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आपराधिक कानून

चिकित्सीय उपेक्षा

 25-Jul-2025

डॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 

" किसी भी चिकित्सीय पेशेवर को, जो अपने पेशे को पूरी लगन और सावधानी के साथ करता है, संरक्षित किया जाना चाहिये, परंतु निश्चित रूप से उन डॉक्टरों को नहीं, जिन्होंने उचित सुविधाओं, डॉक्टरों और बुनियादी ढाँचे के बिना नर्सिंग होम खोल लिये हैं और मरीजों को सिर्फ पैसे ऐंठने के लिये प्रलोभित कर रहे हैं। " 

न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार 

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंन्यायमूर्ति प्रशांत कुमार नेडॉक्टर की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि लाभ के लिये मरीजों को 'गिनी पिग/एटीएम' के रूप में उपयोग  करने वाले निजी अस्पतालों को चिकित्सीय परिश्रम की आड़ में संरक्षित नहीं किया जा सकता।   

  • इलाहाबादउच्च न्यायालय नेडॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह धारित किया गया ।   

डॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • देवरिया के सरौरा गांव के बृजेश पांडे की पत्नी श्रीमती उषा पांडे को 28 जुलाई 2007 को प्रसव के लिये डॉ. अशोक कुमार राय के स्वामित्व वाले सावित्री नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था। वह मार्च 2007 से ही उनकी प्रसवपूर्व देखभाल में थीं और उनका पहले भी सिजेरियन ऑपरेशन हो चुका था। 
  • मरीज को 28 जुलाई 2007 को भर्ती किया गया था, 29 जुलाई 2007 को सुबह 11 बजे परिवार के सदस्यों से सिजेरियन सर्जरी के लिये सम्मति प्राप्त की गई थी, परंतु सर्जरी उसी दिन शाम 5:30 बजे की गई, जिसके परिणामस्वरूप भ्रूण की मृत्यु हो गई। 
  • 29 जुलाई 2007 को एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी, जिसमें विलंब से सर्जरी के कारण चिकित्सीय उपेक्षा, विरोध करने पर नर्सिंग होम स्टाफ द्वारा परिवार के सदस्यों पर शारीरिक हमला, तथा उचित डिस्चार्ज दस्तावेज उपलब्ध कराए बिना 8,700 रुपये और अतिरिक्त 10,000 रुपये की मांग के साथ वित्तीय शोषण का आरोप लगाया गया था। 
  • मृत भ्रूण के पोस्टमार्टम परीक्षण से पता चला कि मृत्यु का कारण "लंबे समय तक प्रसव पीड़ा" था, जिससे संकेत मिलता है कि समय पर शल्य चिकित्सा द्वारा मृत्यु को रोका जा सकता था। 
  • मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने एक मेडिकल बोर्ड का गठन किया, जिसने केवल आवेदक के बयान की परीक्षा की और निष्कर्ष निकाला कि कोई लापरवाही नहीं हुई, परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट और विरोधाभासी मेडिकल अभिलेख बोर्ड के समक्ष नहीं रखे गए। 
  • विभिन्न दस्तावेजों में बताए गए प्रवेश के अलग-अलग समय (प्रथम सूचना रिपोर्ट में सुबह 10:30 बजे, मेडिकल बोर्ड में दोपहर 3:30 बजे, क्रॉस-एफआईआर में शाम 7:00 बजे) और दो अलग-अलग ऑपरेशन थियेटर नोट्स सहित कई विसंगतियां सामने आईं, जिससे निर्मित साक्ष्य पर प्रश्न उठे। 
  • अन्वेषण अधिकारी द्वारा मेडिकल बोर्ड के निष्कर्षों के आधार पर मामले को बंद करने की अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद, शिकायतकर्ता ने इसे बंद करने को चुनौती देते हुए 15 मार्च 2008 को एक आपत्ति याचिका दायर की। 
  • मजिस्ट्रेट ने अंतिम रिपोर्ट को खारिज कर दिया, प्रथम दृष्टया चिकित्सीय उपेक्षा  का मामला पाया, और डॉ. अशोक कुमार राय के विरुद्ध धारा 304, 315, 323 और 506 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन सम्मन जारी किया, जिसके पश्चात् उन्होंने धारा 482 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन यह आवेदन दायर कर सम्मन और पूरी कार्यवाही को रद्द करने की मांग की। 
  • न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या सर्जरी के लिये सम्मति प्राप्त करने और वास्तव में ऑपरेशन करने के बीच 4-5 घंटे का अस्पष्टीकृत विलंब, जिसके कारण कथित तौर पर लंबे समय तक प्रसव पीड़ा के कारण भ्रूण की मृत्यु हो गई, आपराधिक चिकित्सीय उपेक्षा  का मामला बनता है, जिसके लिये अभियोजन की आवश्यकता है। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि चिकित्सीय पेशेवरों को डॉक्टर-रोगी संबंध बनाए रखने के लिये तुच्छ अभियोजनों से संरक्षण मिलना चाहिये, परंतु ऐसा संरक्षण केवल उन लोगों को ही मिलता है जो उचित परिश्रम और कौशल का प्रयोग करते हैं, तथा उन डॉक्टरों को संरक्षण नहीं दिया जा सकता जो उचित सुविधाओं, डॉक्टरों और बुनियादी ढाँचे के बिना नर्सिंग होम चलाते हैं और केवल पैसा ऐंठने के लिये मरीजों को प्रलोभित हैं। 
  • न्यायालय ने मेडिकल बोर्ड की क्लीन चिट को अविश्वसनीय पाया, क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट जिसमें "लंबे समय तक प्रसव पीड़ा" के कारण मृत्यु दर्शाने वाली बात और ऑपरेशन थियेटर के विरोधाभासी नोट्स शामिल थे, बोर्ड के समक्ष महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए, जिससे उनका अन्वेषण एकतरफा और अधूरा रह गया।  
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि चिकित्सीय उपेक्षा  के मामलों में आपराधिक दायित्व के लिये, लापरवाही की मात्रा गंभीर या बहुत उच्च मात्रा की होनी चाहिये, जिसमें दुराशय भी सम्मिलित हो, जो इसे सिविल उपेक्षा से अलग करता है, और ऐसे आचरण की आवश्यकता होती है जो एक सक्षम चिकित्सीय पेशेवर से अपेक्षित देखभाल के सामान्य मानकों से नीचे हो। 
  • न्यायालय ने पाया कि यह एक "क्लासिक मामला" है, जहां सम्मति दोपहर 12 बजे प्राप्त की गई थी, परंतु बिना किसी उचित कारण के सर्जरी को शाम 4-5 बजे तक के लिये टाल दिया गया, साथ ही लंबे समय तक प्रसव पीड़ा के कारण मृत्यु के पोस्टमार्टम साक्ष्य भी थे, जिससे प्रथम दृष्टया चिकित्सीय उपेक्षा  और मरीज को छल की दुर्भावनापूर्ण आशय की पुष्टि होती है। 
  • न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी की कि निजी अस्पताल और नर्सिंग होम केवल पैसा ऐंठने के लिये मरीजों को "गिनी पिग/एटीएम मशीन" के रूप में मानने लगे हैं, वे पर्याप्त चिकित्सा स्टाफ के बिना काम कर रहे हैं और उचित चिकित्सा बुनियादी ढाँचे को बनाए रखने के बजाय मरीजों को भर्ती करने के बाद ही डॉक्टरों को बुला रहे हैं। 
  • न्यायालय ने मामले को "पूर्णतया दुस्साहस" बताया, जहां डॉक्टर ने मरीज को भर्ती किया, सर्जरी के लिये सम्मति प्राप्त की, परंतु एनेस्थेटिस्ट की कमी के कारण समय पर ऑपरेशन करने में विफल रहे, तथा 4-5 घंटे की अस्पष्ट विलंब प्रत्यक्ष रूप से   आवेदक की अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं के कारण हुई। 
  • न्यायालय ने धारित किया कि प्रवेश के समय, सम्मति और सर्जरी के संबंध में साक्ष्य में भौतिक विरोधाभास, साथ ही दो अलग-अलग ओटी नोट्स और निर्विवाद पोस्टमार्टम निष्कर्षों के अस्तित्व ने तथ्य के विवादित प्रश्न उठाए हैं, जिनका वनिर्णय केवल विचारण के माध्यम से ही किया जा सकता है, जिससे मामला दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन खारिज करने के लिये अनुपयुक्त हो जाता है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आपराधिक कार्यवाही जारी रखने की अनुमति देने से चिकित्सा जवाबदेही सुनिश्चित करने में व्यापक लोक हित की पूर्ति होती है, तथा यह स्पष्ट संदेश जाता है कि अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं और विलंबित उपचार के परिणामस्वरूप रोगी को होने वाली हानि को विधिक जांच का सामना करना पड़ेगा, जबकि वास्तविक चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा और लापरवाह चिकित्सकों को जवाबदेह ठहराने के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अधीन चिकित्सीय उपेक्षा क्या है? 

  •  भारतीय न्याय संहिता की धारा 106(1) किसी भी उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण किसी ऐसे कार्य से मृत्यु कारित की गई, जो आपराधिक मानव वध की कोटि में नहीं आती है, तथा इसमें चिकित्सा प्रक्रियाओं के दौरान पंजीकृत चिकित्सकों द्वारा की गई सामान्य लापरवाही और विशिष्ट चिकित्सीय उपेक्षा दोनों शामिल हैं। 
  • यह प्रावधान दो स्तरीय दण्ड प्रणाली स्थापित करता है उपेक्षापूर्ण हुई मृत्यु के सामान्य मामलों में जुर्माने के साथ पाँच वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है, जबकि चिकित्सीय प्रक्रियाएं करने वाले पंजीकृत चिकित्सकों को जुर्माने के साथ दो वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है, जो चिकित्सा पद्धति की जटिल प्रकृति को ध्यान में रखता है। 
  • विधि में स्पष्ट रूप से "पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी" को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसके पास राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम, 2019 के अधीन मान्यता प्राप्त चिकित्सा योग्यताएं हैं, और जिसका नाम राष्ट्रीय चिकित्सा रजिस्टर या राज्य चिकित्सा रजिस्टर में दर्ज है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि केवल योग्य पेशेवरों को ही कम दण्ड का लाभ मिले। 
  • चिकित्सा व्यवसायियों के लिये कम दण्ड केवल तभी लागू होता है जब उपेक्षापूर्ण कार्य "चिकित्सा प्रक्रिया करते समय" होता है, जिसका अर्थ है कि लापरवाही प्रशासनिक या गैर-चिकित्सा गतिविधियों के बजाय चिकित्सा उपचार, निदान या शल्य चिकित्सा हस्तक्षेप के निष्पादन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होनी चाहिये।  
  • प्रावधान में कहा गया है कि उपेक्षापूर्ण कृत्य से मृत्यु होनी चाहिये तथा उसे आपराधिक मानव की कोटि में नहीं माना जाएगा, जिससे साधारण लापरवाही (धारा 106) और हत्या के अधिक गंभीर रूपों के बीच स्पष्ट अंतर स्थापित होता है, जिसमें आपराधिक आशय या मृत्यु की संभाव्यता का ज्ञान शामिल होता है। 
  • विभेदक दण्ड विधायी मान्यता को दर्शाता है कि चिकित्सा पद्धति में अंतर्निहित जोखिम और जटिल निर्णय लेने की प्रक्रिया शामिल होती है, जिसके लिये एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो चिकित्सा पेशेवरों को जवाबदेह बनाए रखे, साथ ही अत्यधिक आपराधिक दायित्व के भय से उन्हें आवश्यक चिकित्सा प्रक्रियाएं करने से न रोके। 

आपराधिक कानून

चिकित्सकीय उपेक्षा

 25-Jul-2025

डॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

"किसी भी चिकित्सकीय पेशेवर को, जो पूरी लगन एवं सावधानी के साथ अपना व्यवसाय करता है, संरक्षित किया जाना चाहिये, लेकिन उन डॉक्टरों को कदापि नहीं, जिन्होंने उचित सुविधाओं, डॉक्टरों और मूलभूत ढाँचे के बिना नर्सिंग होम खोल लिये हैं और मरीजों को सिर्फ धन प्राप्त करने के लिये लुभा रहे हैं"।

न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार ने डॉक्टर की याचिका को अभिखंडित करते हुए कहा कि लाभ के लिये मरीजों को 'प्रयोगशाला में उपयोग किया जाने वाला जीव/ATM के रूप में इस्तेमाल करने वाले निजी अस्पतालों को चिकित्सा कर्म की आड़ में संरक्षित नहीं किया जा सकता।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने डॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

डॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • देवरिया के सरौरा गाँव के बृजेश पाण्डेय की पत्नी श्रीमती उषा पाण्डेय को प्रसव के लिये 28 जुलाई 2007 को डॉ. अशोक कुमार राय के स्वामित्व वाले सावित्री नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था। वह मार्च 2007 से ही डॉ. अशोक कुमार राय की प्रसवपूर्व देखरेख में थीं और उनका पहले भी सिजेरियन ऑपरेशन हो चुका है।
  • मरीज को 28 जुलाई 2007 को भर्ती कराया गया था, 29 जुलाई 2007 को सुबह 11 बजे परिवार के सदस्यों से सिजेरियन सर्जरी के लिये सहमति प्राप्त की गई थी, लेकिन सर्जरी उसी दिन शाम 5:30 बजे की गई, जिसके परिणामस्वरूप भ्रूण की मृत्यु हो गई।
  • 29 जुलाई 2007 को एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी जिसमें विलंब से सर्जरी के कारण चिकित्सकीय उपेक्षा, विरोध करने पर नर्सिंग होम के कर्मचारियों द्वारा परिवार के सदस्यों पर शारीरिक हमला, और उचित डिस्चार्ज दस्तावेज प्रदान किये बिना ₹8,700 और अतिरिक्त ₹10,000 की मांग के साथ वित्तीय शोषण का आरोप लगाया गया था।
  • मृत भ्रूण की पोस्टमार्टम जाँच में मृत्यु का कारण "लंबे समय तक प्रसव पीड़ा" बताया गया, जिससे संकेत मिलता है कि समय पर शल्य चिकित्सा से मृत्यु को रोका जा सकता था।
  • मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने एक मेडिकल बोर्ड का गठन किया जिसने केवल आवेदक के अभिकथन की जाँच की तथा निष्कर्ष निकाला कि कोई उपेक्षा नहीं हुई, लेकिन महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट और विरोधाभासी मेडिकल रिकॉर्ड बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत नहीं किये गए।
  • विभिन्न दस्तावेजों में दिये गए अभिस्वीकृति के अलग-अलग समय (FIR में सुबह 10:30 बजे, मेडिकल बोर्ड में दोपहर 3:30 बजे, क्रॉस-FIR में शाम 7:00 बजे) तथा दो अलग-अलग ऑपरेशन थियेटर नोट्स सहित कई विसंगतियाँ सामने आईं, जिससे गढ़े गए साक्ष्य पर प्रश्न हुए।
  • अंवेषण अधिकारी द्वारा मेडिकल बोर्ड के निष्कर्षों के आधार पर मामले को बंद करने की अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद, शिकायतकर्त्ता ने 15 मार्च 2008 को इस बंद करने को चुनौती देते हुए एक विरोध याचिका संस्थित की।
  • मजिस्ट्रेट ने अंतिम रिपोर्ट को खारिज कर दिया, प्रथम दृष्टया चिकित्सीय उपेक्षा का मामला पाया तथा डॉ. अशोक कुमार राय के विरुद्ध IPC की धारा 304A, 315, 323 एवं 506 के अधीन समन जारी किया, जिसके बाद उन्होंने CrPC की धारा 482 के अधीन यह आवेदन संस्थित कर समन और पूरी कार्यवाही को अभिखंडन करने की मांग की।
  • न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या सर्जरी के लिये सहमति प्राप्त करने और वास्तव में ऑपरेशन करने के बीच 4-5 घंटे की अस्पष्ट विलंब, जिसके कारण कथित तौर पर लंबे समय तक प्रसव पीड़ा के कारण भ्रूण की मृत्यु हो गई, आपराधिक चिकित्सीय उपेक्षा का गठन करती है जिसके लिये अभियोजन आवश्यक है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि चिकित्सकीय पेशेवरों को डॉक्टर-रोगी संबंध बनाए रखने के लिये तुच्छ अभियोजन से सुरक्षा मिलनी चाहिये, परंतु यह सुरक्षा केवल उन लोगों तक ही सीमित है जो उचित परिश्रम एवं कौशल का प्रयोग करते हैं, तथा उन डॉक्टरों को नहीं बचाया जा सकता जो उचित सुविधाओं, डॉक्टरों और मूलभूत ढाँचे के बिना नर्सिंग होम चलाते हैं और केवल धन प्राप्त करने के लिये मरीजों को लुभाते हैं।
  • न्यायालय ने मेडिकल बोर्ड की क्लीन चिट को अविश्वसनीय पाया क्योंकि महत्त्वपूर्ण साक्ष्य, जैसे कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट, जिसमें "लंबे समय तक प्रसव पीड़ा" के कारण मृत्यु दर्शाई गई थी तथा ऑपरेशन थियेटर के विरोधाभासी नोट्स, बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत नहीं किये गए थे, जिससे उनका अंवेषण एकतरफ़ा एवं अधूरा हो गया।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि चिकित्सकीय उपेक्षा के मामलों में आपराधिक दायित्व के लिये, उपेक्षा की मात्रा प्रथम दृष्टया गंभीर या बहुत उच्च स्तर की होनी चाहिये, जो इसे सिविल उपेक्षा से पृथक करता है, तथा ऐसे कृत्य की आवश्यकता होती है जो एक सक्षम चिकित्सकीय पेशेवर से अपेक्षित देखरेख के सामान्य मानकों से निम्न हो।
  • न्यायालय ने इसे एक "क्लासिक मामला" पाया, जहाँ दोपहर 12 बजे सहमति प्राप्त की गई, लेकिन बिना किसी उचित कारण के सर्जरी को शाम 4:00-5:00 बजे तक टाल दिया गया, साथ ही लंबे समय तक प्रसव पीड़ा के कारण मृत्यु के पोस्टमार्टम साक्ष्य भी थे, जिससे प्रथम दृष्टया चिकित्सकीय उपेक्षा और रोगी को धोखा देने के दुर्भावनापूर्ण आशय की पुष्टि हुई।
  • न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी की कि निजी अस्पताल और नर्सिंग होम केवल धन अर्जित करने के लिये रोगियों को "प्रयोगशाला में उपयोग किया जाने वाला जीव/एटीएम मशीन" के रूप में मानने लगे हैं, पर्याप्त चिकित्सा कर्मचारियों के बिना कार्य कर रहे हैं तथा उचित चिकित्सा मूलभूत ढाँचा बनाए रखने के बजाय रोगियों को भर्ती करने के बाद ही डॉक्टरों को बुलाते हैं।
  • न्यायालय ने इस मामले को "पूरी तरह से दुर्घटना" बताया, जिसमें डॉक्टर ने मरीज को भर्ती किया, सर्जरी के लिये सहमति प्राप्त की, लेकिन एनेस्थेटिस्ट की कमी के कारण समय पर ऑपरेशन करने में विफल रहा, तथा अस्पष्टीकृत 4-5 घंटे का प्रत्यक्ष विलंब आवेदक की अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं के कारण हुई।
  • न्यायालय ने माना कि भर्ती, सहमति और सर्जरी के समय के संबंध में साक्ष्य में मौजूद भौतिक विरोधाभासों के साथ-साथ दो अलग-अलग OT नोट्स और निर्विवाद पोस्टमार्टम निष्कर्षों ने तथ्यों के विवादित प्रश्न उठाए हैं जिनका निर्णय केवल विचारण के माध्यम से ही किया जा सकता है, जिससे यह मामला CrPC की धारा 482 के अधीन अभिखंडित करने के लिये अनुपयुक्त हो जाता है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आपराधिक कार्यवाही जारी रखने की अनुमति देने से चिकित्सा उत्तरदेयता सुनिश्चित करने में व्यापक लोक हित की पूर्ति होती है, तथा यह स्पष्ट संदेश जाता है कि अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं और विलंबित उपचार के परिणामस्वरूप रोगी को होने वाली हानि को विधिक जाँच का सामना करना पड़ेगा, जबकि वास्तविक चिकित्सकीय पेशेवरों की सुरक्षा और लापरवाह चिकित्सकों को जवाबदेह बनाने के बीच संतुलन बनाए रखना होगा।

भारतीय न्याय संहिता,2023 (BNS) के अधीन चिकित्सकीय उपेक्षा क्या है?

  • BNS की धारा 106(1) किसी भी ऐसे उपेक्षापूर्ण या असावधानीपूर्ण कृत्य से मृत्यु को अपराध मानती है जो आपराधिक मानव वध की श्रेणी में नहीं आता है। इसमें चिकित्सा प्रक्रियाओं के दौरान पंजीकृत चिकित्सकों द्वारा की गई सामान्य उपेक्षा और विशिष्ट चिकित्सकीय उपेक्षा दोनों शामिल हैं।
  • यह प्रावधान दो-स्तरीय दण्ड प्रणाली स्थापित करता है - उपेक्षा के कारण हुई मृत्यु के सामान्य मामलों में जुर्माने के साथ पाँच वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है, जबकि चिकित्सा प्रक्रियाएँ करने वाले पंजीकृत चिकित्सकों को चिकित्सा पद्धति की जटिल प्रकृति को ध्यान में रखते हुए जुर्माने के साथ दो वर्ष तक के कारावास की कम सजा का प्रावधान है।
  • यह विधान विशेष रूप से "पंजीकृत चिकित्सक" को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जिसके पास राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम, 2019 के अंतर्गत मान्यता प्राप्त चिकित्सा योग्यताएँ हैं तथा जिसका नाम राष्ट्रीय चिकित्सा रजिस्टर या राज्य चिकित्सा रजिस्टर में दर्ज है। यह सुनिश्चित करते हुए कि केवल योग्य पेशेवरों को ही कम सजा का लाभ मिले।
  • चिकित्सकों के लिये कम की गई सज़ा केवल तभी लागू होती है जब उपेक्षा "चिकित्सा प्रक्रिया करते समय" की गई हो, जिसका अर्थ है कि उपेक्षा प्रशासनिक या गैर-चिकित्सा गतिविधियों के बजाय चिकित्सा उपचार, निदान या शल्य चिकित्सा हस्तक्षेप के निष्पादन से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होनी चाहिये।
  • प्रावधान में कहा गया है कि उपेक्षापूर्ण कृत्य से मृत्यु होनी चाहिये तथा वह आपराधिक मानव वध नहीं माना जाएगा, जिससे सामान्य उपेक्षा (धारा 106) और आपराधिक आशय या मृत्यु के संभावना के ज्ञान से संबंधित हत्या के अधिक गंभीर रूपों के बीच स्पष्ट अंतर स्थापित होता है।
  • विभेदक दण्ड विधायी मान्यता को दर्शाता है कि चिकित्सा पद्धति में अंतर्निहित जोखिम और जटिल निर्णय लेने की प्रक्रिया शामिल है, जिसके लिये एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो चिकित्सकीय पेशेवरों को जवाबदेह बनाए रखे तथा साथ ही अत्यधिक आपराधिक दायित्व के डर से उन्हें आवश्यक चिकित्सा प्रक्रियाएँ करने से न रोके।

सांविधानिक विधि

अनुच्छेद 21 का उल्लंघन

 25-Jul-2025

राम दुलार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 2 अन्य

"न्यायालय दृढ़ता से कहता है कि वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा, क्रूरता या परित्याग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21, अर्थात् गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। एक घर, जो वृद्ध माता-पिता के लिये प्रतिकूल हो गया है, अब आश्रय नहीं रह गया है; यह अन्याय का स्थल बन गया है। न्यायालयों को 'पारिवारिक निजता' की आड़ में इस मौन पीड़ा को जारी नहीं रहने देना चाहिये"।

न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार ने कहा कि संतान द्वारा वृद्ध माता-पिता के प्रति क्रूरता, उपेक्षा या परित्याग करना, संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्ण जीवन के उनके  मौलिक अधिकार का उल्लंघन है तथा उन्होंने संतान की देखभाल एवं कल्याण सुनिश्चित करने के नैतिक एवं विधिक कर्त्तव्य पर बल दिया।

राम दुलार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 2 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता, 75 वर्षीय वरिष्ठ नागरिक राम दुलार गुप्ता ने एक रिट याचिका संस्थित कर प्रतिवादियों को 16 जनवरी, 2025 की भुगतान नोटिस के माध्यम से 21,17,758 रुपये की मुआवज़ा राशि जारी करने का निर्देश देने की मांग की।
  • यह मुआवज़ा भूमि अधिग्रहण कार्यवाही के अंतर्गत सक्षम प्राधिकारियों द्वारा याचिकाकर्त्ता की भूमि और अधिरचना के अधिग्रहण से संबंधित था।
  • मुआवज़े का विधिवत मूल्यांकन किये जाने और भुगतान सूचना जारी किये जाने के बावजूद, याचिकाकर्त्ता के दो बेटों, विजय कुमार गुप्ता एवं संजय गुप्ता द्वारा उठाए गए विवाद के कारण भुगतान लंबित रहा।
  • बेटों ने अधिरचना में सह-स्वामित्व अधिकारों का दावा किया तथा तर्क दिया कि उन्होंने इसके निर्माण में योगदान दिया था, इस प्रकार वे मुआवज़े की राशि के एक हिस्से के हकदार होने की मांग कर रहे थे।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि संपूर्ण अधिरचना का निर्माण उसके अपने संसाधनों एवं वित्तीय योगदान से किया गया था, जिसमें उसके बेटों का कोई आर्थिक योगदान नहीं था।
  • याचिकाकर्त्ता ने आरोप लगाया कि मुआवज़े की घोषणा के बाद, उसके बेटों ने उसे गंभीर मानसिक एवं शारीरिक शोषण का शिकार बनाया, जिससे उसे गंभीर चोटें आईं।
  • याचिकाकर्त्ता को अपने ऊपर किये गए अत्याचारों और आक्रामक व्यवहार के कारण अपने बेटों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कराने के लिये विवश होना पड़ा।
  • दोनों बेटे पारिवारिक निवास से बाहर रह रहे थे तथा अपनी आजीविका के लिये क्रमशः सूरत एवं मुंबई में बसे हुए थे।
  • यह मामला मुआवज़े की राशि के वास्तविक अधिकारी को लेकर पिता एवं उसके बेटों के बीच आपसी विवाद से संबंधित था।
  • इसके बाद, बेटों ने अपने अधिवक्ता के माध्यम से एक अभियोग आवेदन संस्थित किया तथा कार्यवाही में पक्षकार बनने की मांग की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने संतान द्वारा अपने वृद्ध पिता के प्रति घोर उदासीनता और दुर्व्यवहार पर गहरा दुःख व्यक्त किया तथा कहा कि इससे बड़ी सामाजिक विफलता और कोई नहीं हो सकती जब एक सभ्य समाज अपने बुजुर्गों की मूक पीड़ा से मुँह मोड़ लेता है।
  • न्यायालय ने कहा कि माता-पिता अपने जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण वर्ष अपने संतान के कल्याण के लिये समर्पित करते हैं, तथा उनके जीवन के अंतिम क्षणों में उनके साथ क्रूरता, उपेक्षा या परित्याग करके उनका मूल्य चुकाना न केवल नैतिक अपमान है, बल्कि विधिक उल्लंघन भी है।
  • न्यायालय ने दृढ़ता से कहा कि संतान का यह पवित्र नैतिक कर्त्तव्य और सांविधिक दायित्व दोनों है कि वे अपने वृद्ध माता-पिता की गरिमा, कल्याण एवं देखभाल का धयान दें, जो दान नहीं, बल्कि सुरक्षा, सहानुभूति एवं साथ चाहते हैं।
  • न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा, क्रूरता या परित्याग, COI के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जो गरिमापूर्वक जीवन जीने के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है।
  • पीठ ने घोषणा की कि एक घर जो वृद्ध माता-पिता के लिये प्रतिकूल हो गया है, वह आश्रय स्थल नहीं रह जाता और अन्याय का स्थल बन जाता है, तथा न्यायालयों को 'पारिवारिक गोपनीयता' की आड़ में इस तरह के मौन कष्ट को जारी रहने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि जब संतान संबंधी कर्त्तव्य टूट जाएँ, तो न्यायालयों को संवेदनशील वृद्धों की रक्षा के लिये करुणा के अंतिम गढ़ के रूप में उभरना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे न केवल भरण-पोषण में, बल्कि पूर्ण गरिमा के साथ जीवन जिएँ।
  • न्यायालय ने चेतावनी दी कि यदि भविष्य में पुत्र किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करते हैं, तो बिना किसी संकोच के कड़े आदेश पारित किये जाएँगे, साथ ही पुत्रों की बिना शर्त क्षमा याचना और सुधरे हुए आचरण के आश्वासन पर भी ध्यान दिया जाएगा।

COI का अनुच्छेद 21 क्या है?

परिचय 

  • COI का अनुच्छेद 21 जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
  • यह मौलिक अधिकार बिना किसी भेदभाव के, नागरिकों और विदेशियों दोनों सहित, प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध है।
  • अनुच्छेद 21 दो अलग-अलग अधिकार प्रदान करता है:
    • जीवन का अधिकार 
    • और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार,
    • दोनों ही राज्य की कार्यवाही से सुरक्षित हैं।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 को 'मौलिक अधिकारों का हृदय' बताया है, जो संवैधानिक ढाँचे में इसका उच्चतम महत्त्व है।
  • अनुच्छेद 21 के प्रयोजनों के लिये, राज्य में न केवल सरकार, बल्कि सरकारी विभाग, स्थानीय निकाय, विधायिकाएँ और अन्य राज्य एजेंसियाँ भी शामिल हैं।
  • अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में न केवल जीवित रहने का अधिकार, बल्कि गरिमा के साथ पूर्ण जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है।
  • उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की सीमा का विस्तार करते हुए इसे संविधान के सबसे मौलिक एवं व्यापक अधिकारों में से एक बना दिया है।

COI के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन

  • जीवन से मनमाना वंचना तब उल्लंघन माना जाता है, जब राज्य ऐसे कार्यों में संलग्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की उचित प्रक्रिया के बिना मनमाने ढंग से या न्यायेतर हत्या हो जाती है।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन अवैध निरुद्धि, दोषपूर्ण कारावास, या विधि की उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना गिरफ्तारी के माध्यम से होता है।
  • निष्पक्ष सुनवाई से अस्वीकार अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है जब किसी को विधिक प्रतिनिधित्व से वंचित किया जाता है या जब न्यायिक कार्यवाही में अनुचित विलंब या पक्षपात होता है।
  • विधि प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा यातना एवं अमानवीय व्यवहार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटीकृत जीवन एवं गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है।
  • के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) में उच्चतम न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त, निजता के अधिकार का उल्लंघन, निगरानी या व्यक्तिगत डेटा के अनधिकृत उपयोग के माध्यम से किया जाता है।
  • मनमाने ढंग से बेदखली, दोषपूर्ण तरीके से रोज़गार समाप्त करने या आजीविका के साधनों को नष्ट करने के माध्यम से आजीविका के अधिकार से वंचित करना उल्लंघन का आधार बन सकता है।
  • आश्रय के अधिकार का उल्लंघन तब होता है जब लोगों को मूलभूत आवास तक से वंचित कर दिया जाता है या उचित पुनर्वास के बिना उन्हें जबरन बेदखल कर दिया जाता है।
  • अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं, आपातकालीन चिकित्सा सेवाओं से इनकार, या आवश्यक दवाइयाँ प्रदान करने में लापरवाही के माध्यम से स्वास्थ्य के अधिकार से वंचित करना, अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
  • पर्यावरण उल्लंघन तब होता है जब प्रदूषण, वनों की कटाई और अन्य पर्यावरणीय खतरे स्वास्थ्य एवं जीवन को प्रभावित करते हैं, जिससे पर्यावरण को स्वच्छ रखने के अधिकार का उल्लंघन होता है।
  • शिक्षा के अधिकार से वंचित करना, विशेष रूप से शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत संतान के लिये, अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी जा सकती है।
  • गरिमा के साथ मृत्यु के अधिकार का उल्लंघन तब होता है जब व्यक्तियों को निष्क्रिय इच्छामृत्यु के अधिकार से वंचित किया जाता है, जैसा कि अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ (2011) जैसे मामलों में उच्चतम न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त है।

निर्णयज विधियाँ 

  • ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950): उच्चतम न्यायालय ने आरंभ में माना कि अनुच्छेद 21 में अमेरिकी 'उचित प्रक्रिया' के बजाय व्यक्तिगत स्वतंत्रता की ब्रिटिश अवधारणा सन्निहित है, तथा इसका एक संकीर्ण निर्वचन किया, जहाँ 'विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' का अर्थ वैध रूप से अधिनियमित कोई भी विधान था।
  • मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): इस ऐतिहासिक मामले ने गोपालन के निर्णय को पलट दिया तथा अनुच्छेद 21 के निर्वचन में क्रांतिकारी परिवर्तन करके यह स्थापित किया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दायरा व्यापक है, जिसमें अनुच्छेद 19 के अंतर्गत निहित कई अधिकार भी शामिल हैं।
    • मेनका गांधी मामले ने यह स्थापित किया कि जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के लिये विधि के अंतर्गत कोई भी प्रक्रिया अनुचित, अतार्किक या मनमाना नहीं होना चाहिये, जिससे मूल उचित प्रक्रिया की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया।
  • के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017): उच्चतम न्यायालय ने निजता के अधिकार को अनुच्छेद 21 का एक मौलिक अधिकार माना तथा यह स्थापित किया कि निगरानी या अनधिकृत डेटा उपयोग के माध्यम से व्यक्तिगत निजता का कोई भी उल्लंघन इस अधिकार का उल्लंघन है।
  • अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ (2011): उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्वक मृत्यु के अधिकार के अंतर्गत निष्क्रिय इच्छामृत्यु को मान्यता दी तथा कुछ परिस्थितियों में जीवन रक्षक प्रणाली को हटाने की अनुमति दी।

सिविल कानून

विलय का सिद्धांत

 25-Jul-2025

विष्णु वर्धन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

"छल से प्राप्त आदेशों पर विलय का सिद्धांत लागू नहीं होता"

न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता एवं उज्ज्वल भुइयाँ 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता एवं उज्ज्वल भुइयाँ ने उच्च न्यायालय के एक आदेश के विरुद्ध सिविल अपील को स्वीकार करते हुए कहा कि "विलय का सिद्धांत उस स्थिति में लागू नहीं होगा, जहाँ विवादित निर्णय/आदेश छल से प्राप्त किया गया हो।" इस आदेश की पुष्टि पहले ही उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जा चुका है।

  • उच्चतम न्यायालय ने विष्णु वर्धन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

विष्णु वर्धन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • एक पक्ष ने मामले के गुण-दोष से प्रत्यक्षतः संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाकर वर्ष 2021 में अपने पक्ष में उच्च न्यायालय का आदेश प्राप्त कर लिया।
  • वर्ष 2022 में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को छल की सूचना के बिना ही बाद में अनुमोदित कर दिया।
  • अपीलकर्त्ता, जिसे मूल कार्यवाही में पक्षकार के रूप में शामिल नहीं किया गया था, ने उच्चतम न्यायालय के वर्ष 2022 के आदेश को चुनौती देने की मांग की।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि रेड्डी द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाए जाने के कारण उच्चतम न्यायालय का आदेश छल के कारण दूषित हो गया था।
  • मुख्य विधिक प्रश्न यह था कि क्या अपीलकर्त्ता उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध नियमित सिविल अपील संस्थित कर सकता है या उसे उच्चतम न्यायालय के आदेश के विरुद्ध समीक्षा याचिका संस्थित करनी होगी।
  • रेड्डी ने तर्क दिया कि विलय के सिद्धांत के कारण, उच्च न्यायालय का आदेश उच्चतम न्यायालय के आदेश के साथ विलय हो गया है, जिससे उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध कोई भी अपील विचारणीय नहीं रह जाती।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ की पीठ ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि विलय का सिद्धांत अपील पर रोक लगाएगा।
  • न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने पीठ की ओर से लिखते हुए कहा कि चूँकि उच्च न्यायालय का निर्णय "छल के कारण दूषित था और गुण-दोष के आधार पर नहीं दिया गया था", इसलिये उच्चतम न्यायालय द्वारा बाद में इसकी पुष्टि के परिणामस्वरूप वास्तविक विलय नहीं हुआ।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि उच्चतम न्यायालय की पूर्व पुष्टि के बावजूद, उच्च न्यायालय का आदेश नियमित सिविल अपील के माध्यम से चुनौती देने लिये प्रस्तुत है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "छल सब कुछ प्रकटित कर देती है" तथा न्यायिक कार्यवाही में किसी अन्य वादी द्वारा किये गए छल के कारण किसी भी पक्ष को क्षति नहीं होनी चाहिये।
  • न्यायालय ने "एक्टस क्यूरी नेमिनम ग्रेवबिट" (न्यायालय की चूक या किसी अन्य वादी द्वारा किये गए छल के कारण किसी भी पक्ष को हानि नहीं उठाना चाहिये) के सिद्धांत को लागू किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के 2021 के आदेश और रेड्डी वीराना मामले में अपने 2022 के निर्णय, दोनों को रद्द कर दिया तथा मामले को नए सिरे से निर्णय के लिये बहाल कर दिया।

विलय के सिद्धांत के पाँच अपवाद:

अपवाद 1: दुर्लभ या विशेष परिस्थितियाँ

  • जब किसी पक्ष के अपील के अधिकार को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अत्यंत दुर्लभ या विशेष परिस्थितियों के कारण समाप्त नहीं किया जाना चाहिये।

अपवाद 2: मौलिक सार्वजनिक महत्त्व

  • जब अपील में कोई ऐसा मौलिक सार्वजनिक महत्त्व का मुद्दा उठाया जाता है जिसे अपीलकर्त्ता द्वारा मुकदमेबाजी के पहले दौर में उठाया जाना संभव नहीं था, तथा ऐसे मुद्दे का व्यापक सार्वजनिक हित में समाधान अपेक्षित होता है।

अपवाद 3: एक्टस क्यूरीए नेमिनेम ग्रेवबिट

  • जब हस्तक्षेप करने से इनकार करने से इस सिद्धांत का उल्लंघन होगा कि किसी भी पक्ष को न्यायालय की चूक या किसी अन्य वादी द्वारा किये गए छल के कारण हानि नहीं उठाना चाहिये।

अपवाद 4: न्यायालय में छल 

  • जब पहले का अपीलीय निर्णय उस पक्ष द्वारा न्यायालय में छल किये जाने के कारण दूषित हो जाता है जिसके पक्ष में निर्णय दिया गया था।

अपवाद 5: लोक हित का खतरा 

  • यदि विलय के सिद्धांत के आधार पर आवश्यक हस्तक्षेप को अस्वीकार कर दिया गया तो अपूरणीय परिणामों के कारण सार्वजनिक हित अत्यधिक खतरे में पड़ जाएगा।

स्थापित प्रमुख विधिक सिद्धांत:

  • उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य की पुनः पुष्टि की कि छल सभी न्यायिक कार्यवाहियों को दूषित करता है, चाहे वह किसी भी स्तर पर हुई हो।
  • वाद के गुण-दोष से सीधे संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छुपाना न्यायालय के साथ छल माना जाता है।
  • जब अधीनस्थ न्यायालय का निर्णय छल से प्राप्त किया जाता है, तो उच्च न्यायालय द्वारा उसकी पुष्टि करने से वास्तविक विलय नहीं होता।
  • छल के मामलों में, पीड़ित पक्ष समीक्षा याचिकाओं तक सीमित रहने के बजाय छल से प्राप्त आदेश के विरुद्ध नियमित अपील संस्थित कर सकते हैं।

विलय का सिद्धांत क्या है?

परिचय: 

  • विलय का सिद्धांत भारतीय न्यायशास्त्र में एक सुस्थापित सिद्धांत है जिसके अनुसार, जब कोई उच्च न्यायालय किसी अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय की पुष्टि करता है, तो अधीनस्थ न्यायालय का आदेश उच्च न्यायालय के आदेश में विलीन हो जाता है।
  • विलय हो जाने पर, अधीनस्थ न्यायालय का आदेश अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो देता है तथा केवल उच्च न्यायालय का आदेश ही प्रवर्तनीय रह जाता है।
  • यह सिद्धांत मुकदमेबाजी की अंतिमता सुनिश्चित करता है तथा पक्षों को एक ही आदेश को कई मंचों पर चुनौती देने से रोकता है।
  • सामान्यतः, विलय के बाद, पक्ष अधीनस्थ न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील संस्थित नहीं कर सकते, बल्कि उन्हें उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध समीक्षा या अन्य उचित उपचार करने होंगे।

सिद्धांत के पीछे तर्क:

  • न्यायिक पदानुक्रम बनाए रखना
  • एक ही मामले में परस्पर विरोधी निर्णयों को रोकना
  • मुकदमेबाजी में अंतिमता सुनिश्चित करना
  • एकाधिक कार्यवाहियों से बचकर न्यायिक मितव्ययिता को बढ़ावा देना

विलय के सिद्धांत पर आधारित ऐतिहासिक मामले कौन से हैं?

  • मद्रास राज्य बनाम मदुरै मिल्स कंपनी लिमिटेड (1967)
    • इस मामले ने यह स्थापित किया कि जब किसी डिक्री के विरुद्ध अपील की जाती है, तथा अपीलीय न्यायालय उसमें किसी भी प्रकार का संशोधन करता है, तो ट्रायल कोर्ट की डिक्री अपीलीय न्यायालय की डिक्री में समाहित हो जाती है।
  • गोजर ब्रदर्स (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम रतन लाल सिंह (1974)
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि अपील को बिना किसी स्पष्ट आदेश के खारिज कर दिया जाता है, तो भी विलय का सिद्धांत लागू होता है।