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आपराधिक कानून
जमानत रद्द करने के आधार
06-Oct-2025
ज़फीर आलम बनाम दिल्ली राज्य एन.सी.टी. और अन्य "यह तर्क कि अभियुक्त या उसके सहयोगियों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर वीडियो और स्टेटस संदेश अपलोड करके जमानत पर अपनी रिहाई का जश्न मनाया, परिवादकर्त्ता को किसी विशेष धमकी या भय के बिना जमानत रद्द करने का आधार नहीं हो सकता है।" न्यायमूर्ति रविंदर डुडेजा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति रविंदर दुडेजा ने यह निर्णय दिया कि केवल सोशल मीडिया पर जमानत की खुशी मनाना जमानत रद्द करने का आधार नहीं हो सकता, जब तक कि ऐसा उत्सव परिवादकर्त्ता को विशिष्ट धमकी या भयभीत करने के कृत्य से संबंधित न हो। न्यायालय ने गृह-अतिचार के एक मामले में जमानत रद्द करने से इंकार करते हुए उक्त सिद्धांत प्रतिपादित किया।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने ज़फीर आलम बनाम दिल्ली राज्य एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
ज़फीर आलम बनाम दिल्ली राज्य एन.सी.टी. और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- परिवादकर्त्ता जफीर आलम ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 483(3) के अधीन एक याचिका दायर की, जिसमें जमानत आवेदन संख्या 891/2025 में सेशन न्यायालय द्वारा अभियुक्त मनीष को दी गई जमानत को रद्द करने की मांग की गई।
- यह मामला भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 436, 457, 380 और 34 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये पुलिस थाने नरेला औद्योगिक क्षेत्र में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 193/2025 से संबंधित है।
- सेशन न्यायालय ने यह देखते हुए कि अन्वेषण पूर्ण हो चुका है और आरोप पत्र दाखिल हो चुका है, अभियुक्त को जमानत दे दी थी। अभियुक्त 13 मार्च 2025 से अभिरक्षा में था। जमानत कुछ शर्तों के अधीन दी गई थी, जिनमें यह भी सम्मिलित था कि अभियुक्त अभियोजन पक्ष के साक्षियों को धमकाएगा नहीं, सबूतों से छेड़छाड़ नहीं करेगा, या भविष्य में किसी भी आपराधिक क्रियाकलाप में सम्मिलित नहीं होगा।
- परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि अभियुक्त ने जमानत की शर्तों का उल्लंघन किया। यह भी कहा गया कि रिहा होने के बाद, अभियुक्त और उसके सह-अभियुक्तों ने सोशल मीडिया पर हथियारों के साथ तस्वीरें पोस्ट करके परिवादकर्त्ता को धमकियाँ देकर कॉलोनी में भय का माहौल उत्पन्न किया। यह भी अभिकथित किया गया कि एक सह-अभियुक्त गौरव को 12 जून 2025 को परिवादकर्त्ता के घर के सामने देखा गया था।
- परिवादकर्त्ता ने दलील दी कि अभियुक्त उसे और उसके परिवार को निरंतर चाकुओं और अन्य घातक हथियारों से धमकाते रहे, जिससे उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई। यह भी कहा गया कि अभियुक्त का परिवादकर्त्ता के प्रति प्रबल हेतुक और व्यक्तिगत दुश्मनी थी, क्योंकि अभियुक्त के एक करीबी सहयोगी की एक घटना में मृत्यु हो गई थी, जिसमें अभियुक्त के साथियों ने परिवादकर्त्ता के पुत्र और उसके दोस्तों पर हमला किया था। इसी दुश्मनी की पृष्ठभूमि को अभियुक्त द्वारा परिवादकर्त्ता और उसके परिवार से बदला लेने का कारण बताया गया।
- परिवादकर्त्ता ने आगे तर्क दिया कि अभियुक्त और उसके गुर्गों ने जमानत पर रिहाई का जश्न सोशल मीडिया पर वीडियो और स्टेटस संदेश अपलोड करके मनाया, घातक हथियारों का प्रदर्शन किया और विधि के शासन की खुलेआम अवहेलना करते हुए परिवादकर्त्ता को धमकियाँ दीं।
- राज्य सरकार ने आवेदन का विरोध करते हुए दलील दी कि परिवादकर्त्ता ने न तो सेशन न्यायालय में जमानत रद्द करने के लिये कोई आवेदन दायर किया और न ही जमानत मिलने के बाद धमकी या आपराधिक धमकी का कोई परिवाद दर्ज कराया। इसलिये, यह तर्क दिया गया कि आरोप निराधार हैं।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि किसी अजमानतीय मामले में प्रारंभिक प्रक्रम में जमानत की अस्वीकृति और पहले से दी गई जमानत को रद्द करने पर अलग-अलग आधार पर विचार और कार्रवाई की जानी चाहिये। पहले से दी गई जमानत को रद्द करने का निदेश देने वाले आदेश के लिये बहुत ही ठोस और प्रबल परिस्थितियाँ आवश्यक हैं।
- न्यायालय ने कहा कि सामान्यतः, जमानत रद्द करने के आधार न्याय प्रशासन की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना या हस्तक्षेप करने का प्रयत्न करना, न्याय की प्रक्रिया से बचना या बचने का प्रयत्न करना, या किसी भी तरीके से अभियुक्त को दी गई रियायत का दुरुपयोग करना है।
- न्यायालय ने माना कि यह तर्क कि अभियुक्त या उसके सहयोगियों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर वीडियो और स्टेटस संदेश अपलोड करके जमानत पर अपनी रिहाई का जश्न मनाया, परिवादकर्त्ता को किसी विशेष धमकी या भय के बिना जमानत रद्द करने का आधार नहीं हो सकता।
- न्यायालय ने पाया कि सोशल मीडिया पर पोस्ट किये गए स्क्रीनशॉट रिकॉर्ड में दर्ज किये गए थे, लेकिन इन स्क्रीनशॉट से यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या ये अभियुक्त द्वारा परिवादकर्त्ता को धमकाने के उद्देश्य से पोस्ट किये गए थे। न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये अभियुक्त की जमानत रद्द नहीं की जा सकती क्योंकि सह-अभियुक्तों में से एक को 12 जून 2025 को परिवादकर्त्ता के आवास के सामने देखा गया था।
- न्यायालय ने पाया कि अभियुक्तों द्वारा दी गई किसी भी धमकी के संबंध में पुलिस में कोई परिवाद नहीं किया गया था। न्यायालय ने कहा कि पुलिस में कोई परिवाद न किये जाने के कारण, धमकी के आरोप सिद्ध नहीं होते।
- न्यायालय ने माना कि अभियुक्त द्वारा दी गई धमकियों के अभिकथनों को प्रमाणित करने के लिये अभिलेख में कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अतः न्यायालय को अभियुक्त की जमानत रद्द करने का कोई उचित कारण नहीं मिला।
- परिणामस्वरूप, न्यायालय ने जमानत रद्द करने की याचिका को खारिज कर दिया, क्योंकि इसमें कोई दम नहीं पाया गया।
जमानत रद्द करने के लिये दिशानिर्देश क्या हैं?
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 480(5) और धारा 483(3) के अधीन जमानत रद्द करने की शक्ति का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिये, क्योंकि रद्दीकरण व्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।
- प्रारंभिक प्रक्रम में जमानत रद्द करना जमानत अस्वीकार करने से भिन्न होता है। पहले से दी गई जमानत रद्द करने के लिये बहुत ही ठोस और प्रबल परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं।
- रद्द करने के सामान्य आधारों में मोटे तौर पर न्याय प्रशासन की उचित प्रक्रिया में हस्तक्षेप, न्याय की उचित प्रक्रिया से बचना, या अभियुक्त को दी गई रियायत का दुरुपयोग सम्मिलित है।
- जमानत रद्द की जा सकती है यदि अभियुक्त दी गई स्वतंत्रता का दुरुपयोग करता है, अन्वेषण में बाधा डालता है, या अन्वेषण की प्रगति में बाधा डालता है।
- यदि अभियुक्त साक्ष्यों से छेड़छाड़ करता है, साक्षियों के काम में हस्तक्षेप करता है, या अभियोजन पक्ष के साक्षियों को धमकाता या डराता है, तो जमानत रद्द करना उचित है।
- अभियुक्त द्वारा भागने, न्याय से बचने, देश से भागने या न्यायालय की अधिकारिता से फरार होने का प्रयत्न, जमानत रद्द करने का आधार बनता है।
- यदि अभियुक्त जमानत पर रिहा होने के बाद भी इसी प्रकार की अवैध क्रियाकलापों में संलिप्त रहता है या आपराधिक क्रियाकलापों में संलिप्त रहता है, तो उसकी जमानत रद्द की जा सकती है।
- उचित प्रतिफल के बिना या मूल या प्रक्रियात्मक विधि के उल्लंघन में दी गई जमानत को रद्द किया जा सकता है, जहाँ आदेश पूरी तरह से तर्कहीन, अनुचित या विकृत हो।
- सेशन न्यायालय और उच्च न्यायालय को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483(3) के अधीन जमानत रद्द करने का समवर्ती अधिकारिता प्राप्त है।
निर्णय विधि
- एस.एस. म्हेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2010) के मामले में,
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि जमानत के मामलों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक हितों के बीच नाजुक संतुलन बनाना महत्त्वपूर्ण है।
- यह देखा गया कि प्रत्येक आपराधिक अपराध को समाज के विरुद्ध अपराध माना जाता है, और इसलिये जमानत समाज के लिये महत्त्वपूर्ण महत्त्व रखती है।
- सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2022) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि मानक जमानत देना है, और जमानत अस्वीकार करना एक अपवाद है।।
- महिपाल बनाम राजेश कुमार उर्फ़ पोलिया और अन्य (2019) के मामले में
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि जमानत का निर्णय पूरी तरह से तर्कहीन और अनुचित है, तो दी गई जमानत को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 439(2) का प्रयोग किया जा सकता है।
- यह माना गया कि जमानत रद्द करने की शक्ति का प्रयोग मामले के गुण-दोष, स्वतंत्रता के दुरुपयोग या अन्य परिस्थितियों के आधार पर किया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने रेखांकित किया कि जमानत रद्द करने के प्रमुख कारकों में अभियुक्त का समान अवैध क्रियाकलापों में संलिप्त होना, अन्वेषण की प्रगति में बाधा डालना, या देश से भागने का प्रयत्न करना सम्मिलित है।
- रूबीना ज़हीर अंसारी बनाम शरीफ अल्ताफ फर्नीचरवाला (2014) के मामले में,
- उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि सेशन न्यायालय के बजाय सीधे उच्चतम न्यायालय में जमानत रद्द करने की याचिका प्रस्तुत करना न्यायिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं होगा।
- यह माना गया कि पीड़ित पक्ष को निचले न्यायालयों द्वारा दी गई जमानत को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालयों में जाने का अधिकार है।
आपराधिक कानून
पिता द्वारा संदाय किये गए अतिरिक्त भरण-पोषण के लिये कोई वापसी नहीं
06-Oct-2025
ऋषिता कपूर और अन्य बनाम विजय कपूर और अन्य "न्यायालय ने निर्णय दिया कि पिता संतान के वयस्क होने के पश्चात् उसे दिये गए भरण-पोषण की राशि वापस नहीं मांग सकता, क्योंकि उनकी शिक्षा के लिये उन्हें सहायता प्रदान करना उसका नैतिक कर्त्तव्य है।" न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर और सुशील कुकरेजा |
स्रोत: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर और सुशील कुकरेजा की पीठ ने ऋषिता कपूर एवं अन्य बनाम विजय कपूर एवं अन्य (2025) मामले में वयस्क संतानों के लिये भरण-पोषण की राशि बढ़ाने से संबंधित आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को आंशिक रूप से अनुमति देते हुए स्पष्ट किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण केवल तब तक उपलब्ध है जब तक बालक वयस्क नहीं हो जाता, शारीरिक या मानसिक असामान्यता के कारण असमर्थता के मामलों को छोड़कर।
- महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने कहा कि पिता अपनी संतान के वयस्क होने के पश्चात् उन्हें दिये गए भरण-पोषण की राशि को वापस नहीं मांग सकते, क्योंकि उनकी शिक्षा का खर्च उठाना उनका नैतिक दायित्त्व है।
ऋषिता कपूर एवं अन्य बनाम विजय कपूर एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता प्रत्यर्थी विजय कपूर और प्रोफार्मा प्रत्यर्थी नीलम कुमारी के बच्चे (संतान) थे, जिनका जन्म 01.08.1998 (पुत्री ऋषिता) और 17.03.2002 (पुत्र सुचेत) को हुआ था, जो क्रमशः 01.08.2016 और 17.03.2020 को वयस्क हुए।
- पुत्री हिमाचल प्रदेश कृषि विश्व विद्यालय, पालमपुर से Ph.D कर रही थी, जबकि पुत्र गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर से बी.टेक कर रहा था।
- प्रारंभ में, 2012 में, प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, सरकाघाट ने माता और प्रत्येक संतान को 2,000/- रुपए प्रति माह भरण-पोषण देने का आदेश दिया था।
- 2015 में अपर सेशन न्यायाधीश ने भरण-पोषण राशि 2,000 रुपए से बढ़ाकर 3,000 रुपए प्रति माह कर दी।
- वर्ष 2017 में लोक अदालत के माध्यम से भरण-पोषण राशि को बढ़ाकर 4,000 रुपए प्रति माह कर दिया गया।
- 02.07.2018 को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 127 के अधीन एक आवेदन दायर किया गया जिसमें भरण-पोषण की राशि में और वृद्धि की मांग की गई।
- कुटुंब न्यायालय ने माता के भरण-पोषण की राशि 4,000 रुपए से बढ़ाकर 8,000 रुपए प्रति माह कर दी, किंतु संतान के दावे को इस आधार पर खारिज कर दिया कि वे वयस्क हो गए हैं।
- बच्चों (संतान) ने अपनी वृद्धि संबंधी अर्जी खारिज किये जाने को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144) के उपबंधों की जांच की, जो अवयस्क संतान और वयस्क संतान को भरण-पोषण का अधिकार तभी प्रदान करते हैं, जब वे शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण वे अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हों।
- न्यायालय ने पाया कि 02.07.2018 को वृद्धि आवेदन दायर करने के समय, पुत्री 01.08.2016 को पहले ही वयस्क हो चुकी थी , जबकि पुत्र 17.03.2020 तक अवयस्क था।
- न्यायालय ने माना कि कुटुंब न्यायालय ने पुत्र के दावे को 17.03.2020 को वयस्क होने तक अनुमति देने के बजाय पूरी तरह से नामंजूर करके त्रुटि की।
- न्यायालय ने वयस्क पुत्री को भरण-पोषण देने से इंकार करने में कोई कमी नहीं पाई, क्योंकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125, हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) के विपरीत, वयस्क पुत्रियों को, भले ही वे अविवाहित हों, भरण-पोषण देने का उपबंध नहीं करती है।
- न्यायालय ने निदेश दिया कि पुत्र 02.07.2018 से 17.03.2020 तक 8,000/- रुपए प्रति माह के बढ़े हुए भरण-पोषण का हकदार है और यदि संदाय नहीं किया जाता है तो 15.10.2025 तक बकाया संदाय का आदेश दिया।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि पिता ने अपने संतान के वयस्क होने के बाद भी उन्हें स्वेच्छया से भरण-पोषण राशि का संदाय किया है, तो भी वह ऐसी राशि को वसूलने या समायोजित करने का हकदार नहीं होगा, क्योंकि पिता के रूप में बच्चों की शिक्षा पूरी करने में सहायता करना उसका नैतिक दायित्त्व है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वयस्क होने के बाद दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण के दावों को खारिज करने से संतान को विधि के अन्य प्रावधानों के अधीन भरण-पोषण या अपने पिता की संपत्ति में अधिकार का दावा करने से नहीं रोका जाएगा।
विभिन्न विधियों के अधीन भरण-पोषण के अधिकार
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144): अवयस्क संतान और वयस्क संतान को केवल तभी भरण-पोषण का उपबंध करती है जब वे शारीरिक या मानसिक रूप से असामान्य हों। वयस्क अविवाहित पुत्रियों को भरण-पोषण का उपबंध नहीं है।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 26: वैवाहिक कार्यवाही के दौरान और उसके बाद अवयस्क संतान की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा से संबंधित है, किंतु इसमें केवल अवयस्क संतान ही सम्मिलित हैं।
- हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(2) में उपबंध है कि धर्मज या अधर्मज संतान, जब तक संतान अवयस्क है, माता-पिता से भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं।
- हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3): यह उपबंध अविवाहित पुत्री, जो अपनी कमाई या संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, का भरण-पोषण करने का दायित्त्व प्रदान करता है, चाहे उसकी आयु कुछ भी हो।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144 क्या है?
बारे में:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144 एक सामाजिक न्याय उपबंध है जिसका उद्देश्य उपेक्षित पति/पत्नी और संतान की विपन्नता और आर्थिक तंगी को रोकना है। यह प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे व्यक्ति की पत्नी, धर्मज या अधर्मज संतान, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, को मासिक भरण-पोषण, अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही व्यय प्रदान करने का अधिकार देता है, जिसके पास पर्याप्त साधन होते हुए भी वह ऐसा करने से इंकार करता है या उपेक्षा करता है।
प्रमुख सांविधिक विशेषताएँ:
- धारा 144(1): मजिस्ट्रेट को पत्नी और संतान को मासिक भरण-पोषण देने का आदेश देने का अधिकार देती है।
- धारा 144(1) का दूसरा परंतुक: मजिस्ट्रेट को कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अंतरिम भरण-पोषण और व्यय प्रदान करने की अनुमति देता है।
- धारा 144(1) का तीसरा परंतुक: निदेश देता है कि अंतरिम भरण-पोषण आवेदनों का निपटारा आदर्श रूप से नोटिस की तामील की तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाना चाहिये।
- धारा 144(2): भरण-पोषण आवेदन या आदेश की तिथि से देय हो सकता है, जैसा मजिस्ट्रेट उचित समझे।
- धारा 144(3): भरण-पोषण का संदाय न करने पर वारण्ट कार्यवाही और एक मास तक कारावास हो सकता है।
- धारा 144(4): जारता, पर्याप्त हेतुक के बिना पति के साथ रहने से इंकार, या पृथक् रहने की आपसी सहमति के मामलों में पत्नी को भरण-पोषण प्राप्त करने से अयोग्य घोषित करता है।
- धारा 145(2) के अधीन आगे की प्रक्रियागत स्पष्टता प्रदान की गई है, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि साक्ष्य प्रतिवादी या उनके अधिवक्ता की उपस्थिति में दर्ज किया जाना चाहिये, जिसमें एकपक्षीय कार्यवाही का उपबंध है और तीन मास के भीतर पर्याप्त हेतुक बताने पर ऐसे आदेशों को रद्द किया जा सकता है।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 33 नियम 3
06-Oct-2025
सोसाइटी डेस प्रोड्यूट्स नेस्ले एस.ए. एंड ए.एन.आर. बनाम मेसर्स श्री शंखेश्वर यूटेंसिल्स एंड अप्लायंसेज प्राइवेट लिमिटेड "वाद में प्रतिवादी, शंकेश्वर यूटेंसिल्स एंड अप्लायंसेज प्राइवेट लिमिटेड ने वचन दिया कि वह "मैगीसन" ट्रेडमार्क या नेस्ले के ट्रेडमार्क "मैगी" के समान किसी अन्य व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) के अधीन प्रेशर कुकर या किसी अन्य सामान का निर्माण या विक्रय नहीं करेगा।" न्यायमूर्ति तेजस करिया |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति तेजस करिया ने निर्णय दिया कि शंखेश्वर यूटेंसिल्स एंड अप्लायंसेज प्राइवेट लिमिटेड "मैगीसन" या नेस्ले के "मैगी" जैसे किसी भी चिह्न के अधीन उत्पादों का निर्माण, विक्रय या विज्ञापन नहीं कर सकता है, और उसे अपने व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) को रद्द करना होगा और उल्लंघनकारी चिह्न वाले विद्यमान सामान को नष्ट करना होगा।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोसाइटी डेस प्रोडुइट्स नेस्ले एस.ए. एंड ए.एन.आर. बनाम मेसर्स श्री शंखेश्वर यूटेंसिल्स एंड अप्लायंसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
सोसाइटी डेस प्रोडुइट्स नेस्ले एस.ए. एंड ए.एन.आर. बनाम मेसर्स श्री शंखेश्वर यूटेंसिल्स एंड अप्लायंसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वादी, सोसाइटी डेस प्रोडुइट्स नेस्ले एस.ए. और एक अन्य, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) "मैगी" के रजिस्ट्रीकृत स्वामी हैं, जिसे नेस्ले ने 1947 में अधिग्रहित किया था। मैगी ब्रांड नेस्ले के वैश्विक खाद्य और पेय परिचालन की आधारशिला है, जो कई दशकों से निरंतर वाणिज्यिक उपयोग, पर्याप्त विपणन निवेश और कई क्षेत्राधिकारों में महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता सद्भावना का प्रतिनिधित्व करता है।
- वादियों ने विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं के लिये मैगी के अनेक व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) रजिस्ट्रीकरण बनाए रखे हैं, जिससे इस चिह्न पर उनका अनन्य स्वामित्व अधिकार स्थापित हो गया है।
- प्रतिवादी, मेसर्स श्री शंकेश्वर यूटेंसिल्स एंड अप्लायंसेज प्राइवेट लिमिटेड, जिसका प्रतिनिधित्व श्री दिलीप जैन करते हैं, रसोई के बर्तनों और उपकरणों के विनिर्माण और वितरण का कार्य करता है, जिसमें प्रेशर कुकर और संबंधित कुकवेयर उत्पादों पर विशेष जोर दिया जाता है।
- व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) उल्लंघन और पासिंग ऑफ़ का आरोप लगाते हुए, वाणिज्यिक वाद CS(COMM) 106/2018, 2018 में दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर किया गया था।
- वादियों को पता चला कि प्रतिवादी ने "मैगीसन" व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) के अधीन प्रेशर कुकरों का निर्माण, विपणन और विक्रय शुरू कर दिया था, जो कि संरक्षित मैगी मार्क के काफी हद तक और भ्रामक रूप से समान था।
- वादियों ने तर्क दिया कि प्रतिवादी द्वारा "मैगीसन" को अपनाना मैगी ब्रांड की प्रतिष्ठा और वाणिज्यिक आकर्षण को भुनाने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास था।
- इस तरह के अनधिकृत उपयोग से उपभोक्ताओं में भ्रम की संभावना उत्पन्न हो गई, और वे गलती से प्रतिवादी के उत्पादों को वादी के ब्रांड से जोड़ सकते थे। यह आचरण व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 के अधीन व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) उल्लंघन का अपराध और पासिंग ऑफ़ अपकृत्य के अंतर्गत आता है।
- प्रतिवादी ने "मैगीसन" के लिये व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) रजिस्ट्रीकरण संख्या 1163623 प्राप्त की थी, जिससे उनके कार्यों को स्पष्ट वैधता प्राप्त हुई। यद्यपि, वादी ने याचिका संख्या CO (COMM. IPD-TM) संख्या 318/2022 के अधीन रद्द करने की कार्यवाही के माध्यम से इस रजिस्ट्रीकरण को चुनौती दी।
- प्रतिवादी ने प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और ई-कॉमर्स पोर्टलों के माध्यम से अपने उत्पादों का सक्रिय रूप से प्रचार किया, जिससे संभावित उपभोक्ता भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई और वादी के बौद्धिक संपदा अधिकारों का हनन हुआ।
- तत्पश्चात्, दोनों पक्षकारों ने सद्भावनापूर्ण बातचीत की और पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समझौते पर पहुँचे, तथा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 151 के साथ आदेश 33 नियम 3 के अधीन एक संयुक्त आवेदन दायर किया।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- माननीय न्यायमूर्ति तेजस करिया ने 22.09.2025 के संयुक्त निपटान आवेदन की जांच की और दोनों पक्षकारों का प्रतिनिधित्व करने वाले विद्वान अधिवक्ताओं के विस्तृत तर्क सुने।
- न्यायालय ने पाया कि पक्षकारों ने स्वेच्छया से, बिना किसी दबाव के, व्यापक समझौते पर पहुँच कर मुकदमे के सभी विवादास्पद विवाद्यकों को प्रभावी ढंग से सुलझा लिया है।
- न्यायालय ने प्रतिवादी द्वारा वादी को मैगी व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) का वैध और अनन्य स्वामी मानने की स्पष्ट स्वीकृति को स्वीकृति के साथ नोट किया, जिसमें वादपत्र में उल्लिखित सभी व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) रजिस्ट्रीकरणों की वैधता को मान्यता देना भी सम्मिलित है। इस स्वीकृति ने वादी के बौद्धिक संपदा अधिकारों की स्पष्ट पुष्टि की और स्वामित्व या वैधता को लेकर भविष्य में होने वाले विवादों को समाप्त कर दिया।
- न्यायालय ने प्रतिवादी की व्यापक वचनबद्धता दर्ज की कि वह "मैगीसन" या मैगी के समान या उससे मिलते-जुलते किसी भी ब्रांड के अंतर्गत आने वाले प्रेशर कुकर या किसी भी उत्पाद का निर्माण, विक्रय, विक्रय के लिये पेशकश, विज्ञापन या व्यापार स्थायी रूप से बंद कर देगा। यह वचनबद्धता प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, सोशल मीडिया और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर सभी वाणिज्यिक उपयोग और प्रचार गतिविधियों तक विस्तारित है, जिससे वर्तमान और स्थायी रूप से पूर्ण सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
- न्यायालय ने प्रतिवादी की इस प्रतिबद्धता पर गौर किया कि वह तैयार माल, लेबल, स्टिकर, मुद्रित सामग्री, मुद्रण उपकरण, सिलेंडर, ब्लॉक, निगेटिव और रंगों सहित सभी उल्लंघनकारी सामग्रियों को नष्ट कर देगा और दो सप्ताह के भीतर फोटोग्राफिक साक्ष्य प्रस्तुत करेगा। प्रतिवादी ने "मैगीसन" के लिये व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) रजिस्ट्रीकरण संख्या 1163623 को रद्द करने पर सहमति व्यक्त की, और न्यायालय ने तदनुसार लंबित रद्द करने की याचिका को स्वीकार कर लिया।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि श्री दिलीप जैन द्वारा दिया गया वचन प्रतिवादी कंपनी, उसके कर्मचारियों, अभिकर्त्ताओं, फ्रेंचाइजी, समनुदेशिती, डीलरों, स्टॉकिस्टों, हिताधिकारियों और उसकी ओर से कार्य करने वाले किसी भी व्यक्ति पर सदैव बाध्यकारी रहेगा, जिससे संबंधित संस्थाओं के माध्यम से भविष्य में अपराध या उल्लंघन को रोका जा सकेगा।
- वादी के अधिवक्ता द्वारा यह पुष्टि किये जाने पर कि शेष प्रार्थनाओं को आगे नहीं बढ़ा जाएगा, न्यायालय ने आवेदन का निपटारा कर दिया और समझौते की शर्तों के अनुसार वाद का आदेश पारित कर दिया। न्यायालय ने आदेश पत्र तैयार करने का निदेश दिया और दोनों पक्षकारों को इसका कठोरता से पालन करने का आदेश दिया। I.A. 21780/2025 सहित सभी लंबित आवेदनों का निपटारा कर दिया गया, जिससे मुकदमा अंतिम समाधान पर पहुँच गया।
संदर्भित विधिक उपबंध क्या हैं?
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 33 नियम 3:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 33 नियम 3 में यह उपबंध है कि जहाँ न्यायालय के समाधानप्रद रूप में यह साबित हो जाता है कि किसी वाद को पक्षकारों द्वारा लिखित और हस्ताक्षरित किसी विधिपूर्ण करार या समझौते द्वारा पूर्णतः या भागतः समायोजित कर लिया गया है, या जहाँ प्रतिवादी ने वाद की संपूर्ण विषय-वस्तु या उसके किसी भाग के संबंध में वादी को संतुष्ट कर दिया है, वहाँ न्यायालय ऐसे करार, समझौते या संतुष्टि को अभिलिखित करने का आदेश देगा।
- न्यायालय इसके अनुसार डिक्री पारित करेगा, जहाँ तक वह वाद के पक्षकारों से संबंधित है, चाहे करार, समझौता या संतुष्टि की विषय-वस्तु वाद की विषय-वस्तु के समान हो या नहीं।
- उपबंध में आगे यह भी निर्धारित किया गया है कि जहाँ एक पक्षकार द्वारा यह आरोप लगाया जाता है और दूसरे द्वारा यह अस्वीकार किया जाता है कि समायोजन या संतुष्टि प्राप्त हो गई है, तो न्यायालय प्रश्न का निर्णय करेगा, किंतु प्रश्न का निर्णय करने के प्रयोजन के लिये कोई स्थगन प्रदान नहीं किया जाएगा जब तक कि न्यायालय, अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, ऐसा स्थगन प्रदान करना उचित न समझे।
- नियम के स्पष्टीकरण में स्पष्ट किया गया है कि कोई करार या समझौता जो भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत शून्य या शून्यकरणीय है, इस नियम के अर्थ में वैध नहीं माना जाएगा।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 151:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 151 न्यायालय को ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्तियां प्रदान करती है जो न्याय के उद्देश्यों के लिये या न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये आवश्यक हो सकते हैं।
- व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999:
- व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 भारत में व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) अधिकारों के रजिस्ट्रीकरण, संरक्षण और प्रवर्तन को नियंत्रित करता है।
- व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 की धारा 29:
- व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 की धारा 29 व्यापार चिह्न उल्लंघन के दायरे को परिभाषित करती है और यह उपबंध करती है कि रजिस्ट्रीकरण व्यापार चिह्न का उल्लंघन तब होता है जब कोई व्यक्ति उन वस्तुओं या सेवाओं के संबंध में व्यापार के दौरान समरूप या भ्रामक रूप से समान चिह्न का उपयोग करता है जिनके लिये व्यापार चिह्न रजिस्ट्रीकृत है।
- पासिंग ऑफ की सामान्य विधि कार्रवाई:
- पासिंग ऑफ की सामान्य विधि कार्रवाई किसी व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) से संबंधित अरजिस्ट्रीकृत व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) अधिकारों और साख की रक्षा करती है। पासिंग ऑफ का अपकृत्य एक व्यापारी को अपने माल या सेवाओं को दूसरे के माल या सेवाओं के रूप में प्रस्तुत करने से रोकता है, जिससे उपभोक्ताओं के बीच भ्रम और प्रवंचना उत्पन्न होती है। पासिंग ऑफ के आवश्यक तत्त्वों में गुडविल या प्रतिष्ठा, दुर्व्यपदेशन, और वादी के व्यावसायिक हितों को नुकसान पहुँचने की संभावना सम्मिलित है।
- व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 की धारा 57:
- व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 की धारा 57 व्यापार चिह्न रजिस्टर से व्यापार चिह्न रजिस्ट्रीकरण को संशोधित या रद्द करने के लिये आधार प्रदान करती है, जिसमें ऐसे मामले भी सम्मिलित हैं जहाँ रजिस्ट्रीकरण पर्याप्त हेतुक के बिना प्राप्त किया गया था या जहाँ चिह्न से प्रवंचित करने या भ्रम उत्पन्न करने की संभावना है।