया गया था।
- पुलुकुरी कोट्टाया बनाम किंग एम्परर और मंजूनाथ बनाम कर्नाटक राज्य का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि बरामदगी से संबंधित जानकारी ग्राह्य है, किंतु यह जानकारी ग्राह्य नहीं है कि अपराध उन हथियारों से किया गया था।
- अंतिम निर्धारण:
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्त्ताओं की पहचान प्रत्यक्ष साक्ष्य या हथियार बरामदगी से स्थापित नहीं हुई थी। दोषमुक्ति के आदेशों में तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता जब तक कि विचारण न्यायालय के निष्कर्ष गलत न हों। उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निष्कर्षों को गलत ठहराए बिना दोषमुक्त करने के आदेश को पलटने में गलती की।
- उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया, अपील स्वीकार कर ली, तथा संदेह का लाभ देते हुए अपीलकर्त्ताओं को दोषमुक्त कर दिया।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 - पुलिस अधिकारी से की गई संस्वीकृति का साबित न किया जाना
- यह उपबंध पुलिस अधिकारियों के समक्ष की गई संस्वीकृति की ग्राह्यता पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है। किसी भी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई कोई भी संस्वीकृति साबित नहीं की जाएगी। यह मूल उपबंध पुलिस अभिरक्षा के दौरान अभियुक्त व्यक्तियों को संभावित दबाव या अनुचित प्रभाव से बचाता है, और पुलिस अधिकारियों और उनकी अभिरक्षा में मौजूद व्यक्तियों के बीच अंतर्निहित शक्ति असंतुलन को मान्यता देता है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 26 - पुलिस की अभिरक्षा में अभियुक्त द्वारा दी गई संस्वीकृति का उसके विरुद्ध साबित न किया जाना
- यह उपबंध पुलिस अधिकारियों के समक्ष की गई संस्वीकृति से भी आगे बढ़कर सुरक्षा प्रदान करता है। पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में किसी भी व्यक्ति द्वारा की गई संस्वीकृति उस व्यक्ति के विरुद्ध तब तक साबित नहीं की जाएगी, जब तक कि वह मजिस्ट्रेट की तत्काल उपस्थिति में न की गई हो। यह सुरक्षा उपाय यह सुनिश्चित करता है कि पुलिस अभिरक्षा के दौरान किया की गई कोई भी संस्वीकृति—चाहे वह किसी के भी समक्ष की गई हो—तब तक अग्राह्य रहेगी जब तक कि उसे मजिस्ट्रेट के समक्ष अभिलिखित न कर लिया जाए, जिससे न्यायिक निगरानी सुनिश्चित होती है।
- स्पष्टीकरण में स्पष्ट किया गया है कि "मजिस्ट्रेट" में मजिस्ट्रेटी कार्य करने वाले ग्राम प्रधानों को सम्मिलित नहीं किया गया है, जब तक कि वे दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1882 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करने वाले मजिस्ट्रेट न हों, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि केवल उचित रूप से गठित न्यायिक मजिस्ट्रेट ही ग्राह्य संस्वीकृति अभिलिखित कर सकते हैं।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 - अभियुक्त से प्राप्त जानकारी में से कितनी साबित की जा सकेगी
- यह उपबंध धारा 25 और 26 द्वारा लगाए गए पूर्ण प्रतिबंध के लिये एक सीमित अपवाद बनाता है। जब पुलिस अभिरक्षा में किसी अभियुक्त व्यक्ति से प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप कोई तथ्य पता चलता है, तो ऐसी जानकारी का उतना भाग - चाहे वह संस्वीकृति हो या न हो - जो उस तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो, साबित किया जा सकता है।
- धारा 27 का दायरा सीमित है: सूचना का केवल वही भाग ग्राह्य है जो तथ्य की खोज से प्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से संबंधित हो। अपराध संस्वीकृति या अपराध में संलिप्तता स्वीकार करने वाला कोई भी अतिरिक्त कथन धारा 25 और 26 के अंतर्गत अग्राह्य है।
- धारा 25, 26 और 27 के बीच परस्पर क्रिया:
- धारा 25 और 26 मूल उपबंध हैं जो पुलिस अधिकारियों के समक्ष या उनकी अभिरक्षा में की गई संस्वीकृति के अपवर्जन का सामान्य नियम स्थापित करते हैं। धारा 27 इस सामान्य नियम के अपवाद के रूप में कार्य करती है, किंतु धारा 25 और 26 द्वारा प्रदत्त सुरक्षा को निरस्त नहीं करती है। यह अपवाद केवल भौतिक तथ्यों की खोज से संबंधित जानकारी तक सीमित है, और अपराध के लिये खोजी गई वस्तुओं के उपयोग के बारे में संस्वीकृत कथनों तक विस्तारित नहीं है।