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सांविधानिक विधि
राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के अधीन प्रश्नों को उच्चतम न्यायालय के समक्ष संदर्भित किया गया
16-May-2025
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का पत्र 8 अप्रैल के उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय में प्रस्तुत "मानी गई अनुमति (deemed assent) की अवधारणा" "संवैधानिक व्यवस्था के लिये अलग है तथा मूलतः राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को सीमित करती है।" स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अधीन अपने परामर्शी अधिकार का प्रयोग करते हुए, उच्चतम न्यायालय से यह मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु अनुरोध किया है कि- राज्यपालों एवं राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करने हेतु कोई निर्धारित समय-सीमा है अथवा नहीं।
- उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- यह विवाद सितंबर 2021 में आर.एन. रवि की तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में नियुक्ति के बाद उभरा, जब विधायी विधेयकों को लेकर डी.एम.के. के नेतृत्व वाली राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच तनाव पैदा हो गया।
- तमिलनाडु सरकार ने एक स्वरूप देखा जहाँ राज्यपाल रवि लगातार कई विधेयकों पर मंजूरी रोक रहे थे, जिनमें से कुछ जनवरी 2023 से लंबित हैं, जिससे महत्त्वपूर्ण विधायी कार्यों में विलंब हो रहा था।
- नवंबर 2023 में, तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल के कार्यों को चुनौती देते हुए और अनुच्छेद 200 के अधीन राज्यपाल की शक्तियों की सांविधानिक सीमाओं पर स्पष्टता की मांग करते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- 6 नवंबर 2023 को प्रारंभिक सुनवाई के दौरान, उच्चतम न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि "राज्यपाल इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं।"
- इस घटनाक्रम के पश्चात्, तमिलनाडु विधानसभा ने सक्रिय कदम उठाते हुए राज्यपाल द्वारा रोके गए लंबित विधेयकों को पुनः अधिनियमित (re-enact) कर दिया।
- यद्यपि, राज्यपाल रवि ने इनमें से दो पुनः अधिनियमित विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रेषित कर दिया तथा शेष विधेयकों पर अपनी स्वीकृति प्रदान करने से निरंतर विरत रहे, जिससे सांविधानिक संकट और अधिक गहराता गया।
- इस मामले ने व्यापक महत्त्व प्राप्त कर लिया, क्योंकि केरल, तेलंगाना और पंजाब सहित अन्य विपक्षी शासित राज्यों ने भी इसी प्रकार की याचिकाएं दायर कीं, जिनमें विभिन्न राज्यों में विधायी प्रक्रियाओं में राज्यपालों द्वारा किये जाने वाले विलंब की एक समान प्रवृत्ति परिलक्षित हो रही है।
- यह सांविधानिक विवाद अब एक पूर्वनिर्णय कायम करने वाला मामला बन गया है, जो राज्यपाल की शक्तियों के दायरे को निर्धारित करेगा, विशेष रूप से अनुमोदन के लिये समय-सीमा और विधेयकों को रोकने या आरक्षित रखने के उनके अधिकार की सीमाओं के संबंध में।
राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के समक्ष संदर्भित किये गए प्रश्न क्या थे?
- जब राज्यपाल के समक्ष संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो उसके समक्ष सांविधानिक विकल्प क्या हैं?
- क्या राज्यपाल, भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत विधेयक प्रस्तुत किये जाने पर, अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते समय मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता एवं सलाह से आबद्ध हैं?
- क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल द्वारा सांविधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?
- क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 361, भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक पुनर्विलोकन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है?
- सांविधानिक रूप से विहित समय-सीमा, तथा राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या राज्यपाल द्वारा संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत सभी शक्तियों के प्रयोग के लिये न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है तथा प्रयोग का तरीका निर्धारित किया जा सकता है?
- क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा सांविधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?
- सांविधानिक रूप से विहित समय-सीमा और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग की रीति के अभाव में, क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग के लिये न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमा अधिरोपित की जा सकती है और प्रयोग की रीति को निर्धारित किया जा सकता है?
- राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली सांविधानिक योजना के आलोक में, क्या राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के अधीन संदर्भ के माध्यम से उच्चतम न्यायालय से सलाह लेने की आवश्यकता है और जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिये या अन्यथा सुरक्षित रखता है, तो उच्चतम न्यायालय से परामर्श लेना होगा?
- क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति के क्रमशः भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के अधीन लिये गए निर्णय, विधि के लागू होने से पूर्व के चरण में न्यायोचित हैं? क्या न्यायालयों को किसी विधेयक के विधि बनने से पूर्व, किसी भी तरह से, उसकी विषय-वस्तु पर न्यायिक निर्णय लेने की अनुमति है?
- क्या सांविधानिक शक्तियों के प्रयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत किसी भी रीति से प्रतिस्थापित किया जा सकता है?
- क्या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गई विधि, संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू विधि हो जाती है?
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के उपबंध के मद्देनजर, क्या इस माननीय न्यायालय की किसी भी पीठ के लिये यह अनिवार्य नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि उसके समक्ष कार्यवाही में सम्मिलित प्रश्न ऐसी प्रकृति का है जिसमें संविधान के निर्वचन के रूप में विधि के पर्याप्त प्रश्न सम्मिलित हैं और इसे न्यूनतम पाँच न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित किया जाए?
- क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय की शक्तियां केवल प्रक्रिया संबंधी विधि तक सीमित हैं, या यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश जारी करने अथवा आदेश पारित करने का अधिकार प्रदान करता है जो वर्तमान में प्रवर्तन में रही किसी भी मूल या प्रक्रिया संबंधी सांविधानिक अथवा वैधानिक व्यवस्था के विपरीत या असंगत हों?
- क्या संविधान उच्चतम न्यायालय को संघ सरकार और राज्य सरकारों के बीच विवादों के समाधान हेतु भारत के संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत वाद दायर करने के अतिरिक्त किसी अन्य अधिकारिता पर रोक लगाता है?
भारत के संविधान का अनुच्छेद 200 और 143 क्या है?
भारत के संविधान का अनुच्छेद 200
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 200 राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की अनुमति के लिये प्रक्रिया स्थापित करता है, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख विधिक उपबंध हैं:
- राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक प्रस्तुत किये जाने पर राज्यपाल को तीन सांविधानिक विकल्पों में से एक का प्रयोग करना होगा:
- विधेयक को अनुमति प्रदान करना
- विधेयक पर अनुमति रोक देना
- विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखना
- राज्यपाल के पास गैर-धन विधेयकों को पुनर्विचार हेतु सिफारिशों के साथ विधानमंडल को लौटाने की योग्य शक्ति है, जो निम्नलिखित शर्तों के अधीन है:
- ऐसे विधेयक की प्रस्तुति के पश्चात्, राज्यपाल द्वारा उसकी वापसी "यथाशीघ्र" की जानी अनिवार्य है।
- वापसी के साथ राज्यपाल को अपने विशिष्ट सुझाव अथवा सुझाए गए संशोधन को संलग्न करना आवश्यक है।
- यह शक्ति धन विधेयकों के लिये स्पष्ट रूप से अपवर्जित है।
- पुनर्विचार प्रक्रिया के माध्यम से विधानमंडल के पास अंतिम प्राधिकार सुरक्षित रहता है, जैसे:
- विधेयक को राज्यपाल की सिफारिशों सहित पुनः विचार हेतु विधानमंडल को प्रस्तुत किया जाना होता है।
- विधानमंडल राज्यपाल के सुझावों को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकता है।
- यदि विधानमंडल विधेयक को (संशोधनों सहित अथवा बिना संशोधनों के) पुनः पारित कर देता है, तो राज्यपाल संविधानिक रूप से अनुमोदन देने हेतु आबद्ध होते है।
- राज्यपाल के लिये कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखना अनिवार्य है, विशेषत:
- कोई भी विधेयक जो राज्यपाल की राय में उच्च न्यायालय की शक्तियों का हनन करता हो।
- कोई भी विधेयक जो उच्च न्यायालय की सांविधानिक रूप से बनाई गई स्थिति को संकट में डालता हो।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 143
- अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वे उच्चतम न्यायालय से परामर्शात्मक मत प्राप्त कर सकें:
- राष्ट्रपति दो विशिष्ट परिस्थितियों में कोई प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय को संदर्भित कर सकते हैं:
- अनुच्छेद 143(1) के अधीन: जब कोई विधि या तथ्य का प्रश्न उत्पन्न हो गया हो या उत्पन्न होने की संभावना हो जो ऐसी प्रकृति और व्यापक महत्त्व का हो कि उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन हो
- अनुच्छेद 143(2) के अधीन: अनुच्छेद 131 के परंतुक में उल्लिखित विवादों के लिये, उसमें निहित किसी बात के होते हुए भी
- ऐसे संदर्भों में उच्चतम न्यायालय की भूमिका इस प्रकार है:
- उचित सुनवाई के उपरांत प्रश्न पर विचार करना।
- संदर्भित विषयों पर अपनी राय राष्ट्रपति को प्रेषित करना।
- इस शक्ति की प्रकृति निर्णयात्मक न होकर सलाहकारी है, जो नियमित मुकदमेबाजी की बाधाओं के बिना महत्त्वर्ण विधिक प्रश्नों पर न्यायिक मत प्राप्त करने के लिये एक सांविधानिक तंत्र का निर्माण करती है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 201
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 201 राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित विधेयकों की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है, तथा निम्नलिखित प्रमुख विधिक उपबंध स्थापित करता है:
- आरक्षित विधेयकों पर राष्ट्रपति के विकल्प:
- जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखा जाता है, तो राष्ट्रपति को दो सांविधानिक विकल्पों में से एक का प्रयोग करना होगा:
- विधेयक को अनुमति प्रदान करना
- विधेयक पर अनुमति रोक देना
- जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखा जाता है, तो राष्ट्रपति को दो सांविधानिक विकल्पों में से एक का प्रयोग करना होगा:
- पुनर्विचार हेतु वापसी का निदेश देने की राष्ट्रपति की शक्ति:
- गैर-धन विधेयकों के लिये, राष्ट्रपति के पास राज्यपाल को विधेयक को राज्य विधानमंडल को वापस भेजने का निदेश देने की योग्य शक्ति होती है
- इस प्रकार की वापसी के साथ एक संदेश संलग्न होना आवश्यक होता है, जो कि अनुच्छेद 200 की प्रथम परंतुक में उल्लिखित संदेश के समरूप होता है, जिसमें संभावित रूप से सिफारिशें या सुझाए गए संशोधन सम्मिलित हो सकते हैं
- समयबद्ध विधायी पुनर्विचार प्रक्रिया:
- जब किसी विधेयक को राष्ट्रपति के निदेश पर राज्यपाल द्वारा पुनर्विचार हेतु वापस किया जाता है, तो राज्य विधानमंडल को उस विधेयक पर राष्ट्रपति के संदेश की प्राप्ति की तिथि से छह माह की सांविधानिक रूप से विहित अवधि के भीतर पुनर्विचार करना अनिवार्य होता है।
- यह छह महीने की समय-सीमा एक विशिष्ट संवैधानिक सीमा उत्पन्न करती है, जो कि अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को प्रदत्त पुनर्वापसी की शक्ति में नहीं पाई जाती।
- पुनर्विचार के पश्चात् विधायी प्राधिकार:
- राज्य विधानमंडल सुझाएँ गए संशोधनों को सम्मिलित करने के साथ या बिना विधेयक को पुनः पारित कर सकता है।
- पुनर्विचार और पुनः पारित होने के पश्चात् विधेयक को पुनः राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
- राष्ट्रपति की अंतिम निर्णयात्मक शक्ति:
- अनुच्छेद 200 के अधीन राज्यपाल के विपरीत, राष्ट्रपति के पास विधायी पुनर्विचार के पश्चात् भी अनुमति को रोकने का अधिकार है।
- इससे राज्य की विधि पर अंतिम नियंत्रण स्थापित हो जाता है जिसे विशेष रूप से राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखा गया है।
- धन और गैर-धन विधेयक के बीच सांविधानिक अंतर:
- राष्ट्रपति द्वारा विधेयक को पुनर्विचार हेतु वापस भेजने की शक्ति केवल गैर-धन विधेयकों पर लागू होती है, जिससे वित्तीय विधान के लिये एक स्वतंत्र प्रक्रिया संबंधी मार्ग (separate procedural track) स्थापित होता है।
- यह अनुच्छेद भारत की संघीय प्रणाली के अंतर्गत कार्यकारी समीक्षा की एक अतिरिक्त सांविधानिक परत प्रदान करता है, जो राज्य विधानमंडलों के विचार-विमर्श संबंधी प्राधिकार का सम्मान करते हुए, कुछ राज्य विधानों की राष्ट्रपति द्वारा जांच की अनुमति देता है।
ऐतिहासिक निर्णय
नबाम रेबिया और बामंग फेलिक्स बनाम उपसभापति (2016)
- इस महत्त्वपूर्ण निर्णय में, संविधान पीठ के पाँच न्यायाधीशों में से एक के रूप में न्यायमूर्ति मदन लोकुर ने पृथक सहमतिपूर्ण अभिमत व्यक्त करते हुए, राज्यपाल की शक्तियों के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किया।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से निर्णय दिया कि राज्यपाल विधेयकों पर अपनी अनुमति हेतु अनिश्चित काल तक रोके नहीं रख सकते, जिससे राज्यपाल के विवेक पर स्पष्ट सीमाएं स्थापित हो गईं।
- इस निर्णय में यह निदेशित किया गया कि यदि राज्यपाल को किसी विधेयक को लेकर आपत्ति या सुझाव हो, तो वे उसे स्पष्ट संदेश अथवा सिफारिशों के साथ विधानसभा को पुनः प्रेषित करें, न कि उसे अनिश्चितकाल तक लंबित रखें।
पंजाब राज्य बनाम पंजाब के राज्यपाल के प्रधान सचिव और अन्य (2023):
- यह वाद तब उत्पन्न हुआ जब पंजाब के राज्यपाल ने विधान सभा के बजट सत्र को आहूत करने से इनकार कर दिया और तत्पश्चात् विधानसभा द्वारा पारित चार विधेयकों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई, जिसके परिणामस्वरूप राज्य सरकार ने अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय का का रुख किया।
- मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ अध्यक्षता में गठित पीठ ने यह अवलोकन किया कि अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को प्रदत्त अनुमति को रोके रखने की शक्ति को उस बाध्यता के साथ पढ़ा जाना चाहिये, जिसके अनुसार उन्हें विधेयक को पुनर्विचार हेतु राज्य विधानमंडल को लौटाना आवश्यक है।
- न्यायालय ने दृढ़ता से यह स्थापित किया कि राज्यपाल, जो एक अप्रतिनिधिक (निर्वाचित न होने वाले) सांविधानिक पदाधिकारी हैं, वे अपने सांविधानिक अधिकारों का प्रयोग कर सामान्य विधायी प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न नहीं कर सकते। राज्यपाल को या तो विधेयक को अनुमति प्रदान करनी होगी या फिर अपनी सिफारिशों सहित उसे विधानसभा को पुनः विचारार्थ प्रेषित करना होगा, न कि उसे अनिश्चितकाल तक लंबित रखना।
- इस निर्णय में नबाम रेबिया मामले में स्थापित सिद्धांतों का पालन किया गया और उन पर निर्माण किया गया, जिससे विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की जवाबदेही के लिये एक ठोस ढाँचा तैयार किया गया।
सिविल कानून
CPC का आदेश 11 नियम 1
16-May-2025
के. सी. शिवशंकर पणिक्कर बनाम के. सी. वसंतकुमारी उर्फ के. सी. वसंती एवं अन्य " परिप्रश्न के लिये दूसरा आवेदन तभी स्वीकार्य है जब वह परिवर्तित वाद-हेतुक पर आधारित हो, तथा ट्रायल कोर्ट के आदेश के विरुद्ध चुनौती को खारिज कर दिया जाए"। न्यायमूर्ति के. बाबू |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति के. बाबू ने कहा कि जब वाद-हेतुक या बाद में कोई घटनाक्रम बदल जाता है, तो परिप्रश्न के लिये बाद में किया गया आवेदन स्वीकार्य है, भले ही पहले का आवेदन बिना दबाव के खारिज कर दिया गया हो।
- केरल उच्च न्यायालय ने के.सी. शिवशंकर पणिक्कर बनाम के.सी. वसंतकुमारी उर्फ के.सी. वसंती एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
के.सी. शिवशंकर पणिक्कर बनाम के.सी. वसंतकुमारी उर्फ के.सी. वसंती एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला कुट्टीपुरथ चेलाथ थरवाड (एक परिवार) के सदस्यों से संबंधित है, जहाँ वादी और प्रतिवादी 1 एवं 2 एक ही परिवार के सदस्य हैं।
- विवादित संपत्ति मूल रूप से थरवाड की थी तथा अधीनस्थ न्यायाधीश न्यायालय, कोझीकोड के समक्ष ओ.एस. संख्या 76/1960 में विभाजन की प्रक्रिया के अधीन थी।
- 3 जनवरी 1970 को एक प्रारंभिक डिक्री पारित की गई थी, तथा 30 अगस्त 1971 की अंतिम डिक्री कार्यवाही में, संपत्ति को परिवार के सदस्यों के बीच विभाजित किया गया था।
- अंतिम डिक्री के समय वादी अप्राप्तवय थी, उसकी माँ (प्रतिवादी संख्या 2) उसकी अभिभावक के रूप में कार्य कर रही थी।
- प्रतिवादी संख्या 2 ने बाद में पुनर्विवाह कर लिया, तथा वादी 09 जुलाई 1972 को वयस्क हो गई, जिसके बाद उसने विवाह किया एवं गोवा चली गई।
- कुछ संपत्तियाँ वादी एवं प्रतिवादी संख्या 2 के लिये संयुक्त रूप से अलग रखी गई थीं, जबकि अन्य संपत्तियाँ प्रतिवादी संख्या 1 को आवंटित की गई थीं।
- वादी का आरोप है कि संपत्तियों में उसका अंश प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा प्रबंधित किया जाता है, जिसने 01 अक्टूबर 2014 को विभाजन के लिये उसके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया।
- प्रतिवादी संख्या 1 से संपर्क करने पर, वादी को पता चला कि उसने कथित रूप से छल से दस्तावेज़ संख्या 4283/2012 बनाया था, जो प्रतिवादी संख्या 3 (उसका पोता) के पक्ष में एक उपहार विलेख था।
- वादी का तर्क है कि प्रतिवादी संख्या 1 को इस विलेख को निष्पादित करने का कोई अधिकार नहीं था तथा वह संपत्तियों में आधे हिस्से का अधिकारी होने का दावा करता है।
- प्रतिवादियों का तर्क है कि अंतिम डिक्री अभी तक निष्पादित नहीं हुई है, कि संपत्तियाँ सह-भागीदारी संपत्तियाँ बन गई हैं, तथा वादी को 09 जुलाई 1974 से पहले निष्पादन आवेदन दायर करना चाहिये था।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने संपत्तियों में वादी के हक या हित को अस्वीकार करते हुए दावा किया कि प्रतिवादी संख्या 3 के पास निपटान विलेख संख्या 4283/2012 के अंतर्गत संपत्ति है।
- वादी ने परिप्रश्न करने की अनुमति मांगते हुए I.A.255/2017 दायर किया, जिसे दबाव न होने के कारण खारिज कर दिया गया, तथा बाद में उसी उद्देश्य के लिये I.A.843/2019 दायर किया, जिसे ट्रायल कोर्ट ने अनुमति दी।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने केरल उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान मूल याचिका में इस आदेश को चुनौती दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्च न्यायालय ने कहा कि परिप्रश्न की सेवा का उद्देश्य किसी पक्ष को अपने मामले को बनाए रखने के लिये अपने प्रतिद्वंद्वी से सूचना प्राप्त करने में सक्षम बनाना है।
- न्यायालय ने कहा कि परिप्रश्न का उत्तर देने से वाद की कार्यवाही कम हो सकती है, समय की बचत हो सकती है तथा साक्षियों एवं दस्तावेजों को बुलाने के लिये खर्च कम हो सकता है।
- न्यायालय ने इंग्लैंड एवं भारत में परिप्रश्न पर विधानों के बीच अंतर किया, यह देखते हुए कि भारत में, परिप्रश्न को वाद में विचाराधीन मामलों से संबंधित तथ्यों तक ही सीमित रखा जाना चाहिये।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि परिप्रश्न की अनुमति देने की शक्ति को संकीर्ण सीमाओं के अंतर्गत सीमित नहीं किया जाना चाहिये, बल्कि न्याय के हितों की सेवा के लिये उदारतापूर्वक उपयोग किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि परिप्रश्न को किसी के प्रतिद्वंद्वी के मामले की प्रकृति का पता लगाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये, लेकिन किसी के अपने मामले का समर्थन करने की अनुमति दी जा सकती है।
- न्यायालय ने कहा कि कोई पक्ष तथ्यों की खोज प्राप्त करने के लिये परिप्रश्न करने का अधिकारी नहीं है जो केवल विरोधी के मामले या हक़ का साक्ष्य है।
- न्यायालय ने कहा कि विरोधी एवं विधिक सलाहकारों के बीच गोपनीय संचार से संबंधित परिप्रश्न या सार्वजनिक हितों को नुकसान पहुँचाने वाले प्रकटन से संबंधित परिप्रश्न की अनुमति नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि जब अंतिम निर्णय और डिक्री जैसे प्रासंगिक दस्तावेजों को ट्रायल कोर्ट से नहीं पाया जा सका, तो इसके परिणामस्वरूप "परिवर्तित" वाद-हेतुक हुआ।
- न्यायालय ने कहा कि परिप्रश्न देने की मांग करने वाले बाद के आवेदन पर तब भी रोक नहीं है, जब पिछले आवेदन को बिना दबाव के खारिज कर दिया गया हो, हालाँकि बाद में वाद-हेतुक हो।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि परिप्रश्न देने की अनुमति मांगने वाली याचिका की योग्यता का निर्धारण परीक्षण के उन्नत चरणों में भी 'पूर्वाग्रह' की मानक पर किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि जिन प्रश्नों का उत्तर देने की मांग की गई थी, वे संबंधित मामलों के लिये प्रासंगिक थे तथा उनका उद्देश्य प्रतिवादी संख्या 1 की विश्वसनीयता का परीक्षण करना नहीं था।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी संख्या 1 ने यह प्रदर्शित नहीं किया था कि प्रश्नों का उत्तर देने से उसके मामले पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) का आदेश XI नियम I क्या है?
- आदेश XI नियम 1 सिविल कार्यवाही में दस्तावेजों के प्रकटीकरण, खोज एवं निरीक्षण की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।
- यह नियम एक अनिवार्य ढाँचा स्थापित करता है, जिसके अंतर्गत पक्षों को वाद के आरंभिक चरण में सभी प्रासंगिक दस्तावेजों का प्रकटन करना आवश्यक है।
- नियम 1(1) के अंतर्गत, वादी को वाद के साथ-साथ वाद से संबंधित अपने अधिकार, कब्जे, नियंत्रण या संरक्षण में सभी दस्तावेजों की एक व्यापक सूची दाखिल करनी चाहिये।
- वादी का प्रकटीकरण दायित्व दस्तावेजों की तीन श्रेणियों तक विस्तृत है:
- शिकायत में संदर्भित और जिन पर विश्वास किया गया है
- कार्यवाही में विचाराधीन किसी भी मामले से संबंधित दस्तावेज, भले ही वे वादी के मामले का समर्थन करते हों या उसके प्रतिकूल हों
- दस्तावेज जो बाद में विशिष्ट उद्देश्यों के लिये प्रस्तुत किये जा सकते हैं, जैसे कि प्रतिपरीक्षा या अभिखंडन
- नियम के अनुसार वादी को यह निर्दिष्ट करना होगा कि प्रकट किये गए दस्तावेज़ मूल हैं, कार्यालय प्रतियाँ हैं या फोटोकॉपी हैं, तथा प्रत्येक दस्तावेज़ के पक्षकारों, निष्पादन के तरीके, जारी करने, प्राप्ति एवं अभिरक्षा की सीमा के विषय में विवरण प्रदान करना होगा।
- वादी को शपथ पर एक घोषणा प्रस्तुत करनी होगी कि सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ प्रकट किये गए हैं और तथ्यों एवं परिस्थितियों से संबंधित कोई अन्य दस्तावेज़ उनके कब्जे, नियंत्रण या अभिरक्षा में नहीं है।
- अत्यावश्यक फाइलिंग के लिये, वादी अतिरिक्त दस्तावेज़ों पर विश्वास करने की अनुमति मांग सकता है, जो न्यायालय की स्वीकृति के अधीन है, तथा उसे अपेक्षित शपथ के साथ तीस दिनों के अंदर ऐसे दस्तावेज़ दाखिल करने होंगे।
- यह नियम वादी की पहले से अज्ञात दस्तावेजों पर विश्वास करने की क्षमता पर प्रतिबंध लगाता है, तथा गैर-प्रकटीकरण के लिये उचित कारण स्थापित करने पर न्यायालय की अनुमति से ही इस तरह के विश्वास करने की अनुमति देता है।
- इसी तरह, प्रतिवादियों को समानांतर प्रकटीकरण दायित्वों के अधीन, अपने लिखित अभिकथन या प्रति-दावे के साथ सभी प्रासंगिक दस्तावेजों की एक सूची दाखिल करने की आवश्यकता होती है।
- यह नियम प्रकटीकरण का एक सतत कर्त्तव्य अध्यारोपित करता है जो वाद के अंतिम निपटान तक बना रहता है, यह सुनिश्चित करता है कि नए खोजे गए प्रासंगिक दस्तावेजों को तुरंत न्यायालय के ध्यान में लाया जाए।
- यह नियम एक सशक्त दस्तावेज़ प्रकटीकरण व्यवस्था स्थापित करता है जो पारदर्शिता को बढ़ावा देता है, परीक्षण में आश्चर्य को कम करता है, और तथ्यात्मक विवादों के कुशल समाधान की सुविधा प्रदान करता है।
- यह नियम सिविल प्रक्रिया संहिता के व्यापक ढाँचे का भाग है जिसे सिविल विवादों का निष्पक्ष, कुशल एवं शीघ्र समाधान सुनिश्चित करने के लिये प्रारूपित किया गया है।
सिविल कानून
परिनिर्धारित नुकसानी की वापसी एवं माध्यस्थम अधिनियम की धारा 37
16-May-2025
राजस्थान अर्बन इंफ़्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स बनाम मेसर्स नेशनल बिल्डर्स “धारा 37 के अंतर्गत हस्तक्षेप अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत उपलब्ध आधारों से परे नहीं हो सकता।” न्यायमूर्ति भुवन गोयल एवं न्यायमूर्ति अवनीश झिंगन |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति भुवन गोयल एवं न्यायमूर्ति अवनीश झिंगन की पीठ ने हर्जाना वापस करने के मध्यस्थ के निर्देश में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया तथा माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के अंतर्गत अपीलीय हस्तक्षेप के सीमित दायरे को दोहराया।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने राजस्थान अर्बन इंफ़्रास्ट्रक्चर बनाम मेसर्स नेशनल बिल्डर्स (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
राजस्थान अर्बन इंफ़्रास्ट्रक्चर बनाम मेसर्स नेशनल बिल्डर्स (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता ने माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 37 के अंतर्गत अपील दायर की, जिसमें अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत उनके आवेदन को खारिज करने को चुनौती दी गई।
- अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी को कार्य आदेश जारी किया था, तथा दोनों पक्षों ने 3 फरवरी, 2003 को एक संविदा किया था।
- इस परियोजना में अजमेर में रामगंज से ट्रांसपोर्ट नगर तक राष्ट्रीय राजमार्ग ब्यावर रोड को चौड़ा और सशक्त करना एवं एक तरफ रैंप बनाना शामिल था।
- यह कार्य 2 फरवरी, 2004 तक पूरा होना था, लेकिन वास्तव में 10 मई, 2005 को पूरा हुआ, जिसके परिणामस्वरूप 463 दिनों की विलंब हुई।
- संविदा प्रदर्शन के दौरान उत्पन्न विवादों को एक मध्यस्थ को भेजा गया, जिसने 30 अगस्त, 2010 को एक पंचाट पारित किया।
- मध्यस्थ ने अपीलकर्त्ता को प्रतिवादी को 41,54,511/- रुपये और माध्यस्थम लागत के लिये 1,01,500/- रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया।
- मध्यस्थ ने धारा 31(7)(a) के अंतर्गत 15,87,957/- रुपये की राशि तथा धारा 31(7)(b) के अंतर्गत 18% प्रति वर्ष की दर से पंचाट की तिथि से भुगतान तक ब्याज भी दिया।
- धारा 34 के अंतर्गत अपीलकर्त्ता के आवेदन को वाणिज्यिक न्यायालय ने 11 जुलाई, 2019 को खारिज कर दिया, जिसके कारण वर्तमान अपील की गई।
- अपीलकर्त्ता ने पाँच मुख्य मुद्दे प्रस्तुत किये: अग्रिम मोबिलाइज़ेशन पर ब्याज की वसूली, उत्पाद शुल्क की वसूली, वीडियो कैसेट एवं दस्तावेज़ जमा न करने की वसूली, बढ़ी हुई कीमतों के लिये दावे एवं परिनिर्धारित नुकसानी लगाना।
- प्रतिवादी ने तर्क दिया कि अग्रिम मोबिलाइजेशन पर ब्याज लगाने का कोई खंड नहीं था, लाइट डीजल ऑयल की छूट विधिक रूप से ली गई थी, आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत किये गए थे, मूल्य वृद्धि के विषय में खंड 41 को हटा दिया गया था, तथा विलंब मुख्य रूप से अपीलकर्त्ता के कारण हुई थी।
- एक उच्च अधिकार प्राप्त समिति ने निर्धारित किया था कि 463 दिनों की विलंब में से 458 दिन अपीलकर्त्ता के कारण थे, न कि प्रतिवादी के कारण।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने प्रतिवादी के पक्ष में मध्यस्थ के निर्णय को यथावत रखते हुए अपील को खारिज कर दिया।
- अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी को ब्याज मुक्त मोबिलाइजेशन अग्रिम राशि का भुगतान किया था, जिसे अंतरिम भुगतानों से कटौती के माध्यम से दस महीने के अंदर चुकाया जाना था।
- मध्यस्थ ने पाया कि अपीलकर्त्ता ऐसा करने का अधिकार होने के बावजूद अंतरिम बिलों से कटौती करने में विफल रहा।
- प्रतिवादी ने 03.12.2003 के पत्र के माध्यम से अग्रिम राशि (नवंबर 2003 में 90% एवं दिसंबर 2003 में 10%) की कटौती का अनुरोध किया था।
- न्यायालय ने प्रतिवादी द्वारा LDO के उपयोग के लिये दावा किये गए आबकारी लाभों में 2,09,760 रुपये की अपीलकर्त्ता की वसूली को खारिज कर दिया, क्योंकि उन्मुक्ति पात्रता का निर्धारण आबकारी विभाग द्वारा किया जाना था।
- न्यायालय को ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला कि आबकारी विभाग ने प्रतिवादी द्वारा दावा की गई छूट पर आपत्ति की थी। न्यायालय ने प्रतिवादी को 2,09,760 रुपये की वापसी को यथावत रखा।
- खंड 85 के कथित उल्लंघन के लिये 1,00,000 रुपये वसूल किये गए, क्योंकि इस खंड को खंड 126 द्वारा हटा दिया गया था।
- अपीलकर्त्ता की आपत्तियों के बावजूद प्रतिवादी का मूल्य वृद्धि का दावा वैध था, क्योंकि खंड 41 को हटा दिया गया था तथा खंड 38 में मूल्य समायोजन की अनुमति दी गई थी।
- अपीलकर्त्ता ने मूल्य वृद्धि के लिये आंशिक भुगतान स्वयं किया था, जो न्यायालय में उसकी स्थिति का खंडन करता है।
- उच्च अधिकार प्राप्त समिति ने 463 दिनों की विलंब में से 458 दिनों के लिये अपीलकर्त्ता को उत्तरदायी माना था, जबकि प्रतिवादी के लिये केवल 5 दिन उत्तरदायी थे।
- न्यायालय ने प्रतिवादी पर लगाए गए परिनिर्धारित नुकसानी को रद्द करने के मध्यस्थ के निर्णय को यथावत रखा, यह देखते हुए कि विलंब का अधिकांश भाग अपीलकर्त्ता के कारण हुआ था।
परिनिर्धारित नुकसानी क्या हैं?
- निर्माण, इंजीनियरिंग, उपकरण आपूर्ति, खरीद एवं सेवा करार सहित वाणिज्यिक संविदाओं में परिनिर्धारित नुकसानी खंड सामान्य हैं।
- ये खंड सख्त समयसीमा वाले संविदाओं में विशेष रूप से उपयोगी होते हैं, जिससे पक्षों को उल्लंघन के मामले में देय क्षति का अनुमान लगाने की अनुमति मिलती है।
- परिनिर्धारित नुकसानी मुआवज़ा पूर्व-निर्धारित करके वाणिज्यिक निश्चितता को बढ़ावा देती है, जिससे पक्षों को "परिभाषित जोखिम" उठाने में सक्षम बनाया जाता है।
- भारत में, यूनाइटेड किंगडम की तरह, परिनिर्धारित नुकसानी खंड केवल तभी लागू होते हैं जब उनमें दण्डात्मक खंड की विशेषताएँ न हों और वे उचित हों।
- परिनिर्धारित नुकसानी को संविदा के उल्लंघन के लिये मुआवज़े के रूप में एक उचित राशि का पूर्व-अनुमान लगाना चाहिये।
- तीन प्रमुख सिद्धांत परिनिर्धारित नुकसानी को दण्ड से अलग करते हैं: परिनिर्धारित नुकसानी नुकसान का पूर्व-अनुमान बनाती है जबकि दण्ड दण्डात्मक होते हैं; पूर्व-अनुमानित राशि उचित होनी चाहिये; तथा परिनिर्धारित नुकसानी खंड में तय की गई राशि देय क्षति की ऊपरी सीमा के रूप में कार्य करती है।
- ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम सॉ पाइप्स (2003) मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने ऐसे खंडों की प्रकृति का निर्धारण करते समय संविदा की शर्तों और भाषा की जाँच करने पर बल दिया।
- न्यायालय ने कहा कि जब पक्ष स्पष्ट रूप से मुआवजे के रूप में वास्तविक पूर्व-अनुमानित परिनिर्धारित नुकसानी राशि पर सहमति देते हैं, तथा राशि दण्डात्मक प्रकृति की नहीं होती है, तो न्यायालयों को मुआवजा प्रदान करना चाहिये।
A & C अधिनियम की धारा 37 क्या है?
- A & C अधिनियम की धारा 37 में अपील योग्य आदेशों का प्रावधान है।
- धारा 37 आदेशों के सीमित सेट को निर्दिष्ट करती है, जिसके विरुद्ध मूल आदेशों की अपीलों की सुनवाई करने के लिये अधिकृत न्यायालय में अपील की जा सकती है।
- किसी अन्य लागू विधि के बावजूद, धारा 8 के अंतर्गत पक्षों को माध्यस्थम के लिये संदर्भित करने से मना करने वाले आदेशों के विरुद्ध अपील दायर की जा सकती है।
- धारा 9 के अंतर्गत किसी उपाय को देने या देने से मना करने वाले आदेशों के विरुद्ध अपील की अनुमति है।
- धारा 34 के अंतर्गत मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने या रद्द करने से मना करने वाले आदेशों पर अपील की जा सकती है।
- धारा 16 की उपधारा (2) या उपधारा (3) में निर्दिष्ट दलीलों को स्वीकार करने वाले मध्यस्थ अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध भी अपील की जा सकती है।
- धारा 17 के अंतर्गत अंतरिम उपाय देने या देने से मना करने वाले मध्यस्थ अधिकरण के आदेशों पर अपील की जा सकती है।
- इस धारा के अंतर्गत अपील में पारित आदेश के विरुद्ध दूसरी अपील की अनुमति नहीं है।
- यह धारा उच्चतम न्यायालय में अपील करने के अधिकार को सुरक्षित रखती है, जो अप्रभावित रहता है।
- इस संबंध में महत्त्वपूर्ण निर्णय इस प्रकार हैं:
- MMTC लिमिटेड बनाम वेदांता लिमिटेड (2019) 4 SCC 163:
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 37 के अंतर्गत हस्तक्षेप धारा 34 के अंतर्गत निर्धारित प्रतिबंधों से आगे नहीं जा सकता।
- धारा 37 के अंतर्गत अपील की सुनवाई करते समय न्यायालय पंचाट की योग्यता का स्वतंत्र मूल्यांकन नहीं कर सकता।
- अपीलीय न्यायालय को केवल यह सुनिश्चित करना चाहिये कि धारा 34 के अंतर्गत न्यायालय द्वारा शक्ति का प्रयोग प्रावधान की सीमा से बाहर नहीं गया है।
- यदि धारा 34 के अंतर्गत न्यायालय द्वारा और धारा 37 के अंतर्गत अपील में न्यायालय द्वारा मध्यस्थ पंचाट की पुष्टि की गई है, तो उच्चतम न्यायालय को ऐसे समवर्ती निष्कर्षों को बदलने में अत्यंत सतर्क एवं प्रगतिशील होना चाहिये।
- पंजाब राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स सन्मान राइस मिल्स एवं अन्य (2024)
- धारा 37 के अंतर्गत अपीलीय शक्ति अधिनियम की धारा 34 के दायरे में सीमित है।
- अपीलीय शक्ति का प्रयोग केवल यह निर्धारित करने के लिये किया जा सकता है कि धारा 34 के अंतर्गत न्यायालय ने अपनी निर्धारित सीमाओं के अंदर कार्य किया है या अपनी प्रदत्त शक्ति का अतिक्रमण किया है या उसका प्रयोग करने में विफल रहा है।
- अपीलीय न्यायालय के पास विवाद के गुण-दोष पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं है, जैसे कि वह किसी सामान्य अपीलीय न्यायालय में निहित हो।
- अपीलीय न्यायालय केवल तभी हस्तक्षेप कर सकता है, जब धारा 34 के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग करने वाला न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में विफल रहा हो या अपनी अधिकारिता का अतिक्रमण किया हो।
- धारा 37 के अंतर्गत शक्ति अधीक्षण के समान है, जैसा कि पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते समय सिविल न्यायालयों में निहित है।
- MMTC लिमिटेड बनाम वेदांता लिमिटेड (2019) 4 SCC 163: