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आपराधिक कानून

दुर्लभ समझौतों की परिस्थितियों में बलात्संग के मामले को रद्द करने की अनुमति

 17-Jul-2025

मधुकर एवं अन्य। वी. महाराष्ट्र राज्य और अन्य 

"भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन अपराध गंभीर होते हैं और सामान्यत: समझौते के आधार पर रद्द नहीं किये जाते। यद्यपि, इसने स्पष्ट किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन न्याय सुनिश्चित करने की उच्च न्यायालय की शक्ति लचीली है और इसे प्रत्येक मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए लागू किया जाना चाहिये।" 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संजय कुमार 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संजय कुमार नेआपवादिक परिस्थितियों में बलात्संग की कार्यवाही को आपसी समझौते का हवाला देते हुए रद्द कर दिया है और कहा है कि इसे जारी रखने से न्याय के हित में कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा 

  • उच्चतम न्यायालय ने मधुकर एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया । 

मधुकर एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • वर्तमान अपीलें बॉम्बे उच्च न्यायालय, औरंगाबाद पीठ द्वारा आपराधिक आवेदन संख्या 2561 और 2185/2024 में पारित 07 मार्च 2025 के एक सामान्य आदेश से उत्पन्न हुई हैं, जिसके अधीन उच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के अधीन दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया था, जिसमें अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की गई थी। 
  • वर्तमान अपीलों को उत्पन्न करने वाली तथ्यात्मक स्थिति इस प्रकार है: 
    • प्रथम सूचना रिपोर्ट संख्या 302/2023 दिनांक 20 नवंबर 2023 को मेहुनबारे पुलिस थाने, जिला जलगांव में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के तहत SLP(Crl) No.7212/2025 में अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध दर्ज की गई।  
    • उक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में यह अभिकथित किया गया कि दिनांक 19 नवम्बर 2023 को अपीलकर्त्ताओं ने एक विधिविरुद्ध जमाव द्वारा परिवादकर्त्ता एवं उसके पारिवारिक सदस्यों, जिनमें उसके पिता प्रभाकर भी सम्मिलित थे, पर हमला किया। कथित तौर पर उक्त हमला, अपीलकर्त्ताओं में से एक के विवाह-विच्छेद के लिये प्रभाकर की भूमिका को लेकर किया गया था।   
    • तत्पश्चात्, उसी पुलिस थाने में SLP(Crl) No. 7495/2025 में अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376, 354-, 354-, 509 और 506 के अधीन दिनांक 21.11.2023 को प्रथम सूचना रिपोर्ट संख्या 304/2023 दर्ज की गई, जिससे सेशन मामला संख्या 29/2024 शुरू हुआ। द्वितीय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में प्रभाकर के विरुद्ध लैंगिक उत्पीड़न और आपराधिक धमकी सहित गंभीर आरोप थे, जिसमें अभिकथित किया गया था कि उसने समय के साथ परिवादकर्त्ता का लैंगिक शोषण किया, कृत्य के वीडियो रिकॉर्ड किये और उसके बाद के वैवाहिक संबंधों में हस्तक्षेप किया। 
    • यद्यपि, मार्च 2024 में, द्वितीय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में परिवादकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में एक शपथपत्र दायर किया जिसमें उसने अभियोजन को आगे न बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की और कहा कि उसे अभियुक्त को ज़मानत देने पर कोई आपत्ति नहीं है। उसने आगे पुष्टि की कि मामला सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया था, और उसे विवाह संबंधी खर्चों के लिये 5,00,000 रुपए मिल गए थे। 
    • अपीलकर्त्ताओं ने दोनों प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की मांग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन उच्च न्यायालय में आपराधिक आवेदन संख्या 2561 और 2185/2024 दायर किये। दिनांक 07.03.2025 के विवादित सामान्य आदेश द्वारा, उच्च न्यायालय नेदोनों आवेदनों कोयह कहते हुए खारिज कर दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन अपराध गंभीर और अशमनीय प्रकृति का होने के कारण, केवल समझौते या आर्थिक प्रतिकर के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि "भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत अपराधनिस्संदेह गंभीर और जघन्य प्रकृति का सामान्यतः पक्षकारों के बीच समझौते के आधार पर ऐसे अपराधों से संबंधित कार्यवाही को रद्द करने को हतोत्साहित किया जाता है और इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये।" 
  • न्यायालय ने कहा कि "न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन न्यायालय की शक्ति किसी कठोर सूत्र द्वारा बाधित नहीं है और इसका प्रयोग प्रत्येक मामले के तथ्यों के संदर्भ में किया जाना चाहिये।" 
  • न्यायालय ने कहा कि उसे "एक असामान्य स्थिति का सामना करना पड़ा, जहाँ भारतीय दण्ड संहिता कि धारा 376 सहित गंभीर आरोपों को सम्मिलित करते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), विरोधी पक्ष द्वारा पहले दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के तुरंत बाद दर्ज की गई। घटनाओं का यह क्रम आरोपों को एक निश्चित संदर्भ प्रदान करता है और सुझाव देता है कि द्वितीय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) एक प्रतिक्रियात्मक कदम हो सकती है।"  
  • न्यायालय ने कहा कि " द्वितीय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में परिवादकर्त्ता ने स्पष्ट रूप से मामले को आगे न बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की है। उसने कहा है कि वह अब विवाहित है, अपने निजी जीवन में व्यवस्थित है, और आपराधिक कार्यवाही जारी रखने से उसकी शांति और स्थिरता भंग होगी। उसका रुख न तो अनिश्चित है और न ही अस्पष्ट, उसने निरंतर, अभिलेख में दर्ज शपथपत्र के माध्यम से भी, कहा है कि वह अभियोजन पक्ष का समर्थन नहीं करती है और चाहती है कि मामला समाप्त हो जाए।" 
  • न्यायालय ने कहा कि "विचारण को जारी रखने से कोई सार्थक उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इससे सभी संबंधित पक्षकारों, विशेषकर परिवादकर्त्ता, के लिये संकट और बढ़ेगा और न्यायालय पर भार बढ़ेगा, जबकि परिणाम की कोई संभावना नहीं है।" 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि "इस मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने तथा परिवादकर्त्ता द्वारा अपनाए गए स्पष्ट रुख और समझौते की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, हमारा मत है कि आपराधिक कार्यवाही जारी रखने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा और यह केवल प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।" 
  • न्यायालय ने स्थापित किया कि यद्यपि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत अपराध गंभीर और जघन्य प्रकृति के होते हैं, तथा समझौते के आधार पर ऐसी कार्यवाही को निरस्त करने को सामान्यतः हतोत्साहित किया जाता है, परंतु दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अंतर्निहित शक्ति आपवादिक परिस्थितियों में निरस्त करने की अनुमति देती है, जहाँ कार्यवाही जारी रखने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा तथा यह प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, विशेषत: जब परिवादकर्त्ता ने स्पष्ट रूप से तथा निरतं अभियोजन को आगे न बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की हो। 

संदर्भित विधिक प्रावधान क्या हैं? 

  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 376बलात्संग के अपराध से संबंधित है, जो एक अशमनीय और अजमानतीय अपराध है, जो कम से कम सात वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय है, जिसे आजीवन कारावास या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकता है। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482उच्च न्यायालय को ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति प्रदान करती है जो संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक हो सकते हैं। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अंतर्निहित अधिकारिताव्यापक है और इसका प्रयोग आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिये किया जा सकता है, जहाँ कार्यवाही जारी रखने से विधि की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा या जहाँ कार्यवाही जारी रखने की अनुमति देने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। 
    • भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत अशमनीय अपराधों कोसामान्यतः पक्षकारों के बीच सुलझाया या समझौता नहीं किया जा सकता है, और न्यायालय सामान्यतः केवल समझौते या मौद्रिक प्रतिकर के आधार पर ऐसी कार्यवाही को रद्द करने की अनुमति नहीं देता हैं। 
    • यद्यपि, आपवादिक परिस्थितियों में, जहाँ परिवादकर्त्ता स्पष्ट रूप से मामले को आगे बढ़ाने की अनिच्छा व्यक्त करता है और मामले को जारी रखने से कोई सार्थक उद्देश्य पूरा नहीं होगा, तो न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये गंभीर अपराधों को भी रद्द करने के लिये अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग कर सकती हैं। 
    • स्थापित सिद्धांतयह है कि बलात्संग जैसे गंभीर अपराध सामान्यतः समझौते के आधार पर निरस्त नहीं किये जा सकते, किंतु दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति आपवादिक  मामलों में निरस्त करने की अनुमति देती है, जहाँ जारी रखना निरर्थक होगा और सभी संबंधित पक्षकारों को अनावश्यक उत्पीड़न का कारण बनेगा। 

सांविधानिक विधि

पेंशन एक सांविधानिक अधिकार है

 17-Jul-2025

विजय कुमार बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया एवं अन्य 

"पेंशनसंविधान के अनुच्छेद 300क के तहत संपत्ति का एक रूप है और एक सांविधानिक अधिकार है। इसमें निर्णय दिया गया कि विधि की प्रक्रिया का पालन किये बिना पेंशन रोकी या कम नहीं की जा सकती, यहाँ तक कि उन मामलों में भी जहाँ कर्मचारी को कदाचार के कारण अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी गई हो।" 

जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जॉयमाल्या बागची 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची नेकहा कि पेंशन संपत्ति का एक सांविधानिक अधिकार है और इसे विधि के अधिकार के बिना कम नहीं किया जा सकता। पेंशन में किसी भी प्रकार की कटौती, विशेष रूप से सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (Employees) पेंशन विनियम, 1995 के विनियम 33 के अंतर्गत, निदेशक मंडल से पूर्व परामर्शआवश्यक है। बिना किसी परामर्श के अपीलकर्त्ता की पेंशन में एक-तिहाई की कटौती करने का बैंक का कार्यमनमाना, अनुचित और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन है, जिससे यह कार्रवाई विधि में टिकने योग्य नहीं है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने विजय कुमार बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

विजय कुमार बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया एवं अन्य मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • विजय कुमार, जो कि सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में मुख्य प्रबंधक (Chief Manager, स्केल-IV अधिकारी) के पद पर कार्यरत थे, पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने 12 खातों में ऋण स्वीकृत करते समय न तो आय का उचित मूल्यांकन किया, न ही "नो योर कस्टमर" (KYC) नियमों का सत्यापन किया, और न ही ऋण स्वीकृति के पश्चात निरीक्षण कराया, जिससे बैंक को संभावित वित्तीय नुकसान हुआ। 
  • सहायक महाप्रबंधक ए.के. रॉय को जांच प्राधिकारी नियुक्त किया गया। जांच कार्यवाही के दौरान अपीलकर्त्ता 30.11.2014 को सेवानिवृत्त हो गए। सेवानिवृत्ति के बाद भी विनियम 20(3)(iii) के अंतर्गत अनुशासनात्मक कार्यवाही जारी रही। 
  • जांच प्राधिकरण ने पाया कि अपीलकर्त्ता ने अपने कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन नहीं किया, तथा अनुशासनात्मक प्राधिकरण ने सेवानिवृत्ति की तिथि से अनिवार्य सेवानिवृत्ति लागू कर दी। 
  • अपील लंबित रहने के दौरान, क्षेत्रीय महाप्रबंधक (Field General Manager) ने निदेशक मंडल से पूर्व परामर्श किये बिना 07 अगस्त 2015 को दो-तिहाई पेंशन प्रदान कर दी, तथा तत्पश्चात 30 दिसंबर 2015 को अपीलकर्त्ता की अपील खारिज कर दी। 
  • अपीलकर्त्ता ने पेंशन में कटौती को चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने बैंक के एक-तिहाई पेंशन कटौती के निर्णय को बरकरार रखा। तत्पश्चात् अपीलकर्त्ता ने इस कटौती को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि पेंशन नियोक्ता का विवेकाधिकार नहीं है, अपितु अनुच्छेद 300क के अधीन संपत्ति पर सांविधानिक अधिकार है, जिसे स्पष्ट विधिक प्राधिकार के बिना नहीं छीना जा सकता। 
  • न्यायालय ने कहा कि सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (कर्मचारी) पेंशन विनियम, 1995 के विनियमन 33 के अनुसार पूर्ण क्षतिपूर्ति पेंशन से कम पेंशन देने से पहले निदेशक मंडल से परामर्श करना अनिवार्य है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि पेंशन में कटौती करते समय सभी प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का कठोरता से पालन किया जाना चाहिये। किसी कर्मचारी के पेंशन के सांविधानिक अधिकार में कटौती करने से पहले निदेशक मंडल से पूर्व परामर्श करना अनिवार्य सुरक्षा उपाय है। 
  • न्यायालय ने कहा कि विनियमन 33 के खण्ड (1) और (2) को संयुक्त रूप से पढ़ा जाना चाहिये, न कि परस्पर अनन्य प्रावधानों के रूप में। खण्डों के स्वतंत्र संचालन के लिये बैंक के तर्क को अस्वीकार कर दिया गया। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि निदेशक मंडल से पूर्व परामर्श अनिवार्य है, न कि निदेश। निर्णय लेने से पहले कार्योत्तर अनुमोदन पूर्व परामर्श का विकल्प नहीं हो सकता। 
  • न्यायालय ने पाया कि पेंशन कम करने से पहले अपीलकर्त्ता को सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया तथा प्राधिकारियों द्वारा दावा किये गए वित्तीय नुकसान के किसी भी साक्ष्य पर उचित रूप से विचार नहीं किया गया। 
  • न्यायालय ने सांविधिक प्रावधानों को निरर्थक होने से बचाने के लिये अनिवार्य परामर्श और निर्वचन के संबंध में स्थापित विधिक सिद्धांतों का हवाला दिया। 

क्या पेंशन अनुच्छेद 21 और 300क के अधीन संरक्षित एक सांविधानिक अधिकार है? 

  • पेंशन भारत के संविधान के अनुच्छेद 300क के अधीन संरक्षित संपत्ति का एक सांविधानिक अधिकार है, और उचित विधि प्राधिकार के बिना इसे छीना नहीं जा सकता है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने यह स्थापित किया है कि "पेंशन एक अधिकार है, न कि कोई उपहार" - यह न तो विवेकाधीन है और न ही नियोक्ता की इच्छा पर निर्भर है, अपितु यह नियमों और सांविधानिक अधिदेश द्वारा शासित है। 
  • पारिवारिक पेंशन के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के अभिन्न अंग माना गया है, क्योंकि यह मृतक कर्मचारी के परिवार की जीविका और कल्याण के लिये अनिवार्य है। 
  • पेंशन एक सामाजिक कल्याणकारी उपाय है जो कर्मचारियों को सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान करता है, तथा यह आश्वासन देता है कि वृद्धावस्था में उन्हें असहाय नहीं छोड़ा जाएगा, जिससे यह एक सांविधानिक दायित्त्व बन जाता है। 
  • पेंशन अधिकारों को प्रभावित करने वाले किसी भी इंकार, कटौती या प्रतिकूल कार्रवाई को उचित प्रक्रिया और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का पालन करना होगा, क्योंकि सांविधानिक संरक्षण के लिये प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का कठोरता से पालन करना आवश्यक है। 
  • पेंशन को संपत्ति के अधिकार के रूप में सांविधानिक रूप से परिभाषित करने से न्यायिक पुनर्विलोकन और रिट अधिकारिता को मनमाने सरकारी या नियोक्ता कार्रवाई के विरुद्ध पेंशन अधिकारों को लागू करने में सक्षम बनाता है। 

वाणिज्यिक विधि

भागीदार की मृत्यु पर भागीदारी फर्म का विघटन

 17-Jul-2025

इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम मेसर्स श्री निवास रामगोपाल 

"यदि विलेख निरंतरता प्रदान करता है तो दो से अधिक भागीदारों वाली भागीदारी फर्म एक भागीदार की मृत्यु पर भंग नहीं होती है।" 

न्यायमूर्ति पंकज मिथल और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंउच्चतम न्यायालय केन्यायमूर्ति पंकज मिथल और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह ने इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (IOCL) की एक अपील को खारिज करते हुए कहा कि " दो से अधिक भागीदारों वाली भागीदारी फर्म, एक भागीदार की मृत्यु पर विघटित नहीं होती है, यदि भागीदारी विलेख में फर्म की निरंतरता के लिये उपबंध करने वाला खण्ड सम्मिलित है।" न्यायालय ने दोहराया किभारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 42 तब लागू नहीं होगी जब दो से अधिक भागीदारों हो, और भागीदारी विलेख में इसके विपरीत उपबंध है। 

  • उच्चतम न्यायालय नेइंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स श्री निवास रामगोपाल एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया। 

इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम मेसर्स श्री निवास रामगोपाल (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्त्ता ने तीन भागीदारों वाली एक भागीदारी फर्मको केरोसिन की आपूर्ति बंद कर दी, क्योंकि उनमें से एक भागीदार की मृत्यु हो गई थी। 
  • भागीदारी फर्मकेरोसिन आपूर्ति कारबारमें लगी हुई थी और केरोसिन की खरीद के लिये अपीलकर्त्ता के साथ उसका वैध करार था। 
  • भागीदारी विलेखमें एक विनिर्दिष्ट खण्ड था जिसमें कहा गया था कि एक भागीदार की मृत्यु की स्थिति में, फर्मकार्य करना बंद नहीं करेगीअपितु कारबार जारी रखेगा 
  • भागीदारी विलेख में आगे यह भी उपबंधित किया गया है किजीवित भागीदार भागीदारी का पुनर्गठन करने के लिये मृतक भागीदार के किसी भी सक्षम उत्तराधिकारी को सम्मिलित कर सकते हैं। 
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि भागीदार की मृत्यु के बादभागीदारी फर्मविघटित हो गई और इसलिये आपूर्ति बंद कर दी गई। 
  • भागीदारी फर्म नेआपूर्ति रोकने के अपीलकर्त्ता के निर्णय को चुनौती देते हुएकलकत्ता उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता कोफर्म कोआपूर्ति पुनः शुरू करने का निदेश दिया, जिसे अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने अपीलकर्त्ता की अपील को खारिज करते हुए निर्णय सुनाया। 
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह सही है कि एक भागीदारी फर्म एक भागीदार की मृत्यु के पश्चात् काम करना बंद कर देती है, किंतुयह नियम तब लागू नहीं होगा जब दो से अधिक भागीदार विद्यमान हों । 
  • न्यायालय ने कहा कि "भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 42 के आधार पर विधि में यह तय है कि भागीदार की मृत्यु होने पर भागीदारी विघटित हो जाएगी, किंतु यह उन मामलों में लागू होता है जहाँ भागीदारी फर्म बनाने वालेकेवल दो भागीदारहैं।" 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि "उपर्युक्त सिद्धांत वहाँ लागू नहीं होगा जहाँभागीदारी फर्म मेंदो से अधिक भागीदार हों औरभागीदारी विलेख में अन्यथा उपबंधित होकि किसी एक भागीदार की मृत्यु होने पर फर्म स्वतः विघटित नहीं हो जाएगी।" 
  • न्यायालय ने विशेष रूप से उल्लेख किया कि वर्तमान मामले में भागीदारी मेंतीन भागीदार थे और भागीदारी विलेख में स्पष्ट शब्दों में यह उपबंधित था कि किसी भागीदार की मृत्यु के कारण भागीदारी समाप्त नहीं होगी।  
  • न्यायालय ने कहा कि भागीदारी अधिनियम कीधारा 42 के अधीन निर्धारित सिद्धांतलागू नहीं होगा और भागीदारों में से किसी एक की मृत्यु के बावजूद भागीदारी जारी रहेगी। 
  • न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता को कारबार की गतिविधियों कोबाधित करने के लिये मनमाने ढंग सेकार्य नहीं करना चाहिये तथा IOCL को आपूर्ति जारी रखने का निदेश देने के उच्च न्यायालय के निर्णय को उचित ठहराया। 

भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 क्या है? 

 बारे में: 

  • यह अधिनियम भारत में भागीदारी फर्मों की स्थापना, संचालन एवं विघटन को विनियमित करने हेतु एक व्यापक विधिक अधिनियम है 
  • अधिनियम मेंभागीदारी कोउन व्यक्तियों के बीच के संबंध के रूप में परिभाषित किया गया है जो सभी या उनमें से किसी एक द्वारा सभी के लिये कार्य करते हुए चलाए जा रहे कारबार के लाभ को साझा करने के लिये सहमत हुए हैं। 
  • यह अधिनियम भागीदारों के अधिकारों और कर्त्तव्यों, भागीदारी कारबार के प्रबंधन और भागीदारी फर्मों के विघटन के विभिन्न तरीकों काउपबंध करता है । 
  • यह अधिनियम भागीदारों कोभागीदारी विलेखोंमें प्रवेश करने का अधिकार देता है, जो कुछ परिसीमाओं के अधीन अधिनियम के सामान्य उपबंधों को संशोधित कर सकते हैं। 

अधिनियम की धारा 42: 

  • अधिनियम कीधारा 42 "किन्हीं आकस्मिकताओं के घटित होने पर विघटन"से संबंधित है तथा विभिन्न परिस्थितियों का उपबंध करती है, जिनके अधीन भागीदारी फर्म स्वतः ही विघटित हो जाती है।  
  • धारा 42 मेंकहा गया है कि "भागीदारों के बीच संविदा के अधीन, एक फर्म चार विशिष्ट आकस्मिकताओं के अधीन विघटित हो जाती है": 
  • धारा 42 के अंतर्गत चार आकस्मिकताएँ: 
    1. निश्चित अवधि के अवसान से:यदि भागीदारी निश्चित अवधि के लिये गठित की जाती है, तो वह उस अवधि की समाप्ति पर स्वतः ही विघटित हो जाती है। 
    2. प्रोद्यमों/उपक्रमों का समापन:यदि भागीदारी एक या एक से अधिक प्रोद्यमों या उपक्रमों को पूरा करने के लिये गठित की गई है, तो यह उसके पूर्ण होने पर विघटित हो जाती है। 
    3. भागीदार की मृत्यु:भागीदार की मृत्यु पर भागीदारी समाप्त हो जाती है, जो वर्तमान मामले में मुख्य विवाद्यक था। 
    4. भागीदार का दिवालिया होना:भागीदार के दिवालिया घोषित होने पर भागीदारी समाप्त हो जाती है।