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आपराधिक कानून

आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना

 18-Jul-2025

कथ्यायिनी बनाम सिद्धार्थ पीएस रेड्डी और अन्य 

"यदि प्रथमदृष्टया मामला आपराधिक मामला बनता है, तो सिविल कार्यवाहियों की लंबितता आपराधिक मामले को रद्द करने का औचित्य नहीं बनती, जैसा कि इस मामले में देखा गया है, जिसमें पुत्रियों को वंश वृक्ष से अपवर्जित किया गया, 33 करोड़ रुपए का दुर्विनियोग किया गया और धमकियाँ दी गईं - जिसके लिये पूर्ण आपराधिक विचारण चलाया जाना आवश्यक है।" 

जस्टिस विक्रम नाथ और प्रसन्ना बी. वराले 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ तथा न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने यह निर्णय दिया कि यदि कपट और दुर्विनियोग के आरोपों पर आधारित कोई प्रथमदृष्टया आपराधिक मामला बनता है, तो केवल इस आधार पर कि पक्षकारों के मध्य सिविल विवाद लंबित हैं, आपराधिक कार्यवाही को रद्द नहीं किया जा सकता 

  • उच्चतम न्यायालय ने कथयायिनी बनाम सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

कथ्ययिनी बनाम सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी एवं अन्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • कथ्यायिनी के.जी. येलप्पा रेड्डी और जयलक्ष्मी की पुत्री हैं, जिनके एक साथ आठ बच्चे थे - तीन पुत्र (सुधनवा रेड्डी, गुरुवा रेड्डी, और उमेधा रेड्डी) और पाँच पुत्रियाँ (ललिता, जयश्री, रीता, भवानी और कथ्यायिनी)। प्रत्यर्थी सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी और विक्रम पी.एस. रेड्डी सुधन्वा रेड्डी के पुत्र हैं, जिससे वे कथ्ययिनी के भतीजे हैं 
  • कथ्ययिनी के माता-पिता नेसंयुक्त रूप से 17 फ़रवरी 1986 को रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख के माध्यम से डोड्डा थोगुर, बेंगलुरु में 19 गुंटा ज़मीन खरीदी थी। उनके पिता के.जी. येलप्पा रेड्डी ने कुछ पैतृक संपत्तियों के विक्रय से प्राप्त राशि से यह संपत्ति अर्जित की थी। माता-पिता दोनों का निधन हो चुका है। 
  • बेंगलुरु मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने परिवार की ज़मीन का अधिग्रहण किया और कुल 33 करोड़ रुपए का प्रतिकर दिया। कथ्यिनी का मानना था कि यह बड़ी रकम उसके माता-पिता के सभी आठ बच्चों में बराबर-बराबर बाँट दी जाएगी। 
  • कथ्ययिनी को पता चला कि उसके बड़े भाई सुधन्वा रेड्डी और उसके पुत्रों (प्रत्यर्थी) ने उसे और उसकी बहनों को उनके जायज़ अंश से वंचित करने के लियेकथित तौर पर एक आपराधिक षड्यंत्र कियाइस कथित कपटपूर्ण योजना में निम्नलिखित आपराधिक कृत्य सम्मिलित थे:  
    • कथित तौर पर गाँव के लेखाकार नरसिंहैया को रिश्वत देकर 18 जनवरी 2011 की तारीख़ वाला एक मनगढ़ंत वंश वृक्ष (fabricated family tree) तैयार किया गया। इस दस्तावेज़ में केवल तीन पुत्रों को ही उत्तराधिकारी दिखाया गया, पाँचों पुत्रियों को पूरी तरह से अपवर्जित किया गया। 
    • 24 मार्च 2005 को कथित रूप से फर्जी विभाजन विलेख तैयार करना, जिसमें भूमि को केवल पुरुष उत्तराधिकारियों - सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी, विक्रम पी.एस. रेड्डी, गुरुवा रेड्डी और उमेधा रेड्डी के बीच विभाजित करना शामिल है। 
    • इन कथित कूटरचित दस्तावेज़ों के आधार पर, भाइयों ने मेट्रो प्रतिकर से 1.80 करोड़ रुपए का दावा किया और प्राप्त भी कियेतत्पश्चात्, कुल 27 करोड़ रुपए जारी किये गए और सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी, विक्रम पी.एस. रेड्डी, उमेधा रेड्डी और अशोक रेड्डी के खातों में जमा किये गए। 
    • यह कपट तब सामने आया जब सुधन्वा रेड्डी ने अपने पुत्र प्रज्वल रेड्डी (दूसरी पत्नी से उत्पन्न) के साथ हुए पारिवारिक विवाद में यह स्वीकार किया कि उक्त विभाजन विलेख कृत्रिम एवं कूटरचित था। उन्होंने इस संबंध में बेंगलुरु मेट्रो रेल निगम के प्रबंध निदेशक को पत्र लिखकर सूचित किया कि यह विलेख उनके भाईयों एवं पुत्रों द्वारा तैयार किया गया कूटरचित दस्तावेज़ था। इसके पश्चात्, कर्नाटक औद्योगिक क्षेत्र विकास बोर्ड (KIADB) ने शेष प्रतिकर राशि का वितरण स्थगित कर ₹5.59 करोड़ की राशि विचारण न्यायालय में जमा कर दी 
    • 6 अक्टूबर 2017 को कपट का पता चलने पर, कथ्यिनी ने अपने भाइयों का विरोध किया, जिन्होंने कथित तौर पर उसे जान से मारने की धमकी दी। उसने 14 नवंबर 2017 और 20 नवंबर 2017 को (अपनी बहन जयश्री के साथ मिलकर) परिवाद दर्ज कराया, जिसके बाद अभियुक्तों के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई। 
  • कथ्ययिनी और उनकी बहन जयश्री ने पारिवारिक संपत्तियों के विभाजन, प्रतिकर में समान अंश और 2005 के विभाजन के दस्तावेज़ को शून्य घोषित करने की मांग करते हुए सिविल वाद दायर किया। बैंक खातों से प्रतिकर की राशि निकालने पर रोक लगाने की मांग करते हुए एक और सिविल वाद दायर किया गया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि प्रत्यार्थियों के विरुद्ध प्रथम दृष्टया आपराधिक षड्यंत्र और छल का मामला बनता है। न्यायालय ने कहा कि उन्होंने अपने चाचाओं के साथ मिलकर, अपीलकर्त्ता और उसकी बहनों को नज़रअंदाज़ करते हुए, संपूर्ण राशि हड़पने के आशय से कूटरचित दस्तावेज़ तैयार करके अपनी चाचीओं के साथ कपट करने का प्रयत्न किया। 
  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 24 मार्च 2005 के विभाजन विलेख की वास्तविकता के संबंध में उप-पंजीयक के कथन पर गलती से विश्वास कर लिया था। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि इस कथन की प्रतिपरीक्षा नहीं की गई थी, इसलिये दस्तावेज़ की वास्तविकता का पता लगाने के लिये असत्यापित परिसाक्ष्य पर विश्वास करना नासमझी है। 
  • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय इस बात से इंकार करने का कोई औचित्य नहीं पा सका कि प्रत्यार्थियों ने वंश वृक्ष को गलत तरीके से प्रस्तुत किया है। न्यायालय ने स्वीकार किया कि प्रत्यर्थी वंश वृक्ष में के.जी. येलप्पा रेड्डी और जयलक्ष्मी की सभी पुत्रियों के नाम बताने के लिये बाध्य थे, और यह देखते हुए कि दोनों दस्तावेज़ों का प्रयोग प्रतिकर राशि पाने के लिये किया गया था, इसलिये इन दस्तावेज़ों की प्रामाणिकता को विचारण के अधीन रखा जाना आवश्यक है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कियदि किसी सिविल वाद में पक्षकारों के विरुद्ध आपराधिक विधि के अंतर्गत दण्डनीय अपराध सिद्ध होते हैं, तो अभियोजन पर कोई रोक नहीं है।न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि आपराधिक विधि और सिविल विधि साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि दोनों उपचार परस्पर अनन्य नहीं, अपितु सह-व्यापक हैं, और उनकी विषयवस्तु और परिणाम भिन्न हैं। 
  • न्यायालय ने दोहराया कि आपराधिक विधि का उद्देश्य व्यक्तियों, संपत्ति या राज्य के विरुद्ध अपराध करने वाले अपराधियों को दण्डित करना है, जबकि सिविल उपचार विभिन्न तंत्रों के माध्यम से गलत कार्यों से निपटते हैं। एक ही विषय पर एक ही पक्षकार से संबंधित सिविल कार्यवाही के लंबित रहने से, यदि प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का कोई औचित्य नहीं बनता। 
  • न्यायालय ने पाया कि घटनाओं की लंबी श्रृंखला पुत्रियों को छोड़कर वंश वृक्ष बनाने से लेकर, केवल पुत्रों और पोतों के बीच बंटवारे का दस्तावेज़ तैयार करने और प्रत्यार्थियों के बीच प्रतिकर बाँटने तक - यह निष्कर्ष निकालने के लिये पर्याप्त थी कि प्रत्यार्थियों ने संबंधित ज़मीन से लाभ उठाने के लिये सक्रिय प्रयास किये थे। अपीलकर्त्ता और उसकी बहनों को दी गई कथित धमकियों ने प्रत्यार्थियों के हेतुक को और पुष्ट किया।  
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि सभी कारक दर्शाते हैं कि अपीलकर्त्ता को न्याय सुनिश्चित करने के लिये आपराधिक विचारण आवश्यक है। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जब प्रथम दृष्टया मामला स्थापित हो जाए, तो समानांतर सिविल विवादों की परवाह किये बिना, आपराधिक कार्यवाही अपने तार्किक अंत तक जारी रहनी चाहिये 

प्रथम दृष्टया मामला क्या है? 

  • प्रथम दृष्टया मामले (Prima Facie Case) की परिभाषा और अवधारणा: 
    • प्रथम दृष्टया मामला उस साक्ष्य को संदर्भित करता है जो प्रथम दृष्टया या उपस्थिति से किसी विधिक दावे या आरोप का समर्थन करने के लिये पर्याप्त आधार स्थापित करता है। आपराधिक विधि में, इसका अर्थ है कि पर्याप्त साक्ष्य विद्यमान हैं, जिनका खण्डन न होने पर दोषसिद्धि सुनिश्चित हो सकती है। 
    • इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है "प्रथम दृष्टि में" या "पहली उपस्थिति पर" तथा यह आपराधिक अभियोजन के लिये आवश्यक साक्ष्य की न्यूनतम सीमा को दर्शाता है। 
  • प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने के लिये मानक: 
    • न्यायालय प्रथम दृष्टया संदेह से परे किसी सबूत की मांग नहीं करता। इसके बजाय, वे इस बात की परीक्षा करते हैं कि क्या यह मानने का कोई उचित संदेह या संभावित कारण विद्यमान है कि अभियुक्त ने कोई अपराध किया है। 
    • साक्ष्य निश्चायक होना आवश्यक नहीं है, किंतु दोष युक्तियुक्त उपधारणा के लिये पर्याप्त होना चाहिये, जिसके लिये आगे अन्वेषण और विचारण की आवश्यकता हो। 

लंबित सिविल विवादों के होते हुए भी आपराधिक कार्यवाही में यह क्यों महत्त्वपूर्ण है? 

  • प्रथम दृष्टया अवधारण के लिये न्यायिक दृष्टिकोण: 
    • न्यायालय प्रथम दृष्टया आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के संबंध में निर्णय लेते समय सतर्क रुख अपनाते हैं। 
    • वे मानते हैं कि आपराधिक मामलों को समय से पहले समाप्त करने से पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता तथा विधि का शासन कमजोर हो जाता है। 
  • प्रथम दृष्टया स्तर पर सबूत का भार: 
    • प्रथम दृष्टया, अभियोजन पक्ष को युक्तियुक्त संदेह से परे अपराध साबित करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय, उन्हें इस संदेह के युक्तियुक्त आधार प्रस्तुत करने होंगे कि अभियुक्त ने कथित अपराध किये हैं। 
    • यह निचली सीमा यह सुनिश्चित करती है कि योग्य मामले विचारण के लिये आगे बढ़ें, जहाँ साक्ष्य की उचित जांच की जा सके। 
  • प्रक्रिया के दुरुपयोग के विरुद्ध संरक्षण: 
    • जहाँ न्यायालय तुच्छ या विद्वेषपूर्ण अभियोजनों से सुरक्षा प्रदान करते हैं, वहीं वे उन मामलों को समय से पहले खारिज होने से भी बचाते हैं, जिन्हें पूरे अन्वेषण की आवश्यकता होती है। 
    • प्रथम दृष्टया मानक, अभियुक्तों को उत्पीड़न से बचाने तथा वास्तविक मामलों में उचित निर्णय सुनिश्चित करने के बीच संतुलन स्थापित करता है। 
  • मामले के प्रबंधन के लिये निहितार्थ: 
    • सिविल विवादों के होते हुए भी आपराधिक कार्यवाही जारी रखने के सिद्धांत का मामला प्रबंधन और न्यायिक दक्षता पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। 
    • यह अभियुक्तों को आपराधिक दायित्त्व से बचने के लिये सिविल मुकदमेबाजी को ढाल के रूप में उपयोग करने से रोकता है। 
  • फोरम शॉपिंग की रोकथाम: 
    • यह सिद्धांत पक्षकारों को विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग से रोकता है, जहाँ वे केवल आपराधिक कार्यवाही को रद्द कराने हेतु दीवानी वादों को प्रारंभ कर देते हैं 
    • यह सुनिश्चित करता है कि दीवानी एवं आपराधिक न्याय व्यवस्था स्वतंत्र रूप से कार्य करें और उनकी न्यायिक अखंडता बनी रहे 
  • व्यापक न्याय सुनिश्चित करना: 
    • समवर्ती कार्यवाही की अनुमति देकर, विधिक प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि गलत कार्य के सभी पहलुओं को उचित ढंग से समाधान किया जाए 
    • पीड़ितों के अपराधियों को दण्ड देकर आपराधिक न्याय तथा क्षति के लिये क्षतिपूर्ति के माध्यम से सिविल न्याय दोनों प्राप्त होते हैं। 

निर्णय विधि 

  • जगदीश बनाम उदय कुमार जी.एस. और अन्य (2020): 
    • उच्चतम न्यायालय ने इस पूर्व निर्णय पर विश्वास किया, जिसने स्थापित किया कि तथ्यों का एक ही समूह सिविल और आपराधिक दोनों तरह के उपचारों को जन्म दे सकता है, और सिविल उपचार का लाभ उठाने से आपराधिक कार्यवाही में बाधा नहीं आती है।     
  • प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार और अन्य (1985): 
    • इस मामले ने यह स्थापित किया कि आपराधिक विधि और सिविल विधि साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि दोनों उपचार परस्पर अनन्य नहीं हैं, अपितु सह-व्यापक हैं, तथा उनकी विषय-वस्तु और परिणाम भिन्न हैं।    
  • कमलादेवी अग्रवाल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य (2001): 
    • इस पूर्व निर्णय ने इस बात को पुष्ट किया कि सिविल कार्यवाही का लंबित रहना आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता, तथा आपराधिक मामलों को दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन विहित प्रक्रियाओं के अनुसार आगे बढ़ना चाहिये 

सांविधानिक विधि

मंदिर में प्रवेश

 18-Jul-2025

वेंकटेशन बनाम जिला कलेक्टर एवं अन्य 

अनुसूचित जाति के लोगों को प्रार्थना करने से रोकना उनकी गरिमा का अपमान है और विधि के शासन वाले देश में ऐसा करना अनुचित है।” 

न्यायमूर्ति आनंद वेंकटेश 

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति आनंद वेंकटेश नेकहा कि जाति के आधार पर मंदिर में प्रवेश से इंकार करना गरिमा का अपमान है और विधि के शासन का उल्लंघन है, जिसके लिये तमिलनाडु मंदिर प्रवेश प्राधिकरण अधिनियम, 1947 के अधीन कार्रवाई की आवश्यकता है। 

  • मद्रासउच्च न्यायालय नेवेंकटेशन बनाम जिला कलेक्टर एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया। 

वेंकटेशन बनाम जिला कलेक्टर एवं अन्य (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • यह मामला वेंकटेशन द्वारा मद्रास उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका से उत्पन्न हुआ था। याचिकाकर्त्ता नेअरियालुर जिले के अरुलमिगु पुथुकुडी अय्यनार मंदिर में अपने समुदाय के सदस्यों के लियेमंदिर में प्रवेश और भागीदारी के अधिकार सुरक्षित करने के लिये न्यायिक हस्तक्षेप की मांग की थी । 
  • वेंकटेशन ने न्यायालय से अनुरोध किया कि अरियालुर के जिला कलेक्टर, राजस्व प्रभागीय अधिकारी और हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ बंदोबस्ती (HR&CE) के सहायक आयुक्त सहित कई अधिकारियों को निदेश जारी किये जाएं। 
  • मांगा गया विनिर्दिष्ट अनुतोष यह था कि उनके समुदाय के सदस्यों को मंदिर में आयोजित होने वाले रथ उत्सव में भाग लेने की अनुमति दी जाए। 
  • याचिकाकर्त्ता ने अपने समुदाय के सदस्यों को मंदिर में पूजा करने तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों को बिना किसी जाति-आधारित प्रतिबंध के करने की अनुमति देने की भी मांग की। 
  • यह मामला कथित विभेदके कारण उत्पन्न हुआ, जिसके अधीन कुछ समुदाय के सदस्यों को मंदिर में प्रवेश करने तथा धार्मिक उत्सवों में भाग लेने से रोका गया। 
  • कार्यवाही के दौरान, हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग ने न्यायालय को सूचित किया कि संबंधित मंदिर उसके प्रशासनिक नियंत्रण या अधिकारिता में नहीं है। 
  • इस स्पष्टीकरण के बाद न्यायालय ने अपने आदेश विशेष रूप से जिला कलेक्टर और राजस्व प्रभागीय अधिकारी को जारी करने के निदेश दिये, जिनके पास उस क्षेत्र पर प्रादेशिक अधिकारिता थी 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायमूर्ति आनंद वेंकटेश ने मंदिर प्रवेश में जाति-आधारित भेदभाव के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं। न्यायालय ने कहा कि जाति के आधार पर किसी व्यक्ति को मंदिर में प्रवेश से रोकनामानवीय गरिमा का गंभीर अपमान है और विधि के शासन वाले देश में इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। 
  • न्यायालय ने कहा कि जाति और समुदाय के भेद मानवीय रचनाएँ हैं, जबकि ईश्वरत्व तटस्थ और सार्वभौमिक है। न्यायाधीश ने कहा कि केवल अनुसूचित जाति समुदाय से होने के कारण लोगों को प्रार्थना करने से रोकना उनकी मौलिक गरिमा का गंभीर उल्लंघन है। 
  • न्यायालय ने बल देकर कहा कि इस प्रकार की भेदभावपूर्ण प्रथाएँ सांविधानिक ढाँचे में निहित समता और न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध अपराध हैं। न्यायाधीश ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को उसकी जातिगत पहचान के आधार पर पूजा स्थलों में प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए। 
  • न्यायालय ने तमिलनाडु मंदिर प्रवेश प्राधिकरण अधिनियम, 1947 की धारा 3 के उपबंधों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह विधि स्पष्ट रूप से प्रत्येक हिंदू को, चाहे वह किसी भी जाति या संप्रदाय का हो, हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने और पूजा-अर्चना करने का अधिकार देता है। न्यायालय ने कहा कि यह अधिनियम ऐसे प्रवेश को रोकने वालों के विरुद्ध विधिक कार्रवाई का उपबंध करता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि यह विधि विभिन्न नेताओं द्वारा मंदिर में सर्वजन प्रवेश के लिये किये गए निरंतर संघर्षों के बाद बनाई गई थी। न्यायाधीश ने कहा कि यह विधि विशेष रूप से हिंदुओं के कुछ वर्गों पर मंदिर प्रवेश के संबंध में अधिरोपित की गई बाधाओं को दूर करने के लिये बनाई गई थी 
  • न्यायालय ने निदेश दिया कि अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्यों को मंदिर के उत्सवों में भाग लेने से रोकने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध उचित विधिक कार्रवाई की जानी चाहिये, तथा ऐसे कृत्यों को विधि के अधीन दण्डनीय अपराध माना जाना चाहिये 

संदर्भित विधिक उपबंध क्या हैं? 

सांविधानिक उपबंध: 

  • भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14 के अधीन समता का अधिकार सार्वजनिक पूजा स्थलों में प्रवेश के संबंध में जाति के आधार पर विभेद पर रोक लगाता है। 
  • अनुच्छेद 25 धर्म की स्वतंत्रता और जाति-आधारित प्रतिबंधों के बिना धार्मिक गतिविधियों का अभ्यास करने के अधिकार को प्रत्याभूत करता है। 
    • अनुच्छेद 25(1)लोगों कोअपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार करने की स्वतंत्रतादेता है जोलोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीनहै । 
    • अनुच्छेद 25(2) राज्य को धार्मिक प्रथाओं से जुड़ी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या पंथनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित करनेऔरसामाजिक कल्याण, सुधारऔर हिंदू धार्मिक संस्थानों को हिंदुओं के सभी वर्गों के लिये खोलने के लिये विधि बनाने कीअनुमति देता है । 
      • इसलिये, धार्मिक प्रथाओं के पंथनिरपेक्ष पहलुओं को विनियमित करनेका मुद्दापूजा तक पहुँच प्रदान करनेसे भिन्न है । 
  • संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है तथा किसी भी रूप में इसका पालन करना दण्डनीय अपराध बनाता है। 

तमिलनाडु मंदिर प्रवेश प्राधिकरण अधिनियम 1947 

  • तमिलनाडु मंदिर प्रवेश प्राधिकरण अधिनियम 1947 की धारा 3 में उपबंध है कि प्रत्येक हिंदू, चाहे वह किसी भी जाति या संप्रदाय का हो, हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने और पूजा करने का हकदार होगा। 
  • यह अधिनियम प्राधिकारियों को जाति के आधार पर मंदिर में प्रवेश को प्रतिबंधित करने या रोकने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध विधिक कार्रवाई करने का अधिकार देता है। 
  • यह विधि तमिलनाडु राज्य के भीतर हिंदू मंदिरों में प्रवेश के विरुद्ध हिंदुओं के कुछ वर्गों पर लगाए गए प्रतिबंधों को दूर करने के लिये बनाई गई थी 
  • यह अधिनियम हिंदू पूजा स्थलों तक अभेदात्मक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये एक विधिक ढाँचा स्थापित करता है। 

निर्णय विधि: 

शिरूर मठ बनाम आयुक्त, हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती, मद्रास (1954): 

  • धार्मिक संस्थाओं को अनुच्छेद 26(घ) के अधीन स्वायत्त प्रबंधन अधिकार प्राप्त हैं। 
  • राज्य सांविधानिक सीमाओं के भीतर धार्मिक संस्था प्रशासन को विनियमित कर सकता है। 
  • धार्मिक स्वतंत्रता और संपत्ति अधिकार संरक्षण के लिये पूर्व निर्णय स्थापित किये 

रतिलाल पानाचंद गाँधी बनाम बॉम्बे राज्य (1954): 

  • धार्मिक प्रथाएँ धर्म का अभिन्न अंग हैं और उन्हें सांविधानिक संरक्षण मिलना चाहिये 
  • संरक्षण केवल आवश्यक धार्मिक प्रथाओं तक ही सीमित है, परिधीय गतिविधियों तक नहीं। 
  • राज्य धार्मिक न्यास संपत्तियों के प्रशासन को विनियमित कर सकता है। 

पन्नालाल बंसीलाल पिट्टी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1996): 

  • मंदिर प्रबंधन पर वंशानुगत अधिकारों को समाप्त करने वाली विधियों को बरकरार रखा। 
  • धार्मिक सुधार विधि सभी धर्मों पर समान रूप से लागू नहीं होने चाहिये 
  • वंशानुगत मंदिर उत्तराधिकार एक आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है। 

स्टैनिस्लास बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1977): 

  • अनुच्छेद 25 के अद्धीन धर्म का प्रचार करने के अधिकार में दूसरों के धर्म परिवर्तन करने के अधिकार को अपवर्जित करता है। 
  • धर्मांतरण विरोधी विधियों की सांविधानिक वैधता को बरकरार रखा। 
  • विश्वास फैलाने और बलपूर्वक धर्मांतरण के बीच अंतर किया गया। 

सांविधानिक विधि

आदिवासी महिलाओं के समान उत्तराधिकार अधिकार

 18-Jul-2025

राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य 

"महिला उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार से बाहर रखना भेदभावपूर्ण है।" 

न्यायमूर्ति संजय करोल और जॉयमाल्या बागची 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंउच्चतम न्यायालय केन्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची ने कहा कि "महिलाओं को उत्तराधिकार से अपवर्जित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है",जबकि उत्तराधिकार से संबंधित विवाद में जनजातीय परिवार में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिये गए हैं। 

  • उच्चतम न्यायालय ने राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्त्ताधैया नामक अनुसूचित जनजाति की महिला के विधिक उत्तराधिकारीथे, जिसने अपने नाना की संपत्ति में अंश मांगा था। 
  • परिवार के पुरुष उत्तराधिकारियों ने इस दावे का विरोध करते हुएकहाकि आदिवासी रीति-रिवाजों के अधीन महिलाओं को उत्तराधिकार से अपवर्जित किया गया है। 
  • यह मामला एक आदिवासी परिवार कीपैतृक संपत्तिसे संबंधित था, जहाँ महिला उत्तराधिकारियों को उनके उचित अंश से वर्जित किया जा रहा था। 
  • विचारण न्यायालय, प्रथम अपीलीय न्यायालय और उच्च न्यायालय नेअपीलकर्त्ताओं के दावे को यह कहते हुए नामंजूर कर दिया था कि अपीलकर्त्ता महिलाओं को उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने में असफल रहे 
  • निचली न्यायालयों ने निर्णय दिया कि चूँकि अपीलकर्त्तामहिला उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली कोई सकारात्मक प्रथास्थापित नहीं कर सके, इसलिये जनजातीय महिला अंश की हकदार नहीं थी। 
  • पुरुष उत्तराधिकारियों ने तर्क दिया किजनजातीय रीति-रिवाजों के कारण महिलाओं कोउत्तराधिकार के अधिकार से अपवर्जित किया गया है, यद्यपि वे ऐसी किसी भी निषेधात्मक प्रथा को साबित नहीं कर सके। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागचीकी पीठ नेकहा कि "ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं है कि केवल पुरुषों को ही अपने पूर्वजों की संपत्ति पर उत्तराधिकार दिया जाए, महिलाओं को नहीं।" 
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "विधि की तरह रीति-रिवाज भी समय में अटके नहीं रह सकते और दूसरों को रीति-रिवाजों की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।" 
  • न्यायालय ने कहा कि यद्यपिहिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि आदिवासी महिलाएँ स्वतः ही उत्तराधिकार से अपवर्जित हो जाती हैं। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि यह देखा जाना चाहिये कि क्या कोई प्रचलित प्रथा विद्यमान है जोपैतृक संपत्ति में अंश के लियेमहिला आदिवासी अधिकार को प्रतिबंधित करती है । 
  • उच्चतम न्यायालय ने पाया किलिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकारों से वंचित करना भारत का संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है , जो विधि के समक्ष समता को प्रत्याभूत करता है। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी विनिर्दिष्ट जनजातीय प्रथा या संहिताबद्ध विधि के अभाव में, न्यायालयों को "न्याय, समता और सद्विवेक" को लागू करना चाहिये 

सबूत के भार पर न्यायालय का तर्क क्या था? 

  • न्यायालय ने कहा किनिचली न्यायालयों ने अपीलकर्त्ताओं से महिलाओं को उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने की मांग करके गलती की है । 
  • इसके अतिरिक्त, विरोधी पक्षकार कोअनुमेय प्रथा के सकारात्मक सबूत की अपेक्षा करने के बजायऐसी विरासत पर रोक साबित करनी चाहिये 
  • न्यायालय ने टिप्पणी की कि "अपीलकर्त्ता-वादी द्वारा महिला उत्तराधिकार की ऐसी कोई प्रथा स्थापित नहीं की जा सकी, किंतु फिर भी यह भी उतना ही सत्य है कि इसके विपरीत कोई प्रथा भी थोड़ी सी भी नहीं दर्शायी जा सकी, और उसे साबित करना तो दूर की बात है।" 
  • किसी भी निषेधात्मक प्रथा के अभाव में समता कायम रहनी चाहिये, तथा केवल लिंग के आधार पर अधिकारों से वंचित करना असांविधानिक है। 

लैंगिक समता के लिये सांविधानिक ढाँचा क्या है? 

अनुच्छेद 14 - समता का अधिकार: 

  • संविधान काअनुच्छेद 14 भारत के राज्यक्षेत्र में सभी व्यक्तियों कोविधि के समक्ष समता तथा विधियों के समान संरक्षण को प्रत्याभूत करता है। 
  • यह उपबंधमनमाने भेदभावपर रोक लगाता है और यह सुनिश्चित करता है कि समान मामलों में समान व्यवहार किया जाए। 
  • लिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करनाअनुच्छेद 14 का उल्लंघनहै, क्योंकि इस तरह के भेदभाव का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया किजब कोई निषेधात्मक प्रथा विद्यमान नहीं है तोकेवल पुरुष उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार देने का कोई औचित्य नहीं है। 

अनुच्छेद 15 - धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध: 

  • अनुच्छेद 15(1) मेंकहा गया है कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथधर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थानके आधार पर विभेद नहीं करेगा । 
  • न्यायालय ने कहा कि निषेधात्मक प्रथा के अभाव में महिला जनजातीय सदस्यों को उत्तराधिकार से वंचित करनाअनुच्छेद 15 का उल्लंघन है । 
  • अनुच्छेद 38 और 46 संविधान के सामूहिक चरित्र की ओर इशारा करते हैं, जो यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं के विरुद्ध कोई भेदभाव न हो। 
  • संवैधानिक ढांचालैंगिक समानतापर जोर देता है और संपत्ति के अधिकार सहित सभी क्षेत्रों में लिंग आधारित विभेद को प्रतिबंधित करता है। 

न्याय, समता और सद्विवेक का सिद्धांत: 

  • किसी विशिष्ट जनजातीय प्रथा या संहिताबद्ध विधि के अभाव में, न्यायालयों को "न्याय, समता और सद्विवेक" के सिद्धांत को लागू करना चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि "महिला (या उसके) उत्तराधिकारी को संपत्ति में अधिकार देने से इंकार करने से केवल लैंगिक विभाजन और विभेद को बढ़ता है, जिसे विधि द्वारा समाप्त किया जाना चाहिये।" 
  • इस सिद्धांत के अनुसार न्यायालयों कोबदलते समय के साथ विकसित होनाहोगा तथा पुरानी प्रथाओं को विभेद को जारी रखने की अनुमति नहीं देनी चाहिये 
  • रीति-रिवाजों को विकसित होना चाहियेऔर व्यक्तियों को मौलिक अधिकारों से वंचित करने के लिये उन्हें स्थिर नहीं रखा जा सकता।