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आपराधिक कानून
वैवाहिक विवाद के पश्चात् बच्चे की अभिरक्षा
23-Jul-2025
एक्स. बनाम वाई. "वैवाहिक विवादों के पश्चात् संतान का पति की अभिरक्षा में रहना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क के अधीन क्रूरता नहीं है।" न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
दिल्ली उच्च न्यायालय ने वैवाहिक विवाद मामले में ससुराल वालों के विरुद्ध दायर आरोपपत्र को खारिज करते हुए कहा कि "केवल इस कारण से कि वैवाहिक विवाद उत्पन्न होने के पश्चात् संतान पति की अभिरक्षा में थी, उसे भारतीय दण्ड संहिता,1860 की धारा 498क (अब भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 85 और धारा 86 ) के अंतर्गत क्रूरता या उत्पीड़न नहीं माना जा सकता।" न्यायालय ने वास्तविक पीड़ितों को न्याय सुनिश्चित करते हुए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क के दुरुपयोग को रोकने की आवश्यकता पर बल दिया।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक्स. बनाम वाई. (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
एक्स. बनाम वाई. (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ताओं ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क के अधीन उनके विरुद्ध दायर आरोपपत्र को रद्द करने की मांग करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- परिवादकर्त्ता पत्नी ने अपने पति द्वारा दायर तलाक के मामले के प्रतिशोध में 2015 में अपने ससुराल वालों के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई थी।
- वैवाहिक मतभेद के कारण दोनों पक्ष पृथक् हो गए, किंतु बालक की अभिरक्षा पति और उसके माता-पिता के पास ही रही।
- पति का यह आरोप था कि पत्नी को मानसिक विकार (violent psychotic fits) की समस्या थी, जिसे पत्नी के परिवार ने जान-बूझकर छुपाया, जिससे वह एवं उसका परिवार अनभिज्ञ रहा।
- आपराधिक मामले के अतिरिक्त, पत्नी ने दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा का अभिकथन करते हुए भरण-पोषण की मांग करते हुए कई परिवाद भी दर्ज कराए थे।
- पति के परिवार ने तर्क दिया कि पत्नी बाइपोलर मैनिक डिसऑर्डर (Bipolar Manic Disorder) से पीड़ित है, और उसकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये उन पर दबाव डालने के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने कहा कि यह ऐसा मामला था, जिसमें पति और पत्नी के बीच वैवाहिक संबंध नहीं चल रहा था और प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) "ससुराल वालों को घुटने टेकने पर मजबूर करने" के लिये दर्ज की गई थी।
- न्यायालय ने कहा कि "भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85 और धारा 86) परिवादकर्त्ताओं के लिये बढ़ा-चढ़ाकर और मनगढ़ंत अभिकथनों वाली मिथ्या प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करवाकर अपना हिसाब चुकता करने का एक आसान हथियार बन गई है।"
- न्यायालय ने इस बात का कोई प्रमाण नहीं पाया कि विवाह से पहले या विवाह के समय दहेज की कोई मांग की गई थी, तथा पत्नी के परिवार ने अपनी हैसियत के अनुसार विवाह सम्पन्न कराया था।
- मानसिक स्वास्थ्य संबंधी अभिकथनों के संबंध में न्यायालय ने कहा: "उसके मानसिक मनोवैज्ञानिक संकेतक चाहे जो भी रहे हों, ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे पता चले कि परिवादकर्त्ता को कोई जबरदस्ती दवा दी जा रही थी या इससे उसके स्वास्थ्य को कोई नुकसान पहुँचा था।"
- न्यायालय ने इस मामले को " भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85 और धारा 86) के हितकारी उपबंध के दुरुपयोग का उत्कृष्ट उदाहरण" बताया और कहा कि यह "न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग" है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जहाँ सच्चे पीड़ितों को न्याय मिलना चाहिये, वहीं न्यायालयों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि "न्याय वितरण प्रणाली में विश्वसनीयता और विश्वास" बनाए रखने के लिये धारा दण्ड संहिता की धारा 498क (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85 और धारा 86) का दुरुपयोग न होने दिया जाए।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क क्या है?
बारे में:
- विवाहित महिलाओं के प्रति दहेज संबंधी उत्पीड़न और क्रूरता की बढ़ती समस्या से निपटने के लिये भारतीय दण्ड संहिता में धारा 498क जोड़ी गई।
- यह धारा "किसी स्त्री के पति या पति के नातेदार द्वारा उसके प्रति क्रूरता करना" को संज्ञेय, अजमानतीय और अशमनीय अपराध बनाती है।
- इसमें पति या उसके नातेदारों द्वारा स्त्री पर की गई शारीरिक और मानसिक क्रूरता दोनों को सम्मिलित किया गया है।
- यह उपबंध स्त्रियों को घरेलू हिंसा और दहेज संबंधी उत्पीड़न से बचाने के लिये एक सामाजिक विधि के रूप में लागू किया गया था।
आवश्यक तत्त्व:
- विषय : पति या पति का नातेदार
- वस्तु : ऐसे पति की पत्नी
- Mens Rea: क्रूरता करने का आशय
- Actus Reus: आचरण जो क्रूरता के समान है
धारा 498क के अधीन क्रूरता की परिभाषा:
- कोई भी जानबूझकर किया गया आचरण जो ऐसी प्रकृति का हो जिससे स्त्री को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित किया जा सके या महिला के जीवन, अंग या स्वास्थ्य को गंभीर चोट या खतरा हो।
- महिला का उत्पीड़न, जहाँ ऐसा प्रपीड़न उसे या उसके किसी भी संबंधित व्यक्ति को किसी भी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की किसी भी विधिविरुद्ध मांग को पूरा करने के लिये मजबूर करने के उद्देश्य से किया जाता है।
दण्ड:
- कारावास जो तीन वर्ष तक का हो सकता है।
- जुर्माना या दोनों.
- यह अपराध संज्ञेय, अजमानतीय और अशमनीय है।
तुलना: भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क बनाम भारतीय न्याय संहिता की धारा 85-86
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क को भारतीय न्याय संहिता की धारा 85-86 से प्रतिस्थापित किया गया है, जो 1 जुलाई 2024 से प्रभावी होगी।
- जबकि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क के 'स्पष्टीकरण' खण्ड में ही क्रूरता की परिभाषा थी, भारतीय न्याय संहिता ने बेहतर स्पष्टता के लिये अपराध (धारा 85) को परिभाषा (धारा 86) से पृथक् कर दिया है ।
- मूल उपबंध समान हैं - दोनों में 3 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने का उपबंध है, तथा क्रूरता की परिभाषा भी समान है, जिसमें जानबूझकर किया गया आचरण और विधिविरुद्ध मांगों के लिये प्रपीड़न सम्मिलित है।
- भारतीय न्याय संहिता की धारा 85 में "जुर्माने के लिये भी उत्तरदायी होगा" का प्रयोग किया गया है , जिससे कारावास के साथ-साथ जुर्माना भी अनिवार्य है, जबकि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क में "जुर्माने के लिये भी उत्तरदायी होगा" का उपबंध है, किंतु निर्वचन समान ही रहा।
आपराधिक कानून
स्वापक औषधि और मनः प्रभावी पदार्थ, अधिनियम के अधीन कब्ज़ा
23-Jul-2025
सनीश सोमन बनाम नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो "केवल एक पैकेज प्राप्त करने का कार्य, जिसमें यह सुझाव देने के लिये कोई सामग्री नहीं है कि आवेदक को इसकी अवैध सामग्री के बारे में पता था, प्रथम दृष्टया, स्वापक औषधि और मन: प्रभावी पदार्थ अधिनियम के अधीन "कब्जे" की विधिक सीमा को पूरा नहीं कर सकता है।" न्यायमूर्ति संजीव नरूला |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संजीव नरूला ने कहा कि स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ,1985 (NDPS) के अधीन "सचेत कब्जे" के लिये अभियुक्त को पदार्थ की अवैध प्रकृति के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है, और केवल एक पैकेज एकत्र करना - ऐसे ज्ञान के सबूत के बिना - कब्जे की विधिक सीमा को पूरा नहीं करता है। अभियुक्त से व्यक्तिगत रूप से आपत्तिजनक सामग्री या वसूली के अभाव में, जमानत उचित थी।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने सनीश सोमन बनाम नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
सनीश सोमन बनाम नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) ने गजेन्द्र सिंह को दिल्ली में DTDC कूरियर कार्यालय से उस समय गिरफ्तार किया जब वह एक पार्सल बुक कर रहा था, उसके आवास से 15 LSD पेपर ब्लॉट्स और बाद में 650 अतिरिक्त LSD ब्लॉट्स बरामद किये गए।
- स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 67 के अधीन सिंह के संस्वीकृति के आधार पर शाइनू हटवार को गिरफ्तार किया गया, जिसने बताया कि सरबजीत सिंह जयपुर से मादक पदार्थों का आपूर्तिकर्त्ता है।
- नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) टीम ने सरबजीत सिंह के परिसर की तलाशी ली और 9,006 LCD ब्लॉट्स, 2.232 किलोग्राम गांजा और 4,65,500 रुपए नकद जब्त किये, सिंह ने LCD ब्लॉट्स युक्त चार पृथक्-पृथक् खेप भेजने की बात स्वीकार की।
- नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) ने DTDC कूरियर कार्यालय में जाल बिछाकर इन खेपों को सफलतापूर्वक पकड़ लिया, जिनमें से एक कोट्टायम, केरल (कूरियर W60803432) के लिये भेजा जा रहा था। सनीश सोमन इस पार्सल को लेने पहुँचा और उसे पकड़ लिया गया, जिसके पैकेट में 3.5 ग्राम वजन के 100 LCD पेपर ब्लॉट्स थे।
- सोमन को स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 8(ग) के साथ धारा 22 और 29 के अधीन अपराधों के लिये गिरफ्तार किया गया था, और बाद में स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 22(ग) के साथ धारा 29 के अधीन आरोप विरचित किये गए थे।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि बरामद 3.5 ग्राम LSD 0.1 ग्राम की विहित सीमा से अधिक था, जो स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम के अधीन वाणिज्यिक मात्रा के रूप में योग्य है और धारा 37 के सांविधिक प्रतिबंध के अंतर्गत आता है। सोमन के विरुद्ध अभिकथन अन्य सह-अभियुक्तों से पृथक् थे क्योंकि उनके पास से कुछ भी बरामद नहीं हुआ था, न ही उनके आवास की तलाशी ली गई थी, और प्रतिबंधित सामग्री केवल उनके द्वारा एकत्र किये गए पार्सल से संबंधित थी।
- न्यायालय ने अभियोजन पक्ष के मामले में गंभीर विसंगतियाँ पाईं, तथा कहा कि सोमन द्वारा DTDC कार्यालय से संपर्क करने के लिये कथित रूप से प्रयोग किया गया फोन नंबर वास्तव में DTDC कार्यालय का ही था, तथा उसका फोन जब्त कर लिये जाने के बावजूद कोई निश्चायक निर्णय नहीं लिया गया।
- सोमन न तो पार्सल प्राप्तकर्त्ता थे और न ही पार्सल उनके निवास का पता था, और फोरेंसिक विश्लेषण के लिये अपने फोन का पासवर्ड प्रदान करने में उनके सहयोग के होते हुए भी, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) उनके पड़ोसी पुनन सी.एम. उर्फ रॉबिन की ओर से कार्य करने के उनके दावों का अन्वेषण करने में असफल रही।
- न्यायालय को सोमन को तस्करी नेटवर्क से जोड़ने वाले कोई भी स्वतंत्र साक्ष्य जैसे CDRs, वित्तीय संव्यवहार या डिजिटल संसूचना नहीं मिले, अभियोजन पक्ष मुख्य रूप से धारा 67 के अधीन उसके कथित संस्वीकृति पर निर्भर था।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अवैध सामग्री की जानकारी के बिना केवल पैकेज प्राप्त करना स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम के अधीन "कब्जे" की विधिक सीमा को पूरा नहीं कर सकता है, और सोमन के आपराधिक इतिहास की कमी और अभिरक्षा में दो वर्ष के संतोषजनक आचरण को देखते हुए जमानत दे दी।
स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम के अधीन कब्ज़ा क्या है?
- स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम के अधीन कब्जे के लिये 'सचेत कब्जे' की आवश्यकता होती है, जिसका अर्थ है कि अभियुक्त के पास प्रतिबंधित वस्तु पर भौतिक नियंत्रण होना चाहिये तथा उसके अस्तित्व और अवैध प्रकृति का ज्ञान होना चाहिये।
- सचेत कब्जे में दो महत्त्वपूर्ण घटक सम्मिलित हैं - मादक पदार्थ पर वास्तविक भौतिक नियंत्रण या अभिरक्षा, तथा मानसिक जागरूकता या ज्ञान कि कब्जे में लिया गया पदार्थ प्रतिबंधित है।
- अभियुक्त को प्रतिबंधित पदार्थ के अस्तित्व के बारे में व्यक्तिगत जानकारी होनी चाहिये तथा अवैध पदार्थ पर नियंत्रण बनाए रखने या प्रभुत्व कायम रखने का आशय होना चाहिये।
- पदार्थ की प्रकृति की जानकारी के बिना या उसे नियंत्रित करने के आशय के बिना साधारण भौतिक अभिरक्षा को स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम के अधीन कब्जा नहीं माना जाता है।
- एक बार सचेत कब्जे की पुष्टि हो जाने पर, स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ की धारा 54 एक खंडनीय उपधारणा बनाती है कि अभियुक्त ने अपराध किया है, जिससे निर्दोषता साबित करने का भार अभियुक्त पर आ जाता है।
- धारा 54 के अधीन, कोई भी अभियुक्त अपने पास पाई गई मादक दवाओं, मन:प्रभावी पदार्थों या संबंधित सामग्रियों के बारे में संतोषजनक विवरण देकर दायित्त्व से बच सकता है।
- सचेत कब्जे की आवश्यकता यह सुनिश्चित करती है कि विधिक ढाँचा अनुच्छेद 20(3) और 21 के अधीन सांविधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हो, तथा केवल अनजाने या अज्ञानवश में भौतिक अभिरक्षा के आधार पर दोषसिद्धि को रोका जा सके।
- न्यायालयों को सचेत कब्जे को स्थापित करने के लिये संस्वीकृत कथनों से परे संपोषक साक्ष्य की आवश्यकता होती है, जिसमें परिस्थितिजन्य साक्ष्य जैसे कॉल रिकॉर्ड, वित्तीय संव्यवहार, या अभियुक्त को प्रतिबंधित वस्तु से जोड़ने वाली अन्य सामग्री सम्मिलित है।
आपराधिक कानून
असली होने की उपधारणा
23-Jul-2025
मेटपल्ली लासुम बाई (मृत) और अन्य बनाम मेटापल्ली मुथैह (मृत) "रजिस्ट्रीकृत वसीयत एवं पारिवारिक मौखिक समझौता परस्पर संगत थे, और चूंकि वसीयत के निष्पादन को स्वीकार कर लिया गया था और उसे संदिग्ध नहीं दिखाया गया था, इसलिये अन्यथा साबित करने का भार आपत्तिकर्त्ता पर था, जिसे उन्मोचित नहीं किया गया।" न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता कि खंडपीठ ने यह निर्णय दिया कि रजिस्ट्रीकृत वसीयत अपने आप में उचित निष्पादन तथा असली होने की उपधारणा को संलग्न करती है और यह उपधारणा तब और मजबूत हो जाती है जब हस्ताक्षर स्वीकार कर लिया जाता है, और वसीयत से सभी संबंधित पक्षकारों को लाभ होता है। इसमें कहा गया है कि वसीयत की वैधता को गलत साबित करने का दायित्त्व अपत्तिकर्त्ता व्यक्ति पर ही है । उच्च न्यायालय ने इस उपधारणा को नज़रअंदाज़ करके और सबूत के भार का गलत प्रयोग करके गलती की।
- उच्चतम न्यायालय ने मेटपल्ली लासुम बाई (मृत) एवं अन्य बनाम मेटापल्ली मुथैह (मृत) (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
मेटपल्ली लासुम बाई (मृत) एवं अन्य बनाम मेटापल्ली मुथैह (द्वारा विधिक प्रतिनिधियों)) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- 4 एकड़ और 16 गुंटा की विवादित कृषि भूमि मूल रूप से मेटपल्ली रमन्ना के स्वामित्व में थी, जिनकी 1949 से पहले बिना वसीयत के मृत्यु हो गई थी।
- मेटपल्ली रमन्ना के स्वामित्व वाली कुल भू-संपत्ति 18 एकड़ और 6 गुंटा थी, जो दासनापुर, मावला और सावरगांव सहित विभिन्न गांवों में विभिन्न सर्वेक्षण संख्याओं में फैली हुई थी।
- रमन्ना की मृत्यु के बाद, संपत्ति उनके विधिक उत्तराधिकारी मेटपल्ली राजन्ना को सौंप दी गई, जिनकी बाद में 1983 में मृत्यु हो गई।
- मेटपल्ली राजन्ना ने दो विवाह किये थे: पहला नरसम्मा से, जिससे दो बच्चे पैदा हुए - मुथैया (प्रतिवादी) और राजम्मा (पुत्री); दूसरा लासुम बाई (वादी) से, जिससे कोई संतान नहीं हुई।
- नरसम्मा की मृत्यु राजन्ना से पहले हो गई थी, और राजम्मा की भी बिना वसीयत के मृत्यु हो गई, जिससे मुथैया पहले विवाह से जीवित पुरुष सहदायिक के रूप में रह गए।
- अपनी दूसरी पत्नी लासुम बाई और पहले विवाह से उत्पन्न अपने पुत्र मुथैया के बीच संभावित विवादों की आशंका में, मेटपल्ली राजन्ना ने 24 जुलाई 1974 को एक रजिस्ट्रीकृत वसीयत निष्पादित की।
- इसके साथ ही, कथित तौर पर एक मौखिक पारिवारिक समझौता किया गया, जिसके अधीन विधिक उत्तराधिकारियों के बीच संपत्तियों को विशिष्ट अनुपात में वितरित किया गया।
- कथित व्यवस्था के अधीन, लासुम बाई को दसनापुर गांव में सर्वेक्षण संख्या 28 के उत्तरी भाग पर अधिकार दिया गया, जबकि मुथैया को दक्षिणी भाग आवंटित किया गया।
- लासुम बाई ने रजिस्ट्रीकृत वसीयत और मौखिक पारिवारिक समझौते के अधीन स्वामित्व का दावा करते हुए, 27 अगस्त, 1987 को रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख के अधीन अपने कथित अंश की 2 एकड़ जमीन संजीव रेड्डी नामक व्यक्ति को बेच दी।
- इसके बाद, उन्होंने 15 जुलाई, 1987 को एक समझौता किया, जिसके अधीन शेष 4 एकड़ और 16 गुंटा जमीन जनार्दन रेड्डी नामक व्यक्ति को बेच दी गई।
- इस प्रस्तावित अलगाव ने विवाद को जन्म दिया, जिसके बाद मुथैया ने विक्रय पर रोक लगाने के लिये व्यादेश वाद (मूल वाद संख्या 101, 1987) दायर किया।
- मुथैया का मामला इस तर्क पर आधारित था कि संपत्तियाँ पैतृक संयुक्त परिवार की संपत्तियाँ थीं, और एकमात्र जीवित सहदायिक होने के नाते, वह संपूर्ण संपत्ति के हकदार थे।
- उन्होंने रजिस्ट्रीकृत वसीयत की प्रामाणिकता और विधिक प्रभावकारिता को चुनौती दी तथा इसे एक मनगढ़ंत दस्तावेज़ बताया।
- जवाब में लासुम बाई ने मूल वाद संख्या 2/1991 दायर किया, जिसमें रजिस्ट्रीकृत वसीयत और मौखिक पारिवारिक करार के आधार पर वाद सूची की संपत्तियों पर स्वामित्व की घोषणा की मांग की गई।
- रमन्ना की मृत्यु के पश्चात् राजस्व प्रविष्टियाँ (खसरा पहुनी) राजन्ना के नाम पर दर्ज की गईं, जो आंध्र प्रदेश में प्रचलित राजस्व विधियों के अधीन स्वामित्व का प्रथम दृष्टया साक्ष्य स्थापित करती हैं।
- लासुम बाई विवादित भूमि के उत्तरी भाग पर वास्तविक भौतिक कब्जा रखती थीं और काफी समय से उस पर खेती करती आ रही थीं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि रजिस्ट्रीकृत वसीयत में उचित निष्पादन और असली होने की प्रबल उपधारणा होती है, तथा अनुचित निष्पादन या संदिग्ध परिस्थितियों को साबित करने के लिये वसीयत को चुनौती देने वाले पक्षकार पर ही सबूत पेश करने का भार होता है।
- न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी मुथैया द्वारा प्रतिपरीक्षा में की गई महत्त्वपूर्ण स्वीकृति, जिसमें उसने रजिस्ट्रीकृत वसीयत पर अपने पिता के हस्ताक्षर तथा पक्षकारों के बीच भूमि के विभाजन को स्वीकार किया, वसीयत तथा मौखिक पारिवारिक समझौते दोनों के अस्तित्व की पुष्टि करती है।
- वसीयत को असली होने के संदेह से परे माना गया, क्योंकि इससे न केवल लासुम बाई को लाभ मिला, अपितु मुथैया और उसकी बहन राजम्मा को भी पर्याप्त अधिकार प्राप्त हुए, जो कि बनावटीपन के बजाय निष्पक्ष वितरण का संकेत था।
- न्यायालय ने माना कि मौखिक पारिवारिक समझौते को मजबूत साक्ष्यों द्वारा समर्थन प्राप्त था, जिसमें संबंधित पक्षकारों द्वारा अपने आवंटित हिस्से पर विशेष कब्जा भी सम्मिलित था, जिसने औपचारिक दस्तावेज़ीकरण के अभाव के होते हुए भी विधिक वैधता प्राप्त कर ली थी।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने सुविचारित विचारण न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप करके स्पष्ट रूप से गलती की है, क्योंकि लासुम बाई के अंश को घटाकर 1/4 करने का उसका निर्णय अभिलेख में विद्यमान साक्ष्यों द्वारा समर्थित नहीं था।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि लासुम बाई द्वारा निष्पादित पूर्व विक्रय विलेख को चुनौती न देने का मुथैया का आचरण उसके स्वामित्व अधिकारों के प्रति मौन स्वीकृति का प्रतीक है तथा यह उसके अनन्य स्वामित्व के दावे के विरुद्ध एक बाधा के रूप में कार्य करता है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधिवत् रजिस्ट्रीकृत वसीयत वैध वसीयती निपटान का गठन करती है, और संपत्तियों का पैतृक चरित्र वसीयत के माध्यम से उन्हें निपटाने के लिये वसीयतकर्त्ता के अधिकार को अमान्य नहीं करता है, बशर्ते कि यह हिंदू विधि के स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन न करता हो।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA), 2023 की धारा 78 क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 78 प्रमाणित प्रतियों के असली होने के बारे में उपधारणा से संबंधित है।
- पहले यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 78 के अंतर्गत आता था।
- धारा 78(1) में कहा गया है कि न्यायालय प्रत्येक ऐसी दस्तावेज़ का असली होना उपधारित करेगा, जब:
- ऐसा प्रमाणपत्र, प्रमाणित प्रति या अन्य दस्तावेज़ होना तात्पर्थित है।
- किसी विशिष्ट तथ्य के साक्ष्य के रूप में ग्राह्य हैं।
- केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार के किसी अधिकारी द्वारा, सम्यक् रूप से प्रमाणित हों।
- सारतः उस प्ररूप में हो तथा ऐसी रीति से निष्पादित हुआ तात्पर्यिंत हो जो विधि द्वारा उस निमित्त निदेशित हैं।
- धारा 78 (2) में कहा गया है कि आधिकारिक प्राधिकार की उपधारणा के अधीन न्यायालय यह भी उपधारित करेगा कि कोई अधिकारी, जिसके द्वारा ऐसी दस्तावेज़ का हस्ताक्षरित या प्रमाणित होना तात्पर्यित है, वह पदीय हैसियत, जिसका वह ऐसे कागज में दावा करता है, उस समय रखता था, जब उसने उसे हस्ताक्षरित किया था।
संदर्भित मामला
- मीना प्रधान एवं अन्य बनाम कमला प्रधान एवं अन्य. (2014) :
- न्यायालय ने वसीयत की वैधता साबित करने और उसके निष्पादन के लिये व्यापक सिद्धांत स्थापित किये।