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सिविल कानून

रोजगार बंधपत्र और भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27

 15-May-2025

विजया बैंक एवं अन्य. वी. प्रशांत बी नारनावेयर 

"उदारीकरण के पश्चात्, लोक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी क्षेत्र के प्रतिस्पर्धियों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है, जिससे दक्षता बढ़ाने एवं कुशल कर्मचारियों को बनाए रखने हेतु नीतियाँ बनाना आवश्यक हो गया है। इस परिप्रेक्ष्य में, न्यूनतम सेवा अवधि की शर्तें आवश्यक तथा विधिक रूप से वैध मानी जाती हैं।" 

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागचीकी पीठ नेरोजगार संविदाओं में बंधपत्र खण्ड की वैधता को बनाए रखते हुए यह निर्णय दिया कि अनिवार्य न्यूनतम सेवा अवधि विधिक रूप से स्वीकार्य है और भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 का उल्लंघन नहीं है। 

उच्चतमन्यायालय नेविजया बैंक एवं अन्य बनाम प्रशांत बी. नारनवारे (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

विजया बैंक एवं अन्य बनाम प्रशांत बी नारनवारे (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • वर्ष 1999 में, श्री प्रशांत बी. नरनावरे परिवीक्षा सहायक प्रबंधक (Probationary Assistant Manager) के रूप में सेवा प्रारंभ की, तत्पश्चात वे मध्य प्रबंधन स्तर-II (Middle Management Scale II) में पदोन्नत किया गया। 
  • वर्ष 2006 में, विजया बैंक ने विभिन्न श्रेणियों में 349 अधिकारियों की नियुक्ति हेतु एक भर्ती अधिसूचना जारी की, जिसमें यह शर्त निहित थी कि चयनित उम्मीदवारों को ₹2 लाख का क्षतिपूर्ति बंधपत्र (indemnity bond) निष्पादित करना होगा, जो तीन वर्ष की सेवा पूर्ण करने से पूर्व त्यागपत्र देने की स्थिति में देय होगा। 
  • श्री नारनवारे ने ₹18,240/- के मूल वेतन के साथ वरिष्ठ प्रबंधक-लागत लेखाकार के पद के लिये आवेदन किया, उनका चयन हुआ और उन्हें नियुक्ति पत्र मिला जिसमें खण्ड 11(के) सम्मिलित था जिसमें ₹2 लाख क्षतिपूर्ति बंधपत्र के निष्पादन के साथ 3 वर्ष की न्यूनतम सेवा की आवश्यकता थी। 
  • इन शर्तों को स्वीकार करते हुए, श्री नरनावरे ने प्रबंधक (MMG-II) के रूप में अपने पिछले पद से स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया, 28 सितंबर 2007 को वरिष्ठ प्रबंधक (MMG-III) के रूप में कार्यभार ग्रहण किया,और आवश्यक क्षतिपूर्ति बंधपत्र निष्पादित किया।  
  • 17 जुलाई 2009 को, निर्धारित तीन वर्ष की अवधि पूरी होने से पूर्व, श्री नारनवारे ने IDBI  बैंक में सम्मिलित होने के लिये अपना इस्तीफा दे दिया। 
  • अपने इस्तीफे के स्वीकार होने पर, श्री नारनवारे ने क्षतिपूर्ति बंधपत्र के अनुसार, 16.10.2009 को विरोध स्वरूप विजया बैंक को ₹2 लाख का संदाय किया। 
  • इसके पश्चात्, श्री नारनवरे ने भर्ती अधिसूचना के खण्ड 9(ब) और नियुक्ति पत्र के खण्ड 11(ट) को संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1)(छ) औरभारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 23 और 27 का उल्लंघन बताते हुए उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की। 
  • उच्च न्यायालय ने श्री नारनवारे की याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसे बाद में उसकी खण्डपीठ ने भी बरकरार रखा, जिसके परिणामस्वरूप विजया बैंक ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रोजगार संविदा के दौरान लागू प्रतिबंधात्मक प्रसंविदाएं (restrictive covenants) भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत व्यापार पर प्रतिबंध नहीं हैं, क्योंकि वे भविष्य में रोजगार को प्रतिबंधित करने के अतिरिक्त रोजगार संबंध को बढ़ावा देने के लिये हैं। 
  • न्यायालय ने कहा कि रोजगार संविदाओं में सार्वजनिक नीतिगत विचारों को कार्य की प्रकृति, पुनः कौशल आवश्यकताओं, तथा मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में विशेषज्ञ कार्यबल के संरक्षण को प्रभावित करने वाली तकनीकी प्रगति के नजरिए से देखा जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि उदारीकरण के पश्चात्, विजया बैंक जैसे लोक क्षेत्र के उपक्रमों को कुशल निजी खिलाड़ियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की आवश्यकता है, जिससे दक्षता बढ़ाने और प्रशासनिक लागतों को युक्तिसंगत बनाने के लिये नीतियों की समीक्षा और पुनर्संयोजन आवश्यक हो गया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रबंधकीय कौशल में योगदान देने वाले कुशल और अनुभवी कर्मचारियों को बनाए रखना सुनिश्चित करना ऐसे उपक्रमों के हित के लिये अविभाज्य है, और कर्मचारियों की संख्या में कमी लाने के लिये न्यूनतम सेवा अवधि निर्धारित करने वाली संविदा न तो अनुचित है और न ही लोक नीति के विपरीत है। 
  • न्यायालय ने टिप्पणी की कि लोक क्षेत्र के उपक्रम के रूप में, विजया बैंक निजी या तदर्थ नियुक्तियों का सहारा नहीं ले सकता है और असामयिक इस्तीफे के कारणअनुच्छेद 14 और 16 के अधीन सांविधानिक जनादेश को पूरा करने के लिये खुले विज्ञापन और निष्पक्ष प्रतिस्पर्धी प्रक्रिया सहित एक लंबी और महंगी भर्ती प्रक्रिया की आवश्यकता होगी। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि प्रत्यर्थी के आकर्षक वेतन पैकेज के साथ वरिष्ठ प्रबंधकीय पद को देखते हुए निर्धारित क्षतिपूर्ति (₹2 लाख) की राशि अनुपातहीन नहीं थी, तथा इससे त्यागपत्र की संभावना भ्रामक नहीं लगती, जैसा कि निर्धारित राशि का भुगतान करने के पश्चात् प्रतिवादी के वास्तविक त्यागपत्र से स्पष्ट है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय ने मामले के विशिष्ट तथ्यात्मक पृष्ठभूमि में प्रतिबंधात्मक प्रसंविदा  का समुचित परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किये बिना पूर्व-निर्णयों (precedents) को यांत्रिक रूप से लागू करके त्रुटि की 

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 क्या है? 

  • धारा 27 में यह घोषित किया गया है कि हर करार जिसमें कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विधिपूर्ण वृत्ति, व्यापार या कारोबार करने से अवरुद्ध किया जाता हो, उस विस्तार तक शून्य है। 
  • इस धारा में निहित मूल सिद्धांत यह है कि व्यापार करने और कारोबार करने की स्वतंत्रता लोक कल्याण के लिये आवश्यक है, तथा ऐसी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने वाले संविदात्मक खण्ड प्रथम दृष्टया शून्य हैं। 
  • यह धारा व्यापार के सभी प्रतिबंधों के विरुद्ध सामान्य निषेध स्थापित करती है, तथा अंग्रेजी सामान्य विधि की तुलना में अधिक कठोर दृष्टिकोण अपनाती है, जो उचित प्रतिबंधों की अनुमति देता है। 
  • इस निषेध का एकमात्र सांविधिक अपवाद गुडविल के विक्रय से संबंधित करारों से संबंधित है, जिसमें विक्रेता को निर्दिष्ट स्थानीय सीमाओं के भीतर समान व्यवसाय करने से रोका जा सकता है। 
  • गुडविल अपवाद लागू होने के लिये, तीन शर्तों का पूरा होना आवश्यक है: अवरोधक निर्दिष्ट स्थानीय सीमाओं तक ही सीमित होना चाहिये, यह तभी तक प्रभावी होना चाहिये जब तक क्रेता या उसका उत्तराधिकारी उन सीमाओं के भीतर समान व्यवसाय करता रहे, तथा व्यवसाय की प्रकृति को देखते हुए ये सीमाएं न्यायालय को उचित प्रतीत होनी चाहिये 
  • अपवाद के अंतर्गत स्थानीय सीमाओं की तर्कसंगतता एक तथ्यात्मक प्रश्न है, जिसका निर्धारण प्रत्येक व्यवसाय की विशेष प्रकृति और परिस्थितियों के संबंध में न्यायिक रूप से किया जाना है। 
  • यह धारा रोजगार पर संविदा के पश्चात् के प्रतिबंधों के प्रति निरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाती है, तथा ऐसे संविदाओं को शून्य कर देती है जो किसी कर्मचारी को सेवा समाप्ति के पश्चात् अन्यत्र काम करने से रोकते हैं, चाहे वे कितने भी तर्कसंगत क्यों न हों। 
  • यह निषेध प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के प्रतिबंधों पर लागू होता है, जिसमें न केवल व्यक्त प्रतिबंध सम्मिलित हैं, अपितु कोई भी संविदात्मक तंत्र भी सम्मिलित है जो किसी व्यक्ति को उसके पेशे या व्यापार को करने से प्रभावी रूप से रोकता है। 

सिविल कानून

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 10

 15-May-2025

तेलंगाना राज्य बनाम डॉ. पसुपुलेटी निर्मला हनुमंत राव चैरिटेबल ट्रस्ट 

" इस न्यायालय का यह भी मत है कि 1975 के नियम तथा राजस्व बोर्ड के स्थायी आदेश एक पूर्णतः पृथक् स्थान पर काम करते हैं और संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 10 द्वारा निरस्त या प्रभावित नहीं होते हैं।" 

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहनकी पीठ नेकहा कि संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 10 सरकारी अन्यसंक्रामण पर लागू नहीं होती है।  

  • उच्चतमन्यायालय नेतेलंगाना राज्य बनाम डॉ. पशुपुलेटी निर्मला हनुमंत राव चैरिटेबल ट्रस्ट (2025)के मामले में यह निर्णय दिया गया 

तेलंगाना राज्य बनाम डॉ. पशुपुलेटी निर्मला हनुमंत राव चैरिटेबल ट्रस्ट (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?  

  • यह मामला तेलंगाना उच्च न्यायालय के 5 जुलाई 2022 के निर्णय को चुनौती देने वाली अपील से संबंधित है, जिसमें अपीलकर्त्ता-राज्य की रिट अपील को खारिज कर दिया गया था। 
  • यह विवाद मेडक जिले के मुलुगु मंडल के चिन्नाथिम्मापुर गाँव में स्थित भूमि से संबंधित है। 
  • उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रतिवादी-ट्रस्ट ही भूमि का पूर्ण स्वामी है, क्योंकि अपीलकर्त्ता-राज्य ने भूमि को बाजार मूल्य पर विक्रय किया था। 
  • उच्च न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया कि राज्य, जब भूमि को बाजार मूल्य पर विक्रय कर चुका हो, तो वह उपभोग पर कोई प्रतिबंधात्मक शर्तें नहीं लगा सकता; ऐसी शर्तों को संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 10 के अधीन शून्य माना जाएगा 
  • अपीलकर्त्ता-राज्य का तर्क है कि भूमि का आवंटन तेलंगाना राज्य भूमि एवं भूमि राजस्व अन्यसंक्रामण नियम, 1975 के अधीन किया गया था, जो भूमि के सशर्त अन्यसंक्रामण की अनुमति देता है।  
  • मेडक के जिला कलेक्टर ने 8 फरवरी 2001 को भूमि का आवंटन जी.ओ.एम. संख्या 635, दिनांक 2 जुलाई 1990 के अधीन किया गया था, जिसमें भूमि उपयोग से संबंधित विशिष्ट शर्तें निर्धारित की गई थीं। 
  • अपीलकर्त्ता-राज्य का तर्क है कि भूमि का आवंटन एक धर्मार्थ ट्रस्ट को लोक हित में किया गया था, कि इसे पूर्णतः विक्रय करने के आशय से 
  • अपीलकर्त्ता का आरोप है कि प्रतिवादी-ट्रस्ट ने मूल आवंटन शर्तों का संदर्भ दिये बिना 18 जून 2011 को जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी निष्पादित कर दी। 
  • अपीलकर्त्ता का दावा है कि पावर ऑफ अटॉर्नी धारक ने भूमि पर 'ईडन ऑर्चर्ड' नामक एक कॉलोनी विकसित की और मूल आवंटन शर्तों का खुलासा किये बिना तीसरे पक्षकार को भूखंड विक्रय कर दिया 
  • प्रत्यर्थी-ट्रस्ट का तर्क है कि यह अन्यसंक्रामण बाजार मूल्य पर विक्रय किया गया था, न कि रियायती आवंटन, तथा इसमें सटीक उद्देश्य निर्दिष्ट किये बिना केवल एक सामान्य शर्त सम्मिलित थी 
  • प्रत्यर्थी ने आगे तर्क दिया कि कोई भी प्रतिबंधात्मक शर्त संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 10 का उल्लंघन होगी, जैसा कि उच्च न्यायालय ने कहा है। 
  • प्रत्यर्थी  ने यह भी तर्क दिया कि 19 जनवरी 2012 का पुनर्ग्रहण आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने तीन प्रमुख विवाद्यकों की पहचान की: क्या उक्त भूमि अंतरण विक्रय था या आवंटन, क्या शर्तें अधिरोपित की गई थीं, और क्या ऐसी शर्तें संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 10 का उल्लंघन करती है 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि विचाराधीन भूमि (सर्वेक्षण संख्या 72/31 में एकड़ 3.01 ग्राम) 1989 में घोषित अभिलेखों के अनुसार सरकारी (पोरम्बोके) भूमि थी। 
  • प्रत्यर्थी-ट्रस्ट, एक धर्मार्थ संगठन होने के नाते, भूमि आवंटन के लिये आवेदन किया था, जिसे जी.ओ.एम.सं. 635, दिनांक 2 जुलाई 1990 के अनुसार संसाधित किया गया था। 
  • मेडक के जिला कलेक्टर ने तेलंगाना राज्य भूमि एवं भूमि राजस्व अन्यसंक्रामण नियम, 1975 के अंतर्गत 8 फरवरी 2001 को सशर्त भूमि आवंटित की।  
  • आवंटन के साथ तीन विशिष्ट शर्तें रखी गईं: भूमि का उपयोग केवल आवंटित उद्देश्य के लिये ही किया जाना चाहिये, निर्माण कार्य दो वर्षों के भीतर पूरा किया जाना चाहिये, तथा खुले क्षेत्रों में पेड़ लगाए जाने चाहिये 
  • न्यायालय ने पाया कि भूमि अंतरण एक सांविधिक योजना के अधीन आवंटन था, न कि विक्रय जैसा कि प्रत्यर्थी-ट्रस्ट द्वारा दावा किया गया था और उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया था। 
  • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि आवंटन पत्र में किसी विशिष्ट उद्देश्य का उल्लेख नहीं किया गया था, तथापि भूमि का उपयोग केवल धर्मार्थ उद्देश्यों के लिये ही किया जा सकता था, क्योंकि यह एक धर्मार्थ ट्रस्ट को आवंटित की गई थी। 
  • प्रत्यर्थी-ट्रस्ट ने पहले ही 29 नवंबर 2011 के अपने पत्राचार और अपनी रिट याचिका में आवंटन की सशर्त प्रकृति को स्वीकार किया था। 
  • न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि उच्च न्यायालय ने अन्यसंक्रामण/आवंटन की सांविधिक योजना की अनदेखी करते हुए संव्यवहार को विक्रय के रूप में मानने में त्रुटी की। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 10, 1975 के नियमों और राजस्व बोर्ड के स्थायी आदेशों को रद्द या प्रभावित नहीं करती है, क्योंकि वे पूर्णत: पृथक् विधिक क्षेत्र में काम करते हैं। 
  • न्यायालय ने कहा कि 2011 में डॉ. पशुपुलेटि निरमाला हनुमंत राव ने आवंटन की शर्तों को प्रकट किये बिना जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी निष्पादित की, जो दुर्भावना को दर्शाता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि प्रत्यर्थी-ट्रस्ट ने एक कॉलोनी विकसित करके तथा तीसरे पक्षकार को भूखंड बेचकर आबंटन की शर्तों का उल्लंघन किया, जो "विधि के विरुद्ध कपट" था 
  • इन निष्कर्षों के आधार पर, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णयों को अपास्त कर दिया और अपील को स्वीकार कर लिया। 

संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 10 क्या है? 

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 10 संपत्ति अंतरण में ऐसी शर्तों पर रोक लगाती है जो अंतरिती को संपत्ति में अपने हित का व्ययन करने से पूर्णत: रोकती हैं। 
  • कोई भी शर्त या परिसीमा जो नए स्वामी को संपत्ति विक्रय, दान देने या अन्यथा अंतरित करने से पूर्णत: रोकती है, उसे विधि के अधीन शून्य और अप्रवर्तनीय माना जाता है। 
  • विधि अन्यसंक्रामण पर इस तरह के पूर्ण प्रतिबंधों को लोक नीति के विरुद्ध मानती है, क्योंकि वे संपत्ति के अधिकारों को अनुचित रूप से प्रतिबंधित करती हैं और बाजार में संपत्ति के मुक्त प्रवाह में बाधा उत्पन्न करती हैं।  
  • इसका एक विशिष्ट अपवाद पट्टा करारों के संदर्भ में मान्य है, जहाँ अंतरण को प्रतिबंधित करने वाली शर्तों की अनुमति दी जाती है यदि वे पट्टाकर्त्ता (भू- स्वामी) या पट्टाकर्त्ता के अधीन दावा करने वालों को लाभ पहुँचाती हैं। 
  • एक अन्य अपवाद कुछ महिलाओं (हिंदू, मुस्लिम या बौद्ध महिलाओं के सिवाय) को अंतरित संपत्ति के लिये विद्यमान है, जहाँ विवाह के दौरान उन्हें संपत्ति अंतरित करने से रोकने के लिये शर्तें अधिरोपित की जा सकती हैं। 
  • यह धारा अनिवार्यतः संपत्ति के अधिकारों को संविदा की स्वतंत्रता के साथ संतुलित करती है, तथा यह सुनिश्चित करती है कि एक बार संपत्ति अंतरित हो जाने पर, नए स्वामी को सामान्यत: इसे आगे अंतरित करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है। 
  • इस धारा के पीछे सिद्धांत यह है कि विधि संपत्ति के मुक्त अन्यसंक्रामण का पक्षधर है और सामान्यत: संपत्ति अंतरण पर स्थायी प्रतिबंधों को अस्वीकार करता है। 

वाणिज्यिक विधि

मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये आवेदन

 15-May-2025

हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम इंडियन स्ट्रेटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व्स लिमिटेड

"रेस जुडिकाटा के मुद्दों की जाँच धारा 11 मध्यस्थता याचिका के अंतर्गत नहीं की जा सकती है तथा इसका निर्णय मध्यस्थ अधिकरण द्वारा किया जाना चाहिये"।

न्यायमूर्ति ज्योति सिंह

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति ज्योति सिंह ने माना है कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 11 के अंतर्गत एक याचिका में, रेफरल कोर्ट यह तय नहीं कर सकती है कि दावे रेस जूडीकेटा द्वारा वर्जित हैं या नहीं, क्योंकि ऐसे मुद्दे विशेष रूप से मध्यस्थ अधिकरण की अधिकारिता में आते हैं।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम इंडियन स्ट्रेटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व्स लिमिटेड (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम इंडियन स्ट्रेटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व्स लिमिटेड, 2025 मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड (याचिकाकर्त्ता) को भारतीय स्ट्रेटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व लिमिटेड (प्रतिवादी) द्वारा दिनांक 29 दिसंबर 2009 के स्वीकृति पत्र के माध्यम से कर्नाटक के पादुर में कच्चे तेल के रणनीतिक भंडारण के लिये भूमिगत चट्टान गुफाओं के लिये सिविल कार्यों के लिये एक संविदा प्रदान किया गया था। 
  • 30.07.2010 को 374,65,80,000/- रुपये के मूल्य की एक औपचारिक संविदा हस्ताक्षरित किया गया था, जिसकी मूल निर्धारित समाप्ति तिथि 29 मार्च 2012 थी। 
  • पक्षों के बीच विवाद उत्पन्न हो गया, जिसके कारण याचिकाकर्त्ता ने संविदा की सामान्य शर्तों के खंड 9.0.1.0 के अनुसार 24.02.2017 को मध्यस्थता का आह्वान किया। 
  • कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर, याचिकाकर्त्ता ने A&C अधिनियम की धारा 11 (ARB.P. 403/2017) के अंतर्गत याचिका दायर की, जिसे 24 जुलाई 2017 को एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति के साथ अनुमति दी गई।
  • मध्यस्थ ने 26.06.2021 को याचिकाकर्त्ता को 9% ब्याज के साथ 35,99,86,464/- रुपये देने का निर्णय दिया, जबकि उसके कुछ दावों को खारिज कर दिया। 
  • दोनों पक्षों ने अलग-अलग याचिकाओं के माध्यम से पंचाट को चुनौती दी - प्रतिवादी ने पंचाट (O.M.P.(COMM.) 366/2021) को पूरी तरह से चुनौती दी , जबकि याचिकाकर्त्ता ने कई दावों (O.M.P.(COMM.) 78/2022) की आंशिक एवं पूर्ण अस्वीकृति को चुनौती दी। 
  • 02 अगस्त 2024 को, दोनों याचिकाओं का एक सामान्य आदेश द्वारा निपटान किया गया, जहाँ पक्षों की सहमति से, प्रतिवादी की याचिका को अनुमति दी गई, 35,99,86,464/- रुपये के पंचाट को अलग रखा गया, तथा याचिकाकर्त्ता की याचिका को निष्फल घोषित किया गया। 
  • इस निपटान के बाद, याचिकाकर्त्ता ने 13 सितंबर 2024 को नए सिरे से मध्यस्थता का आह्वान किया, जिसमें विवादों के निपटान के लिये स्वतंत्र मध्यस्थों के तीन नामों का प्रस्ताव दिया गया।
  • प्रतिवादी ने 12 अक्टूबर 2024 को मध्यस्थता से मना करते हुए एक प्रत्युत्तर भेजा, जिसमें तर्क दिया गया कि याचिकाकर्त्ता पहले से ही निर्णायक रूप से निर्धारित किये गए दावों को फिर से प्रस्तुत करने का प्रयास करके उचित विधिक प्रक्रिया के विरुद्ध अपराध कर रहा है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि विचारणीय मुख्य मुद्दा यह है कि क्या न्यायालय, A&C अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत याचिका पर विचार करते समय, यह जाँच करने का अधिकार रखता है कि क्या दावा रेस जूडीकेटा के सिद्धांत द्वारा वर्जित है। 
  • न्यायालय ने माना कि धारा 11 के अंतर्गत दायर याचिका में यह जाँच करना रेफरल कोर्ट की अधिकारिता में नहीं है कि दावा रेस जूडीकेटा द्वारा वर्जित है या नहीं, क्योंकि ऐसा निर्धारण विशेष रूप से मध्यस्थ अधिकरण की अधिकारिता में आता है। 
  • न्यायालय ने पुष्टि की कि धारा 11 के अंतर्गत अधिकारिता की सीमा आवेदक द्वारा मध्यस्थता के लिये भेजे जाने वाले दावों की वैधता की जाँच की अनुमति नहीं देता है, बल्कि केवल मध्यस्थता करार के अस्तित्व का निर्धारण करने और याचिका स्वयं सीमा द्वारा वर्जित है या नहीं, तक सीमित है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि विचारणीय मुख्य मुद्दा यह है कि क्या न्यायालय, A&C अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत याचिका पर विचार करते समय, यह जाँच करने का अधिकार रखता है कि क्या दावा रेस जूडीकेटा  के सिद्धांत द्वारा वर्जित है। 
  • न्यायालय ने माना कि धारा 11 के अंतर्गत दायर याचिका में यह जाँच करना रेफरल न्यायालय के अधिकारिता  में नहीं है कि दावा रेस जूडीकेटा  द्वारा वर्जित है या नहीं, क्योंकि ऐसा निर्धारण विशेष रूप से मध्यस्थ अधिकरण के अधिकारिता  में आता है। 
  • न्यायालय ने पुष्टि की कि धारा 11 के अंतर्गत अधिकारिता  का दायरा आवेदक द्वारा मध्यस्थता के लिये भेजे जाने वाले दावों की वैधता की जाँच की अनुमति नहीं देता है, बल्कि केवल मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व का निर्धारण करने और याचिका स्वयं सीमा द्वारा वर्जित है या नहीं, तक सीमित है।
  • न्यायालय ने इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम एसपीएस इंजीनियरिंग लिमिटेड (2011) मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विश्वास किया, जिसने स्थापित किया कि धारा 11 का सीमित दायरा इस तर्क की जाँच की अनुमति नहीं देता है कि दावा रेस जूडिकेटा द्वारा वर्जित है। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रारंभिक चरण में रेस जूडिकेटा के प्रतिबंध को बढ़ाना मध्यस्थता न्यायशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों के विरुद्ध अपराध होगा, क्योंकि धारा 11 के अंतर्गत आवेदन पर विचार करते समय रेस जूडिकेटा के आधार पर दावे पर कोई प्रारंभिक विचार एवं अस्वीकृति नहीं हो सकती है। 
  • न्यायालय ने याचिका को अनुमति दी और न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार, उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश को पक्षों के बीच विवादों का न्यायनिर्णयन करने के लिये एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया, इस विशिष्ट निर्देश के साथ कि मध्यस्थ की फीस 1996 अधिनियम की चौथी अनुसूची के अनुसार होगी।
  • न्यायालय ने इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से खुला ओपन कर दिया कि क्या मध्यस्थता के लिये भेजे जाने वाले दावे रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत द्वारा वर्जित हैं, जिसे प्रतिवादी द्वारा संबंधित मध्यस्थ के समक्ष किया जाना चाहिये तथा विधि के अनुसार निर्णय दिया जाना चाहिये।

अधिनियम की धारा 11 क्या है?

  • धारा 11 मध्यस्थता कार्यवाही में मध्यस्थों की नियुक्ति से संबंधित है। धारा 11(1) यह स्थापित करती है कि किसी भी राष्ट्रीयता का व्यक्ति मध्यस्थ हो सकता है, जब तक कि पक्षकार अन्यथा सहमत न हों। 
  • धारा 11(2) उप-धारा (6) के प्रावधानों के अधीन, मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये प्रक्रिया पर सहमत होने की पक्षकारों को स्वतंत्रता प्रदान करती है। 
  • धारा 11(3)-(5) मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये डिफ़ॉल्ट तंत्र प्रदान करती है जब पक्षकार ऐसी नियुक्तियों पर सहमत होने में विफल होते हैं। 
  • धारा 11(6) किसी पक्ष को उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय से अनुरोध करने की अनुमति देती है कि जब सहमत नियुक्ति प्रक्रिया में विफलताएँ हों तो आवश्यक उपाय किये जाएँ।
  • धारा 11(6) किसी पक्ष को उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय से आवश्यक उपाय करने का अनुरोध करने की अनुमति देती है, जब सहमत नियुक्ति प्रक्रिया में विफलताएँ होती हैं। 
  • धारा 11(6A) उप-धारा (4), (5), या (6) के अंतर्गत आवेदनों पर विचार करते समय न्यायालय की जाँच को केवल मध्यस्थता करार के अस्तित्व तक सीमित करती है, चाहे किसी भी न्यायालय का कोई निर्णय, डिक्री या आदेश क्यों न हो। 
  • धारा 11(7) यह स्थापित करती है कि उप-धारा (4), (5), या (6) के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा किये गए निर्णय अंतिम हैं, जिनमें कोई अपील की अनुमति नहीं है। 
  • धारा 11(8) के अंतर्गत न्यायालय को भावी मध्यस्थों से लिखित प्रकटीकरण मांगने और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मध्यस्थों को सुरक्षित करने के लिये पक्षों द्वारा किये करार और अन्य कारकों द्वारा आवश्यक योग्यताओं पर विचार करने की आवश्यकता होती है।
  • धारा 11(14) उच्च न्यायालयों को चौथी अनुसूची में निर्दिष्ट दरों को ध्यान में रखते हुए मध्यस्थों की फीस के निर्धारण के लिये नियम बनाने का अधिकार देती है (अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता को छोड़कर या जब पक्षकार किसी मध्यस्थ संस्था के नियमों के अनुसार फीस के निर्धारण पर सहमत हो गए हों)।