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सांविधानिक विधि

न्यायिक निर्णय एवं घोषणाएँ

 01-Jul-2025

किरण यादव बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य

"न्यायिक निर्णयों की विशेषता इसकी स्थिरता एवं अंतिमता है, इसलिये इन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये"।

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड

स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

किरण यादव बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य के मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने पुनः कहा है कि न्यायिक निर्णयों की पहचान उनकी स्थिरता एवं अंतिमता है, इसलिये उन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये।

किरण यादव बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

पृष्ठभूमि एवं प्रारंभिक कार्यवाही:

  • किरण यादव, उम्र 28 वर्ष, निवासी बिजली घर के पास, सिंगोड खुर्द, वाया खेजरूली, जिला जयपुर ने शारीरिक प्रशिक्षण प्रशिक्षक (PTI) के रूप में अपनी नियुक्ति को रद्द करने को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका संस्थित की। 
  • मामला PTI के पद के लिये 16 जून 2022 के विज्ञापन से उत्पन्न हुआ, जहाँ याचिकाकर्त्ता ने चयन प्रक्रिया में भाग लिया। 
  • विज्ञापन के खंड 7 के अनुसार आवश्यक योग्यता: मान्यता प्राप्त बोर्ड से वरिष्ठ माध्यमिक या समकक्ष परीक्षा और सरकार/राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा मान्यता प्राप्त शारीरिक शिक्षा में प्रमाण पत्र/डिप्लोमा/स्नातक।

शैक्षिक योग्यता समयसीमा:

  • विज्ञापन में निर्दिष्ट किया गया था कि योग्यता परीक्षा में उपस्थित होने वाले अभ्यर्थी लिखित परीक्षा की तिथि को या उससे पहले अपेक्षित योग्यता रखने के अधीन भाग ले सकते हैं।
  • याचिकाकर्त्ता का बी.पी.एड. परिणाम पहली बार 19 सितंबर 2022 को घोषित किया गया था - उसे एक पेपर में "फेल" घोषित किया गया था।
  • PTI पद के लिये लिखित परीक्षा 25 सितंबर 2022 को आयोजित की गई थी।
  • याचिकाकर्त्ता ने अपनी उत्तर पुस्तिका के पुनर्मूल्यांकन के लिये आवेदन किया था।
  • पुनर्मूल्यांकन परिणाम 23 नवंबर 2022 को घोषित किया गया, जिसमें याचिकाकर्त्ता को "पास" घोषित किया गया।

नियुक्ति एवं रद्दकरण यात्रा:

  • प्राप्त योग्यता के आधार पर और उसे योग्य मानते हुए, याचिकाकर्त्ता को 15 दिसंबर 2022 को नियुक्ति की पेशकश की गई थी। 
  • याचिकाकर्त्ता ने 15 दिसंबर 2023 के नियुक्ति आदेश के अनुसार PTI के रूप में अपने कर्त्तव्यों को ग्रहण किया। 
  • कार्यभार ग्रहण करने के बाद, प्रतिवादियों ने 16 जनवरी 2025 के आदेश के अंतर्गत उसकी नियुक्ति रद्द कर दी। 
  • नियुक्ति रद्द करने का आधार तकनीकी आधार था कि लिखित परीक्षा की तिथि पर उसके पास अपेक्षित शैक्षणिक योग्यता नहीं थी।

उच्च न्यायालय के समक्ष:

  • याचिकाकर्त्ता ने 16 जनवरी 2025 के रद्दकरण आदेश को एस.बी. सिविल रिट याचिका संख्या 1628/2025 संस्थित करके राजस्थान उच्च न्यायालय, जयपुर पीठ के समक्ष चुनौती दी। 
  • मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड ने की। 
  • आदेश सुरक्षित रखा गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

पूर्वनिर्णय का विश्लेषण और विधिक स्थिति:

  • न्यायालय ने जेनी जे.आर. बनाम एस. राजीवन एवं अन्य (2010) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि पुनर्मूल्यांकन के परिणाम मूल परिणाम तिथि से संबंधित नहीं हो सकते।

"रिलेट बैक" सिद्धांत पर न्यायालय का तर्क:

  • न्यायालय ने "वापस संबंधित" सिद्धांत को रद्द करते हुए कहा कि यदि पुनर्मूल्यांकन परिणाम वापस संबंधित हो सकते हैं, तो यह एक खतरनाक पूर्वनिर्णय स्थापित करेगा।
  • काल्पनिक परिदृश्य पर विचार किया गया: यदि पुनर्मूल्यांकन परिणाम छह महीने बाद घोषित किया जाता है जब पूरी चयन प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, तो पूरी प्रक्रिया एक अभ्यर्थी के लिये व्यक्तिगत रूप से आयोजित नहीं की जा सकती है।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि व्यक्ति की अभ्यर्थी का मूल्यांकन केवल कट-ऑफ तिथि पर ही की जानी चाहिये।
  • विधि को सभी आकस्मिकताओं एवं परिस्थितियों को पूरा करना चाहिये।

अंतिम निर्णय:

  • न्यायालय ने रिट याचिका में कोई औचित्यपूर्ण तर्क नहीं पाया और इसे खारिज़ कर दिया। 
  • याचिकाकर्त्ता की नियुक्ति को रद्द करने को विधिक रूप से उचित माना गया। 
  • स्थगन आवेदनों सहित सभी लंबित आवेदनों को खारिज कर दिया गया।

न्यायिक घोषणाओं एवं निर्णयों के सामान्य सिद्धांत क्या हैं?

  • संवैधानिक अधिदेश एवं बाध्यकारी प्रकृति:
    • भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 141 में यह उपबंधित किया गया है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधान भारत के क्षेत्र के अंदर सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी है। 
    • यह पूरे देश में विधि के आवेदन में स्थिरता एवं एकरूपता सुनिश्चित करता है। 
    • न्यायालय स्थापित पूर्वनिर्णयों से तब तक विचलित नहीं हो सकते जब तक कि इसके लिये बाध्यकारी कारण न हों।
  • स्टेयर डिसीसिस का सिद्धांत:
    • स्टेयर डेसिसिस एक सुस्थापित मूल्यवान पूर्वनिर्णय है जिसे सामान्यतया नहीं बदला जा सकता।
    • विधि के शासन द्वारा शासित देश में, निर्णय की अंतिमता अत्यंत आवश्यक है।
    • पक्षकार न्यायालय के समाप्त हो चुके निर्णयों को पुनः नहीं प्रारंभ कर सकते।
    • न्यायालय के निर्णयों, विशेष रूप से उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को सामान्यतया नहीं बदला जा सकता और न ही बदला जाना चाहिये।
  • न्यायिक निर्णयों की विशेषताएँ:
    • न्यायिक निर्णय की पहचान इसकी स्थिरता एवं अंतिमता है। 
    • न्यायिक निर्णय रेत के टीलों की तरह नहीं होते जो हवा और मौसम के उतार-चढ़ाव के अधीन होते हैं। 
    • न्यायिक निर्णय स्थायी होने चाहिये और उनमें निरंतर परिवर्तन नहीं हो सकता।
  • प्रक्रिया का दुरुपयोग:
    • समाप्त हो चुके निर्णयों को पुनः प्रारंभ करना विधि एवं न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के समान होगा। 
    • इस तरह की प्रथा का न्याय प्रशासन पर दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
    • न्यायालयों को न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता बनाए रखनी चाहिये तथा विधिक प्रक्रियाओं के दुरुपयोग को रोकना चाहिये।
  • विधि के नियम के सिद्धांत:
    • न्यायालयों को स्थापित विधिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिये तथा वैध औचित्य के बिना अपवाद नहीं बना सकते। 
    • विधिक प्रणाली को न्यायिक निर्णयों में पूर्वानुमान एवं स्थिरता की आवश्यकता होती है। 
    • पूर्वनिर्णय न्यायिक प्रणाली में विधिक निश्चितता एवं जनता के विश्वास के लिये आधार के रूप में कार्य करती हैं।

सिविल कानून

प्रसूति प्रसुविधा से अस्वीकरण

 01-Jul-2025

ओडिशा राज्य एवं अन्य बनाम श्रीमती अनिंदिता मिश्रा

“किसी महिला कर्मचारी को केवल इसलिये प्रसूति अवकाश या लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह संविदा के आधार पर कार्यरत है।”

न्यायमूर्ति दीक्षित कृष्ण श्रीपाद एवं न्यायमूर्ति मृगंका शेखर साहू

स्रोत: उड़ीसा उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उड़ीसा उच्च न्यायालय ने उड़ीसा राज्य एवं अन्य बनाम श्रीमती अनिंदिता मिश्रा के मामले में निर्णय दिया है कि किसी महिला कर्मचारी को केवल इसलिये प्रसूति अवकाश या लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह संविदा के आधार पर कार्यरत है।

  • न्यायमूर्ति दीक्षित कृष्ण श्रीपाद और न्यायमूर्ति मृगांका शेखर साहू की खंडपीठ ने इस तथ्य पर बल दिया कि इस तरह का अस्वीकरण मानवता एवं नारीत्व के मूल सार के लिये "घृणास्पद" होगा।

ओडिशा राज्य एवं अन्य बनाम श्रीमती अनिंदिता मिश्रा (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

पृष्ठभूमि:

  • रोजगार की स्थिति: श्रीमती अनिंदिता मिश्रा को मानक प्रक्रिया के माध्यम से चयन के बाद ओडिशा राज्य द्वारा संविदा के आधार पर 'युवा पेशेवर' के रूप में नियुक्त किया गया था।
  • पोस्टिंग विवरण: जी.ए. विभाग द्वारा प्रायोजित नाम और 20 मई 2014 से स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग में नियुक्त किया गया।
  • संविदा की शर्तें: आरंभ में एक वर्ष का संविदा बाद में कई बार नवीनीकृत किया गया।
  • प्रसूति आवेदन: एक लड़की को जन्म देने के बाद, 17.08.2016 को मेडिकल प्रमाण पत्र के साथ 17.08.2016 से 12.02.2017 की अवधि के लिये प्रसूति अवकाश के लिये आवेदन किया।
  • अस्वीकृति: द्वितीय अपीलकर्त्ता ने बिना कारण बताए 07 जून 2017 को आवेदन खारिज कर दिया।

न्यायालयी यात्रा:

  • मूल रिट याचिका: प्रसूति अवकाश के अस्वीकरण को चुनौती देते हुए WPC(OAC) संख्या 1680/2017 संस्थित की गई।
  • एकल न्यायाधीश का निर्णय: 30 अगस्त 2022 को एकल न्यायाधीश ने कर्मचारी के पक्ष में निर्णय दिया, प्रसूति अवकाश लाभों के विस्तार का निर्देश दिया।
  • खंडपीठ में अपील: राज्य ने एकल न्यायाधीश के आदेश को चुनौती देते हुए W.A.NO.1074/2023 संस्थित किया।
  • अंतिम निर्णय: उड़ीसा उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने मामले का निर्णय दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

मौलिक अधिकार:

  • स्तनपान कराने वाली माँ को अपने बच्चे को उसके विकास के वर्षों के दौरान स्तनपान कराने का मौलिक अधिकार है। 
  • बच्चे को स्तनपान कराने और अच्छी परिस्थितियों में पालन-पोषण करने का मौलिक अधिकार है। 
  • ये अधिकार राज्य को अनुमेय संसाधनों के अंतर्गत प्रसूति प्रसुविधा प्रदान करने का दायित्व बनाते हैं।

कल्याणकारी राज्य का दायित्व:

  • "हमारा राज्य संवैधानिक रूप से कल्याणकारी राज्य है"। 
  • सरकार को आदर्श नियोक्ता के रूप में कार्य करना चाहिये (भूपेंद्र नाथ हजारिका बनाम असम राज्य, एआईआर 2013 एससी 234 का उदाहरण देते हुए)।

तर्कपूर्ण आदेश:

  • बिना बोले आदेशों को उचित नहीं माना जा सकता है। 
  • कर्मचारियों को यह नहीं माना जा सकता है कि वे "सरकारी गोदाम में रखे हुए हैं"। 
  • आदेशों को आंतरिक योग्यता के आधार पर खड़ा होना चाहिये (मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त, एआईआर 1978 एससी 851 का उदाहरण देते हुए)।

समान व्यवहार:

  • प्रसूति प्रसुविधा के लिये महिला कर्मचारी एक समरूप वर्ग का गठन करती हैं। 
  • नियुक्ति की स्थिति के आधार पर कृत्रिम विभाजन अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है। 
  • प्रसूति प्रसुविधा के लिये संविदा बनाम नियमित कर्मचारी का भेद अस्वीकार्य है।

सांस्कृतिक मूल्य:

  • उद्धृत संस्कृत श्लोक: "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" (जहाँ महिलाओं का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं)। 
  • ऐसे आदर्शों को महिला कल्याण नीतियों के उद्देश्यपूर्ण निर्वचन को प्रेरित करना चाहिये।

संवैधानिक निर्वचन:

  • न्यायमूर्ति ओलिवर वेंडेल होम्स ने कहा था: "संविधान का उद्देश्य व्यावहारिक एवं सारवान अधिकारों को संरक्षित करना है, न कि सिद्धांतों को बनाए रखना"।

अंतिम निर्णय:

  • अपील खारिज: खंडपीठ ने राज्य की अपील खारिज कर दी।
  • कार्यान्वयन का आदेश: एकल न्यायाधीश के आदेश का क्रियान्वयन किया जाना है।
  • अनुपालन रिपोर्ट: आठ सप्ताह के अंदर दाखिल की जानी है।
  • न्यायालय का दृष्टिकोण: एकल न्यायाधीश ने "गरीब कर्मचारी" को अनुतोष प्रदान करके सही किया।

प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम, 1961 क्या है?

अधिनियम का परिचय

उद्देश्य एवं दायरा:

  • प्रसूति अवधि के दौरान महिलाओं के रोजगार की रक्षा एवं लाभ के लिये विधान बनाया गया है। 
  • प्रसव से पहले और बाद में विशिष्ट अवधि के लिये प्रतिष्ठानों में महिलाओं के रोजगार को विनियमित करता है। 
  • कामकाजी महिलाओं को प्रसूति प्रसुविधा और अन्य संबंधित सुविधाएँ प्रदान करता है। 
  • यह सुनिश्चित करता है कि नवजात शिशु की देखभाल के लिये कार्य से अनुपस्थिति के दौरान महिला कर्मचारियों को वेतन मिले। 
  • प्रसूति की गरिमा की रक्षा करता है और कामकाजी माताओं द्वारा उचित शिशु देखभाल को सक्षम बनाता है। 
  • प्रसूति अवधि के दौरान महिलाओं को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करता है।

विधायी इतिहास:

  • मूल अधिनियम 1961 में अधिनियमित किया गया। 
  • यह 1 नवंबर, 1963 को लागू हुआ। 
  • प्रसूति प्रसुविधा (संशोधन) अधिनियम, 2017 के द्वारा इसमें महत्त्वपूर्ण संशोधन किया गया।

प्रयोज्यता:

  • 10 या उससे अधिक कर्मचारियों को रोजगार देने वाले प्रतिष्ठानों पर लागू होता है।
  • मूल रूप से 10 से अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों पर लागू होता है।
  • कामकाजी महिलाओं को सम्मानजनक तरीके से सभी सुविधाएँ प्रदान करता है।
  • यह सुनिश्चित करता है कि महिलाएँ प्रसूति की स्थिति को सम्मानपूर्वक एवं शांतिपूर्वक पार कर सकें।
  • प्रसव-पूर्व या प्रसवोत्तर अवधि के दौरान बलपूर्वक अनुपस्थिति के लिये पीड़ित होने के भय को समाप्त करता है।

पात्रता मापदंड

  • महिला कर्मचारी को अपेक्षित डिलीवरी की तिथि से पहले पिछले बारह महीनों में कम से कम 80 दिनों के लिये प्रतिष्ठान में नियोजित होना चाहिये। 
  • अधिनियम के संस्थिते में आने वाले प्रतिष्ठान में कार्य करना चाहिये।

2017 संशोधन के अंतर्गत प्रमुख प्रावधान

बढ़ी हुई प्रसूति अवकाश अवधि:

दो से कम बच्चों वाली महिलाओं के लिये:

  • प्रसूति अवकाश की अवधि 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह कर दी गई। 
  • प्रसव-पूर्व अवकाश को अपेक्षित प्रसव तिथि से 6 सप्ताह पहले से बढ़ाकर 8 सप्ताह कर दिया गया। 
  • शेष सप्ताह प्रसव के बाद उपयोग किये जा सकते हैं।

दो या अधिक बच्चों वाली महिलाओं के लिये:

  • प्रसूति अवकाश 12 सप्ताह का ही रहेगा। 
  • अपेक्षित प्रसव तिथि से 6 सप्ताह से पहले इसका लाभ नहीं लिया जा सकता। 
  • इस श्रेणी के लिये मूल प्रावधानों में कोई बदलाव नहीं किया गया है।

घर से कार्य करने वाली महिला के लिये प्रावधान:

  • 2017 के संशोधन में नए प्रावधान के रूप में घर से कार्य करने की सुविधा आरंभ की गई है। 
  • प्रसूति अवकाश की अवधि पूरी होने के बाद इसका लाभ लिया जा सकता है। 
  • अवधि नियोक्ता और महिला कर्मचारी के बीच आपसी सहमति से तय की जाएगी। 
  • प्रारंभिक शिशु देखभाल अवधि के दौरान निरंतर रोजगार लचीलापन प्रदान करता है।

शिशुकक्ष सुविधाएँ:

  • 50 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों को शिशुकक्ष की सुविधा प्रदान करनी होगी।
  • धारा 11A के अनुसार शिशुकक्ष निर्धारित दूरी के अंदर स्थित होना चाहिये।
  • महिला कर्मचारियों को प्रतिदिन चार बार शिशुकक्ष में जाने की अनुमति है।
  • शिशुकक्ष में जाने की सुविधा आराम के लिये अंतराल में शामिल है, कार्य के घंटों से नहीं काटी जाती।
  • कामकाजी माताओं को कार्य और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाने में सहायता करता है।

दत्तक ग्रहण करने वाली और कमीशनिंग माताओं के लिये विस्तारित कवरेज:

  • 12 सप्ताह का प्रसूति अवकाश उन महिलाओं को दिया जाता है जो विधिक रूप से 3 महीने से कम उम्र के बच्चों को गोद लेती हैं।
  • 12 सप्ताह का प्रसूति अवकाश कमीशनिंग माताओं को दिया जाता है।
  • कमीशनिंग माँ को जैविक माँ के रूप में परिभाषित किया जाता है जो किसी अन्य महिला में प्रत्यारोपित भ्रूण बनाने के लिये अपने अंडे का उपयोग करती है।
  • पारंपरिक गर्भावस्था और प्रसव से परे प्रसूति के विभिन्न रूपों को मान्यता देता है।

महत्त्व एवं प्रभाव

सामाजिक संरक्षण:

  • प्रसूति के दौरान महिलाओं को रोजगार भेदभाव से बचाता है। 
  • प्रसूति के महत्त्वपूर्ण समय के दौरान वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करता है। 
  • कार्यस्थल में लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है। 
  • महिला कर्मचारियों के लिये कार्य-जीवन संतुलन का समर्थन करता है।

बाल कल्याण:

  • माँ और बच्चे के बीच उचित संबंध बनाने में सक्षम बनाता है। 
  • स्तनपान और बच्चे के शुरुआती विकास में सहायता करता है। 
  • प्रसवोत्तर स्वास्थ्य लाभ और बच्चे की देखभाल के लिये पर्याप्त समय प्रदान करता है।

आर्थिक लाभ:

  • कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को बनाए रखता है। 
  • प्रसूति अवधि के दौरान वित्तीय तनाव को कम करता है। 
  • परिवार की आर्थिक स्थिरता का समर्थन करता है। 
  • महिलाओं के करियर की निरंतरता को प्रोत्साहित करता है।