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आपराधिक कानून
साझी गृहस्थी में रहने का अधिकार
04-Jun-2025
चेंथमारा उर्फ कन्नन एवं अन्य बनाम मीना "घरेलू हिंसा अधिनियम एक ऐतिहासिक विधान है जिसका उद्देश्य महिलाओं के विरुद्ध घरेलू दुर्व्यवहार की व्यापक समस्या से निपटान करना है।" न्यायमूर्ति एम.बी. स्नेहलता |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति एमबी स्नेहलता की पीठ ने कहा कि पति की मृत्यु के बाद भी पत्नी को साझी गृहस्थी में रहने का अधिकार है।
- केरल उच्च न्यायालय ने चेन्थमारा उर्फ कन्नन एवं अन्य बनाम मीना (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
चेन्थमारा उर्फ कन्नन एवं अन्य बनाम मीना (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- पुनरीक्षण याचिका में सत्र न्यायालय, पलक्कड़ द्वारा पारित आपराधिक अपील संख्या 183/2015 के निर्णय को चुनौती दी गई है।
- पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ता न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट न्यायालय III, पलक्कड़ के समक्ष घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV अधिनियम) की धारा 12 के अंतर्गत दायर एम.सी. संख्या 39/2012 में प्रतिवादी थे।
- याचिकाकर्त्ता (पत्नी) द्वारा एम.सी. दायर किया गया था जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसके ससुराल वालों (प्रतिवादी 1 से 5) ने उसे और उसके बच्चों को साझी गृहस्थी से बाहर निकालने का प्रयास किया और उनके शांतिपूर्ण निवास में बाधा उत्पन्न की।
- एम.सी. में प्रतिवादियों ने घरेलू हिंसा के आरोपों से इनकार किया और तर्क दिया कि अपने पति की मृत्यु के बाद, याचिकाकर्त्ता अपने पैतृक घर में रहती थी और वैवाहिक घर नहीं जाती थी।
- उन्होंने यह भी तर्क दिया कि चूँकि याचिकाकर्त्ता साझी गृहस्थी में नहीं रह रही थी, इसलिये कोई घरेलू संबंध नहीं था तथा इसलिये वह घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत “पीड़ित व्यक्ति” नहीं थी।
- मजिस्ट्रेट ने एम.सी. को खारिज कर दिया, यह मानते हुए कि याचिकाकर्त्ता घरेलू संबंध सिद्ध करने में विफल रही या वह घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत एक पीड़ित व्यक्ति थी।
- याचिकाकर्त्ता ने पलक्कड़ के सत्र न्यायालय के समक्ष आपराधिक अपील संख्या 183/2015 दायर की, जिसमें उसके एम.सी. को खारिज किये जाने को चुनौती दी गई।
- सत्र न्यायालय ने अपील को अनुमति दी, प्रतिवादियों को घरेलू हिंसा के कृत्य करने से रोका, तथा याचिकाकर्त्ता और उसके बच्चों को साझी गृहस्थी में प्रवेश करने और शांतिपूर्वक रहने से रोकने से उन्हें प्रतिबंधित किया।
- प्रतिवादियों (अब पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ता) ने अपीलीय निर्णय को इस आधार पर चुनौती दी कि याचिकाकर्त्ता का उनके साथ कोई घरेलू संबंध नहीं था, वह पीड़ित व्यक्ति नहीं थी, तथा अपने पति की मृत्यु के बाद वैवाहिक घर में नहीं रही थी।
- उन्होंने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्त्ता अपनी स्वयं की संपत्ति की स्वामी है तथा इस प्रकार वह घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत उपचार पाने की अधिकारी नहीं है।
- पुनरीक्षण याचिका में यह मुद्दा उठाया गया है कि क्या सत्र न्यायालय के निर्णय में उच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया जाना उचित है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत संरक्षण एवं निवास आदेश के लिये याचिकाकर्त्ता के अधिकार पर निर्णय लेने से पहले, न्यायालय ने अधिनियम के अंतर्गत प्रमुख परिभाषाओं की जाँच की, जिसमें घरेलू हिंसा, पीड़ित व्यक्ति, साझी गृहस्थी और घरेलू संबंध शामिल हैं।
- धारा 3 के अंतर्गत, घरेलू हिंसा में शारीरिक, भावनात्मक, यौन, मौखिक और आर्थिक दुर्व्यवहार शामिल है, साथ ही कोई भी ऐसा कार्य जो किसी महिला के हित को क्षति पहुँचती है या खतरे में डालता है।
- धारा 2 (a) एक पीड़ित व्यक्ति को घरेलू संबंध में रहने वाली किसी भी महिला के रूप में परिभाषित करती है जो आरोप लगाती है कि उसके साथ घरेलू हिंसा की गई है।
- धारा 2 (s) एक साझी गृहस्थी को ऐसे घर के रूप में परिभाषित करती है जहाँ महिला स्वामित्व या हक की चिंता किये बिना घरेलू संबंध में बनी रहती है।
- धारा 2(f) घरेलू संबंध को ऐसे संबंध के रूप में परिभाषित करती है, जिसमें व्यक्ति एक साझी गृहस्थी में साथ रहते हैं या रह चुके हैं, जो रक्त संबंध, विवाह या अन्य मान्यता प्राप्त पारिवारिक संबंधों से संबंधित हैं।
- याचिकाकर्त्ता मृतक गोपी की पत्नी है तथा विवाह के बाद साझी गृहस्थी में रहती थी; प्रतिवादी उसके ससुराल वाले हैं।
- याचिकाकर्त्ता ने आरोप लगाया कि वर्ष 2009 में उसके पति की मृत्यु के बाद, उसके ससुराल वालों ने उसे बेदखल करने की कोशिश की तथा साझी गृहस्थी में उसके शांतिपूर्ण निवास में बाधा डाली।
- साक्ष्य ने पुष्टि की कि याचिकाकर्त्ता साझी गृहस्थी में रहती थी तथा अपने पति की मृत्यु के बाद प्रतिवादियों से बेदखली और उत्पीड़न के प्रयासों का सामना करना पड़ा।
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता घरेलू संबंध में पीड़ित व्यक्ति के रूप में योग्य है तथा घर घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत एक साझी गृहस्थी है।
- घरेलू हिंसा अधिनियम एक लाभकारी एवं प्रगतिशील विधान है जिसका उद्देश्य महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाना और उनके सम्मान, समानता और आश्रय के संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखना है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 के अनुसार, साझी गृहस्थी में रहने का अधिकार स्वामित्व के बावजूद मौजूद है।
- न्यायालय ने प्रभा त्यागी बनाम कमलेश देवी (2022) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का उदाहरण देते हुए पुष्टि की कि घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत उपचार पाने के लिये दुर्व्यवहार करने वाले के साथ वास्तविक निवास अनिवार्य नहीं है।
- न्यायालय ने प्रतिवादियों के इस तर्क को खारिज कर दिया कि याचिकाकर्त्ता को साझी गृहस्थी में रहने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि वह एक अन्य संपत्ति की स्वामी है तथा अपने पैतृक घर में रहती है।
- प्रतिवादियों द्वारा घरेलू संबंध से अस्वीकार करना तथा यह दावा करना कि याचिकाकर्त्ता एक पीड़ित व्यक्ति नहीं है, निराधार पाया गया।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादियों ने घरेलू हिंसा के कृत्य किये हैं तथा याचिकाकर्त्ता और उसके बच्चों को बेदखल करने का प्रयास किया है।
- सत्र न्यायाधीश ने प्रतिवादियों को आगे घरेलू हिंसा करने या साझी गृहस्थी में याचिकाकर्त्ता के शांतिपूर्ण निवास में बाधा डालने से सही ढंग से रोका।
- उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया, तथा आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को निराधार मानते हुए खारिज कर दिया गया।
साझी गृहस्थी में रहने का अधिकार क्या है?
- धारा 2 (s) "साझी गृहस्थी" को परिभाषित करती है।
- "साझी गृहस्थी" की परिभाषा इस प्रकार है:
- साझी गृहस्थी वह आवास है जहाँ पीड़ित व्यक्ति रहता है या घरेलू रिश्ते के किसी भी समय रहता था।
- इसमें वे संपत्तियाँ शामिल हैं जो स्वामित्व वाली या किराए पर ली गई हैं:
- पीड़ित व्यक्ति एवं प्रतिवादी द्वारा संयुक्त रूप से,
- या उनमें से किसी एक द्वारा व्यक्तिगत रूप से।
- पीड़ित व्यक्ति या प्रतिवादी के पास घर में कोई भी अधिकार, हक, हित या साम्या हो सकती है, चाहे वह संयुक्त रूप से हो या अलग-अलग।
- इसमें वे घर भी शामिल हैं जो संयुक्त परिवार से संबंधित हैं जिसका प्रतिवादी सदस्य है।
- यह परिभाषा तब भी लागू होती है जब न तो प्रतिवादी और न ही पीड़ित व्यक्ति के पास घर में विधिक स्वामित्व या हक हो।
- संक्षेप में, विधि यह सुनिश्चित करता है कि किसी महिला को केवल स्वामित्व या हक के तकनीकी आधार पर उसके वैवाहिक या साझी गृहस्थी से बेदखल नहीं किया जा सकता है।
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 में साझी गृहस्थी में निवास करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 (1) एक गैर बाध्यकारी खंड है जो प्रावधान करता है:
- घरेलू संबंध में रहने वाली हर महिला को साझी गृहस्थी में रहने का विधिक अधिकार है।
- यह अधिकार उसके स्वामित्व, हक या संपत्ति में किसी भी लाभकारी हित की चिंता किये बिना उपलब्ध है।
- यह प्रावधान किसी भी अन्य विधान के बावजूद लागू होता है, जिसका अर्थ है कि यह अन्य विधानों में परस्पर विरोधी प्रावधानों को अनदेखा कर देता है।
- यह विधान सुनिश्चित करता है कि किसी महिला को उसके साझी गृहस्थी से केवल इसलिये बेदखल या बाहर नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसके पास संपत्ति का स्वामित्व या हिस्सा नहीं है।
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 (2) में प्रावधान है कि पीड़ित व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही प्रतिवादी द्वारा साझी गृहस्थी या उसके किसी भाग से बेदखल या बहिष्कृत किया जाएगा।
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 (1) एक गैर बाध्यकारी खंड है जो प्रावधान करता है:
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 में प्रावधान है कि घरेलू संबंध में प्रत्येक महिला को साझी गृहस्थी में रहने का अधिकार होगा, चाहे उसका उसमें कोई अधिकार, हक या लाभकारी हित हो या न हो।
- यह प्रावधान दुर्व्यवहार के एक सामान्य रूप को रोकने के लिये प्रस्तुत किया गया था, जो कि महिलाओं को उनके वैवाहिक घर से विस्थापित करना और बेदखल करना है।
- निवास का अधिकार आश्रय और सुरक्षा के महत्त्व को एक महिला की गरिमा के लिये मौलिक मानता है।
- यह अधिकार एक महिला की सुरक्षा और गरिमा के लिये महत्त्वपूर्ण है, यह सुनिश्चित करता है कि उसे घरेलू दुर्व्यवहार के कारण बल प्रयोग द्वारा हटाया या बेघर नहीं किया जाए।
- यह प्रावधान महिलाओं के सशक्तीकरण एवं सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है तथा लैंगिक न्याय एवं मानवीय गरिमा के प्रति इस विधान की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
साझी गृहस्थी में रहने के अधिकार से संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या है?
- एस.आर. बत्रा बनाम तरूणा बत्रा (2007, SC)
- इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि पत्नी को ऐसी संपत्ति में रहने का अधिकार नहीं है जो विशेष रूप से उसके ससुराल वालों की हो और जिसमें उसके पति का कोई कानूनी हित न हो।
- न्यायालय ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 के अंतर्गत "साझी गृहस्थी" शब्द के संकीर्ण निर्वचन को माना और निष्कर्ष निकाला कि जब तक संपत्ति पति के स्वामित्व में या किराए पर न हो, या पति एवं पत्नी द्वारा संयुक्त रूप से न हो, तब तक पत्नी वहाँ रहने का अधिकार नहीं मांग सकती।
- सतीश चंद्र आहूजा बनाम स्नेहा आहूजा (2021, SC)
- उच्चतम न्यायालय ने एस.आर. बत्रा बनाम तरुणा बत्रा (2007) में पहले के निर्णय को खारिज कर दिया तथा कहा कि पत्नी साझी गृहस्थी में रहने के अपने अधिकार का प्रयोग कर सकती है, भले ही संपत्ति का स्वामित्व पूरी तरह से उसके ससुराल वालों के पास हो।
- न्यायालय ने धारा 17 के अंतर्गत "साझी गृहस्थी" का निर्वचन किसी भी घर के रूप में की, जहाँ महिला घरेलू संबंध में रहती है, भले ही उसके पास परिसर में कोई विधिक हक या स्वामित्व हित हो या नहीं।
- हालाँकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि महिला के निवास में स्थायित्व का कुछ तत्त्व होना चाहिये तथा यह आकस्मिक या अस्थायी प्रवास पर आधारित नहीं हो सकता है।
- प्रभा त्यागी बनाम कमलेश देवी (2022, SC)
- इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने "रचनात्मक निवास" की अवधारणा को प्रस्तुत करके साझी गृहस्थी में रहने के अधिकार के दायरे का विस्तार किया।
- न्यायालय ने माना कि पीड़ित महिला के लिये यह अनिवार्य नहीं है कि वह कथित घरेलू हिंसा के समय प्रतिवादियों के साथ वास्तव में रह रही हो।
- भले ही महिला को साझी गृहस्थी से बाहर निकाल दिया गया हो या उसे बाहर निकाल दिया गया हो, फिर भी उसे घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 के अंतर्गत वहाँ रहने का अधिकार है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि यह सुरक्षा विधवाओं, न्यायिक रूप से अलग हुई महिलाओं, विवाह विच्छिन्न महिलाओं तथा यहाँ तक कि उन महिलाओं को भी मिलती है जिनका कोई वैवाहिक संबंध नहीं है, जिससे घरेलू हिंसा अधिनियम के सुरक्षात्मक दायरे का विस्तार होता है।
सांविधानिक विधि
विधि का पारित होना न्यायालय अवमान नहीं
04-Jun-2025
नंदिनी सुंदर एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य "विधायी कार्य का मुख्य उद्देश्य विधायी अंगों को विधि का निर्माण करने तथा उसमें संशोधन करने की शक्ति प्रदान करना है। संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कोई भी विधान केवल विधि निर्माण करने के कारण इस न्यायालय सहित किसी भी न्यायालय अवमान नहीं माना जा सकता।" न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा किसी विधि का निर्माण तब तक न्यायालय अवमान नहीं माना जाएगा, जब तक कि उसे असंवैधानिक घोषित न कर दिया जाए।
- उच्चतम न्यायालय ने नंदिनी सुंदर एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
नंदिनी सुंदर एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला 2007 में संस्थित दो रिट याचिकाओं से आरंभ हुआ, जिसमें छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम आंदोलन की गतिविधियों को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्त्ताओं ने आरोप लगाया कि सलवा जुडूम, माओवादी विद्रोह का मुकाबला करने के लिये गठित एक राज्य प्रायोजित निगरानी समूह है, जो दंतेवाड़ा जिले में हत्या, अपहरण, बलात्संग और आगजनी सहित गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों में शामिल था।
- आंदोलन के विरुद्ध स्थानीय आदिवासी समुदायों का विशेष पुलिस अधिकारियों (SPO) द्वारा भर्ती किया गया तथा उन्हें नक्सलियों के विरुद्ध लड़ने के लिये हथियारबंद किया।
- वर्ष 2011 में, उच्चतम न्यायालय ने एक व्यापक आदेश पारित किया, जिसमें छत्तीसगढ़ सरकार को माओवादी विरोधी अभियानों में SPO का उपयोग तुरंत बंद करने और सलवा जुडूम जैसे समूहों को भंग करने का निर्देश दिया गया।
- न्यायालय ने केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो को हिंसा की घटनाओं की जाँच करने का भी आदेश दिया था तथा राज्य को पूर्व SPO को सुरक्षा प्रदान करने और प्रभावित व्यक्तियों का पुनर्वास देने का निर्देश दिया था।
- इन निर्देशों के बावजूद, छत्तीसगढ़ सरकार ने बाद में छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 लागू किया।
- याचिकाकर्त्ताओं ने अवमानना याचिका दायर कर आरोप लगाया कि यह नया विधान उच्चतम न्यायालय के 2011 के आदेश का उल्लंघन करता है और न्यायालय अवमान कारित करता है।
- उन्होंने तर्क दिया कि अधिनियम अनिवार्य रूप से उन्हीं प्रथाओं को जारी रखता है जिन्हें न्यायालय ने प्रतिबंधित किया था, केवल एक अलग नाम के अंतर्गत।
- याचिकाकर्त्ताओं ने यह भी शिकायत की कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग न्यायालय के निर्देशों का पालन करने में विफल रहा है और पीड़ितों को उचित पुनर्वास नहीं दिया गया है।
- उन्होंने न्यायालय के पहले के आदेशों को लागू करने और नया विधान लागू करने के लिये राज्य सरकार के विरुद्ध अवमानना कार्यवाही आरंभ करने की मांग की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने शक्तियों के पृथक्करण के मूल सिद्धांत पर बल देते हुए इस तर्क को दृढ़ता से खारिज कर दिया कि विधि निर्माण करना न्यायालय अवमान हो सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक राज्य विधानमंडल के पास विधान पारित करने की पूर्ण शक्तियाँ होती हैं, और ऐसे विधान तब तक विधिक बल धारण करते हैं जब तक कि उन्हें सक्षम न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित न कर दिया जाए।
- पीठ ने स्पष्ट किया कि न्यायालयों के पास विधायी वैधता के विषय में संदेहों को हल करने के लिये निर्वचन की शक्तियाँ हैं, लेकिन यह अधिकार विधायी कार्यों के प्रयोग को न्यायालय अवमान मानने तक विस्तारित नहीं है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि विधायी कार्य के मूल में संवैधानिक न्यायालयों द्वारा निरस्त किये गए विधानों को अधिनियमित करने, संशोधित करने या यहाँ तक कि उन्हें मान्य करने की शक्ति भी शामिल है।
- शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर प्रकाश डालते हुए न्यायालय ने कहा कि विधायिकाएँ न्यायिक निर्णयों के आधार को हटाने या संवैधानिक आवश्यकताओं का पालन करने के लिये निरस्त किये गए अधिनियमों को संशोधित करने के लिये विधान पारित कर सकती हैं। पीठ ने इस तथ्य पर बल दिया कि किसी भी विधायी अधिनियम को केवल विधायी क्षमता या संवैधानिक वैधता के आधार पर चुनौती दी जा सकती है, न कि अवमानना कार्यवाही के माध्यम से।
- न्यायालय ने रिट याचिकाओं और अवमानना याचिका दोनों का निपटान करते हुए पाया कि मूल प्रार्थनाएँ 2011 के आदेश में समाहित कर दी गई थीं और अनुपालन रिपोर्ट दायर कर दी गई थीं।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मामले अब आगे न्यायिक विचार के लिये शेष नहीं हैं, जबकि यह बनाए रखा कि विधान को संवैधानिक चुनौतियों को अवमानना कार्यवाही के बजाय स्थापित विधिक प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिये।
सलवा जुडूम क्या है?
- सलवा जुडूम का गठन 2005 में नक्सलियों के विरुद्ध एक राज्य प्रायोजित निगरानी आंदोलन के रूप में किया गया था। यह ग्रामीण भारत के कुछ राज्यों में माओवादी विचारधारा वाला एक गैर वामपंथी आंदोलन है, जिसे सरकार ने अपनी हिंसक गतिविधियों के कारण आतंकवादी संगठन घोषित किया है।
- गोंडों की भाषा में इसका अर्थ है "शांति मार्च" या "शुद्धिकरण अभियान", सलवा जुडूम एक मिलिशिया था जिसे विशेष रूप से छत्तीसगढ़ क्षेत्र में नक्सली हिंसा का सामना करने के आशय से संगठित किया गया था।
- मिलिशिया में स्थानीय आदिवासी युवा शामिल थे, जिन्हें छत्तीसगढ़ सरकार से समर्थन एवं प्रशिक्षण मिला था।
- जब टाटा और एस्सार जैसी कंपनियों ने 2005 में लौह अयस्क के खनन के लिये अपनी परियोजनाएँ आरंभ कीं, तो राज्य ने माओवादी भय के बहाने 644 गाँवों को खाली कराते हुए सलवा जुडूम आरंभ किया। कम से कम 350,000 लोग विस्थापित हुए।
- इस आंदोलन के कारण स्थानीय आदिवासी समुदायों से विशेष पुलिस अधिकारियों (SPO) का भर्ती हुआ तथा उन्हें छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नक्सलियों के विरुद्ध लड़ने के लिये हथियारबंद किया। हालाँकि, यह पहल स्थानीय आदिवासी आबादी के विरुद्ध सलवा जुडूम कार्यकर्त्ताओं द्वारा की गई हत्याओं, अपहरणों, बलात्संगों और आगजनी सहित मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों के कारण अत्यधिक विवादास्पद रही।
सलवा जुडूम पर उच्चतम न्यायालय के निर्देश (2011)
- SPO ऑपरेशनों की तत्काल समाप्ति: छत्तीसगढ़ राज्य को माओवादी/नक्सली गतिविधियों को नियंत्रित करने, उनका मुकाबला करने, उन्हें कम करने या अन्यथा समाप्त करने के उद्देश्य से किसी भी तरह या रूप में विशेष पुलिस अधिकारियों (SPO) का उपयोग करने से तत्काल रोकने और परहेज करने का निर्देश दिया गया।
- केंद्रीय वित्तपोषण पर प्रतिबंध: भारत संघ को माओवादी/नक्सली समूहों के विरुद्ध विद्रोह विरोधी गतिविधियों के लिये SPO की भर्ती में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने किसी भी फंड का उपयोग करने से रोकने और परहेज करने का आदेश दिया गया।
- आग्नेयास्त्रों की बरामदगी: राज्य को निर्देश दिया गया कि वह किसी भी SPO को जारी किये गए सभी आग्नेयास्त्रों को वापस लेने का हर संभव प्रयास करे, चाहे वे वर्तमान हों या पूर्व, साथ ही सभी सहायक उपकरण और साज-सामान, जिनमें बंदूकें, राइफलें, किसी भी कैलिबर के लांचर शामिल हैं।
- पूर्व SPO की सुरक्षा: छत्तीसगढ़ को उन लोगों के जीवन की रक्षा के लिये संवैधानिक सीमाओं के अंदर उचित सुरक्षा प्रदान करने और आवश्यक उपाय करने का आदेश दिया गया था, जिन्हें SPO के रूप में नियुक्त किया गया था या जिन्हें माओवादियों/नक्सलियों सहित सभी बलों से चयन या नियुक्ति के प्रारंभिक आदेश दिये गए थे।
- निगरानी समूहों की रोकथाम: राज्य को सलवा जुडूम और कोया कमांडो सहित किसी भी समूह के संचालन को रोकने के लिये सभी उचित उपाय करने का निर्देश दिया गया था, जो विधि को निजी हाथों में लेना चाहते हैं, असंवैधानिक रूप से कार्य करते हैं या मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं, जिसमें कथित आपराधिक गतिविधियों के सभी पूर्व में अनुचित तरीके से जाँच किये गए मामलों की जाँच और परिश्रमपूर्वक अभियोजन के साथ उचित FIR दर्ज करना शामिल है।
- CBI जाँच: केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो को दंतेवाड़ा जिले के मोरपल्ली, ताड़मेटला और तिम्मापुरम गांवों में मार्च 2011 में हुई हिंसा की घटनाओं और मार्च 2011 में छत्तीसगढ़ की यात्रा के दौरान स्वामी अग्निवेश और उनके साथियों के विरुद्ध हुई हिंसा की घटनाओं की जाँच तुरंत अपने हाथ में लेने का आदेश दिया गया।
संवैधानिक सिद्धांत और लागू सिद्धांत
- शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत
- विधायी कार्यों को नियंत्रित करने वाले मूल सिद्धांत के रूप में व्यापक रूप से चर्चा की गई
- यह स्थापित करने के लिये लागू किया गया कि विधानमंडलों के पास विधि निर्माण करने की पूर्ण शक्तियाँ हैं
- संविधान के अंतर्गत जाँच एवं संतुलन के सिद्धांत को प्रदर्शित करने के लिये उपयोग किया जाता है
- विधायी क्षमता एवं संवैधानिक वैधता
- किसी भी विधायी अधिनियम को चुनौती देने के लिये "दोहरे आधार" के रूप में पहचाना गया
- विधान की वैधता पर हमला करने के लिये एकमात्र स्वीकार्य आधार के रूप में स्थापित
- उचित विधिक उपाय के रूप में अवमानना कार्यवाही से पृथक