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आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223
04-Aug-2025
“भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन कथन के अभिलेखन के पश्चात्, यदि मजिस्ट्रेट यह संतुष्टि प्राप्त करता है कि कार्यवाही प्रारंभ करने हेतु कोई पर्याप्त आधार उपलब्ध है, तो ऐसी स्थिति में मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को नोटिस जारी किया जाएगा।” न्यायमूर्ति रजनीश कुमार |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति रजनीश कुमार निर्णय दिया है कि एक मजिस्ट्रेट परिवादकर्त्ता और साक्षियों के शपथ पत्र दर्ज किये बिना भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 223 के अधीन नोटिस जारी नहीं कर सकता है और अनुचित तरीके से जारी किये गए नोटिस को रद्द कर दिया।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राकेश कुमार चतुर्वेदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, अपर मुख्य सचिव, गृह विभाग, लखनऊ एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
राकेश कुमार चतुर्वेदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के माध्यम से अपर मुख्य सचिव गृह विभाग लखनऊ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- द्वितीय प्रत्यर्थी द्वारा राकेश कुमार चतुर्वेदी के विरुद्ध अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट-द्वितीय, लखनऊ के समक्ष परिवाद दर्ज कराया गया था।
- परिवादकर्त्ता या साक्षियों के शपथपूर्वक कथन दर्ज किये बिना, विद्वान मजिस्ट्रेट ने आवेदक (अभियुक्त) को 10 फरवरी 2025 को नोटिस जारी कर उसे न्यायालय में उपस्थित होने के लिये बुलाया।
- आवेदक को जारी किया गया नोटिस दोषपूर्ण और अधूरा था - इसे "रिक्त नोटिस" बताया गया था, जिसमें केवल आवेदक का नाम लिखा था, जबकि अन्य सुसंगत विवरण भरे नहीं गए थे।
- इस प्रक्रियागत अनियमितता से व्यथित होकर राकेश कुमार चतुर्वेदी ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 528 के अधीन उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर कर उक्त नोटिस को रद्द करने की मांग की।
- आवेदक के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि नोटिस भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 का उल्लंघन करते हुए जारी किया गया था, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि किसी अपराध का संज्ञान लेने से पहले, मजिस्ट्रेट को पहले परिवादकर्त्ता या साक्षियों की शपथ के अधीन जांच करनी चाहिये और उनके कथन अभिलिखित करने चाहिये।
- राज्य सरकार, अपर सरकारी अधिवक्ता के माध्यम से, प्रार्थना का विरोध करते हुए, विधिक स्थिति का खंडन नहीं कर सकी और अंततः इस बात पर सहमत हुई कि मामले को सांविधिक प्रक्रिया के उचित अनुपालन के लिये वापस विचारण न्यायालय में भेजा जा सकता है।
- उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य विवाद्यक यह था कि क्या मजिस्ट्रेट परिवादकर्त्ता या साक्षियों के शपथ पत्र अभिलिखित किये बिना भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन किसी अभियुक्त को नोटिस जारी कर सकता है, और क्या इस तरह के प्रक्रियात्मक उल्लंघन के लिये नोटिस को रद्द करना उचित है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 2023 की धारा 223(1) की जांच की, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट, परिवाद पर किसी अपराध का संज्ञान लेते समय, परिवादकर्त्ता और उपस्थित साक्षियों, यदि कोई हों, से शपथ पर परीक्षा करेगा और ऐसी परीक्षा के सार को लिखित रूप में प्रस्तुत करेगा।
- न्यायालय ने कहा कि धारा 223 के प्रथम उपबंध में यह उपबंधित है कि अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना मजिस्ट्रेट द्वारा किसी अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाएगा।
- न्यायालय ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 226 मजिस्ट्रेट को परिवाद को खारिज करने का अधिकार देती है, यदि परिवादकर्त्ता और साक्षियों के शपथ-पत्र पर दिये गए कथनों पर विचार करने के बाद उसे कार्यवाही के लिये पर्याप्त आधार नहीं मिलता है।
- न्यायालय ने अनुक्रमिक प्रक्रिया को स्पष्ट किया: भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 210 के अधीन परिवाद दर्ज करने के बाद, मजिस्ट्रेट को सबसे पहले परिवादकर्त्ता और साक्षियों की शपथ पर परीक्षा करनी होगी, ऐसी परीक्षा को लिखित रूप में लेखबद्ध करना होगा, और मजिस्ट्रेट सहित सभी पक्षकारों से उस पर हस्ताक्षर करवाना होगा।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कथन अभिलिखित करने और आगे बढ़ने के लिये पर्याप्त आधार विद्यमान हैं या नहीं, इस पर विचार करने के बाद ही मजिस्ट्रेट को संज्ञान लेने से पहले अभियुक्त को सुनवाई के लिये नोटिस जारी करना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि सुनवाई का अवसर महज औपचारिकता न हो।
- न्यायालय ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के बसनगौड़ा आर. पाटिल बनाम शिवानंद एस. पाटिल और केरल उच्च न्यायालय के सुबी एंटनी बनाम प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट मामले में दिये गए समन्वित पीठ के निर्णयों पर विश्वास किया, तथा इस बात की पुष्टि की कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन संज्ञान, शपथ पत्र पर कथन अभिलिखित करने के बाद होता है।
- न्यायालय ने पाया कि परिवादकर्त्ता और साक्षियों के कथन अभिलिखित किये बिना ही आवेदक को नोटिस जारी कर दिये गए, जो कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन विहित प्रक्रिया का उल्लंघन था, और विशेष रूप से नोटिस की दोषपूर्ण प्रकृति पर ध्यान दिया, क्योंकि यह एक खाली नोटिस था जिसमें केवल आवेदक का नाम उल्लेखित था।
- न्यायालय ने आवेदन स्वीकार कर लिया, 10 फरवरी, 2025 के आदेश को रद्द कर दिया, तथा विचारण न्यायालय को विधि के अनुसार आगे बढ़ने से पहले परिवादकर्त्ता और साक्षियों के कथन अभिलिखित करने का निदेश दिया, तथा निष्कर्ष निकाला कि अभियुक्तों को परेशान करने से बचने के लिये उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिये।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 क्या है?
- मूल आवश्यकता:
- जब मजिस्ट्रेट के समक्ष कोई परिवाद दर्ज किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट को अपराध का संज्ञान लेने से पहले परिवादकर्त्ता और शपथ के अधीन उपस्थित साक्षियों की परीक्षा करनी चाहिये।
- मजिस्ट्रेट को ऐसी परीक्षा का सार लिखित रूप में रखना चाहिये तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उस पर परिवादकर्त्ता, साक्षियों तथा स्वयं मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर हों।
- प्रमुख प्रक्रियात्मक सुरक्षा - पहला परंतुक:
- धारा 223(1) का पहला परंतु यह अधिदेश देता है कि अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना मजिस्ट्रेट द्वारा किसी अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाएगा, जो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत पूर्ववर्ती विधि से एक महत्त्वपूर्ण विचलन है।
- परीक्षा आवश्यकता के अपवाद - दूसरा परंतुक:
- धारा 223(1) का दूसरा परंतु यह है कि जब कोई परिवाद लिखित रूप में किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता और साक्षियों की परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, यदि परिवाद आधिकारिक क्षमता में कार्यरत किसी लोक सेवक या न्यायालय द्वारा किया जाता है।
- इसी प्रकार, यदि मजिस्ट्रेट धारा 212 के अंतर्गत मामले को जांच या विचारण के लिये किसी अन्य मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित करता है तो परीक्षा की आवश्यकता नहीं होती है।
- मामलों का स्थानांतरण - तीसरा परंतुक:
- धारा 223(1) का तीसरा परंतु यह स्पष्ट करता है कि यदि कोई मजिस्ट्रेट परिवादकर्त्ता और साक्षियों की परीक्षा करने के बाद धारा 212 के अधीन किसी मामले को दूसरे मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित करता है, तो प्राप्त करने वाले मजिस्ट्रेट को उनकी पुनः परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है।
- लोक सेवकों के लिये विशेष संरक्षण - उपधारा (2):
- धारा 223 की उपधारा (2) (क) लोक सेवकों के लिये अतिरिक्त सुरक्षा उपाय प्रदान करती है, जिसके अधीन यह आवश्यक है कि शासकीय कृत्यों या कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान किये गए अपराधों के लिये लोक सेवक के विरुद्ध परिवाद का संज्ञान लेने से पहले, लोक सेवक को घटना के बारे में दावा करने का अवसर दिया जाना चाहिये।
- धारा 223 की उपधारा (2)(ख) में यह उपबंध है कि संज्ञान लेने से पहले ऐसे लोक सेवक से वरिष्ठ अधिकारी से घटना के तथ्यों और परिस्थितियों से संबंधित रिपोर्ट प्राप्त की जानी चाहिये।
संदर्भित मामले
- प्रतीक अग्रवाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2024):
- न्यायालय ने विधिक सिद्धांत स्थापित किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन परिवादकर्त्ताओं और साक्षियों के शपथ पत्र अभिलिखित किये बिना अभियुक्त व्यक्तियों को नोटिस जारी नहीं किया जा सकता।
- बसनगौड़ा आर. पाटिल बनाम शिवानंद एस. पाटिल (2024):
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को स्पष्ट करते हुए कहा कि संज्ञान केवल शपथ पत्र दर्ज करने के बाद लिया जाता है, और परंतुक के अनुसार अभियुक्त को उसी समय सूचना जारी की जानी चाहिये।
- न्यायालय ने यह स्थापित किया कि सुनवाई का अवसर एक खाली औपचारिकता नहीं होनी चाहिये तथा इसमें परिवाद, शपथ पत्र और साक्षियों के कथन सम्मिलित होने चाहिये।
- सुबी एंटनी पुत्र स्वर्गीय पी.डी. एंटनी बनाम प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट (2025):
- केरल उच्च न्यायालय के निर्णय में कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्वचन का अनुसरण किया गया तथा दोहराया गया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन, अभियुक्त को सुनवाई का अवसर तभी दिया जाना चाहिये जब मजिस्ट्रेट द्वारा परिवादकर्त्ता और साक्षियों से शपथपूर्वक परीक्षा की गई हो।
आपराधिक कानून
उच्चतम न्यायालय ने ज़मानत की अपरंपरागत शर्तों को अपास्त किया
04-Aug-2025
अनिल कुमार बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य "यह शर्त अधिरोपित करना कि अपीलकर्त्ता प्रत्यर्थी की गरिमा और सम्मान बनाए रखेगा, जोखिम भरा है क्योंकि इससे आगे मुकदमेबाजी बढ़ सकती है।" न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और ए.जी. मसीह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और ए.जी. मसीह ने कहा कि जमानत की शर्तें, जो सांविधिक प्रावधानों से मेल नहीं खाती हैं, आगे मुकदमेबाजी को जन्म दे सकती हैं। साथ ही उन्होंने झारखंड उच्च न्यायालय के उस निर्णय को भी अपास्त कर दिया, जिसमें गिरफ्तारी से पहले जमानत की शर्त अधिरोपित की गई थी, जिसके अधीन अभियुक्त पति को अपनी पत्नी के साथ वैवाहिक अधिकारों को फिर से शुरू करने और उसे सम्मान और गरिमा के साथ बनाए रखने की आवश्यकता थी।
- उच्चतम न्यायालय ने अनिल कुमार बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
अनिल कुमार बनाम झारखंड राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता-पति अनिल कुमार पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-क (क्रूरता), 323 (स्वेच्छाया घोर उपहति कारित करना), 313 (स्त्री की सम्मति के बिना गर्भपात कारित करना), 506 (आपराधिक अभित्रास के लिये दण्ड), 307 (हत्या का प्रयत्न), 34 (सामान्य आशय) सहित कई प्रावधानों के अधीन मामला दर्ज किया गया था।
- उन पर दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के अधीन भी आरोप लगाए गए ।
- यह मामला घरेलू हिंसा से संबंधित था, जिसमें पति-पत्नी के बीच मतभेद हो गए थे और वे कुछ समय से पृथक् रह रहे थे।
- अपीलकर्त्ताने झारखंड उच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत याचिका दायर कर गिरफ्तारी पूर्व जमानत की मांग की।
- उच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी-पूर्व जमानत देने पर सहमति व्यक्त की, किंतु एक अपरंपरागत शर्त अधिरोपित कि अपीलकर्त्ता अपनी पत्नी के साथ वैवाहिक अधिकारों को फिर से शुरू करेगा और उसे सम्मान और गरिमा के साथ बनाए रखेगा
- इस स्थिति से व्यथित होकर, जिससे आगे मुकदमेबाजी बढ़ सकती थी, अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ने ऐसी शर्त अधिरोपित करने में गलती की है जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 438(2) से मेल नहीं खाती।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "ऐसा प्रतीत होता है कि पति-पत्नी एक समय पर पृथक् हो गए थे और कुछ समय तक पृथक् रहे थे। यह शर्त अधिरोपित करना कि अपीलकर्त्ता प्रत्यर्थी संख्या 2 को गरिमा और सम्मान के साथ रखेगा, जोखिम भरा है क्योंकि इससे आगे मुकदमेबाजी बढ़ सकती है।"
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि "उच्च न्यायालय को अपीलकर्त्ता की गिरफ्तारी-पूर्व जमानत की प्रार्थना पर पूरी तरह से उसके गुण-दोष के आधार पर विचार करना चाहिये था, न कि ऐसी शर्त अधिरोपित चाहिये थी जो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438(2) से संबद्ध नहीं है।"
- उच्चतम न्यायालय ने ऐसी शर्तों से उत्पन्न होने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि "यदि इस आधार पर कि ऐसी शर्त का पालन नहीं किया गया है, जमानत रद्द करने का आवेदन बाद में दायर किया जाता है, तो अपीलकर्त्ता की ओर से इसका विरोध होना तय है और इससे उच्च न्यायालय को और अधिक कठिनाई हो सकती है।"
- न्यायालय ने कहा कि "उच्च न्यायालय गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के लिये आवेदन में तथ्य के विवादित प्रश्न पर निर्णय लेने में स्वयं को अक्षम पा सकता है।"
- तदनुसार, अपील को स्वीकार कर लिया गया और गिरफ्तारी-पूर्व जमानत मामले को नए सिरे से विचार के लिये उच्च न्यायालय की केस फाइल में वापस भेज दिया गया।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 क्या है?
बारे में:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 में "गिरफ्तारी की आशंका करने वाले व्यक्ति की जमानत स्वीकृत करने के लिये निदेश" का उपबंध है , जिसे सामान्यतः अग्रिम जमानत या गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के रूप में जाना जाता है।
- यह उपबंध किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी की आशंका में जमानत मांगने की अनुमति देता है, जब उसके पास यह विश्वास करने का कारण हो कि उसे अजमानतीय अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है।
- यह धारा उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय को यह निदेश देने का अधिकार देती है कि ऐसी गिरफ्तारी की स्थिति में व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जाएगा।
- धारा 438(1) के अधीन न्यायालयों को निम्नलिखित की जांच करनी होती है: अपराध की गंभीरता, पूर्ववृत्त आपराधिक रिकॉर्ड, भागने का जोखिम, और क्या परिवाद परेशान करने के लिये मिथ्या है। धारा 438(1क) और (1ख) के अधीन लोक अभियोजक और पुलिस अधीक्षक को 7 दिन की सूचना देना अनिवार्य है, लोक अभियोजक को सुनवाई का मौका मिलता है, और आवश्यकता पड़ने पर अभियुक्त को अंतिम सुनवाई में उपस्थित होना होता है।
- धारा 438(3) यह सुनिश्चित करती है कि यदि बाद में गिरफ्तार किया गया और जमानत के लिये तैयार है, तो उसे रिहा किया जाना चाहिये, मजिस्ट्रेट केवल जमानतीय वारण्ट जारी करेगा।
- धारा 438(4) सामूहिक बलात्संग, 12 वर्ष से कम आयु के बालकों के साथ बलात्संग, अवयस्कों के साथ सामूहिक बलात्संग के लिये अग्रिम जमानत पर रोक लगाती है।
धारा 438(2) - अग्रिम जमानत की शर्तें:
- धारा 438(2) न्यायालय को अग्रिम जमानत देते समय शर्तें अधिरोपित करने का अधिकार देती है, जैसा वह ठीक समझे, जिनमें सम्मिलित हैं:
- शर्त (i) : वह व्यक्ति पुलिस अधिकारी द्वारा पूछे जाने वाले परिप्रश्नों का उत्तर देने के लिये जैसे और जब अपेक्षित हो, उपलब्ध होगा।
- शर्त (ii) : वह व्यक्ति उस मामले के तथ्यों से अवगत किसी व्यक्ति को न्यायालय या किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष ऐसे तथ्यों को प्रकट न करने के लिये मनाने के वास्ते प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उसे कोई उत्प्रेरणा, धमकी या वचन नहीं देगा।
- शर्त (iii) : वह व्यक्ति न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना भारत नहीं छोड़ेगा।
- ऐसी अन्य शर्ते जिसे न्यायालय न्याय के हित में लागू करना उचित समझे।
- शर्तें उचित होनी चाहिये तथा सांविधिक प्रावधानों के अनुरूप होनी चाहिये तथा इससे आगे कोई जटिलता या मुकदमेबाजी उत्पन्न नहीं होनी चाहिये।
- न्यायालय मनमानी या अपरंपरागत शर्तें अधिरोपित नहीं कर सकते जो आपराधिक विधि के दायरे से बाहर हों और सिविल या वैवाहिक विवादों में बाधा उत्पन्न करें।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के अंतर्गत प्रतिस्थापन:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 482 ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 को प्रतिस्थापित कर दिया है, जो अग्रिम जमानत के लिये समान उपबंध उपबंधित करती है।
- नये उपबंध में गिरफ्तारी-पूर्व जमानत देते समय लागू की जा सकने वाली शर्तों के लिये समान रूपरेखा बरकरार रखी गई है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482(2) पूर्व दण्ड प्रक्रिया संहिता प्रावधान के समान ही शर्तें उपबंधित करती है, जिसमें इस बात पर बल दिया गया है कि शर्तें उचित और सांविधिक सीमाओं के भीतर होनी चाहिये।
पारिवारिक कानून
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2)
04-Aug-2025
मन्नी देवी बनाम रमा देवी एवं अन्य “आदिवासी पुत्रियों को समान उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करना अनुचित है और केंद्र से सांविधानिक अधिकारों और कमला नेटी (मृत) बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी (2023) और अन्य में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के मद्देनजर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2 (2) में संशोधन करने का आग्रह किया।” न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड ने कहा कि अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार से वंचित करना अनुचित है और उन्होंने केंद्र सरकार से आदिवासियों के बीच लिंग समता सुनिश्चित करने के लिये हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) में संशोधन करने का आग्रह किया।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने मन्नी देवी बनाम रमा देवी एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
मन्नी देवी बनाम रमा देवी एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- मन्नी देवी अपने पिता पंचू की इकलौती संतान थीं, उनका कोई भाई नहीं था। उनके पिता ने 12 मार्च 2018 को प्रतिवादी संख्या 2 के पक्ष में पैतृक भूमि के संबंध में एक दान विलेख निष्पादित किया।
- याचिकाकर्त्ता ने अतिरिक्त जिला न्यायाधीश संख्या 11, जयपुर मेट्रो-I के समक्ष सिविल वाद दायर कर दान विलेख की वैधता को चुनौती दी।
- प्रत्यर्थी ने तकनीकी आधार पर वाद को खारिज करने की मांग करते हुए सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि खातेदारी अधिकारों की पूर्व घोषणा के बिना, दान विलेख को रद्द करने के लिये सिविल वाद पोषणीय नहीं था।
- सिविल न्यायालय ने 27 मार्च 2023 के आदेश के अधीन प्रतिवादी के आवेदन को स्वीकार कर लिया, तथा याचिकाकर्त्ता को सक्षम राजस्व न्यायालय से अपने खातेदारी अधिकारों की घोषणा करने की स्वतंत्रता प्रदान की।
- सिविल न्यायालय के निदेश के पश्चात् याचिकाकर्त्ता ने चाकसू के उपखण्ड अधिकारी (SDO) के समक्ष पैतृक संपत्ति में अपने अधिकारों की घोषणा के लिये वाद संस्थित किया।
- वाद के लंबित रहने के दौरान, प्रत्यार्थियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन एक आवेदन प्रस्तुत कर वादपत्र को नामंजूर करने की मांग की।
- उन्होंने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) का हवाला देते हुए तर्क दिया कि अधिनियम के उपबंध अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों पर तब तक लागू नहीं होते जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा आधिकारिक राजपत्र में विशेष रूप से अधिसूचित न किया जाए।
- उपखण्ड अधिकारी (SDO) ने 24 जुलाई 2023 के आदेश के अधीन प्रत्यार्थियों के आवेदन को खारिज कर दिया, जिससे याचिकाकर्त्ता के वाद को आगे बढ़ने की अनुमति मिल गई।
- उपखण्ड अधिकारी (SDO) के आदेश से व्यथित होकर प्रत्यार्थियों ने राजस्थान काश्तकारी अधिनियम, 1955 की धारा 230 के अधीन राजस्व बोर्ड के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की।
- राजस्व मंडल ने 9 जून 2025 के आदेश द्वारा पुनरीक्षण याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि चूँकि याचिकाकर्त्ता अनुसूचित जनजाति (मीणा समुदाय) से संबंधित है और उसका कोई भाई नहीं है, इसलिये उसे पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार का कोई अधिकार नहीं है। परिणामस्वरूप, मंडल ने प्रत्यार्थियों के सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन आवेदन स्वीकार कर लिया और याचिकाकर्त्ता के वादपत्र को नामंजूर कर दिया।
- मुख्य विवाद इस बात से संबंधित था कि क्या अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियाँ अपने पिता की पैतृक संपत्ति में समान उत्तराधिकार के अधिकार की हकदार हैं, विशेष रूप से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) के अधीन बहिष्करण प्रावधान के प्रकाश में।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) “महिला आदिवासियों के अपने पिता की संपत्ति में अपना अधिकार जताने के रास्ते में बाधा उत्पन्न करती है” तथा अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियों के विरुद्ध अनुचित विभेद उत्पन्न करती है।
- न्यायालय ने कहा कि जब गैर-अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियों अपने पिता की संपत्ति में समान अंश का अधिकार रखती है, तो अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियों को समान अधिकार से वंचित करना भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है, जो जाति के आधार पर विभेद को रोकता है।
- न्यायालय ने हाल ही में कमला नेटी (मृत) बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी (2023), तीर्थ कुमार बनाम दादू राम (2024), और राम चरण बनाम सुखराम (2025) में उच्चतम न्यायालय के निर्णयों पर व्यापक रूप से विश्वास किया, जिसमें कहा गया था कि महिला उत्तराधिकारियों को संपत्ति में अधिकार देने से इंकार करने से लिंग विभाजन और विभेदन बढ़ता है।
- न्यायालय ने कहा कि "महिला आदिवासी, बिना वसीयत के उत्तराधिकार के मामले में पुरुष आदिवासी के साथ समता की हकदार है" और "आजादी के सात दशक से अधिक समय बाद भी आदिवासी पुत्रियों को समान अधिकार से वंचित करना स्पष्ट रूप से अनुचित है।"
- न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 समता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गैर-भेदभाव के मौलिक अधिकारों को प्रत्याभूत करता हैं, जिनका वर्तमान में विधिक ढाँचे द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है।
- न्यायालय ने महिला सशक्तिकरण आंदोलनों में वैश्विक वृद्धि पर ध्यान दिया और इस बात पर बल दिया कि 21वीं सदी में लिंग समता पर चर्चा सांविधानिक समर्थन के साथ "मात्र बयानबाजी से आगे बढ़कर एक गतिशील आंदोलन" बन गई है।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि धारा 2(2) को कुछ निश्चित उद्देश्यों के साथ अधिनियमित किया गया था, किंतु आदिवासी महिलाओं को उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करने में इसका प्रयोग समता और गैर-भेदभाव के सांविधानिक अधिदेश के विपरीत है।
- न्यायालय ने कहा कि केंद्र सरकार के लिये हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) पर पुनर्विचार करना तथा अनुसूचित जनजाति समुदाय की महिला सदस्यों के अधिकारों की रक्षा और संवर्धन के लिये संशोधनों पर विचार करना "सही और उचित समय" है।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) और भारतीय संविधान का अनुच्छेद 366(25) क्या है?
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) अनुसूचित जनजातियों के सभी सदस्यों को संपूर्ण अधिनियम के दायरे से बाहर रखती है, जिससे उत्तराधिकार के अधिकारों पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाता है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 366(25) "अनुसूचित जनजातियों" की आधिकारिक परिभाषा विशिष्ट जनजातियों, जनजातीय समुदायों या ऐसे समुदायों के भीतर समूहों के रूप में प्रदान करता है जिन्हें अनुच्छेद 342 के अधीन औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त है।
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 366(25) के अधीन परिभाषित अनुसूचित जनजाति के किसी भी सदस्य पर लागू नहीं होगा, जो दोनों प्रावधानों को सीधे जोड़ता है।
- केवल केंद्र सरकार के पास ही आधिकारिक राजपत्र में आधिकारिक अधिसूचना के माध्यम से अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू करने का विशेष अधिकार है।
- अनुच्छेद 366(25) के अधीन जनजातीय दर्जा स्वतः नहीं है, अपितु अनुच्छेद 342 के अधीन स्थापित आधिकारिक प्रक्रिया के माध्यम से औपचारिक सांविधानिक मान्यता की आवश्यकता है, जो राष्ट्रपति को अनुसूचित जनजातियों को अधिसूचित करने का अधिकार देता है।
- विशिष्ट सरकारी अधिसूचना के बिना, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम सभी जनजातीय समुदायों पर पूरी तरह से लागू नहीं होता है, जिससे उन्हें गैर-जनजातीय नागरिकों को उपलब्ध उत्तराधिकार अधिकारों का दावा करने से रोका जाता है।
- धारा 2(2) के अधीन अपवर्जन सभी जनजातीय सदस्यों पर लागू होता है, चाहे वे हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करते हों या अपने दैनिक जीवन में हिंदू प्रथाओं को अपनाते हों।
- अनुच्छेद 366(25) आंतरिक विभाजन के कारण अपवर्जन को रोकने के लिये संपूर्ण जनजातियों, जनजातीय समुदायों और बड़े जनजातीय समुदायों के भीतर विशिष्ट भागों या समूहों को सम्मिलित करके व्यापक व्याप्ति (coverage) सुनिश्चित करता है।
- यह सांविधानिक ढाँचा एक पूर्ण विधिक बाधा उत्पन्न करता है जो आदिवासी महिलाओं को समान उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करता है, क्योंकि केवल अनुच्छेद 342 के अधीन औपचारिक रूप से अधिसूचित समुदाय ही इस अपवर्जन प्रावधान के अधीन हैं।
- धारा 2(2) को अनुच्छेद 366(25) के साथ एकीकृत करने से यह स्थापित होता है कि उत्तराधिकार के अधिकारों से अपवर्जन विशेष रूप से संविधान के अधीन अनुसूचित जनजातियों के रूप में आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त सभी समुदायों पर लागू होता है, तथा यह पूर्ण निषेध के रूप में कार्य करता है, जब तक कि केंद्र सरकार उन्हें सम्मिलित करने के लिये अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग नहीं करती।