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आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173
02-Jul-2025
XXX बनाम केरल राज्य और अन्य "यदि कोई संज्ञेय अपराध बनता है तो पुलिस प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने से इंकार नहीं कर सकती, यहाँ तक कि उन मामलों में भी जहाँ परिवाद विदेश से प्रेषित किया गया हो।" न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
केरल उच्च न्यायालय ने XXX बनाम केरल राज्य एवं अन्य के मामले यह निर्णय दिया कि यदि किसी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में संज्ञेय अपराध का प्रथमदृष्टया प्रकटन होता है, तो पुलिस उस प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को दर्ज करने से इंकार नहीं कर सकती, भले ही उक्त परिवाद विदेश से प्रेषित किया गया हो।
XXX बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता पृष्ठभूमि : सोया एंटनी, उम्र 48 वर्ष, मोहनन नायर की पत्नी, मूल रूप से प्लाथोटाहिल हाउस, मुट्टम पी.ओ., थोडुपुझा, केरल की निवासी, वर्तमान में 21 सीडर एवेन्यू, अल्फ्रेडटन, बैलाराट, विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं।
- प्रारंभिक परिवाद : जो एक भारतीय नागरिक हैं तथा वर्तमान में ऑस्ट्रेलिया में निवासरत हैं, ने अपने पति के विरुद्ध परिवाद ईमेल के माध्यम से पुलिस महानिदेशक, केरल को प्रेषित की।
- परिवाद अग्रेषित करना : केरल के पुलिस महानिदेशक ने परिवाद को अधिकारिता वाले पुलिस स्टेशन अर्थात मुत्तोम पुलिस स्टेशन को अग्रेषित कर दिया।
- पुलिस का इंकार : मुट्टोम पुलिस ने दो आधार बताते हुए परिवाद पर कार्रवाई करने से इंकार कर दिया:
- परिवाद पर हस्ताक्षर नहीं किये गए तथा उसे ईमेल के माध्यम से भेजा गया।
- चूंकि याचिकाकर्त्ता आस्ट्रेलिया में रह रही थी, इसलिये उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकी।
- पुलिस संसूचना : मुट्टोम पुलिस से अस्वीकृति संसूचना को 12 सितंबर 2020 को Annexure A9 के रूप में प्रलेखित किया गया था।
- उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण : याचिकाकर्त्ता ने पुलिस के इंकार को चुनौती देते हुए केरल उच्च न्यायालय का रुख किया (Annexure A9)।
- वाद की समयरेखा: मूल परिवाद (Annexure A7) 2020 में दायर किया गया था, और मामला 20 जून 2025 को स्वीकार किया गया ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- अधिकारिता संबंधी मुद्दे पर विचार: न्यायालय ने कहा कि पुलिस संज्ञेय अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने से केवल इसलिये इंकार नहीं कर सकती क्योंकि परिवाद किसी विदेशी देश से अग्रेषित किया गया है।
- ईमेल द्वारा प्रेषित परिवाद की वैधता: न्यायालय ने कहा कि इस आधार पर परिवाद को अस्वीकार करना उचित नहीं ठहराया जा सकता कि यह हस्ताक्षर रहित (unsigned) थी और ऑस्ट्रेलिया से ईमेल के माध्यम से भेजी गई थी।
- Zero FIR को मान्यता: न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि नए विधिक ढाँचे के अधीन Zero FIR को वैधानिक मान्यता दी गई है, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि पीड़ित अधिकारिता की परवाह किये बिना परिवाद दर्ज कर सकते हैं।
- Zero FIR का प्राथमिक उद्देश्य: न्यायालय ने कहा कि Zero FIR की शुरुआत इस प्राथमिक उद्देश्य से की गई थी कि पीड़ित अधिकारिता की सीमाओं के होते हुए भी परिवाद दर्ज करा सकें।
- नवीन परिवाद का प्रावधान : याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता द्वारा न्यायालय को यह सूचित किया गया कि याचिकाकर्त्ता एक नए परिवाद प्रस्तुत करने के लिये तत्पर हैं ।
- अंतिम निर्देश : न्यायालय ने मुट्टोम पुलिस स्टेशन के स्टेशन हाउस ऑफिसर को उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए याचिकाकर्त्ता द्वारा दिये गए किसी भी परिवाद पर कार्रवाई करने का निदेश देकर आपराधिक विविध मामले का निपटारा किया।
- प्रक्रियागत अनुपालन : न्यायालय ने विशेष रूप से निदेश दिया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) विशेष रूप से धारा 173 में परिकल्पित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिये।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173 क्या है?
विधायी पृष्ठभूमि और अवलोकन:
- सांविधिक ढाँचा : भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173 भारत में मूल आपराधिक विधि के प्रशासन की प्रक्रिया पर मुख्य विधि का भाग है।
- पूर्ववर्ती विधि का प्रतिस्थापन : संज्ञेय अपराध दर्ज करने के उपबंध अब दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के स्थान पर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173 के अधीन उपबंधित किये गए हैं।
- प्रभावी कार्यान्वयन : नया आपराधिक विधि 1 जुलाई 2024 को पूर्ववर्ती दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के स्थान पर लागू होगा।
- Zero FIR को सांविधिक मान्यता: Zero FIR को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173 में सम्मिलित करके सांविधिक मान्यता दी गई है, जो संज्ञेय मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को दर्ज करने से संबंधित है।
- अधिकारिता संबंधी लचीलापन : यह उपबंध सुनिश्चित करता है कि यदि परिवाद में संज्ञेय अपराध का उल्लेख किया गया है तो पुलिस अधिकारिता की सीमाओं की परवाह किये बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने से इंकार नहीं कर सकती।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173 के मुख्य उपबंध:
उपधारा (1) - इत्तिला पंजीकरण:
- सार्वभौमिक अधिकारिता : किसी संज्ञेय अपराध के किये जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तिला, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में किया गया हो, मौखिक रूप से या इलेक्ट्रॉनिक संसूचना द्वारा दी जा सकती है।
- मौखिक संसूचना: यदि मौखिक रूप से दी गई है, तो उसे लिखित रूप में प्रस्तुत किया जाएगा और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी। ऐसी प्रत्येक इत्तिला, चाहे लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उसे देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी।
- इलेक्ट्रॉनिक संसूचना: भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173(1) किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित इत्तिला पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को इलेक्ट्रॉनिक संसूचना के माध्यम से देने की अनुमति देती है, जो पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता के लागू रहने के दौरान संभव नहीं था।
- डिजिटल अनुपालन : यदि यह इलेक्ट्रॉनिक संसूचना द्वारा दी जाती है, तो इसे देने वाले व्यक्ति द्वारा तीन दिनों के भीतर हस्ताक्षर किये जाने पर उसे लेखबद्ध किया जाएगा।
उपधारा (2) - प्रतिलिपि उपबंध:
- परिवादकर्त्ता के अधिकार : भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173 के अधीन आवश्यकताओं को पूरा करने के पश्चात्, अधिकारी Zero FIR दर्ज करता है और इत्तिला देने वाले को उसकी एक प्रति निःशुल्क प्रदान करता है।
- पारदर्शिता तंत्र : यह उपबंध सुनिश्चित करता है कि परिवादकर्त्ताओं को बिना किसी लागत के उनके परिवाद का पंजीकरण का दस्तावेज़ प्राप्त हो।
उपधारा (3) - प्रारंभिक जांच:
- विवेकाधीन जांच : तीन वर्ष या उससे अधिक किंतु सात वर्ष से कम के दण्ड वाले किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित इत्तिला प्राप्त होने पर, भारसाधक अधिकारी पूर्व अनुमति लेकर प्रारंभिक जांच कर सकता है या अन्वेषण को आगे बढ़ा सकता है।
- दण्ड आधारित वर्गीकरण : यह उपबंध 3-7 वर्ष के वाले अपराधों के लिये एक विशिष्ट श्रेणी बनाता है।
Zero FIR क्या है?
संकल्पनात्मक आधार:
- संहिताकरण उपलब्धि : प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के दर्ज करने के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन Zero FIR अवधारणा का संहिताकरण है, जिससे पुलिस थानों के लिये अधिकारिता की परवाह किये बिना, संज्ञेय अपराध के बारे में इत्तिला प्राप्त होने पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करना अनिवार्य हो गया है।
- ऐतिहासिक संदर्भ : Zero FIR एक ऐसी अवधारणा है जो बिना किसी सांविधिक समर्थन के भारतीय विधि में काफी समय से प्रचलित है।
- अधिकारिता संबंधी स्वतंत्रता : Zero FIR किसी भी पुलिस थाने को संज्ञेय अपराध दर्ज करने की अनुमति देता है, चाहे अपराध किसी भी स्थान पर हुआ हो।
व्यावहारिक लाभ:
- पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण : यह उन पीड़ितों के लिये समय पर न्याय और सहायता सुनिश्चित करने के लिये विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, जो अपनी अधिकारिता वाले पुलिस थाने तक तुरंत नहीं पहुँच पाते हैं।
- सुगम्यता में वृद्धि : यह उपबंध परिवाद दर्ज करने में भौगोलिक बाधाओं को दूर करता है।
- समय-संवेदनशील मामले : अधिकारिता संबंधी विलंब के बिना अत्यावश्यक स्थितियों में तत्काल कार्रवाई करने में सक्षम बनाता है।
सांविधानिक विधि
कर्मचारी भर्ती में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षण
02-Jul-2025
"‘हमारे कार्य हमारे सिद्धांतों का प्रतिबिंब होने चाहिए’ इस उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार अपने कर्मचारियों की नियुक्ति में अनुसूचित जातियों (SC) एवं अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए आरक्षण का प्रावधान लागू किया है।" भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
अपने इतिहास में पहली बार, भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपने कर्मचारियों की भर्ती में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिये आरक्षण की शुरुआत की है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई के नेतृत्व में शुरू किया गया यह ऐतिहासिक कदम उच्चतम न्यायालय के आंतरिक प्रशासन को समानता और सामाजिक न्याय के सांविधानिक सिद्धांतों के साथ जोड़ता है, जिसे इसने अपने निर्णयों में लंबे समय तक कायम रखा है।
- यह निर्णय आर.के. सभरवाल मामले (1995) में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित पद-आधारित रोस्टर प्रणाली को लागू करने में दशकों के विलंब के पश्चात् आया है ।
- यह सुधार गैर-न्यायिक पदों पर लागू होता है और इसमें सीधी भर्ती और पदोन्नति दोनों सम्मिलित हैं, जिससे अन्य संस्थानों के लिये अनुकरणीय मिसाल कायम होती है।
इस आरक्षण नीति की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
मुख्य नीतिगत विवरण:
- आरक्षण का प्रतिशत : उक्त नीति के अंतर्गत अनुसूचित जातियों (SC) के कर्मचारियों के लिए 15% तथा अनुसूचित जनजातियों (ST) के कर्मचारियों के लिए 7.5% आरक्षण का प्रावधान किया गया है, जो प्रत्यक्ष नियुक्तियों (Direct Recruitment) एवं पदोन्नति (Promotions) - दोनों पर समान रूप से लागू होगा।
- कार्यान्वयन तिथि : मॉडल आरक्षण रोस्टर एवं रजिस्टर को 23 जून, 2025 से प्रभावी किया गया है।
- प्रभाव क्षेत्र: यह आरक्षण नीति न केवल नवीन नियुक्तियों अपितु विद्यमान कर्मचारियों के पदोन्नति के अवसरों पर भी लागू होती है।
- केंद्रीय मानदंडों के साथ संरेखण: आरक्षण प्रतिशत अनुसूचित समुदायों के लिये केंद्र सरकार द्वारा स्थापित आरक्षण ढाँचे को दर्शाता है।
नेतृत्व और ऐतिहासिक संदर्भ:
- मुख्य न्यायाधीश की भूमिका : यह ऐतिहासिक नीति मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई के कार्यकाल के दौरान शुरू की गई थी, जिन्हें अनुसूचित जाति समुदाय से दूसरे मुख्य न्यायाधीश होने का गौरव प्राप्त है।
- पहला प्रयास: यह पहल उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने आंतरिक स्टाफ की नियुक्ति प्रक्रिया में सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action) नीतियों को लागू करने का प्रथम प्रयास है, जो न्यायपालिका में सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर है।
- प्रशासनिक उत्पत्ति : यह नीति न्यायिक घोषणाओं के माध्यम से नहीं अपितु न्यायालय के प्रशासनिक विंग से निकलती है।
- प्रतीकात्मक महत्त्व : मुख्य न्यायाधीश गवई ने इस बात पर बल दिया कि "हमारे कार्यों में हमारे सिद्धांत प्रतिबिंबित होने चाहिये," तथा उन्होंने समानता के प्रति न्यायालय की प्रतिबद्धता पर प्रकाश डाला।
नीति के अंतर्गत शामिल पद:
- वरिष्ठ प्रशासनिक भूमिकाएँ : आरक्षित कोटा के साथ वरिष्ठ निजी सहायक पद।
- पुस्तकालय सेवाएँ : आरक्षण ढाँचे में शामिल सहायक लाइब्रेरियन पद।
- न्यायालय संचालन : जूनियर न्यायालय सहायक पद, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिये विशेष आवंटन।
- तकनीकी पद : जूनियर न्यायालय सहायक सह जूनियर प्रोग्रामर की भूमिकाएँ शामिल हैं।
- सहायक कर्मचारी : जूनियर कोर्ट अटेंडेंट एवं चैम्बर अटेंडेंट पदों पर भी आरक्षण लागू।
- व्यापक दायरा : यह नीति उच्चतम न्यायालय की संरचना में विभिन्न प्रशासनिक एवं तकनीकी पदों पर समान रूप से लागू होती है।
कार्यान्वयन तंत्र:
- मॉडल रोस्टर प्रणाली : एक व्यापक मॉडल आरक्षण रोस्टर और रजिस्टर विकसित किया गया है और उसे उच्चतम न्यायालय के आंतरिक नेटवर्क (Supnet) पर अपलोड कर दिया गया है।
- आधिकारिक दस्तावेज़ : इस नीति को उच्चतम न्यायालय रजिस्ट्रार द्वारा 24 जून, 2025 को जारी एक आधिकारिक परिपत्र के माध्यम से औपचारिक रूप दिया गया ।
- पारदर्शिता के उपाय : विभिन्न पदनाम स्तरों पर आरक्षण नीति को लागू करने के लिये स्पष्ट दिशानिर्देश प्रदान किये गए हैं।
- शिकायत तंत्र : कर्मचारी सदस्य रजिस्ट्रार (भर्ती) के माध्यम से रोस्टर में किसी भी गलती या अशुद्धि के संबंध में आपत्ति या अभ्यावेदन उठा सकते हैं।
प्रशासनिक ढाँचा:
- सक्षम प्राधिकारी के निदेश : नीति कार्यान्वयन उच्चतम न्यायालय प्रशासन के भीतर सक्षम प्राधिकारी के निर्देशों का पालन करता है।
- व्यवस्थित दृष्टिकोण : आरक्षण प्रणाली एक संरचित मॉडल रोस्टर दृष्टिकोण का अनुसरण करती है जो व्यवस्थित कार्यान्वयन सुनिश्चित करती है।
- कर्मचारी अधिसूचना : सभी संबंधित कार्मिकों को आधिकारिक चैनलों के माध्यम से नई नीति के बारे में औपचारिक रूप से सूचित कर दिया गया है।
- निगरानी प्रणाली : कार्यान्वयन प्रक्रिया के बारे में कर्मचारियों की चिंताओं और प्रश्नों के समाधान के लिये प्रावधान स्थापित किये गए हैं।
व्यापक निहितार्थ:
- न्यायिक नेतृत्व : अपने स्वयं के संस्थागत ढाँचे के भीतर विविधता और समावेशन सुनिश्चित करने के लिये उच्चतम न्यायालय के सक्रिय दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है।
- संवैधानिक संरेखण : यह न्यायालय की आंतरिक कार्यप्रणाली में समानता और सामाजिक न्याय के सांविधानिक सिद्धांतों को कायम रखने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- मिसाल कायम करना : अन्य न्यायिक संस्थाओं को समान सकारात्मक कार्रवाई नीतियां अपनाने के लिये प्रभावित कर सकता है।
- सामाजिक प्रभाव : यह भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था में अधिक समावेशी प्रतिनिधित्व सृजित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
नीति निगरानी और प्रतिक्रिया:
- त्रुटि सुधार तंत्र : आरक्षण रोस्टर में विसंगतियों या अशुद्धियों की रिपोर्ट करने के लिये स्टाफ सदस्यों के लिये स्थापित प्रक्रियाएँ।
- सतत समीक्षा : नीति कार्यान्वयन की सतत निगरानी और समायोजन के लिये रूपरेखा।
- हितधारक सहभागिता : प्रभावित स्टाफ सदस्यों की चिंताओं और अभ्यावेदनों के समाधान के लिये प्रावधान।
- गुणवत्ता आश्वासन : आरक्षण नीति का सटीक और निष्पक्ष कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिये अंतर्निहित तंत्र।