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सांविधानिक विधि

बाध्यकारी संसदीय विधियाँ

 10-Jul-2025

सोरभ कमल जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य 

"हम निदेश देते हैं कि महानिदेशक पुलिस (DGP) उत्तर-पत्र दायर करते समय अपनी शक्तियां किसी अधीनस्थ अधिकारी को प्रत्यायोजित न करें। हम यह अधिकार सुरक्षित रखते हैं कि, यदि आवश्यक और उपयुक्त प्रतीत हुआ, तो महानिदेशक पुलिस द्वारा दायर शपथपत्र का अवलोकन करने के उपरांत संबंधित अन्वेषण अधिकारी के विरुद्ध विधि के प्रावधानों के उल्लंघन हेतु आवश्यक कार्रवाई की जाए।" 

न्यायमूर्ति अजय गडकरी और राजेश पाटिल 

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति अजय गडकरी एवं न्यायमूर्ति राजेश पाटिल की खंडपीठ ने महाराष्ट्र पुलिस के संबंध में यह स्पष्ट करने हेतु महानिदेशक पुलिस (DGP) को शपथपत्र के माध्यम से परिपत्र प्रस्तुत करने का निदेश दिया है कि क्या संसदीय विधियाँ एवं महानिदेशक पुलिस (DGP) द्वारा निर्गत परिपत्र महाराष्ट्र पुलिस पर बाध्यकारी हैं। साथ ही, न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के उल्लंघन की स्थिति में कठोर कार्रवाई की चेतावनी भी दी है 

  • बॉम्बेउच्च न्यायालय नेसोरभ कमल जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया 

सोरभ कमल जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • 3 जून 2024 को एक आर्थिक अपराध के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई। 
  • पंजीकरण की तारीख से 13 महीने से अधिक समय से अन्वेषण चल रहा है। 
  • इस मामले के लिये नियुक्त अन्वेषण अधिकारी स्थानीय पुलिस थाने में सहायक पुलिस निरीक्षक (Assistant Police Inspector) के पद पर है। 
  • यह मामला आर्थिक अपराधों से संबंधित है, जिनमें सामान्यत: प्रक्रियाओं के गहन और व्यवस्थित अन्वेषण की आवश्यकता होती है। 
  • घटनास्थल का पंचनामा तैयार करने की मूलभूत अन्वेषण प्रक्रिया अब तक पूर्ण नहीं की गई है, जबकि घटना को घटित हुए 13 महीने से अधिक का समय व्यतीत हो चुका है। 
  • केस डायरी का रखरखाव अनियमित और सांविधिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं पाया गया। 
  • अन्वेषण की गति मंद प्रतीत होती है एवं आवश्यक मूलभूत अन्वेषणात्मक कदम अब तक अपूर्ण हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने इस तथ्य पर आश्चर्य व्यक्त किया कि अपराध दिनांक 3 जून 2024 को दर्ज होने के पश्चात् 13 महीने से अधिक का समय व्यतीत हो चुका है, तथापि अन्वेषण की मूलभूत प्रक्रिया, अर्थात् घटनास्थल का पंचनामा, आज तक संबंधित अन्वेषण अधिकारी द्वारा संपादित नहीं किया गया है।  
  • न्यायालय ने कहा कि इस प्रकृति के अपराध, जो एक आर्थिक अपराध है और सहायक पुलिस निरीक्षक स्तर के अधिकारी द्वारा किये जा रहे अन्वेषण के शेष भाग के बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा है। 
  • केस डायरी का व्यक्तिगत अवलोकन करने पर न्यायालय ने पाया कि इसे पीले रंग की प्लास्टिक फाइल में ढीले पन्नों के साथ लापरवाही से रखा गया था। 
  • केस डायरी के पहले पृष्ठ पर कोई संख्या और तारीख अंकित नहीं थी तथा इसे लेजर पेपर पर टाइप किया गया था। 
  • केस डायरी प्रविष्टियाँ संख्या 1 से 13 तक ढीली पन्ने पाई गईं, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 172(1-ख) के अधीन विधि के अधिदेश का स्पष्ट उल्लंघन दर्शाती हैं। 
  • न्यायालय ने पाया कि संबंधित अन्वेषण अधिकारी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 172(1-ख) के अधीन विधि के अधिदेश का स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया है, साथ ही महाराष्ट्र राज्य के पुलिस महानिदेशक के कार्यालय द्वारा जारी विभिन्न परिपत्रों और निदेशों का भी उल्लंघन किया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि पुलिस महानिदेशक के कार्यालय ने 6 दिसंबर 2018, 16 सितंबर 2021 और 12 फरवरी 2024 को परिपत्र जारी कर महाराष्ट्र के सभी पुलिस कर्मियों को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 172 के अनुसार केस डायरी बनाए रखने का बार-बार निदेश दिया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि महाराष्ट्र राज्य के सभी पुलिस कर्मियों को दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपबंधों के अनुसार विधि के आदेशों का पालन करना होगा, साथ ही पुलिस महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी निदेशों का भी पालन करना होगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि पुलिस महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी निदेश निचले स्तर के पुलिस कर्मियों तक नहीं पहुँच रहे हैं, जो पुलिस विभाग के सर्वोच्च प्राधिकारी द्वारा जारी निदेशों का खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं। 
  • न्यायालय ने टिप्पणी की कि यह स्थिति अनुचित और अक्षम्य है, तथा यह भी कहा कि एक अनुशासित पुलिस बल में पुलिसकर्मी स्वयं अनुशासन का पालन नहीं कर रहे हैं और पुलिस महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी अनिवार्य निदेशों का पालन नहीं कर रहे हैं। 
  • न्यायालय ने पुलिस महानिदेशक को शपथ पर यह स्पष्ट करने का निदेश दिया कि क्या भारत की संसद द्वारा अधिनियमित विधि के प्रावधान महाराष्ट्र राज्य के पुलिस कर्मियों पर बाध्यकारी और अनिवार्य हैं, या उन्हें केवल काविधिनून की किताबों में ही रखा जाना है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर स्पष्टीकरण मांगा कि क्या महाराष्ट्र राज्य के पुलिस महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी परिपत्र और निदेश सभी पुलिस बलों पर बाध्यकारी हैं। 
  • न्यायालय ने पुलिस महानिदेशक के शपथपत्र पर विचार करने के बाद, यदि आवश्यक समझा जाए तो विधि के प्रावधानों के उल्लंघन के लिये संबंधित अन्वेषण अधिकारी के विरुद्ध आवश्यक कार्रवाई करने का अपना अधिकार सुरक्षित रखा। 

संसदीय विधायी प्राधिकरण क्या है? 

  • भारत की संसद देश में सर्वोच्च विधायी प्राधिकारी है और अपनी विधायी क्षमता के अंतर्गत आने वाले विषयों पर विधि बनाने की सांविधानिक शक्ति रखती है। 
  • भारतीय संसद को यह सांविधानिक अधिकार प्राप्त है कि वह सांविधिक अधिनियमों के माध्यम से उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित स्थापित पूर्व निर्णयों के प्रभावों को समाप्त या अप्रभावी कर सकती है।  
  • संसद द्वारा अधिनियमित विधि न्यायिक पूर्व निर्णयों को या तो अभिव्यक्त रूप से या सांविधिक प्रावधानों के माध्यम से स्पष्ट रूप से निरस्त कर सकती है। 
  • जब संसद कोई ऐसी विधि बनाती है जो किसी विद्यमान न्यायिक पूर्व निर्णय के साथ असंगत होती है, तो सांविधिक प्रावधान स्पष्ट रूप से ऐसा कहे बिना ही उस पूर्व निर्णयों को नकार देता है।  
  • संसद किसी विशेष न्यायिक पूर्व निर्णय या निर्णय को स्पष्ट रूप से अप्रभावी घोषित कर सकती है, यदि वह सांविधिक उपबंध में विशेष रूप से यह उल्लेख कर दे कि उक्त पूर्व निर्णय या निर्णय लागू नहीं होगा अथवा उसे निष्प्रभावित किया जा रहा है।  

सांविधानिक ढाँचे क्या हैं? 

न्यायिक निर्णयों पर विधायी प्रतिक्रिया: 

  • भारतीय सांविधानिक प्रणाली के अधीन, जबकि न्यायपालिका विधि का निर्वचन करती है, वहीं संसद के पास विधि बनाने का अंतिम अधिकार होता है और वह विधान के माध्यम से न्यायिक निर्वचन को अधिभावी कर सकती है। 
  • यद्यपि न्यायिक पूर्व निर्णय संविधान के अनुच्छेद 141 के अंतर्गत बाध्यकारी हैं, तथापि जब संसद विधि बनाने के लिये अपनी सांविधानिक शक्ति का प्रयोग करती है, तो वे विधायी अधिभावी के अधीन होती हैं। 
  • जब संसद कोई ऐसी विधि बनाती है जो न्यायिक पूर्व निर्णय के विपरीत हो, तो सांविधिक प्रावधान न्यायिक निर्णय पर वरीयता ले लेता है। 

न्यायिक निर्णयों पर विधायी प्रतिक्रिया: 

  • संसद न्यायिक निर्णयों पर प्रतिक्रिया स्वरूप विशिष्ट विधि बना सकती है जो न्यायालय के निर्णयों में उठाए गए मुद्दों का समाधान करती है। 

विधिक स्थिति का स्पष्टीकरण: 

  • सांविधिक अधिनियमों के माध्यम से, संसद उन मामलों पर विधिक स्थिति स्पष्ट कर सकती है जहाँ न्यायिक पूर्व निर्णयों ने अनिश्चितता उत्पन्न की हो या जहाँ विधायी आशय न्यायिक निर्वचन से भिन्न हो। 

पूर्वव्यापी प्रभाव: 

  • संसद सांविधानिक सीमाओं के अधीन न्यायिक पूर्व निर्णयों के प्रभाव को निष्प्रभावी करने के लिये पूर्वव्यापी प्रभाव से विधि बना सकती है। 

शक्तियों का पृथक्करण: 

  • जबकि न्यायपालिका के पास विधियों का निर्वचन करने और बाध्यकारी पूर्व निर्णय  कायम करने की शक्ति है, वहीं संसद के पास ऐसी विधि बनाने का सांविधानिक अधिकार है जो ऐसी पूर्व निर्णयों को पलट सकते हैं। 

लोकतांत्रिक वैधता: 

  • संसदीय विधियाँ अपना अधिकार लोकतांत्रिक जनादेश और सांविधानिक प्रावधानों से प्राप्त करते हैं, जिससे सांविधानिक सीमाओं के भीतर अधिनियमित होने पर वे न्यायिक पूर्व निर्णयों को पीछे छोड़ देते हैं। 

सांविधानिक सर्वोच्चता: 

  • संसदीय विधि और न्यायिक पूर्व निर्णय दोनों ही संविधान के ढाँचे के अंतर्गत संचालित होती हैं, तथा संसद की विधायी शक्ति सांविधानिक सीमाओं और न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन होती है। 

सांविधानिक विधि

अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के लिये दण्डादेश का लघुकरण

 10-Jul-2025

सुरेंद्र कुमार बनाम सी.बी.आई. 

"आपराधिक न्यायशास्त्र में, दण्ड निर्धारण मात्र एक यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है, अपितु इसमें अपराध को बढ़ाने वाले और कम करने वाले कारकों के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन बनाना सम्मिलित है।" 

न्यायमूर्ति जसमीत सिंह 

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जसमीत सिंह ने 40 वर्ष के विलंब को त्वरित विचारण के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए दण्डादेश का लघुकरण कर दिया।   

  • दिल्लीउच्च न्यायालय नेसुरेन्द्र कुमार बनाम सी.बी.आई. (2025)मामले में यह निर्णय दिया 

सुरेन्द्र कुमार बनाम सी.बी.आई. (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • भारतीय राज्य व्यापार निगम (STC) के मुख्य विपणन प्रबंधक के रूप में कार्यरत सुरेन्द्र कुमार ने कथित तौर पर मेसर्स अब्दुल हामिद एंड कंपनी के अब्दुल करीम हामिद से जनवरी 1984 में उनकी फर्म को 140 टन सूखी मछली की आपूर्ति का ऑर्डर देने के लिये 15,000 रुपए की रिश्वत मांगी थी। 
  • परिवादकर्त्ता अब्दुल करीम हामिद ने 4 जनवरी 1984 को केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) से संपर्क किया और एक औपचारिक परिवाद दर्ज कराया, जिसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5(1)(घ) सहपठित धारा 5(2) के अधीन मामला दर्ज किया गया। 
  • CBI ने होटल कनिष्क में जाल बिछाकर कार्रवाई की, जहाँ कुमार को 7,500 रुपए के फिनोलफ्थलीन-उपचारित नोटों (phenolphthalein-treated currency notes) के साथ गिरफ्तार किया गया, और बाद में उसके हाथों पर सोडियम कार्बोनेट घोल का परीक्षण किया गया, जो गुलाबी हो गया, जिससे उपचारित नोटों के संपर्क की पुष्टि हुई। 
  • कुमार को 4 जनवरी 1984 को गिरफ्तार किया गया और CBI ने उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5(1)(घ) सहपठित धारा 5(2) और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन अपराधों के लिये आरोप पत्र दायर किया। 
  • विचारण के दौरान 13 साक्षियों की परीक्षा के बाद, कुमार को 21 अक्टूबर 2002 को दोषसिद्ध ठहराया गया और 24 अक्टूबर 2002 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के लिये दो वर्ष के कठोर कारावास और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अपराधों के लिये तीन वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड दिया गया, साथ ही प्रत्येक पर 7,500 रुपए का जुर्माना भी लगाया गया।  
  • कुमार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 374 तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 27 के अंतर्गत अपील दायर की, तथा पूरे विचारण और अपील की कार्यवाही के दौरान जमानत पर रहे, तथा केवल एक दिन के लिये अभिरक्षा में रहे। 
  • यह अपील 2025 में अपने अंतिम निपटारे से पहले 22 वर्षों से अधिक समय तक लंबित रही, जिससे आपराधिक न्याय प्रणाली में शीघ्र विचारण के अधिकार के उल्लंघन के बारे में महत्त्वपूर्ण चिंताएँ उत्पन्न हुईं। 
  • यह मामला भ्रष्टाचार के मामलों में प्रक्रियागत जटिलताओं और प्रणालीगत विलंब को दर्शाता है, जहाँ सफल जालसाजी और दोषसिद्धि के होते हुए भी, अपीलीय प्रक्रिया दो दशकों से अधिक समय तक चलती रही, जिससे न्याय प्रशासन और अभियुक्तों के अधिकार प्रभावित होने की संभावना थी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि कुमार ने शुरू में मामले के गुण-दोष के आधार पर दलीलें पेश की थीं, किंतु बाद में उन्होंने दोषसिद्धि को चुनौती देना छोड़ दिया और अपनी दलीलों को दण्ड की अवधि कम करने तक सीमित कर दिया, तथा स्वीकार किया कि वे 21 अक्टूबर 2002 के दोषसिद्धि के निर्णय को चुनौती नहीं दे रहे हैं। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि आपराधिक न्यायशास्त्र में, दण्ड देना महज एक यांत्रिक कार्य नहीं है, अपितु इसमें अपराध को बढ़ाने वाले और कम करने वाले कारकों के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन बनाना सम्मिलित है, तथा दण्ड देने का उद्देश्य निवारण और पुनर्वास का संयोजन होना चाहिये, जिसे व्यक्तिगत और मामले-दर-मामला आधार पर तय किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने पाया कि यह घटना 4 जनवरी 1984 को घटित हुई थी और कार्यवाही चार दशकों से जारी थी, विचारण को पूरा होने में लगभग 19 वर्ष लगे तथा अपील 22 वर्षों से अधिक समय तक लंबित रही। न्यायालय ने कहा कि इस प्रकार के अत्यधिक विलंब स्पष्ट रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन परिकल्पित शीघ्र विचारण के सांविधानिक अधिदेश के विपरीत है। 
  • न्यायालय ने उल्लेख किया कि 'डैमोकील्स की तलवार' की भाँति कुमार के मामले का भाग्य अनिश्चित बना रहा, जो लगभग 40 वर्षों तक विद्यमान रहा। यह परिस्थितिजन्य शमनकारी कारक के रूप में स्वयं में पर्याप्त है। न्यायिक कार्यवाही में इस प्रकार की दीर्घकालिक अनिश्चितता एवं विलंब ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन शीघ्र विचारण के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया है।  
  • न्यायालय ने कहा कि दण्ड कम करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कारक कुमार की 90 वर्ष की अधिक आयु है, साथ ही वे गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं, जिससे उन्हें कारावास के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव का अत्यधिक खतरा है, तथा किसी भी कारावास से उन्हें अपूरणीय क्षति होने का खतरा है और इससे दण्ड के लघुकरण का उद्देश्य ही असफल हो जाएगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि कुमार भारतीय राज्य व्यापार निगम (STC) के वरिष्ठ अधिकारी थे, जो पहले ही एक दिन के लिये कारावास की दण्ड भोग चुके थे, उन्होंने अपनी दोषसिद्धि को चुनौती नहीं दी थी, अपराध से पहले उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं था, उन्होंने पहले ही 15,000 रुपए का जुर्माना जमा कर दिया था, और लंबी विधिक कार्यवाही के दौरान बिना किसी विलंब या व्यवधान के विचारण में पूरी लगन से भाग लिया था।
  • न्यायालय ने कहा कि कुमार की अधिक आयु, बिगड़ती स्वास्थ्य स्थिति, कार्यवाही में अत्यधिक विलंब, स्वच्छ पृष्ठभूमि, तथा इस तथ्य सहित अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कि उन्होंने पहले ही एक दिन अभिरक्षा में बिताया है, यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5(2) के उपबंध के अधीन दण्ड की मात्रा को कम करने के लिये उपयुक्त मामला है, जिससे अंततः कुमार के दण्ड को पहले से ही बिताई गई अवधि तक कम कर दिया गया, जो विधिक औचित्य के साथ संतुलित न्यायिक करुणा को प्रदर्शित करता है। 

दण्डादेश का लघुकरण और शीघ्र विचारण के अधिकार का उल्लंघन क्या है? 

  • दण्डादेश का लघुकरण 
    • भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 5 दण्डादेश के लघुकरण के लिये आधारभूत उपबंध स्थापित करती है, जो "समुचित सरकार" को अभियुक्त की सम्मति के बिना संहिता के अधीन दण्ड को किसी अन्य दण्ड में परिवर्तित करने का अधिकार देती है, और इस परिवर्तन शक्ति का प्रयोग भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 474 के अनुसार किया जाना चाहिये 
    • "समुचित सरकार" शब्द अपराध की प्रकृति और अधिकारिता के आधार पर भिन्न-भिन्न अर्थ रखती है, जहाँ केंद्र सरकार के पास मृत्युदण्ड या संघीय विधियों के विरुद्ध अपराधों के लिये प्राधिकार है, जबकि राज्य सरकारें अपने कार्यकारी अधिकारिता के भीतर अपराधों के लिये लघुकरण शक्तियों का प्रयोग करती हैं। 
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 474, समुचित सरकार को बिना सम्मति के दण्ड को कम करने के लिये व्यापक शक्तियां प्रदान करती है, जिसमें मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करना, आजीवन कारावास को कम से कम सात वर्ष की अवधि के लिये, तथा सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास को कम से कम तीन वर्ष की अवधि के लिये कम करना सम्मिलित है। 
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 475 महत्त्वपूर्ण प्रतिबंध स्थापित करती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि जिन अपराधों के लिये मृत्युदण्ड निर्धारित दण्ड है, या जिनका मृत्युदण्ड का आजीवन कारावास में लघुकरण कर दिया गया है, ऐसे व्यक्तियों को रिहाई के लिये पात्र होने से पहले कम से कम 14 वर्ष का कारावास पूरा करना होगा 
    • मृत्युदण्ड के लघुकरण ढाँचे में समवर्ती क्षेत्राधिकार शक्तियां सम्मिलित हैं, जहाँ भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 476 केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ-साथ मृत्युदण्ड के मामलों में लघुकरण शक्तियों का प्रयोग करने की अनुमति देती है, जबकि धारा 477 के अधीन संवेदनशील लघुकरण निर्णयों में सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच समन्वय की आवश्यकता होती है।  
    • व्यापक दण्ड में लघुकरण का पदानुक्रम कठोर कारावास को किसी भी अवधि के साधारण कारावास में, सात वर्ष से कम के कारावास को जुर्माने में परिवर्तित करने की अनुमति देता है, तथा दण्ड में कमी के लिये एक संरचित ढाँचा प्रदान करता है जो दया प्रावधानों को लोक सुरक्षा विचारों के साथ संतुलित करता है। 
    • ये सांविधिक उपबंध कार्यकारी क्षमादान शक्तियों के संघीय ढाँचे को बनाए रखने के विधायी आशय को दर्शाते हैं, साथ ही अधिकारिता संबंधी विवादों को रोकते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि गंभीर अपराधियों को उनके अपराधों की गंभीरता के अनुरूप पर्याप्त कारावास का दण्ड मिले। 
  • शीघ्र विचारण के अधिकार का उल्लंघन 
    • शीघ्र विचारण का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन प्रत्याभूत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक अभिन्न अंग है, जिसमें न केवल निष्पक्ष विचारण का अधिकार सम्मिलित है, अपितु बिना किसी अनुचित विलंब के विचारण का अधिकार भी सम्मिलित है, जिससे मनोवैज्ञानिक आघात, सामाजिक कलंक और वित्तीय कठिनाई सहित अपूरणीय क्षति हो सकती है। 
    • भारत के उच्चतम न्यायालय ने बार-बार इस बात पर बल दिया है कि आपराधिक कार्यवाही में अनुचित विलंब, शीघ्र विचारण की सांविधानिक प्रत्याभूति का उल्लंघन करती है, तथा ऐतिहासिक निर्णयों में यह स्थापित किया गया है कि इस प्रकार के विलंब, लंबी मुकदमेबाजी के 'तलवार की मार' के प्रभाव के कारण आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने या दण्ड को कम करने का आधार बन सकती है। 
    • आपराधिक कार्यवाही में अनुचित विलंब का निर्धारण कई कारकों की जांच करके किया जाता है, जिसमें विलंब की अवधि, विलंब के कारण, अभियुक्त के प्रति पूर्वधारणा और न्याय प्रशासन पर समग्र प्रभाव सम्मिलित हैं, अभियोजन पक्ष की उपेक्षा या प्रशासनिक अकुशलता के कारण होने वाले विलंब को वैध प्रक्रियागत जटिलताओं के कारण होने वाले विलंब की तुलना में अधिक गंभीरता से देखा जाता है। 
    • न्यायालय इस बात पर विचार करते हैं कि क्या साक्ष्य के नष्ट हो जाने, साक्षी की स्मृति के क्षीण हो जाने, या स्वास्थ्य में गिरावट, वित्तीय हानि, या सामाजिक परिणामों सहित व्यक्तिगत कठिनाई के विलंब के कारण अभियुक्त के प्रति कोई पूर्वधारणा तो नहीं है, तथा यह स्वीकार करते हैं कि लंबी आपराधिक कार्यवाही से अभियुक्त को निरंतर मानसिक पीड़ा और अनिश्चितता हो सकती है। 
    • जब न्यायालय शीघ्र विचारण के अधिकार के उल्लंघन की पहचान करते हैं, तो वे विभिन्न उपचार प्रदान कर सकते हैं, जिनमें आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना, दण्ड में कमी करना, या विचारण प्रक्रिया में तेजी लाने के निदेश सम्मिलित हैं, तथा उच्चतम न्यायालय ने यह स्थापित किया है कि दीर्घकालीन विचारण अवधि को दण्ड सुनाने में महत्त्वपूर्ण निवारक कारकों के रूप में माना जा सकता है। 
    • शीघ्र विचारण के अधिकार के प्रवर्तन के लिये न्यायालयों को न्याय, लोक सुरक्षा और व्यक्तिगत अधिकारों के हितों में संतुलन स्थापित करना आवश्यक है, तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि उपचार से आपराधिक न्याय प्रणाली की अखंडता से समझौता न हो, तथा साथ ही सांविधानिक अधिकारों के उल्लंघन को भी पर्याप्त रूप से संबोधित किया जाए। 
    • न्यायिक दृष्टिकोण यह मानता है कि यद्यपि शीघ्र विचारण का अधिकार मौलिक है और इसका प्रयोग वैध अभियोजन से बचने के लिये नहीं किया जा सकता, किंतु उपचार उल्लंघन की प्रकृति और मामले की परिस्थितियों के अनुपात में होना चाहिये, जिससे अभियुक्त के हितों के साथ-साथ एक कुशल आपराधिक न्याय प्रणाली को बनाए रखने में व्यापक लोक हित भी पूरा हो सके। 
    • विलंब के चरम मामलों में, न्यायालय आपराधिक कार्यवाही की अनिश्चितता के अधीन पहले से ही बिताए गए समय को दण्ड के समान मान सकते हैं, तथा पहले से ही बिताई गई अवधि के लिये दण्ड को कम करने को उचित ठहरा सकते हैं, जिससे यह स्वीकार किया जा सके कि विधि की प्रक्रिया अपने आप में दण्ड नहीं बननी चाहिये 

सिविल कानून

हाउसकीपिंग स्टाफ को उचित वेतन

 10-Jul-2025

कोरमबायिल हॉस्पिटल एंड डायग्नोस्टिक्स सेंटर (पी.) लिमिटेड और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य 

"निजी अस्पताल के हाउसकीपिंग स्टाफ को महज सफाईकर्मी नहीं समझा जा सकता" 

न्यायमूर्ति विजू अब्राहम 

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंन्यायमूर्ति विजू अब्राहम नेनिजी अस्पतालों में कार्यरत हाउसकीपिंग स्टाफ कोन्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948के अधीन वेतन देने का निदेश दिया । 

  • केरल उच्च न्यायालय ने कोरमबायिल हॉस्पिटल एंड डायग्नोस्टिक्स सेंटर (पी.) लिमिटेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया 

कोरमबायिल हॉस्पिटल एंड डायग्नोस्टिक्स सेंटर (पी.) लिमिटेड एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • यह मामला तब सामने आया जबसहायक श्रम अधिकारी नेअस्पताल परिसर का निरीक्षण किया और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अधीन कार्यवाही शुरू की। 
  • निरीक्षण के बाद अस्पताल और ठेकेदार कोअक्टूबर 2015 से मार्च 2016 तक काम करने वाले 34 कर्मचारियों को 7.31 लाख रुपए से अधिक का बकायाऔर इतनी ही राशि प्रतिकर के रूप में देने का निर्देश दिया गया। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि चूँकि ये कर्मचारी सफाईकर्मी थे, इसलियेझाड़ू लगाने और सफाई के लिये केवल सामान्य अधिसूचना (नगरपालिका क्षेत्रों में 150 रुपए प्रतिदिन) ही लागू होती है, और उन्होंने इसका अनुपालन किया है। 
  • यद्यपि, अस्पताल और ठेकेदार के बीच हुए करार मेंयह स्थापित किया गया था कि प्रदान की गई सेवाएँ व्यापक हाउसकीपिंग थीं, जिसके लिये निजी अस्पतालों के लिये अधिसूचित उच्च वेतनमान लागू था 
  • अस्पताल ने दावा किया कि वे सामान्य अधिसूचना के अधीन झाड़ू लगाने और सफाई के लिये अधिसूचित न्यूनतम मजदूरी का संदाय कर रहे थे, किंतु न्यायालय ने इसे अपर्याप्त पाया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायमूर्ति विजू अब्राहम नेकहा कि करार में ही यह निर्दिष्ट किया गया था कि ठेकेदारपूरे अस्पताल में स्वच्छता और साफ-सफाई बनाए रखने सहितपूर्ण हाउसकीपिंग सेवाएँ प्रदान करेगा। 
  • इन सेवाओं में ऑपरेशन थियेटर और ICU जैसेसंवेदनशील क्षेत्रों के लिये प्रशिक्षित कर्मचारीसम्मिलित थे, जो केवल सफाई कार्य से कहीं अधिक था। 
  • न्यायालय ने उप श्रम आयुक्त के इस निष्कर्ष को बरकरार रखा कि कर्मचारीहाउसकीपिंग स्टाफ के समान कामकर रहे थे और निजी अस्पतालों के लिये अधिसूचित उच्च न्यूनतम वेतन के हकदार थे। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि "हाउसकीपिंग स्टाफ के रूप में नियुक्त व्यक्ति Ext.P4 के अनुसार निर्धारित वेतन पाने का हकदार है और यदि उसे संदाय नहीं किया जाता है, तो यह 'समान कार्य के लिये समान वेतन' के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।" 
  • न्यायालय नेपंजाब राज्य एवं अन्य बनाम जगजीत सिंह एवं अन्य (2017) मामलेमें उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विश्वास किया, जिसमें कहा गया था कि "श्रम के फल से वंचित करने के लिये कृत्रिम मापदंड निर्धारित करना भ्रामक है।" 
  • न्यायालय ने टिप्पणी की कि "समान कार्य के लिये नियुक्त किसी कर्मचारी को समान कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्त्व को निभाने वाले किसी अन्य कर्मचारी से कम वेतन नहीं दिया जा सकता। कल्याणकारी राज्य में तो ऐसा बिल्कुल नहीं किया जा सकता। ऐसा कृत्य अपमानजनक होने के साथ-साथ मानवीय गरिमा की नींव पर भी प्रहार करता है।" 

न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 क्या है? 

  • न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 एक व्यापक विधि है जिसे श्रमिकों के शोषण को रोकने और अनुसूचित रोजगारों में न्यूनतम मजदूरी का संदाय सुनिश्चित करने के लिये अधिनियमित किया गया है। 
  • इस अधिनियम का उद्देश्यन्यूनतम मजदूरी के निर्धारण और संशोधन का उपबंध करके असंगठित क्षेत्र केश्रमिकों का कल्याण सुनिश्चित करना है। 
  • यह अधिनियमकेंद्र और राज्य सरकारों कोअनुसूचित नियोजनों में विभिन्न श्रेणियों के श्रमिकों के लिये न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने का अधिकार देता है। 
  • अधिनियम नियोजन कोकुशल, अर्ध-कुशल और अकुशल श्रेणियोंमें वर्गीकृत करता है, तथा प्रत्येक श्रेणी के लिये भिन्न-भिन्न न्यूनतम मजदूरी दरें निर्धारित करता है। 
  • यह अधिनियम न्यूनतम मजदूरी कासंदाय न करने पर दण्डका प्रावधान करता है तथा श्रम अधिकारियों को निरीक्षण करने तथा अनुपालन सुनिश्चित करने का अधिकार देता है। F