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सांविधानिक विधि

लिव इन रिलेशनशिप के लिये युगल की सम्मति

 08-May-2025

"अपीलकर्त्ता और दूसरे प्रत्यर्थी के बीच लंबे समय से चले आ रहे संबंध, जिसमें एक-दूसरे के साथ रहने और सहवास करने की परिस्थिति भी सम्मिलित है, वह भी एक पृथक् किराए के आवास में, यह उपधारणा उत्पन्न होती है कि उनका संबंध वैध सम्मति पर आधारित था।"

न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि जब दो सक्षम वयस्क एक साथ दो वर्ष से अधिक समय तक लिव-इन-युगल के रूप में रहते हैं, तो यह उपधारणा की जाती है कि उन्होंने इसके परिणामों के बारे में जानते हुए स्वेच्छया से उस रिश्ते को चुना था।

  • उच्चतम न्यायालय ने रवीश सिंह राणा बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।

रवीश सिंह राणा बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • दूसरे प्रत्यर्थी ने 23 नवंबर 2023 को पुलिस स्टेशन खटीमा, जिला उधम सिंह नगर में अपीलकर्त्ता के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई।
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के अनुसार, मुखबिर (सूचनाकर्त्ता) की 6 फरवरी 2021 को फेसबुक के माध्यम से अपीलकर्त्ता से मुलाकात हुई और वे लिव-इन रिलेशनशिप में रहने लगे।
  • अपीलकर्त्ता ने खटीमा में एक कमरा किराये पर लिया, जहां उन्होंने कई बार शारीरिक संबंध स्थापित किये तथा अपीलकर्त्ता ने उससे विवाह करने का वचन किया।
  • शारीरिक संबंध जारी रहे, यद्यपि कथित तौर पर कभी-कभी मुखबिर के साथ दुर्व्यवहार और मारपीट भी की जाती थी।
  • जब मुखबिर ने विवाह पर बल दिया तो अपीलकर्त्ता ने इंकार कर दिया और मुखबिर को धमकी दी, 18 नवंबर 2023 को जबरन शारीरिक संबंध स्थापित किया।
  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376, 323, 504 और 506 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
  • अपीलकर्त्ता ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) और परिणामी कार्यवाही को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक विविध आवेदन संख्या 922/2024 दायर किया।
  • इस आवेदन में अपीलकर्त्ता ने दावा किया कि दोनों पक्षकार वयस्क थे, जो स्वेच्छया से दो वर्षों से एक साथ रह रहे थे तथा उनके बीच सम्मति से शारीरिक संबंध भी थे।
  • अपीलकर्त्ता ने यह भी कहा कि उन्होंने 19 नवंबर 2023 को एक करार/समझौता भी किया था, और अभिकथित किया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दुर्भावनापूर्ण थी और अपीलकर्त्ता और उसके परिवार को ब्लैकमेल करने का आशय था।
  • उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए निर्णय सुनाया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में लगाए गए आरोपों से संज्ञेय अपराध का पता चलता है और इसलिये उसे रद्द नहीं किया जा सकता।
  • अपीलकर्त्ता ने अब उच्च न्यायालय के इस आदेश के विरुद्ध अपील की है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • अपीलकर्त्ता और दूसरे प्रत्यर्थी (सूचनाकर्त्ता) के बीच संबंध 2021 से विद्यमान थे, जिसमें वे किराए के आवास में एक युगल के रूप में एक साथ रहते थे।
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में स्पष्ट रूप से यह आरोप नहीं लगाया गया कि शारीरिक संबंध केवल विवाह के वचन के कारण स्थापित किये गये थे।
  • इस दौरान बिना किसी परिवाद के दो वर्ष से अधिक समय तक शारीरिक संबंध जारी रहा।
  • न्यायालय ने कहा कि जब दो सक्षम वयस्क एक साथ दो वर्षों से अधिक समय तक लिव-इन युगल के रूप में रहते हैं, तो यह उपधारणा की जाती है कि उन्होंने इसके परिणामों के बारे में जानते हुए स्वेच्छया से उस रिश्ते को चुना है।
  • न्यायालय ने प्रमोद सूर्यभान पवार मामले का संदर्भ दिया, जिसमें स्थापित किया गया था कि मात्र वचन-भंग  को तथ्य की गलत धारणा स्थापित करने के लिये मिथ्या वचन नहीं माना जा सकता।
  • दीपक गुलाटी बनाम हरियाणा राज्य (2013) मामले में न्यायालय ने बलात्संग और सम्मति से बनाए गए यौन संबंध के बीच अंतर स्पष्ट किया था तथा इस बात की जांच करने की आवश्यकता पर बल दिया था कि क्या अभियुक्त वास्तव में पीड़िता से विवाह करना चाहता था या उसके पीछे दुर्भावनापूर्ण आशय था।
  • न्यायालय ने सोनू उर्फ ​​सुभाष कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021) का हवाला दिया, जहाँ रिश्ते की सहमति की प्रकृति के कारण प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) रद्द कर दी गई थी।
  • न्यायालय ने कहा कि आधुनिक समय में, अधिक महिलाएँ आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और अपने जीवन के बारे में सचेत निर्णय ले सकती हैं, जिसके कारण लिव-इन रिलेशनशिप में वृद्धि हुई है।
  • 19 नवंबर 2023 को हुए समझौते करार, जिस पर दूसरे प्रत्यर्थी ने कोई विवाद नहीं किया, से संकेत मिलता है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे से प्रेम करते थे।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि विवाह से इंकार करने के आधार पर अपीलकर्त्ता पर बलात्संग का अभियोजन नहीं चलाया जा सकता।
  • मारपीट और दुर्व्यवहार के अभियोग के समर्थन में कोई ठोस तथ्य उपलब्ध नहीं थे।
  • न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली, उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया, तथा प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) और परिणामी कार्यवाही को न्यायालय प्रक्रिया का दुरुपयोग बताते हुए रद्द कर दिया।

लिव-इन रिलेशनशिप क्या है?

  • ‘लिव इन रिलेशनशिप’ और ‘विवाह की प्रकृति वाले रिश्ते’ के बीच अंतर है।
  • यह आवश्यक नहीं है कि सभी लिव-इन रिलेशनशिप’, ‘विवाह की प्रकृति वाले रिश्ते' के समान हों, जैसा कि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV Act) के अधीन माना गया है।
  • घरेलू हिंसा अधिनियम में 'विवाह की प्रकृति वाले संबंध' शब्दावली का प्रयोग किया गया है, न कि 'लिव इन रिलेशनशिप' का।
  • डी. वेलुसामी बनाम डी. पच्चाईअम्मल (2010) के मामले में , न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणी की:
    • सामंती समाज में विवाहेतर संबंध को वर्जित माना जाता था तथा इसे भय और घृणा की दृष्टि से देखा जाता था।
    • यद्यपि, भारतीय समाज बदल रहा है और यह परिवर्तन स्पष्ट है तथा संसद द्वारा घरेलू हिंसा अधिनियम के माध्यम से इसे मान्यता भी दी गई है।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि यदि विवाह के रिश्ते में सामान्य विधि विवाह के समान संबंध है तो उसे निम्नलिखित शर्तों को पूरा करना होगा:
      • युगल को समाज के सामने स्वयं को पति-पत्नी के समान प्रस्तुत करना चाहिये।
      • उनकी विवाह करने की विधिक आयु होनी चाहिये।
      • उन्हें विधिक विवाह करने के लिये अन्यथा योग्य होना चाहिये, जिसमें अविवाहित होना भी सम्मिलित है।
      • उन्होंने स्वेच्छया से एक साथ रहकर काफी समय तक दुनिया के सामने अपने आपको जीवनसाथी के रूप में पेश किया होगा।

सिविल कानून

पूर्ण एवं अंतिम निपटान पर मध्यस्थता योग्य विवाद

 08-May-2025

"यह प्रश्न कि क्या अपीलकर्त्ता को आर्थिक विबाध्यता के कारण स्टैण्डर्ड वाउचर/अग्रिम रसीद पर हस्ताक्षर करने के लिये विवश किया गया था, स्पष्ट रूप से मध्यस्थ अधिकरण की अधिकारिता में आता है।"

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि यह प्रश्न कि क्या अपीलकर्त्ता को आर्थिक विबाध्यता के कारण स्टैण्डर्ड वाउचर पर हस्ताक्षर करने के लिये विवश किया गया था, स्पष्ट रूप से मध्यस्थ अधिकरण की अधिकारिता में आता है।

  • उच्चतम न्यायालय ने अरेबियन एक्सपोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

अरेबियन एक्सपोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता कंपनी अधिनियम, 1956 के अंतर्गत निगमित एक कंपनी है, जो मांस और मांस से निर्मित उत्पादों के निर्यात के व्यवसाय में संलग्न है।
  • 8 अक्टूबर 2004 को, अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी से तलोजा संयंत्र में अपने मांस प्रसंस्करण सुविधा, भवन, संयंत्र, मशीनरी, फर्नीचर, जुड़नार और फिटिंग को 9 अक्टूबर 2004 से 3 अक्टूबर 2005 तक की अवधि को कवर करते हुए 3,28,55,000.00 रुपये में बीमा करने के लिये एक व्यापक मानकीकृत अग्नि एवं विशेष जोखिम पॉलिसी प्राप्त की।
  • अपीलकर्त्ता ने 15 मार्च 2005 से 15 मार्च 2006 तक की अवधि को कवर करते हुए 5,76,85,000.00 रुपये में कोल्ड स्टोरेज सुविधा में संग्रहीत सभी स्टॉक-इन-ट्रेड और तैयार उत्पादों का बीमा करने वाली एक अग्नि घोषणा पॉलिसी भी ली।
  • 26 जुलाई 2005 को, अभूतपूर्व भारी वर्षा के कारण तलोजा में कारखाना परिसर में बाढ़ आ गई, जिससे यह कई घंटों तक पानी में डूबा रहा।
  • संचार लाइनें टूट जाने के कारण, 28 जुलाई 2005 तक इस घटना की सूचना नहीं मिल पाई।
  • अपीलकर्त्ता ने 29 जुलाई 2005 को प्रतिवादी को हुई हानि के विषय में सूचित किया तथा हानि का आकलन करने के लिये एक सर्वेक्षक से अनुरोध किया।
  • अपीलकर्त्ता ने मानक अग्नि और विशेष जोखिम नीति के अंतर्गत संयंत्र एवं मशीनरी को हुए हानि के लिये 56,07,027.00 रुपये और अग्नि घोषणा नीति के अंतर्गत कोल्ड स्टोरेज में स्टॉक को हुए हानि के लिये 5,15,62,527.00 रुपये का दावा किया।
  • 28 जुलाई 2005 को, डॉ. ए.एस. पाटिल ने कारखाना परिसर का निरीक्षण किया तथा प्रमाणित किया कि स्टॉक-इन-ट्रेड मानव उपभोग के लिये अनुपयुक्त था।
  • 29 नवंबर 2005 को प्रतिवादी द्वारा नियुक्त सर्वेक्षक, केमप्रो इंस्पेक्शन प्राइवेट लिमिटेड ने एक सर्वेक्षण किया और अपीलकर्त्ता द्वारा कथित हानि को स्वीकार किया। 
  • काफी विलंब के बाद, अपीलकर्त्ता को दिसंबर 2008 में 1,88,14,146.00 रुपये का अदिनांकित मानकीकृत वाउचर/अग्रिम रसीद प्रस्तुत की गई। वित्तीय तनाव और बैंकरों एवं लेनदारों के विबाध्यता के कारण, अपीलकर्त्ता ने 12 दिसंबर 2008 को वाउचर पर हस्ताक्षर किये और उसे प्रस्तुत किया तथा 19 दिसंबर 2008 को भुगतान प्राप्त किया। 
  • 24 दिसंबर 2008 को, अपीलकर्त्ता ने मध्यस्थता खंड को लागू करने का अधिकार सुरक्षित रखते हुए प्रतिवादी से 3,83,55,408.00 रुपये की शेष राशि का निपटान करने का आह्वान किया। 
  • 17 अप्रैल 2009 को अपीलकर्त्ता ने बीमा पॉलिसी में मध्यस्थता खंड का आह्वान किया तथा श्री रमाकांत डब्ल्यू. गुडाल को एकमात्र मध्यस्थ के रूप में नामित किया। 
  • प्रतिवादी ने 18 मई 2009 और 12 अक्टूबर 2009 को पत्रों के माध्यम से मध्यस्थता को स्वीकार करने से मना कर दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के अंतर्गत मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये बॉम्बे उच्च न्यायालय में आवेदन दायर किया। 
  • उच्च न्यायालय ने दोनों आवेदनों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि कोई मध्यस्थ नियुक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि अपीलकर्त्ता ने पूर्ण एवं अंतिम समझौते में राशि स्वीकार कर ली थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दोनों बीमा पॉलिसियों में देयता स्वीकार किये जाने पर भुगतान की जाने वाली राशि के विषय में विवादों को हल करने के लिये एक समान शब्दों वाला मध्यस्थता खंड शामिल था। 
  • 24 दिसंबर 2008 के पत्र में, अपीलकर्त्ता ने कहा कि उन्होंने 1,88,14,146.00 रुपये की अपर्याप्त राशि (5,71,69,554.00 रुपये के अपने दावे के विरुद्ध) को केवल वित्तीय मांग और बैंकरों एवं लेनदारों के विबाध्यता के कारण स्वीकार किया। 
  • अपीलकर्त्ता ने 17 अप्रैल 2009 को श्री रमाकांत डब्ल्यू. गुडाल को एकमात्र मध्यस्थ के रूप में नामित करते हुए मध्यस्थता खंड का आह्वान किया। 
  • प्रतिवादी ने 12 अक्टूबर 2009 को मध्यस्थता से मना कर दिया, यह दावा करते हुए कि अपीलकर्त्ता ने "पूर्ण एवं अंतिम निपटान" में राशि स्वीकार कर ली थी जो "समझौते और तुष्टि" के तुल्य थी।
  • उच्च न्यायालय ने पाया कि भुगतान 19 दिसंबर 2008 को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार कर लिया गया था, तथा निर्णय दिया कि पूर्ण एवं अंतिम निपटान में इस स्वीकृति को देखते हुए कोई मध्यस्थ नियुक्त नहीं किया जा सकता। 
  • उच्चतम न्यायालय ने नाथानी स्टील्स मामले का उदाहरण दिया, जिसने स्थापित किया कि पक्ष सौहार्दपूर्ण निपटान पर पहुँचने के बाद मध्यस्थता का आह्वान नहीं कर सकते हैं जब तक कि उचित कार्यवाही में उस समझौते को रद्द नहीं कर दिया जाता। 
  • बोगरा पॉलीफैब मामले में, न्यायालय ने स्वैच्छिक द्विपक्षीय निपटान एवं स्वीकृत बकाया राशि जारी करने की शर्त के रूप में लिये गए डिस्चार्ज वाउचर के बीच अंतर किया, जिसमें बाद की श्रेणी के विवाद मध्यस्थता योग्य थे। 
  • न्यायालय ने माना कि कॉम्पेटेंज़-कॉम्पेटेंज़ का सिद्धांत भारतीय मध्यस्थता न्यायशास्त्र में दृढ़ता से अंतर्निहित है, जहाँ मध्यस्थ अधिकरण अपनी अधिकारिता पर निर्णय लेने के लिये सक्षम हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि धारा 11(6) के आवेदनों को खारिज करने में उच्च न्यायालय गलत था, क्योंकि आर्थिक विबाध्यता एवं दावों की स्थिरता के विषय में प्रश्न मध्यस्थ अधिकरण की अधिकारिता में हैं। 
  • न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया तथा न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) सुरेश चंद्रकांत गुप्ते को एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया, तथा पक्षों को 15 मई 2025 तक उनके समक्ष रिपोर्ट करने का निर्देश दिया।

विवादों को मध्यस्थता के लिये कब भेजा जाना चाहिये?

  • ड्यूरो फेलगुएरा एस.ए. बनाम गंगावरम पोर्ट लिमिटेड (2017):
    • इस मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि न्यायालय को केवल एक पहलू अर्थात मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व पर विचार करना चाहिये। 
    • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि जाँच किया जाने वाला तथ्य केवल यही है- इससे अधिक कुछ नहीं, इससे कम कुछ नहीं। 
    • विधायी नीति एवं उद्देश्य अनिवार्य रूप से मध्यस्थ की नियुक्ति के चरण में न्यायालय के हस्तक्षेप को कम करना है।
  • विद्या द्रोलिया बनाम दुर्गा ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन (2021):
    • न्यायालय ने माना कि मध्यस्थता के विषय पर 1996 अधिनियम की धारा 8 या 11 के स्तर पर निर्णय नहीं लिया जा सकता, जब तक कि यह स्पष्ट रूप से एक औचित्य्यहीन मामला न हो। 
    • धारा 8 एवं 11 के अंतर्गत न्यायालय को मामले को मध्यस्थता के लिये भेजना होगा या मध्यस्थ नियुक्त करना होगा, जैसा भी मामला हो, जब तक कि किसी पक्ष ने वैध मध्यस्थता समझौते के अस्तित्वहीन होने का प्रथम दृष्टया मामला स्थापित न कर दिया हो। 
    • न्यायालय को मामले को तभी संदर्भित करना चाहिये जब मध्यस्थता समझौते की वैधता को प्रथम दृष्टया आधार पर निर्धारित नहीं किया जा सकता। नियम यह होना चाहिये: जब संदेह हो, तो संदर्भित करें।
  • ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम डिसीटेक्स फर्निशिंग लिमिटेड (2020):
    • इस मामले में आपत्ति यह की गई थी कि दावेदार ने डिस्चार्ज वाउचर पर हस्ताक्षर कर दिये थे तथा प्रस्तावित राशि को स्वीकार कर लिया था, जिससे ‘सहमति एवं तुष्टि’ का संकेत मिलता है, जिसका अर्थ यह है कि कोई मध्यस्थता योग्य विवाद नहीं था।