करेंट अफेयर्स और संग्रह
होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह
सांविधानिक विधि
अनुच्छेद 19 बनाम अनुच्छेद 21
16-Jul-2025
"अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21 पर प्रभावी नहीं हो सकता।" न्यायमूर्ति सूर्यकांत और जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की खंडपीठ ने उन मामलों की सुनवाई करते हुए, जिनमें हास्य कलाकारों (Comedians) पर दिव्यांगजन व्यक्तियों (Persons with Disabilities) के संदर्भ में असंवेदनशील टिप्पणियाँ करने का आरोप था, यह स्पष्ट रूप से कहा कि "अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21 पर वरीयता नहीं प्राप्त कर सकता।" न्यायालय ने विशेष रूप से यह बल दिया कि "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर गरिमा के अधिकार (Right to Dignity) से समझौता नहीं किया जा सकता।"।
- उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी मेसर्स एसएमए क्योर फाउंडेशन बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) और संबंधित याचिकाओं सहित समेकित मामलों में की।
मेसर्स एस.एम.ए. क्योर फाउंडेशन बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला प्रसिद्ध हास्य कलाकारों के विरुद्ध दिव्यांगजन व्यक्तियों के बारे में असंवेदनशील चुटकुले बनाने के परिवाद से उत्पन्न हुआ ।
- मेसर्स एस.एम.ए. क्योर फाउंडेशन ने एक याचिका दायर कर हास्य कलाकारों पर अपने प्रदर्शन के दौरान दिव्यांगजन व्यक्तियों का मजाक उड़ाने का आरोप लगाया।
- यह विवाद "इंडियाज गॉट लेटेंट" शो से उत्पन्न हुआ, जिसके कारण हास्य कलाकारों और संबंधित यूट्यूबर्स के विरुद्ध कई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गईं।
- दोनों यूट्यूबर्स ने विवाद के संबंध में उनके विरुद्ध दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को एक साथ जोड़ने की मांग करते हुए पृथक्-पृथक् याचिकाएं दायर कीं।
- न्यायालय ने पहले कुछ सामग्री को "गंदा, विकृत" बताया था और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर अश्लील सामग्री को विनियमित करने के बारे में चिंता व्यक्त की थी।
- इस मामले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज के कमजोर वर्गों की गरिमा के बीच संतुलन के बारे में बुनियादी प्रश्न उठाए ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने इस बात पर बल दिया कि "अनुच्छेद 19 अनुच्छेद 21 पर हावी नहीं हो सकता। यदि कोई प्रतिस्पर्धा होती है तो अनुच्छेद 21 को प्रबल होना चाहिये।"
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि गरिमा का अधिकार अनुच्छेद 21 से निकलता है और अनुच्छेद 19 के अधीन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये इससे समझौता नहीं किया जा सकता।
- न्यायमूर्ति कांत ने कहा कि न्यायालय सांविधानिक संतुलन बनाए रखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग को रोकने के लिये दिशानिर्देशों पर "खुली बहस"( open debate) के लिये सभी हितधारकों को आमंत्रित कर रहा है।
- न्यायालय ने कहा कि "व्यक्तिगत कदाचार, जो समीक्षा के अधीन हैं, की जांच जारी रहेगी" और फाउंडेशन की चिंताओं को "गंभीर मुद्दा" बताया।
- पीठ ने इस बात पर बल दिया कि कोई भी दिशानिर्देश “सांविधानिक सिद्धांतों के अनुरूप” होना चाहिये और उसमें स्वतंत्रता और कर्त्तव्य दोनों सम्मिलित होने चाहिये।
- न्यायालय ने चेतावनी दी कि विकसित किये जा रहे ढाँचे का भविष्य में किसी के द्वारा दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिये, तथा कहा कि "हम जो कर रहे हैं वह भावी पीढ़ी के लिये है।"
- न्यायालय ने हास्य कलाकारों की व्यक्तिगत उपस्थिति को अनिवार्य कर दिया तथा चेतावनी दी कि उनकी अनुपस्थिति को गंभीरता से लिया जाएगा।
ऑनलाइन सामग्री विनियमन के निहितार्थ:
- यह निर्णय ऑनलाइन सामग्री, विशेष रूप से यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर, को विनियमित करने के लिये संभावित दिशानिर्देशों का संकेत देता है।
- न्यायालय का दृष्टिकोण यह सुझाव देता है कि सामग्री निर्माता, कमजोर समूहों को नीचा दिखाने या उनका मजाक उड़ाने वाली सामग्री को उचित ठहराने के लिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में नहीं छिप सकते।
- सांविधानिक मूल्य के रूप में गरिमा पर जोर देने से दिव्यांगजन व्यक्तियों या अन्य हाशिए के समुदायों को लक्षित करने वाली सामग्री की कड़ी जांच हो सकती है।
- न्यायालय द्वारा "खुली बहस" के लिये दिया गया निमंत्रण डिजिटल सामग्री विनियमन के लिये व्यापक दिशानिर्देश विकसित करने के लिये एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण का संकेत देता है।
संविधान का अनुच्छेद 19 क्या है?
बारे में:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को छह मौलिक स्वतंत्रताएँ प्रदान करता है, जिनमें अनुच्छेद 19(1)(क) के अंतर्गत वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है।
- अनुच्छेद में उपबंध है कि सभी नागरिकों को युक्तियुक्त निर्बंधनों के अधीन, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा ।
- अनुच्छेद 19(2) राज्य को भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में या न्यायालय की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध-उद्दीपन के संबंध में इस अधिकार के प्रयोग पर युक्तियुक्त निर्बंधन अधिरोपित करने वाली विधि बनाने की शक्ति प्रदान करता है।
- स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है और इसे विधि द्वारा विनियमित किया जा सकता है, किंतु किसी भी निर्बंधन को तर्कसंगतता की कसौटी पर खरा उतरना होगा।
ऐतिहासिक निर्णय :
- रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950):
- अनुच्छेद 19(1)(क) का निर्वचन करने वाला पहला मामला और इसमें स्थापित किया गया कि समाचार पत्रों की पूर्व-सेंसरशिप (pre-censorship) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है।
- न्यायालय ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक सरकार की नींव है और अनुच्छेद 19(2) के अलावा इसे सीमित नहीं किया जा सकता।
- मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978):
- इसमें स्थापित किया गया कि "विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया" निष्पक्ष, न्यायसंगत और युक्तियुक्त होनी चाहिये।
- अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 से जुड़ा हुआ, यह दर्शाता है कि वे परस्पर अनन्य नहीं अपितु पूरक हैं।
- एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम (1989):
- यह माना गया कि भाषण पर पूर्व प्रतिबंध लगाना असांविधानिक है।
- यह स्थापित किया गया है कि बुरे भाषण अनुचित भाषण का उपचार अधिक भाषण है, न कि दमन या मौन।
- श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015):
- सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66क को असांविधानिक रूप से अस्पष्ट और अतिव्यापक होने के कारण रद्द कर दिया गया ।
- इस बात पर बल दिया गया कि ऑनलाइन भाषण को ऑफलाइन भाषण के समान ही सांविधानिक संरक्षण प्राप्त है।
संविधान का अनुच्छेद 21 क्या है?
बारे में:
- अनुच्छेद 21 में उपबंध है कि "किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।"
- उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार करते हुए इसमें जीवन के अधिकार के अभिन्न अंग के रूप में गरिमापूर्वक जीने के अधिकार को सम्मिलित किया है।
- अनेक निर्णयों में गरिमा के अधिकार को अनुच्छेद 21 के मूलभूत पहलू के रूप में मान्यता दी गई है।
- न्यायालय ने माना है कि गरिमा मानव अधिकारों का मूल है और यह कई अन्य मौलिक अधिकारों का आधार है।
- अनुच्छेद 21 का निर्वचन विभिन्न अधिकारों को सम्मिलित करने के लिये किया गया है, जैसे निजता का अधिकार, प्रतिष्ठा का अधिकार, आजीविका का अधिकार और प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने का अधिकार।
- यह उपबंध सभी व्यक्तियों (केवल नागरिकों पर ही नहीं) पर लागू होता है तथा इसे आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता।
ऐतिहासिक निर्णय:
- ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950):
- प्रारंभ में अनुच्छेद 21 का संकीर्ण निर्वचन किया गया, जो शारीरिक निरोध तक सीमित था।
- बाद में व्यापक निर्वचन के लिये मेनका गाँधी मामले में इसे खारिज कर दिया गया।
- मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978):
- क्रांतिकारी निर्णय जिसने अनुच्छेद 21 का विस्तार कर इसमें गरिमापूर्वक जीवन जीने का अधिकार भी सम्मिलित कर दिया।
- यह स्थापित किया गया कि "जीवन" का अर्थ केवल पशु अस्तित्व से कहीं अधिक है तथा इसमें वे सभी पहलू सम्मिलित हैं जो जीवन को सार्थक बनाते हैं।
- फ्रांसिस कोरली मुलिन बनाम केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली (1981):
- अनुच्छेद 21 का और विस्तार कर इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार सम्मिलित किया गया ।
- यह माना जाता है कि जीवन के अधिकार में बुनियादी मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी सम्मिलित है।
- ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम (1985):
- यह स्थापित किया गया कि आजीविका का अधिकार अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार का भाग है।
- "कोई भी व्यक्ति जीवनयापन के साधन अर्थात् आजीविका के साधन के बिना नहीं रह सकता।"
- विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997):
- कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न को अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना गया ।
- यह स्थापित किया गया कि जीवन के अधिकार में गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी सम्मिलित है, विशेष रूप से महिलाओं के लिये।
सिविल कानून
आदेश 7 नियम 11 पूर्व-न्याय को अपवर्जित करता है
16-Jul-2025
“यह न्यायालय इस विषय पर कोई अभिमत व्यक्त नहीं करता कि क्या एकपक्षीय डिक्री पूर्व-न्याय के रूप में संचालित होती है, तथापि यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया कि ऐसी जांच सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत नहीं की जा सकती, विशेषतः अपीलकर्त्ता की विशिष्ट अभिवचनों और मांगी गए अनुतोष के प्रकाश में।" न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची ने निर्णय दिया कि पूर्व-न्याय (res judicata) विचारण का मामला है और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 7 नियम 11 के अधीन वादपत्र को नामंजूर किये जाने का आधार नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय ने पांडुरंगन बनाम टी. जयराम चेट्टियार एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
पांडुरंगन बनाम टी. जयराम चेट्टियार एवं अन्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- अपीलकर्त्ता ने 1998 में श्री हुसैन बाबू से विवादित संपत्ति खरीदी थी, जिन्होंने इसे पहले 1991 में सुश्री जयम अम्मल से खरीदा था। अपीलकर्ता ने दावा किया कि जब परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं और वर्तमान वाद दायर किया गया, तब संपत्ति पर उसका शांतिपूर्ण कब्ज़ा था।
- कब्जे के दौरान, अपीलकर्त्ता को पता चला कि एक एडवोकेट-कमिश्नर उसकी संपत्ति का निरीक्षण करना चाह रहा था। पूछताछ करने पर, उसे पता चला कि प्रतिवादी संख्या 1, जो सह-स्वामी होने का दावा करता है, ने सुश्री जयम अम्मल और अन्य के विरुद्ध OS संख्या 298/1996 के अधीन विभाजन का वाद दायर किया था और अपने पक्ष में 29.07.1997 की एक पक्षीय डिक्री प्राप्त कर ली थी।
- अपीलकर्त्ता ने अभिकथित किया कि वाद दायर होने के तुरंत बाद सुश्री जयम अम्मल की मृत्यु हो गई, और उनकी पुत्री सेल्वी ने कार्यवाही का विरोध नहीं किया, जिससे वाद एकपक्षीय रूप से आगे बढ़ गया। हुसैन बाबू, जो पहले वाद में तीसरे प्रतिवादी थे, कथित तौर पर अबू धाबी में थे और उनका मानना था कि सेल्वी मामले की पैरवी करेंगी और क्रेता के हितों की रक्षा करेंगी।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि एकपक्षीय डिक्री कपटपूर्वक और साँठगाँठ से प्राप्त की गई थी। उन्होंने विशेष रूप से अभिकथित किया कि प्रतिवादी संख्या 1 ने कुड्डालोर के अधीनस्थ न्यायालय में वाद दायर करके कपट किया, जिसके पास प्रादेशिक अधिकारिता नहीं थी, जबकि विवादित संपत्तियों के स्थान के आधार पर यह वाद चिदंबरम के अधीनस्थ न्यायालय में दायर किया जाना चाहिये था।
- इन परिस्थितियों से विवश होकर, अपीलकर्त्ता ने 2009 का अधियाचन दायर कर स्वामित्व की घोषणा और स्थायी व्यादेश की मांग की, यह दावा करते हुए कि एकपक्षीय डिक्री उस पर आबद्धकर नहीं थी। प्रतिवादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7, नियम 11 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि चूँकि पूर्व की एकपक्षीय डिक्री अंतिम हो चुकी थी, इसलिये वाद को पूर्व-न्याय द्वारा वर्जित किया गया था।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि वह पहले वाले वाद में पक्षकार नहीं था और इसलिये उस पर 'पूर्व-न्याय' का सिद्धांत लागू नहीं होगा। उसने तर्क दिया कि एकपक्षीय डिक्री कपटपूर्ण थी और संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 52 के उपबंध उसके मामले में लागू नहीं हो सकते।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7, नियम 11 के अधीन, न्यायालय केवल वादपत्र के कथनों और उसके साथ संलग्न दस्तावेज़ों की जांच कर सकता हैं, प्रतिवादी के बचाव या दस्तावेजों की नहीं।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि पूर्व-न्याय अधिनिर्णय आदेश 7, नियम 11 के दायरे से बाहर है क्योंकि इसमें पूर्ववर्ती वादों के अभिवचनों, विवाद्यकों और निर्णयों की जांच करने की आवश्यकता होती है।
- न्यायालय ने कहा कि पूर्व-न्याय निर्धारण में निम्नलिखित स्थापित करने की आवश्यकता है: (i) पूर्व में विनिश्चित किया गया वाद, (ii) पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य विषय, (iii) उन्हीं पक्षकारों के बीच या जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमें से कोई दावा करने वाले पक्षकार, और (iv) सक्षम न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से न्यायनिर्णित विवाद्यक।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कूटसंधिपूर्ण एकपक्षीय डिक्री, अधिकारिता संबंधी कपट, या सद्भावी क्रेता की स्थिति के अभिकथनों की गहन जांच और पूर्व डिक्री के प्रभाव का विस्तृत विश्लेषण आवश्यक है।
- न्यायालय ने कहा कि वादपत्र के नामंजूर किये जाने के आवेदनों में मात्र कथनों के आधार पर पूर्व-न्याय का निर्णय नहीं किया जा सकता है तथा वाद-हेतुक की समानता के निर्धारण के लिये प्रथम वाद के दस्तावेज़ों के विश्लेषण के साथ परीक्षण की आवश्यकता होती है, न कि अटकलों या अनुमान की।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विचारण न्यायालय अपीलकर्त्ता के वादपत्र पर विचार या विश्लेषण करने में असफल रहा तथा अपीलकर्त्ता के आपेक्ष को नामंजूर करने के उसके दृष्टिकोण से असहमत था।
- न्यायालय ने कहा कि पूर्व-न्याय के आक्षेप, सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7, नियम 11 के अधीन वादों को वर्जित नहीं करते है, विशेषत: एकपक्षीय डिक्री, संव्यवहार की परिस्थितियों और घोषणा प्रार्थना के बारे में विशिष्ट कथनों को देखते हुए।
- गुण-दोष सुरक्षित: न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि उसने इस विषय पर कोई मत व्यक्त नहीं किया कि क्या एकपक्षीय डिक्री पूर्व-न्याय के रूप में प्रवर्तनीय होगी या नहीं; और यह कि प्रतिवादी द्वारा उठाए गए सभी आधार, यथा पूर्व-न्याय सहित, को अंतिम विचारण के निर्धारण के लिये खुला रखा जाएगा।
क्या पूर्व-न्याय के अभिवचन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन वाद को नामंजूर करने का आधार हो सकती है?
- पूर्व-न्याय (Res Judicata) का सिद्धांत: सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 यह स्थापित करती है कि कोई भी न्यायालय ऐसे किसी ऐसे वाद का विचारण नहीं करेगा, जिसमें प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य-विषय उसी हक के अधीन वाद करने वाले उन्हीं पक्षकारों के बीच के या ऐसे पक्षकारों के बीच के, जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते है, किसी पूर्ववर्ती वाद में भी ऐसे न्यायालय में प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य रहा है, जो ऐसे पश्चात्वर्ती वाद का या उस वाद का, जिसमें ऐसा विवाद्यक वाद में उठाया गया है, विचारण करने के लिये सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चुका है और अंतिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका है।
- आदेश 7 नियम 11 का विस्तार: सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 विशिष्ट परिस्थितियों में वादपत्र को नामंजूर किये जाने का उपबंध करता है, जिसमें वह स्थिति भी सम्मिलित है जहाँ वादपत्र के कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी विधि द्वारा वर्जित है, तथा न्यायालय केवल वादपत्र के कथनों और संलग्न दस्तावेजों की जांच करने तक सीमित है।
- अधिकारिता संबंधी संघर्ष: यद्यपि पूर्व निर्णय न्याय (धारा 11) के आधार पर वाद विधि द्वारा वर्जित हो सकता है, उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि पूर्व-न्याय का निर्धारण पूर्ववर्ती वादों के अभिवचनों, विवाद्यकों और निर्णयों की जांच के बिना नहीं किया जा सकता, जो वादपत्र नामंजूर करने के आदेश 7 नियम 11 के सीमित दायरे से परे है।
- प्रक्रियागत परिसीमा: न्यायालय ने स्थापित किया कि पूर्व-न्याय अधिनिर्णय में पूर्ववर्ती वाद, पक्षकारों के संबंधों और विवाद्यक की पहचान का जटिल तथ्यात्मक और विधिक विश्लेषण शामिल है, जिसे पूर्व कार्यवाही की विस्तृत जांच के बिना केवल वादपत्र के कथनों से निर्णायक रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता है।
- न्यायिक पूर्व निर्णय : श्रीहरि हनुमानदास तोतला और केशव सूद मामलों में पूर्व निर्णयों का अनुसरण करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पूर्व-न्याय याचिकाओं पर विचारण के दौरान निर्णय लिया जाना चाहिये, जहाँ पूर्ववर्ती वादों से संपूर्ण दस्तावेजीकरण और साक्ष्य का उचित विश्लेषण किया जा सके, न कि आदेश 7 नियम 11 के अधीन उनका सरसरी तौर पर निपटारा किया जाए।
- व्यावहारिक अनुप्रयोग: न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि पूर्व-न्याय का निर्धारण अटकलों या अनुमान के माध्यम से नहीं किया जा सकता, अपितु इसके लिये मूल विचारण की आवश्यकता होती है, विशेषत: उन मामलों में जिनमें कपट, दुरभिसंधि या पूर्ववर्ती कार्यवाहियों में अधिकारिता संबंधी दोषों के अभिकथन सम्मिलित हों।
प्रमुख निर्णय
- श्रीहरि हनुमानदास तोताला बनाम हेमंत विट्ठल कामत और अन्य (2021):
- मार्गदर्शक सिद्धांत स्थापित करें कि पूर्व-न्याय अधिनिर्णय आदेश 7, नियम 11 के दायरे से परे है, जिसके लिये पूर्ववर्ती वादों से अभिवचनों, विवाद्यकों और निर्णयों पर विचार करने की आवश्यकता है।
- राजेश्वरी बनाम टी.सी. सरवनबावा (2004):
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि वाद के कारणों में समानता की पहचान करना विचरण का विषय होना चाहिये, जहाँ प्रथम वाद के दस्तावेज़ों का अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है, तथा इस बात पर बल दिया कि पूर्व-न्याय काल्पनिक नहीं हो सकता।
सिविल कानून
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 39
16-Jul-2025
संपदा अधिकारी, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम निर्मला देवी मामला “विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 39 के अधीन आज्ञापक व्यादेश केवल प्रवर्तनीय विधिक बाध्यता के उल्लंघन पर ही दिया जा सकता है।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने कहा कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 39 के अधीन आज्ञापक व्यादेश केवल प्रवर्तनीय विधिक बाध्यता के उल्लंघन पर ही दिया जा सकता है, न कि तब जब दावेदार पॉलिसी शर्तों का पालन करने में असफल रहा हो।
- उच्चतम न्यायालय ने संपदा अधिकारी, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम निर्मला देवी केस (2025) में यह निर्णय दिया ।
संपदा अधिकारी, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम निर्मला देवी (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- यह मामला भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही से उत्पन्न हुआ था, जहाँ हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) ने आवासीय क्षेत्रों के विकास के लिये विभिन्न भूस्वामियों से भूमि अधिग्रहित की थी। हुडा की 1992 की नीति के अधीन, विस्थापित भूस्वामियों (विस्थापितों) को विशिष्ट प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के अनुपालन के अधीन, 1992 की दरों पर वैकल्पिक भूखंड आवंटन के माध्यम से पुनर्वास का अधिकार था।
- 1992 की नीति के अनुसार, पुनर्वास लाभों का दावा करने के लिये विस्थापितों को विहित प्रारूप में आवेदन जमा करना होगा और बयाना राशि का 10% जमा करना अनिवार्य था। नीति में यह भी स्पष्ट किया गया था कि यदि विस्थापितों की उस क्षेत्र में कुल भूमि का 75% या उससे अधिक अधिग्रहित हो जाता है, तो उन्हें भूखंड दिये जाएंगे, और भूखंडों का आकार अधिग्रहित भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर निर्धारित किया जाएगा।
- कई विस्थापितों ने विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 39 के अधीन वाद दायर किये, जिसमें हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) को 1992 की नीति के अधीन भूखंड आवंटित करने के लिये आज्ञापक अनुतोष की मांग की गई थी। यद्यपि, प्रतिवादी-विस्थापित प्रक्रियागत आवश्यकताओं का पालन करने में असफल रहे - उन्होंने न तो विहित प्रारूप में आवेदन जमा किये और न ही नीति के अनुसार आवश्यक 10% बयाना राशि जमा की।
- कुछ वादी 1992 की नीति की घोषणा के लगभग 15 वर्ष पश्चात्, पूर्वोक्त आवश्यक शर्तों को पूरा किये बिना ही न्यायालय में चले गए। हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) ने इन मुकदमों का विरोध करते हुए तर्क दिया कि विस्थापितों को आवंटन का दावा करने का कोई विधिक अधिकार नहीं है क्योंकि वे अनिवार्य नीतिगत शर्तों का पालन करने में असफल रहे हैं, जिससे पुनर्वास लाभों के उनके अधिकार का हनन होता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 39 के अंतर्गत आज्ञापक व्यादेश विवेकाधीन है और इसे केवल किसी प्रवर्तनीय विधिक बाध्यता के भंग पर ही दिया जा सकता है। न्यायालय तब तक आज्ञापक व्यादेश नहीं दे सकता जब तक कि कोई विधिक अधिकार विद्यमान न हो और उस विधिक अधिकार का भंग न हुआ हो।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि आज्ञापक व्यादेश एक विवेकाधीन और असाधारण उपचार है, जो केवल तभी अनुदत्त किया जाना चाहिये जब कर्त्तव्य या बाध्यता का स्पष्ट भंग हो, वादी ने लाभ का दावा करने के लिये आवश्यक शर्तों का पूरी तरह से पालन किया हो, और मामले की निष्पक्षता वादी के पक्ष में हो।
- न्यायालय ने यह स्थापित किया कि आज्ञापक व्यादेश देने से पहले बाध्यता के भंग और बाध्यता के पालन को स्पष्ट रूप से स्थापित किया जाना चाहिये। वादी को उचित अभिवचनों और ठोस साक्ष्यों के माध्यम से न्यायालय को यह विश्वास दिलाना होगा कि प्रतिवादी उन पर बाध्यकारी किसी विशेष बाध्यता का भंग कर रहा है।
- न्यायालय ने आज्ञापक व्यादेश अनुदत्त करने के लिये छह आवश्यक शर्तों का सारांश दिया: (i) प्रतिवादी की ओर से स्पष्ट बाध्यता, (ii) उस बाध्यता का भंग, (iii) पालन करने के लिये बाध्य करने की आवश्यकता, (iv) न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीयता, (v) आवेदक के पक्ष में सुविधा का संतुलन, और (vi) अपूरणीय क्षति जिसकी धन के रूप से क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती।
- इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादियों के पास कोई प्रवर्तनीय विधिक अधिकार नहीं था क्योंकि वे विहित आवेदन जमा करने और बयाना राशि जमा करने जैसी अनिवार्य प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का पालन करने में असफल रहे। परिणामस्वरूप, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) पर प्लॉट आवंटित करने का कोई विधिक बाध्यता नहीं था।
- न्यायालय ने कहा कि जब किसी योजना में अपेक्षित बयाना राशि के साथ विहित प्रारूप में आवेदन दाखिल करना अनिवार्य होता है, तो भूखंड आवंटन के लिये राज्य से अनुरोध करने से पहले इसका अनुपालन करना विस्थापित व्यक्ति के बाध्यता का भाग बन जाता है।
- न्यायालय ने कहा कि यह मुकदमा सभी राज्यों के लिये आँखे खोलने वाला है, तथा आगाह किया कि धन के रूप में प्रतिकर के अतिरिक्त पुनर्वास योजनाओं को केवल निष्पक्षता और समता के मानवीय विचारों द्वारा निदेशित किया जाना चाहिये, तथा यह सभी भूमि अधिग्रहण मामलों में अनिवार्य नहीं है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा आज्ञापक व्यादेश के लिये क्या शर्तें हैं?
- बाध्यता: प्रतिवादी की ओर से स्पष्ट बाध्यता होना चाहिये।
- भंग: उस दायित्व का उल्लंघन हुआ होगा या उचित रूप से आशंका होगी
- आवश्यकता: भंग को रोकने या सुधारने के लिये विनिर्दिष्ट कार्यों के पालन को बाध्य करना आवश्यक होना चाहिये।
- प्रवर्तनीयता: न्यायालय को उन कृत्यों के पालन को लागू करने में सक्षम होना चाहिये।
- सुविधा का संतुलन: सुविधा का संतुलन व्यादेश चाहने वाले पक्षकार के पक्ष में होना चाहिये।
- अपूरणीय क्षति: भंग के कारण हुई क्षति या क्षति अपूरणीय होनी चाहिये या धन के रूप से पर्याप्त रूप से क्षतिपूर्ति योग्य नहीं होनी चाहिये।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 39 क्या है?
विधिक उपबंध और आवश्यकताएँ:
- विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 39 न्यायालयों को बाध्यता के भंग को रोकने तथा अपेक्षित कार्यों के पालन के लिये बाध्य करने हेतु आज्ञापक व्यादेश जारी करने का अधिकार अनुदत्त करती है, जो न्यायालय के विवेक पर निर्भर है।
- इस उपबंध के लिये स्पष्ट, विनिर्दिष्ट और विधिक रूप से बाध्यकारी बाध्यता की आवश्यकता होती है, जिसके भंग को न्यायिक हस्तक्षेप के माध्यम से रोका जाना है।
- बाध्यता का वास्तविक भंग या भंग की युक्तियुक्त आशंका होनी चाहिये, तथा जिन कार्यों के पालन की मांग की जा रही है, वे न्यायालय द्वारा प्रवर्तन योग्य होने चाहिये।
आवश्यक शर्तें:
- ऐसे कार्यों का पालन परिवाद किये गए भंग को रोकने के लिये आवश्यक होना चाहिये, तथा बाध्य किये जाने वाले कार्यों और बाध्यता के भंग की रोकथाम के बीच सीधा संबंध होना चाहिये ।
- आज्ञापक व्यादेश एक असाधारण उपचार है जो केवल तभी अनुदत्त किया जाता है जब साधारण विधिक उपचार अपर्याप्त साबित होते हैं, और वादी को सभी पूर्वावश्यक शर्तों का पूर्ण रूप से पालन करना होगा।
- न्यायालय सुविधा का संतुलन, अपूरणीय क्षति, तथा क्षति की पर्याप्तता सहित स्थापित न्यायसंगत सिद्धांतों के आधार पर विवेक का प्रयोग करता है, जिससे यह अधिकार का मामला नहीं रह जाता, अपितु गुण-दोषों के न्यायिक मूल्यांकन तथा न्यायसंगत विचारों पर निर्भर हो जाता है।