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आपराधिक कानून
अवयस्क का लैंगिक शोषण
14-Jul-2025
रजब अली खान बनाम राष्ट्रीय राज्य राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य "आरोपों की गंभीरता, अपराध की जघन्यता एवं क्रूर प्रकृति तथा अपराध से आवेदक की संलिप्तता को प्रथमदृष्टया दर्शाने वाले सशक्त साक्ष्यों को दृष्टिगत रखते हुए, इस न्यायालय को इस स्तर पर आवेदक को जमानत प्रदान करने हेतु कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है।" न्यायमूर्ति स्वर्णकांता शर्मा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति स्वर्णकांत शर्मा ने एक अवयस्क के बलात्संग और हत्या के मामले में अभियुक्त को प्रथम दृष्टया मजबूत साक्ष्य और अपराध की जघन्य प्रकृति का हवाला देते हुए जमानत देने से इंकार कर दिया।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने रजब अली खान बनाम दिल्ली राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
रजब अली खान बनाम दिल्ली राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- 22 अक्टूबर, 2018 को आबिद नाम के एक पिता ने अपनी 10-12 वर्ष की पुत्री के दिल्ली से लापता होने की सूचना दी। लड़की सुबह 10 बजे ट्यूशन क्लास के लिये घर से निकली थी, किंतु दोपहर 1 बजे तक वापस नहीं लौटी। शुरुआत में व्यपहरण का मामला दर्ज किया गया था।
- छह दिन बाद, लड़की का शव वज़ीराबाद के बायोडायवर्सिटी पार्क के पास मिला। उसके परिवार ने शव की पहचान की और मामला हत्या के मामले में परिवर्तित कर दिया गया। पीड़िता की माँ ने रजब अली खान और उसकी पत्नी रुकसार (जो ट्यूशन क्लास चलाती थी) पर अपनी पुत्री के व्यपहरण और हत्या का आरोप लगाया।
- अभियोजन पक्ष के अनुसार, रजब अली को उस बच्ची से अनुचित भावनाएँ हो गईं और उसने अपनी पत्नी से उसे धार्मिक कक्षाओं के लिये अपने घर लाने को कहा। 22 अक्टूबर को, जब बच्ची ट्यूशन के लिये आई, तो उसे कथित तौर पर नींद की गोलियों वाला पानी पिलाया गया। बेहोशी की हालत में, उसे रजब अली के घर ले जाया गया, जहाँ कई दिनों तक उसका बार-बार लैंगिक शोषण किया गया।
- पोल खुलने के डर से अभियुक्त ने 27 अक्टूबर, 2018 को कथित तौर पर बच्ची की रूमाल से गला घोंटकर हत्या कर दी। इसके बाद उसने उसके शव को एक सूटकेस में भरकर पार्क में फेंक दिया।
- पुलिस को CCTV फुटेज सहित कई पुख्ता साक्ष्य मिले, जिनमें रजब अली को डंपिंग साइट पर एक सूटकेस और उसके पास मौजूद बेहोशी की गोलियों के साथ दिखाया गया था, और अपराध से संबंधित फोरेंसिक साक्ष्य भी शामिल थे। पोस्टमार्टम में लैंगिक उत्पीड़न और हत्या की पुष्टि हुई।
- दोनों अभियुक्तों पर व्यपहरण, बलात्संग, हत्या और बाल संरक्षण विधि के अधीन अपराध के आरोप लगाए गए थे। 7 वर्ष जेल में रहने के बाद रजब अली की यह 12वीं ज़मानत याचिका थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि यह रजब अली का जमानत पाने का 12वाँ प्रयास था, जो जेल से रिहाई पाने के उनके बार-बार के प्रयासों को दर्शाता है।
- न्यायालय ने पाया कि उसके विरुद्ध साक्ष्य बेहद मजबूत थे। पीड़िता की माँ अपनी पुत्री को धार्मिक कक्षाओं के लिये अभियुक्त के घर छोड़ आई थी, जिससे वे बच्ची को जीवित देखने वाले आखिरी व्यक्ति बन गए। CCTV कैमरों में रजब अली को स्कूटर पर उस जगह जाते हुए कैद किया गया है जहाँ शव मिला था, और शव को फेंकने के ठीक समय पर एक सूटकेस लेकर जा रहा था।
- न्यायालय ने पाया कि फोरेंसिक साक्ष्य अभियोजन पक्ष के मामले का मज़बूत समर्थन करते हैं। उसके घर से मिले रूमाल पीड़िता का गला घोंटने में प्रयोग किये गए कपड़े से मेल खाते थे। उसके पास से बरामद की गई शामक गोलियों में ऐसी दवाएँ थीं जो किसी को बेहोश कर सकती थीं। पीड़िता के कपड़े बदलने के लिये उसके घर में मौजूद एक सिलाई मशीन का कथित तौर पर प्रयोग किया गया था।
- सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने कहा कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में "बार-बार लैंगिक उत्पीड़न के स्पष्ट चिकित्सीय साक्ष्य" दिये गए हैं, तथा चोटें "हिंसक और बार-बार लैंगिक दुर्व्यवहार " को दर्शाती हैं। इन चोटों का समय उस समय से मेल खाता है जब बालक लापता हुआ था।
- न्यायालय ने कहा कि ये सभी साक्ष्य मिलकर एक "सख्त और सुसंगत साक्ष्य श्रृंखला" बनाते हैं जो सामान्यत: अपराध में रजब अली की संलिप्तता की ओर इशारा करती है। फोरेंसिक, मेडिकल और इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य इतने मज़बूत थे कि उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था।
- न्यायालय ने ज़ोर देकर कहा कि बलात्संग और हत्या जैसे गंभीर अपराधों में, विचारण शुरू होने के बाद ज़मानत देने में न्यायालयों को बहुत सावधानी बरतनी चाहिये। अपराध की जघन्य प्रकृति और उसके विरुद्ध मज़बूत साक्ष्यों को देखते हुए, न्यायालय को ज़मानत देने का कोई कारण नहीं मिला।
- न्यायालय ने विचारण न्यायालय को मामले में विचारण में तेजी लाने का निदेश दिया, क्योंकि अभियुक्त 7 वर्षों से जेल में है तथा अभियोजन पक्ष के 36 साक्षियों में से अब तक केवल 14 की ही परीक्षा की गई है।
अवयस्कों के प्रति लैंगिक दुर्व्यवहार क्या है - परिभाषा और विस्तार?
- अवयस्क के साथ लैंगिक दुर्व्यवहार से तात्पर्य किसी भी प्रकार के लैंगिक शोषण, हमले, उत्पीड़न या अनुचित लैंगिक आचरण से है, जिसमें बालक (लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम के अधीन 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को परिभाषित किया गया है) सम्मिलित हैं।
- इसमें शारीरिक, भावनात्मक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले सभी प्रकार के संसर्ग(Contact) एवं गैर- संसर्ग (Non-Contact) अपराध इस श्रेणी में सम्मिलित होते हैं।
अवयस्कों के लैंगिक शोषण से संबंधित विधिक प्रावधान क्या हैं?
POCSO अधिनियम, 2012 (लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण)
- लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम भारत में बालकों को लैंगिक अपराधों से बचाने वाली प्रमुख विधि है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
अधिनियमन विवरण:
- अधिनियमित: 19 जून, 2012
- लागू: 14 नवंबर, 2012
- संशोधित: लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2019 (16 अगस्त, 2019 से प्रभावी)
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत प्रमुख अपराध और दण्ड क्या हैं?
अपराध |
दण्ड |
प्रवेशन लैंगिक हमला (धारा 3 और 4) |
कम से कम 20 वर्ष का कठोर कारावास, जिसे आजीवन या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकता है, साथ ही जुर्माना भी। |
गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमला (धारा 5 और 6) |
कम से कम 20 वर्ष का कठोर कारावास, जिसे आजीवन या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकता है, साथ ही जुर्माना भी। |
लैंगिक हमला (धारा 7 और 8) |
कारावास की अवधि 3 वर्ष से कम नहीं होगी, जिसे 5 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है। |
गुरुतर लैंगिक हमला (धारा 9 और 10) |
कारावास की अवधि 5 वर्ष से कम नहीं होगी, जिसे 7 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है। |
लैंगिक उत्पीड़न (धारा 11 और 12) |
अधिकतम 3 वर्ष का कारावास और जुर्माना। |
अश्लील प्रयोजनों के लिये बालक का उपयोग (धारा 13, 14 और 15) |
कारावास की अवधि 5 वर्ष से कम नहीं होगी, जिसे 7 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है। |
अन्य सुसंगत विधिक प्रावधान क्या हैं?
- भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धाराएँ:
- धारा 375-376: बलात्संग और बलात्संग के लिये दण्ड
- धारा 376(2): अभिरक्षा में बलात्संग के लिये वर्धित दण्ड (न्यूनतम 10 वर्ष, जिसे आजीवन तक बढ़ाया जा सकता है)
- धारा 354: स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला
- धारा 509: शब्द, अंग विक्षेप या कार्य जो किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के लिये आशयित है
- आपराधिक विधि (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 1983:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा 114(क) जोड़ी गई
- बलात्कार के मामलों में पीड़िता की सम्मति न होने की खंडनीय उपधारणा लागू की गई।
- लैंगिक संबंध स्थापित होने के मामलों में सबूत का भार अभियुक्त पर डाल दिया गया।
मथुरा मामले के पश्चात् विधिक सुधार क्या हैं?
- ऐतिहासिक तुका राम बनाम महाराष्ट्र राज्य (1979) मामले से महत्त्वपूर्ण सुधार हुए:
- खंडनीय उपधारणा: जब पीड़ित सम्मति का दावा करता है तो न्यायालय अब सहमति का अभाव मान लेता है।
- अभिरक्षा में बलात्संग के प्रावधान: अभिरक्षा में बलात्संग के लिये दण्ड में वृद्धि।
- सबूत का भार: लैंगिक संबंध स्थापित होने पर इसे अभियुक्त पर स्थानांतरित कर दिया जाता है।
- वर्धित दण्ड: लैंगिक अपराधों के लिये कठोर दण्ड।
- मीडिया और रिपोर्टिंग संबंधी दायित्त्व:
- धारा 20: लैंगिक शोषण सामग्री की रिपोर्टिंग को अनिवार्य बनाती है। धारा 23: मीडिया के आचरण को नियंत्रित करती है, न्यायालय की अनुमति के बिना बालक की पहचान के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करती है।
- उल्लंघन: 6 महीने से 1 वर्ष तक का कारावास, जुर्माना, या दोनों।
- रिपोर्ट करने में असफलता:
- धारा 21: लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अपराध की रिपोर्ट या अभिलिखित न करना। दण्ड: 6 मास तक की कारावास, जुर्माना, या दोनों।
- धारा 22: मिथ्या परिवाद या मिथ्या सूचना। दण्ड: 6 मास तक की कारावास, जुर्माना, या दोनों।
सांविधानिक विधि
सूर्यास्त के पश्चात् महिलाओं की गिरफ्तारी
14-Jul-2025
सुजाता विलास महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य “दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन गिरफ्तारी प्रक्रिया का उल्लंघन अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन और स्वतंत्रता के अपरिहार्य अधिकार का उल्लंघन करता है और गिरफ्तारी को अवैध बना सकता है।” न्यायमूर्ति उर्मिला जोशी-फाल्के |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति उर्मिला जोशी-फाल्के ने सूर्यास्त के पश्चात् गिरफ्तार की गई एक महिला को जमानत दे दी, इस बात पर बल देते हुए कि अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को विधि के कठोर अनुपालन के बिना अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सुजाता विलास महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
सुजाता विलास महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- विलास महाजन की पत्नी सुजाता, यवतमाल जिले के बाबाजी दाते महिला सहकारी बैंक लिमिटेड में कार्यरत थीं। उन्होंने अपना करियर क्लर्क के रूप में शुरू किया, बाद में शाखा प्रबंधक के पद पर पदोन्नत हुईं और अंततः बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनीं।
- बैंक के नियमित ऑडिट के दौरान, ऑडिटर ने ऋण वितरण प्रक्रिया में कई अनियमितताओं और अवैधताओं की पहचान की। इन निष्कर्षों के आधार पर बैंक के संचालन के व्यापक अन्वेषण के लिये एक विशेष ऑडिटर की नियुक्ति की गई।
- विशेष लेखा परीक्षक की रिपोर्ट से पता चला है कि आवेदक के पति और उसके रिश्तेदारों के पक्ष में विभिन्न ऋण बिना उचित प्रक्रियाओं का पालन किये या निदेशक मंडल से अनुमति प्राप्त किये स्वीकृत किये गए थे। पति ने रिश्तेदारों द्वारा लिये गए ऋणों के लिये प्रत्याभूतिकर्त्ता की भूमिका भी निभाई। कुल 1.88 करोड़ रुपए के ये ऋण बिना उचित प्रक्रिया के वितरित किये गए, जिससे बैंक को भारी वित्तीय नुकसान हुआ।
- अन्वेषण में पता चला कि आवेदक के कार्यकाल के दौरान कुल 2,42,31,21,019 रुपए का कपट हुआ, जिससे लगभग 37,000 निवेशक और जमाकर्त्ता प्रभावित हुए।
- आवेदक के पति द्वारा सीधे लिये गए ऋणों का संदाय तो कर दिया गया, किंतु विभिन्न रिश्तेदारों के नाम पर स्वीकृत ऋण समस्याएँ बनी रही। पति ने प्रतिभू के तौर पर संपत्ति बंधक रखी थी, किंतु बंधक रखी गई संपत्ति पर कोई उचित भार नहीं बनाया गया था, और बंधक विलेख रजिस्ट्रार कार्यालय में रजिस्ट्रीकृत नहीं था।
- बैंक RBI के दिशानिर्देशों के अनुसार ऋण रिकॉर्ड सुरक्षित रखने में असफल रहा, जिसके अनुसार ऋण प्रस्ताव दस्तावेज़ों को आठ वर्ष तक सुरक्षित रखना अनिवार्य है। ये महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ या तो नष्ट कर दिये गए या बैंक या परिसमापक के पास उपलब्ध नहीं थे।
- विशेष लेखा परीक्षक की रिपोर्ट के आधार पर, पुलिस ने आवेदक और अन्य सह-अभियुक्तों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता और महाराष्ट्र जमाकर्त्ताओं के हितों का संरक्षण (वित्तीय प्रतिष्ठानों में) अधिनियम, 1999 की कई धाराओं के अधीन अपराध संख्या 922/2024 दर्ज किया।
- आवेदक को 30 सितंबर 2024 को गिरफ्तार किया गया था और तब से वह न्यायिक अभिरक्षा में है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन प्रदत्त जीवन और स्वतंत्रता की प्रत्याभूति से अभिरक्षा में बंद किसी अभियुक्त को भी वंचित नहीं किया जा सकता, और अन्वेषण के दायरे में आए किसी संदिग्ध को तो बिल्कुल भी नहीं। राज्य और न्यायालयों का यह दायित्त्व है कि वे जीवन और स्वतंत्रता के इस अपूरणीय अधिकार का उल्लंघन न होने दें, जिससे विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन किये बिना वंचित नहीं किया जा सकता।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता उस तरीके और सीमा का वर्णन करती है जिस तक किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है, जिसके लिये उसका कठोरता से पालन आवश्यक है। गिरफ्तारी के मामलों में निर्धारित प्रक्रियाओं का कोई भी उल्लंघन अवैध घोषित किया जा सकता है।
- न्यायालय ने पाया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 46(4) के अनुसार, किसी भी महिला को सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय से पूर्व गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, सिवाय असाधारण परिस्थितियों में, जिनके लिये न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति आवश्यक हो। न्यायालय ने गिरफ्तारी के समय के दस्तावेज़ों में विसंगतियां पाईं, कुछ दस्तावेज़ों में गिरफ्तारी रात 11:39 बजे (सूर्यास्त के पश्चात्) दिखाई गई, जबकि अन्य में शाम 5:30 बजे या 17:58 बजे दिखाई गई।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि गिरफ्तारी के बारे में सिर्फ़ रिश्तेदारों को सूचित करना, गिरफ्तारी के आधार बताने से बिल्कुल अलग है। गिरफ्तारी ज्ञापन में सिर्फ़ बुनियादी जानकारी होती है, गिरफ्तारी के आधार नहीं। आवेदक के रिश्तेदारों को गिरफ्तारी के आधार न बताना संविधान के अनुच्छेद 22(1) का उल्लंघन है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 50क के अनुसार, गिरफ्तारी के बारे में दोस्तों, रिश्तेदारों या नामित व्यक्तियों को सूचित करना आवश्यक है जिससे वे गिरफ्तार व्यक्ति की रिहाई सुनिश्चित करने के लिये तत्काल कार्रवाई कर सकें। अभिरक्षा में लिये जाने के कारण, गिरफ्तार व्यक्ति को विधिक प्रक्रियाओं तक तत्काल पहुँच नहीं मिल पाती।
- यह स्वीकार करते हुए कि आर्थिक अपराध एक अलग श्रेणी है, जिसके लिये लोक धन और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण भिन्न-भिन्न जमानत की आवश्यकता होती है, न्यायालय ने कहा कि ऐसे अपराधों में गहरे षड्यंत्र सम्मिलित होते हैं और ये देश की वित्तीय सेहत के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं।
- न्यायालय ने आर्थिक अपराध की गंभीर प्रकृति और गिरफ्तारी में प्रक्रियागत उल्लंघनों के बीच संतुलन स्थापित किया, जिसमें सूर्यास्त के पश्चात् अवैध गिरफ्तारी और रिश्तेदारों को गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित न करना सम्मिलित है।
- न्यायालय ने विहान कुमार बनाम हरियाणा राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को लागू किया, जिसमें यह स्थापित किया गया था कि गिरफ्तारी के आधार के संबंध में अनुच्छेद 22(1) का उल्लंघन गिरफ्तारी को अवैध बनाता है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आर्थिक अपराध में आवेदक की संलिप्तता के होते हुए भी, सूर्यास्त के पश्चात् अवैध गिरफ्तारी तथा रिश्तेदारों को गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित न करने के कारण गिरफ्तारी अवैध हो गई, जिससे जमानत का मामला बनता है।
कौन से सांविधानिक अधिकार महिलाओं को सूर्यास्त के पश्चात् गिरफ्तारी से बचाते हैं?
- सूर्यास्त के पश्चात् महिलाओं की गिरफ्तारी मौलिक सांविधानिक सिद्धांतों, विशेष रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा नियंत्रित होती है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को प्रत्याभूत करता है। यह सांविधानिक सुरक्षा सभी नागरिकों को प्राप्त है, जिनमें अन्वेषण के दायरे में या अभिरक्षा में लिये गए लोग भी सम्मिलित हैं।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 43(5) असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय से पूर्व महिलाओं की गिरफ्तारी पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाती है। इस उपबंध में यह अनिवार्य किया गया है कि ऐसी असाधारण परिस्थितियों में, महिला पुलिस अधिकारी को उस प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट से पूर्व लिखित अनुमति लेनी होगी जिसके स्थानीय अधिकारिता में अपराध हुआ है या गिरफ्तारी की जानी है।
- सूर्यास्त के पश्चात् महिलाओं की गिरफ्तारी के विरुद्ध संरक्षण को पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 46(4) के अधीन संहिताबद्ध किया गया था, जिसे 23 जून 2006 से प्रभावी संशोधन अधिनियम 25/2005 द्वारा सम्मिलित किया गया था।
- यह संशोधन अभिरक्षा में महिलाओं पर भारतीय विधि आयोग की 135वीं और 154वीं रिपोर्ट (1989) की सिफारिशों से प्रेरित था।
- विधि आयोग की सिफारिशों में इस बात पर बल दिया गया कि सामान्यतः किसी भी महिला को सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय से पूर्व गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।
- इन घंटों के दौरान गिरफ्तारी की आवश्यकता वाले असाधारण मामलों में, तत्काल वरिष्ठ अधिकारी से पूर्व अनुमति प्राप्त की जानी चाहिये, या अत्यधिक तात्कालिकता के मामलों में, गिरफ्तारी के पश्चात् तत्काल वरिष्ठ अधिकारी और मजिस्ट्रेट को कारणों सहित रिपोर्ट प्रस्तुत की जानी चाहिये।
- यह संशोधन अभिरक्षा में महिलाओं पर भारतीय विधि आयोग की 135वीं और 154वीं रिपोर्ट (1989) की सिफारिशों से प्रेरित था।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 43(5) में "करेगा" शब्द का प्रयोग अनुपालन को विवेकाधीन के बजाय अनिवार्य बनाता है। न्यायालयों ने लगातार यह माना है कि यह उपबंध विहित प्रक्रियाओं का पालन किये बिना निषिद्ध घंटों के दौरान महिलाओं की गिरफ्तारी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है।
न्यायिक निर्णय
उच्चतम न्यायालय का न्यायशास्त्र:
- विहान कुमार बनाम हरियाणा राज्य (2025):
- उच्चतम न्यायालय ने गिरफ्तारी के बारे में सूचना और गिरफ्तारी के आधार के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए कहा कि गिरफ्तारी के बारे में मात्र सूचना देना गिरफ्तारी का आधार नहीं है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि गिरफ्तारी के आधार के संबंध में अनुच्छेद 22(1) का उल्लंघन गिरफ्तारी को अवैध बनाता है।
- असाधारण परिस्थितियों के लिये प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ: जब असाधारण परिस्थितियों में सूर्यास्त के पश्चात् गिरफ्तारी आवश्यक हो, तो निम्नलिखित अनिवार्य प्रक्रियाओं का पालन किया जाना चाहिये:
- केवल महिला पुलिस अधिकारी ही गिरफ्तारी कर सकती है।
- असाधारण परिस्थितियों को उचित ठहराते हुए एक लिखित रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिये।
- प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट से पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है।
- अधिकारिता वही होनी चाहिये जहाँ अपराध किया गया हो या गिरफ्तारी की जानी हो।
बॉम्बे उच्च न्यायालय के उदाहरण:
- क्रिश्चियन कम्युनिटी वेलफेयर काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम महाराष्ट्र सरकार (1995):
- 2005 के संशोधन से पहले, बॉम्बे उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने महिलाओं की गिरफ्तारी के संबंध में व्यापक निदेश जारी किये थे, जिसमें कहा गया था कि किसी भी महिला को महिला कांस्टेबल की उपस्थिति के बिना अभिरक्षा में नहीं लिया जाएगा या गिरफ्तार नहीं किया जाएगा और किसी भी स्थिति में सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय से पूर्व नहीं।
- भारती एस. खंडार बनाम मारुति गोविंद जाधव (2012):
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से घोषित किया कि रात्रि 8:45 बजे किसी महिला की गिरफ्तारी पूर्णतः अवैध एवं अस्वीकार्य है, जो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 46(4) का प्रत्यक्ष उल्लंघन है।
न्यायालय ने इस बात बल दिया कि शाम 5:30 बजे से लेकर महिला को प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) के समक्ष प्रस्तुत किये जाने तक की अभिरक्षा, सांविधिक प्रावधानों का घोर उल्लंघन है।।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से घोषित किया कि रात्रि 8:45 बजे किसी महिला की गिरफ्तारी पूर्णतः अवैध एवं अस्वीकार्य है, जो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 46(4) का प्रत्यक्ष उल्लंघन है।
- कविता माणिकिकर बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) (2018)
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सुश्री कविता मणिकिकर की अवैध गिरफ्तारी के लिये केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो पर 50,000 रुपए का जुर्माना अधिरोपित किया, जो कथित तौर पर नीरव मोदी के स्वामित्व वाली फर्मों की अधिकृत हस्ताक्षरकर्त्ता थीं, जिससे महिला सुरक्षा प्रावधानों को लागू करने के लिये न्यायालय की प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है।
सिविल कानून
भारत में नियोजन बंधपत्र की विधिक प्रवर्तनीयता
14-Jul-2025
विजया बैंक एवं अन्य. वी. प्रशांत बी. नारनावेयर "नियोजन बंधपत्र विधिक रूप से वैध हैं यदि वे समय से पहले त्यागपत्र देने पर युक्तियुक्त शर्तें अधिरोपित करते हैं।" न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची ने इस विवादास्पद विवाद्यक का समाधान किया कि क्या भारत में नियोजन बंधपत्र वैध और विधिक रूप से लागू करने योग्य हैं। साथ ही, उन्होंने उन नियोजन बंधपत्र के करारों की वैधता को बरकरार रखा जो न्यूनतम सेवा अवधि अनिवार्य करते हैं या समय से पहले त्यागपत्र देने पर आर्थिक दण्ड अधिरोपित करते हैं। न्यायालय ने निर्णय दिया कि ऐसे उपबंध भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 27 का उल्लंघन नहीं करते, जो व्यापार पर अवरोधक को निषेध करती है, बशर्ते ये अवरोधक केवल नियोजन की अवधि के दौरान ही लागू हों।
- उच्चतम न्यायालय ने विजया बैंक एवं अन्य बनाम प्रशांत बी. नारनवारे (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
विजया बैंक एवं अन्य बनाम प्रशांत बी. नारनवारे (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला विजया बैंक के एक प्रतिवादी-कर्मचारी के साथ नियोजन संविदा में एक विवादास्पद खण्ड के इर्द-गिर्द केंद्रित था, जिसके अधीन उसे न्यूनतम तीन वर्ष तक सेवा करनी थी या समय से पहले त्यागपत्र देने पर 2 लाख रुपए का जुर्माना देना था।
- प्रत्यर्थी, जो एक वरिष्ठ प्रबंधक-लागत लेखाकार था, ने IDBI बैंक में सम्मिलित होने के लिये अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही त्यागपत्र दे दिया था, जिसके कारण जुर्माना खण्ड लागू हो गया।
- बंधपत्र की वैधता को चुनौती देते हुए, कर्मचारी ने तर्क दिया कि यह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 27 का उल्लंघन करता है, क्योंकि समय से पहले नौकरी छोड़ने पर 2 लाख रुपए का जुर्माना अधिरोपित करने से उसे नई नौकरी में शामिल होने से रोक दिया गया है।
- प्रत्यर्थी ने आगे तर्क दिया कि जुर्माना संबंधी प्रावधान लोक नीति के विरुद्ध है , क्योंकि उसे 2 लाख रुपए जमा करने की अवैध शर्त का पालन करने के लिये आबद्ध किया गया था, जो उसने विरोध स्वरूप किया था।
- राज्य ने नियोजन बंधपत्र की वैधता का विरोध करते हुए तर्क दिया कि इस प्रकार की प्रतिबंधात्मक संविदा व्यापार पर अवरोधक के समान हैं और लोक नीति के विरुद्ध हैं।
- यह मामला भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) की धारा 27 के निर्वचन तथा नियोक्ता के वैध हितों और कर्मचारी की व्यापार की स्वतंत्रता के बीच संतुलन से संबंधित था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने निर्णय दिया कि युक्तियुक्त शर्तें लागू होने पर नियोजन बंधपत्र लागू करने योग्य हैं।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि लोक क्षेत्र के उपक्रमों का कुशल कर्मचारियों को बनाए रखने और महंगी भर्ती प्रक्रियाओं से बचने में वैध हित है।
- न्यायालय ने आकर्षक वेतन पाने वाले वरिष्ठ प्रबंधक (MMG-III)) के लिये आनुपातिक रूप से 2 लाख रुपए का जुर्माना उचित ठहराया, और कहा कि यह "इतना अधिक नहीं है कि त्यागपत्र देना भ्रामक हो जाए।"
- न्यायालय के निर्णय में यह स्पष्ट किया गया कि सेवा की वर्तमान अवधि के दौरान लागू प्रतिबंधात्मक उपबंध, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अधीन व्यवसाय अथवा रोजगार की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं करते हैं।
स्थापित विधिक सिद्धांत
नियोजन के दौरान प्रतिबंधात्मक पारस्परिक संविदा:
- न्यायालय ने कहा कि नियोजन संविदा के अस्तित्व के दौरान लागू प्रतिबंधात्मक पारस्परिक संविदा, संविदा करने वाले पक्षकार की व्यापार या नियोजन की स्वतंत्रता पर कोई बाधा नहीं डालते हैं।
- धारा 27 उन प्रतिबंधों पर लागू नहीं होती जो केवल नियोजन की अवधि के दौरान लागू होते हैं और त्यागपत्र के बाद अन्य नौकरी के अवसर तलाशने के कर्मचारी के अधिकार को बाधित नहीं करते।
- न्यायालय ने निरंजन शंकर गोलिकरी बनाम सेंचुरी स्पिनिंग कंपनी (1967) का संदर्भ दिया, जिसमें नियोजन के दौरान उचित प्रतिबंधों को बरकरार रखा गया था, किंतु सेवा समाप्ति के पश्चात् के प्रतिबंधों को खारिज कर दिया गया था।
- सुपरिंटेंडेंस कंपनी (पी.) लिमिटेड बनाम कृष्ण मुरगई (1981) मामले में न्यायालय ने संविदा के अस्तित्व के दौरान प्रतिबंधात्मक प्रसंविदाओं की वैधता को बरकरार रखा।
लोक नीति संबंधी विचार:
- न्यायालय ने कहा कि "मुक्त बाजार में दुर्लभ विशेषज्ञ कार्यबल का पुनः कौशलीकरण और संरक्षण, लोक नीति क्षेत्र में उभरते हुए प्रमुख बिंदु हैं" जिन्हें नियोजन संविदा शर्तों का परीक्षण करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिये।
- "विनियमित मुक्त बाजार के माहौल में जीवित रहने के लिये, लोक क्षेत्र के उपक्रमों को नीतियों की समीक्षा और पुनर्निर्धारण करने की आवश्यकता थी, जिससे कार्यकुशलता बढ़े और प्रशासनिक व्यय को युक्तिसंगत बनाया जा सके।"
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि "प्रबंधकीय कौशल में योगदान देने वाले कुशल और अनुभवी कर्मचारियों को बनाए रखना सुनिश्चित करना ऐसे उपक्रमों के हित के लिये अपरिहार्य साधनों में से एक है। "
- "कर्मचारियों के लिये न्यूनतम सेवा अवधि को शामिल करना, क्षति को कम करना और दक्षता में सुधार करना" अनर्थक, अनुचित या अविवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता है और इस प्रकार यह लोक नीति का उल्लंघन है।
तर्कसंगतता परीक्षण:
- न्यायालय ने दमनकारी या अनुचित धाराओं के प्रति आगाह किया, विशेष रूप से मानक प्रपत्र संविदाओं में, जहाँ कर्मचारियों के पास सौदेबाजी की शक्ति बहुत कम होती है।
- जुर्माने की राशि कर्मचारी के वेतन और पद के अनुपात में होनी चाहिये तथा इससे त्यागपत्र देना व्यावहारिक रूप से असंभव नहीं होना चाहिये।
- शर्तें पारदर्शी होनी चाहिये तथा कर्मचारी को प्रतिबंधात्मक प्रसंविदा की उचित जानकारी होनी चाहिये।
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 27 क्या है?
बारे में:
- धारा 27: व्यापार का अवरोधक करार शून्य है
- "हर करार जिसमें कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विधिपूर्ण वृत्ति, व्यापार या कारबार करने से आबद्ध किया जाता हो, उस विस्तार तक शून्य है।"
- यह उपबंध स्पष्ट रूप से ऐसे किसी भी करार को अमान्य करता है जो किसी व्यक्ति की विधिपूर्ण वृत्ति, व्यापार या कारबार की गतिविधियों में संलग्न होने की क्षमता को प्रतिबंधित करता है।
- प्रमुख सिद्धांत और दायरा:
- पूर्ण निषेध: भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 युतियुक्त और अनुचित अवरोधों के बीच कोई अंतर नहीं करती है और व्यापार पर पूर्ण अवरोधक वाले किसी भी करार को अमान्य कर देती है। अंग्रेजी सामान्य विधि के विपरीत, जो पूर्ण और आंशिक अवरोधकम के बीच अंतर करता है, धारा 27 किसी भी प्रकार के अवरोधक वाले सभी करारों को शून्य घोषित करती है, चाहे वे पूर्ण हों या आंशिक।
- तर्कसंगतता पर विचार नहीं: धारा 27 द्वारा स्थापित सामान्य नियम यह है कि कोई भी करार जो किसी व्यक्ति को विधिपूर्ण वृत्ति, व्यापार या कारबार करने से अवरुद्ध करता है, ऐसे अवरोधक के विस्तार तक शून्य है। यह नियम निरपेक्ष है और इस बात पर विचार नहीं करता कि अवरोधक तर्कसंगत है या नहीं।
सांविधिक अपवाद:
- गुडविल का विक्रय:
- धारा 27 के उपबंध में प्रदत्त अपवाद, गुडविल के विक्रय के करारों में अवरोधक की अनुमति देता है। यह किसी कारबार के गुडविल के विक्रेता को क्रेता के साथ निर्दिष्ट स्थानीय सीमाओं के भीतर समान कारबार न करने पर सहमत होने की अनुमति देता है, बशर्ते ये सीमाएँ उचित हों और क्रेता के हितों की रक्षा के लिये आवश्यक हों।
- भागीदारी अधिनियम के उपबंध
- भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 विशिष्ट उदाहरण प्रदान करता है जहाँ अवरोध लागू किये जा सकते हैं:
- धारा 11: भागीदारी के दौरान भागीदारों को प्रतियोगी-विरोधी शर्तों पर सहमति स्थापित करने की अनुमति देती है।
- धारा 36: यह उस भागीदार पर उचित अवधि और भौगोलिक क्षेत्र की सीमा में अवरोधक की अनुमति देती है जो फर्म छोड़ चुका हो, बशर्ते ऐसे अवरोध युक्तियुक्त हों।
- धारा 54: ऐसे करारों का पृष्ठांकित करती है जो युक्तियुक्त सीमा के भीतर विघटन या सेवानिवृत्ति पर भागीदारों को प्रतिबंधित करते हैं।
- नियोजन के दौरान सेवा संविदा:
- यदि किसी कर्मचारी पर उसके सेवा काल के दौरान कंपनी के हित में युक्तियुक्त अवरोधक लगाए गए हों, तो वे वैध माने जाते हैं, किंतु ऐसे अवरोधक कर्मचारी के सेवा समाप्ति के साथ समाप्त हो जाते हैं।
प्रमुख न्यायिक निर्णय:
- मधुब चंदर बनाम राजकुमार दोस (1874):
- इस मामले में, खंडपीठ ने अंग्रेजी विधि और भारतीय विधि के बीच अंतर रेखांकित किया और कहा कि किसी भी प्रकार का अवरोधक जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को विधिपूर्ण वृत्ति या कारबार करने से रोका जाता है, शून्य है।
- प्रिवी काउंसिल ने सर रिचर्ड काउच के माध्यम से यह निर्णय दिया कि धारा 27 युतियुक्त और अयुक्तियुक्त अवरोधों के बीच कोई अंतर नहीं करती है तथा व्यापार पर पूर्ण अवरोधक वाले किसी भी करार को अमान्य कर देती है।
- निरंजन शंकर गोलिकारी बनाम सेंचुरी स्पिनिंग एंड मैन्युफैक्चरिंग कंपनी लिमिटेड (1967):
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने नियोजन संविदाओं में नकारात्मक प्रसंविदाओं की प्रवर्तनीयता को मान्यता दी है, बशर्ते कि वे नियोजन की अवधि के दौरान प्रभावी हों।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी कर्मचारी को रोजगार की अवधि के दौरान प्रतिस्पर्धी कंपनी में शामिल होने से रोकने वाला खंड धारा 27 के अधीन व्यापार पर अवरोधक नहीं है।
- सुपरिंटेंडेंस कंपनी ऑफ इंडिया (पी.) लिमिटेड बनाम कृष्ण मुरगई (1980):
- उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धांत की पुनः पुष्टि की कि नियोजन के बाद लगाए गए अवरोधक निरर्थक हैं।
- न्यायालय ने धारा 27 की निरपेक्ष प्रकृति पर बल देते हुए उस धारा को रद्द कर दिया, जो किसी कर्मचारी को नौकरी छोड़ने के बाद एक निश्चित अवधि तक समान कारबार में संलग्न होने से रोकती थी।
- गुजरात बॉटलिंग कंपनी लिमिटेड बनाम कोका-कोला कंपनी (1995):
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि करार की अवधि के दौरान फ्रेंचाइजी को समान कारबार में संलग्न होने से रोकने वाले प्रतिस्पर्धा-विरोधी खंड धारा 27 का उल्लंघन नहीं करते हैं।
- यद्यपि, समाप्ति के बाद लगाए गए किसी भी अवरोधक को शून्य घोषित कर दिया गया।