निर्णय लेखन कोर्स – 19 जुलाई 2025 से प्रारंभ | अभी रजिस्टर करें









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

सबूत प्रस्तुत करने के लिये प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं

 11-Jun-2025

सैयद मुइज़ कादरी और अन्य। बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश 

"जब अभियुक्त का कृत्य साधारण अपवादों के दायरे में आता है, तो उसके मामले को ऐसे अपवादों के दायरे में लाने के लिये अभियुक्त द्वारा सबूत प्रस्तुत करने की प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है।" 

न्यायमूर्तिसंजय धर 

स्रोत: जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

  • जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय नेसैयद मुइज़ कादरी एवं अन्य बनाम जम्मू-कश्मीर संघ राज्य क्षेत्र केमामले में निर्णय दिया कि एक बार एक बार जब परिवाद में आरोपों से यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट हो जाता है कि अभियुक्त का कृत्य साधारण अपवादों के दायरे में आता है, तो ऐसे अपवादों के दायरे में अपना मामला लाने के लिये अभियुक्त द्वारा सबूत प्रस्तुत करने की प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

सैयद मुइज़ कादरी एवं अन्य बनाम जम्मू एवं कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

पृष्ठभूमि: 

  • प्रतिवादी संख्या 3, तासपोरा गडूल, तहसील कोकेरनाग, जिला अनंतनाग में "दारुल आरिफा हजरत खदीजातुल कुबरा (RA)" नामक एक न्यास (ट्रस्ट) चला रहा था। 
  • यह ट्रस्ट गरीब अनाथ लड़कियों को छात्रावास और भोजनालय की सुविधा के साथ धार्मिक/तकनीकी शिक्षा प्रदान कर रहा था। 
  • न्यास का निर्माण मालिकाना भूमि और समीपवर्ती राज्य भूमि पर किया गया था। 
  • 70,000 रुपए का संदाय करने के पश्चात्, निकटवर्ती राज्य भूमि को जम्मू-कश्मीर राज्य भूमि (कब्जाधारियों को स्वामित्व का अंतरण) अधिनियम (रोशनी अधिनियम) के अधीन न्यास के नाम पर दर्ज कर दिया गया। 

विधिक विकास: 

  • रोशनी अधिनियम (ROSHNI Act) को बाद में निरस्त कर दिया गया/असांविधानिक घोषित कर दिया गया। 
  • एस.के. भल्ला बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य और अन्य (PIL No. 119/2011) में उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने राज्य भूमि पुनर्प्राप्ति के संबंध में निदेश पारित किये 
  • राजस्व अधिकारियों ने निरस्तीकरण के पश्चात् न्यास की संपत्ति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया।  

प्रशासनिक कार्रवाई: 

  • याचिकाकर्त्ता संख्या 1 (तहसीलदार, कोकरनाग) ने प्रतिवादी संख्या 3 को दिनांक 09.03.2022 को बेदखली नोटिस जारी कर अतिक्रमण हटाने को कहा। 
  • 11 मार्च 2022 कोराजस्व अधिकारियों ने राज्य की भूमि को पुनः प्राप्त करने और अतिक्रमण हटाने के लिये मौके का दौरा किया। 
  • न्यास के प्रबंधन ने बेदखली के प्रयासों का विरोध किया। 
  • 11 मार्च 2022 को एक और नोटिसजारी कर सरकारी कर्त्तव्यों में बाधा डालने के लिये स्पष्टीकरण मांगा गया। 
  • लगातार बाधा के कारण, 25 मार्च 2022 को एक और बेदखली नोटिस जारी किया गया जिसमें खाली करने के लिये सात दिन का समय दिया गया। 

परिवाद दर्ज करना: 

  • प्रतिवादी संख्या 3 ने प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, वैलू के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156(3) के अधीन आवेदन दायर किया। 
  • परिवाद में अभिकथित किया गया कि 11 मार्च 2022 को सुबह 10:00 बजे याचिकाकर्त्ताओं ने बिना किसी पूर्व सूचना या वैध अधिकार के न्यास परिसर में बलपूर्वक प्रवेश किया। 
  • आरोप यह भी लगाए गए कि याचिकाकर्त्ताओं ने अनाथ बालिकाओं के प्रति उत्पीड़नात्मक व्यवहार किया, उन्हें रसोईघर/भोजन कक्ष/डाइनिंग हॉल से बलपूर्वक बाहर निकाला, उक्त सुविधाओं को बंद कर दिया, तथा बालिकाओं का शील भंग किया 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने कथित तौर पर छात्रों और कर्मचारियों को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी।  
  • परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि घटना की सूचना मिलने पर पुलिस अधिकारियों ने कोई कार्रवाई नहीं की। 

मजिस्ट्रेट का आदेश: 

  • 25 मार्च 2022 कोप्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट वैलू ने पुलिस स्टेशन कोकरनाग के प्रभारी अधिकारी को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने का निदेश दिया।  
  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 447, 354 और 506 के अधीन अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 55/2022 दर्ज की गई थी।  

उच्च न्यायालय में चुनौती: 

  • याचिकाकर्त्ताओं ने मजिस्ट्रेट के 25 मार्च 2022 के आदेश और परिणामी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 55/2022 दोनों को चुनौती दी 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि वे न्यायालय के निदेशों के अनुसार कार्य कर रहे थे और आधिकारिक कर्त्तव्यों का निर्वहन कर रहे थे। 
  • यह मामला आपराधिक पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय तक पहुँचा 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं पर: 

  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम यू.पी. (2015)में उच्चतम न्यायालय नेधारा 156(3) के अधिकारिता को लागू करने से पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154(1) और 154(3) के पालन पर बल दिया। 
  • धारा 156(3) के अधीन आवेदन शपथपत्रों द्वारा समर्थित होना चाहिये और धारा 154(1) और 154(3) के अधीन आवेदन से पूर्व स्पष्ट रूप से इंगित करना चाहिये 
  • मजिस्ट्रेटों को उचित मामलों में अभिकथनों की सत्यता और सच्चाई की पुष्टि करनी चाहिये 
  • धारा 156(3) के अंतर्गत आवेदन प्रस्तुत करने से पूर्व, परिवादकर्त्ता का यह अनिवार्य दायित्त्व है कि वह सर्वप्रथम संबंधित थाना प्रभारी (SHO) अथवा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (SSP) के समक्ष अनुरोध/प्रार्थना प्रस्तुत करे। 

वर्तमान मामले के अनुपालन पर: 

  • परिवादकर्त्ता ने अपने परिवाद में अस्पष्ट रूप से कहा है कि पुलिस से संपर्क किया गया, किंतु कोई कार्रवाई नहीं की गई। 
  • परिवाद मेंकिसी विनिर्दिष्ट तारीख या पुलिस प्राधिकारी का उल्लेख नहीं किया गया है। 
  • पुलिस स्टेशन या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (SSP) को परिवाद प्रेषित किये जाने संबंध में कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं दिया गया। 
  • सहायक शपथपत्र में धारा 154(1) और 154(3) की आवश्यकताओं के अनुपालन का उल्लेख भी नहीं किया गया।  
  • परिवादकर्त्ता अनिवार्य प्रक्रियागत आवश्यकताओं का पालन करने में असफल रहा। 

विधिक पूर्वनिर्णयों पर: 

  • बाबू वेंकटेश बनाम कर्नाटक राज्य (2022)में उच्चतम न्यायालय नेनिर्णय दिया कि धारा 156(3) याचिका दायर करने से पहले धारा 154(1) और 154(3) के अधीन पूर्व आवेदन अनिवार्य है। 
  • रंजीत सिंह बाथ बनाम केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ (2025)में हाल ही में उच्चतम न्यायालय के निर्णय नेइस बात को पुष्ट किया कि मजिस्ट्रेट धारा 154(1) और 154(3) का पालन किये बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने का निदेश नहीं दे सकते।  

साधारण अपवादों पर: 

  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 78 मेंउपबंध है कि न्यायालय के निर्णय/आदेश के अनुसरण में किये गए कार्य अपराध नहीं हैं। 
  • याचिकाकर्त्ता एस.के. भल्ला मामले में डिवीजन बेंच के निदेशों के अनुसार कार्य कर रहे थे। 
  • परिवादकर्त्ता के अभिकथनों से भी यह स्पष्ट था कि याचिकाकर्त्ता न्यायालय के निदेशों के अधीन काम कर रहे थे। 
  • जब तथ्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि मामला सामान्य अपवाद के अंतर्गत आता है, तो अभियुक्त के बचाव की प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

अभिकथनों की प्रकृति पर: 

  • शील भंग करने और गाली-गलौज करने के अभिकथन अस्पष्ट और सर्वव्यापी थे। 
  • पीड़ितों या विनिर्दिष्ट कृत्यों के बारे मेंकोई विनिर्दिष्ट विवरण नहीं दिया गया। 
  • ऐसे अस्पष्ट अभिकथन अभियोजन का आधार नहीं बन सकते। 

प्रक्रिया के दुरुपयोग पर: 

  • न्यायालय ने पाया कि परिवादकर्त्ता ने अधिकारियों को उनके वैध कर्त्तव्यों के निर्वहन में बाधा डालने के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई थी। 
  • ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) प्रतिशोध लेने तथा राज्य की भूमि से बेदखली का विरोध करने के लिये दर्ज की गई थी।  
  • कार्यवाही जारी रहने से लोक अधिकारी वैध कर्त्तव्यों के निर्वहन से हतोत्साहित होंगे। 
  • मामला विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग का था जिसके लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन हस्तक्षेप की आवश्यकता थी। 

अंतिम निर्धारण: 

  • प्रक्रियागत अनुपालन के अभाव में मजिस्ट्रेट का 25 मार्च 2022 का आदेश विधि की दृष्टि में टिकाऊ नहीं है। 
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 55/2022 भी विधिक रूप से अस्थिर घोषित की गई।  
  • न्यायालय ने प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने और न्याय के लक्ष्यों को सुरक्षित करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन निहित शक्तियों का प्रयोग किया 
  • मजिस्ट्रेट के आदेश और प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) तथा उसके आधार पर की गई सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया गया। 

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 78 क्या है 

भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत साधारण अपवादों का परिचय: 

  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 में यह माना गया है कि कुछ कार्य, जो अन्यथा अपराध माने जा सकते हैं, विनिर्दिष्ट परिस्थितियों में उचित ठहराए जा सकते हैं या क्षमा किये जा सकते हैं। 
  • भारतीय दण्ड संहिता का अध्याय 4 (धारा 76-106) "साधारण अपवादों" से संबंधित है - ये उपबंध प्रतिरक्षा के रूप में कार्य करते हैं जो किसी व्यक्ति को आपराधिक दायित्त्व से मुक्त कर सकते हैं, भले ही उनके कार्य तकनीकी रूप से अपराध की परिभाषा के अंतर्गत आते हों। 

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 78: 

"न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य" 

  • कोई बात, जो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाए या उसके द्वारा अधिदिष्ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश के प्रवृत्त रहते की जाए, अपराध नहीं है, चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परंतु यह तब जब कि वह कार्य करने वाला व्यक्ति सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि उस न्यायालय को वैसी अधिकारिता थी 

धारा 78 के मुख्य तत्त्व: 

निर्णय/आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य: 

  • यह कार्य न्यायालय के निर्णय या आदेश का अनुपालन करने या उसे निष्पादित करने के लिये किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय के निदेश और अभियुक्त की कार्रवाई के बीच सीधा कारण-कार्य संबंध होना चाहिये 

न्यायालय: 

  • यह आवश्यक है कि संबंधित न्यायालय विधिपूर्वक गठित हो तथा उसमें न्यायिक अधिकार निहित हों 
  • इसमें मजिस्ट्रेट न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक सभी न्यायायल सम्मिलित हैं। 
  • ऐसे प्रशासनिक अधिकरण जो न्यायिक कार्यों का निष्पादन करते हैं, वे भी इस श्रेणी में सम्मिलित किये जा सकते हैं।  

निर्णय/आदेश से आबद्ध व्यक्ति 

  • कार्य करने वाले व्यक्ति का न्यायालय के निदेश का पालन करना विधिक दायित्त्व होना चाहिये 
  • इसमें सामान्यत: न्यायालय अधिकारी, पुलिस कर्मी, बेलिफ और अन्य प्रवर्तन अधिकारी सम्मिलित होते हैं। 
  • न्यायालय द्वारा विशेषत: निदेशित व्यक्तियों पर भी लागू हो सकता है। 

निर्णय/आदेश द्वारा अनुमत  

  • कार्य न्यायालय के निदेश द्वारा प्रदत्त दायरे और प्राधिकार के अंतर्गत आना चाहिये 
  • न्यायालय द्वारा अधिकृत सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। 

विस्तार और अनुप्रयोग: 

न्यायालय की अधिकारिता की परवाह किये बिना संरक्षण: 

यह धारा एक महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण उपबंधित करती है: "यदि ऐसा किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो ऐसा करने के लिये ऐसे निर्णय या आदेश द्वारा आबद्ध है" - यह संरक्षण तब भी विद्यमान है जब न्यायालय के पास निर्णय या आदेश पारित करने की अधिकारिता न हो। यह सुनिश्चित करता है कि: 

  • न्यायालय के आदेशों को क्रियान्वित करने वाले अधिकारियों को आपराधिक दायित्त्व से संरक्षण प्राप्त है। 
  • न्यायिक निदेशों का सद्भावपूर्वक अनुपालन करने को प्रोत्साहित किया जाता है। 
  • अधिकारिता संबंधी विवाद्यकों को चुनौती देने का दायित्त्व प्रभावित पक्षकारों पर है, न कि कार्यान्वयन अधिकारियों पर। 

व्यावहारिक अनुप्रयोग: 

  • सिविल आदेशिका का निष्पादन: 
    • न्यायालय अधिकारियों द्वारा संपत्ति की कुर्की और विक्रय 
    • बेदखली की कार्यवाही बेलिफ द्वारा की जाती है। 
    • न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवरों के माध्यम से ऋण की वसूली। 
  • आपराधिक आदेशिका का निष्पादन: 
    • न्यायालय के वारण्ट के अनुसरण में की गईं गिरफ्तारियाँ 
    • न्यायालय के आदेश के अधीन की गई तलाशी। 
    • न्यायालय के निदेशानुसार संपत्ति जब्त करना।  

अवमानना ​​कार्यवाही : 

  • न्यायालय के आदेशों को लागू करने के लिये की गई कार्रवाई। 
  • न्यायालय की अवमानना ​​के लिये व्यक्तियों को निरोध में रखना 

परिसीमाएँ और अपवाद: 

सद्भावनापूर्ण आवश्यकता: 

  • यह कार्य न्यायालय के आदेश के अनुसरण में सद्भावनापूर्वक किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय के निदेश के परे विद्वेषपूर्ण या अत्यधिक कार्यों को संरक्षण नहीं दिया जाता। 

विस्तार की परिसीमा: 

  • संरक्षण केवल उन कार्यों तक ही सीमित है जो न्यायालय के आदेश द्वारा विशेषत: अनुमत हों। 
  • न्यायालय के प्राधिकरण से परे कार्यवाही को उचित नहीं ठहराया जा सकता। 

उचित न्यायालय की आवश्यकता: 

  • न्यायिक प्राधिकार के साथ एक वैध न्यायालय होना चाहिये 
  • ऐसे प्रशासनिक निकाय जिनके पास न्यायिक अधिकार का अभाव हो, उनके आदेश इस संरक्षण के अंतर्गत नहीं आते। 

न्यायिक निर्वचन: 

न्यायालयों ने लगातार यह माना है कि: 

  • उदार निर्वचन: न्यायालय के आदेशों को क्रियान्वित करने वाले अधिकारियों को संरक्षण के लिये धारा 78 का उदारतापूर्वक निर्वचन किया जाना चाहिये।  
  • सद्भावना मानक: जब तक अधिकारी सद्भावपूर्वक कार्य करता है, तब तक निष्पादन में छोटी-मोटी त्रुटियों को क्षमा किया जा सकता है।  
  • सबूत का भार: एक बार यह स्थापित हो जाने पर कि कोई कार्य न्यायालय के आदेश के अनुसरण में किया गया था, तो द्वेष या अधिकार के अतिरेक को साबित करने का भार उस पर आ जाता है। 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 में तदनुरूप उपबंध 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 16  

"न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य" 

कोई बात, जो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाए या उसके द्वारा अधिदिष्ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश के प्रवृत्त रहते की जाए, अपराध नहीं है, चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परंतु यह तब जब कि वह कार्य करने वाला व्यक्ति सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि उस न्यायालय को वैसी अधिकारिता थी।  


सांविधानिक विधि

नार्को-विश्लेषण परीक्षण

 11-Jun-2025

अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य 

"एक अभियुक्त स्वेच्छया से नार्को-विश्लेषण परीक्षण से गुजर सकता है, किंतु केवल विचारण के उपयुक्त चरण में - विशेष रूप से, जब वह अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के अधिकार का प्रयोग कर रहा हो।" 

न्यायमूर्ति संजय करोल और पी.बी. वराले 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्यके मामले मेंन्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति पी.बी. वराले कीपीठ नेनिर्णय दिया कि एक अभियुक्त स्वेच्छया से नार्को-विश्लेषण परीक्षण से गुजर सकता है, किंतु यह परीक्षण केवल न्यायिक विचारण की उपयुक्त अवस्था में ही कराया जा सकता है - विशेष रूप से उस चरण में जब अभियुक्त को अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार प्रदान किया गया हो 

  • न्यायालय ने आगे कहा कि यह कोई पूर्ण या प्रत्याभूत अधिकार नहीं है, क्योंकि यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है जिन पर विचारण न्यायालय को विचार करना चाहिये 

अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • मामले की पृष्ठभूमि: 
    • 24 अगस्त 2022 को पुलिस थाने महुआ में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 341, 342, 323, 363, 364, 498 (), 504, 506 और 34 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 545/2022 दर्ज की गई। 
    • अपीलकर्त्ता (पति) और उसके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध मामला दर्ज किया गया। 
    • परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि उसकी बहन का विवाह 11 दिसंबर 2020 को अपीलकर्त्ता से हुआ था 
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में किये गए अभिकथन: 
    • अभियुक्त व्यक्ति बार-बार दहेज की मांग कर रहे थे। 
    • अभियुक्त व्यक्ति परिवादकर्त्ता की बहन की पिटाई कर रहे थे।  
    • 22 अगस्त 2022 को परिवादकर्त्ता को अपीलकर्त्ता का फोन आया जिसमें बताया गया कि उसकी बहन वैवाहिक घर से भाग गई है। 
    • तलाश के बावजूद बहन का पता नहीं चल सका और परिवादकर्त्ता को अभियुक्तों की ओर से धोखाधड़ी का संदेह हुआ। 

  • अपीलकर्त्ता का कथन: 
    • 21 अगस्त 2022 को अयोध्या जाते समय उनकी पत्नी शौच के लिये बाबबली चौक पर बस से उतर गईं, किंतु वापस नहीं लौटीं। 
    • अपीलकर्त्ता द्वारा दिनांक 28 अगस्त 2022 को जहांगीरगंज थाना में परिवाद दर्ज कराया गया, जिसे सामान्य डायरी संख्या 038 के रूप में दर्ज किया गया 
  • वर्तमान स्थिति: 
    • लापता व्यक्ति (पत्नी) का आज तक पता नहीं चल पाया है। 
    • अपीलकर्त्ता की माँ, पिता और भाइयों को पटना उच्च न्यायालय द्वारा जमानत दे दी गई है। 
    • अपीलकर्त्ता की नियमित जमानत की प्रार्थना को सेशन न्यायाधीश, वैशाली, हाजीपुर द्वारा जमानत याचिका संख्या 1141/2023 में खारिज कर दिया गया। 
    • यह अस्वीकृति प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में वर्णित आरोपों और सह-अभियुक्तों के संस्वीकृत किये गए कथनों पर आधारित थी, जिन्होंने कहा था कि उन्होंने लापता व्यक्ति को 21 और 22 अगस्त 2022 की मध्य रात्रि को सरयू नदी में फेंक दिया था। 
  • उच्च न्यायालय का विवादित आदेश:  
    • अपीलकर्त्ता ने नियमित जमानत के लिये पटना उच्च न्यायालय में दांडिक विविध याचिका संख्या 71293/2023 के अधीन आवेदन प्रस्तुत किया 
    • उच्च न्यायालय ने महुआ की उप-विभागीय पुलिस अधिकारी की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि वह अन्वेषण के दौरान सभी अभियुक्तों और अन्य साक्षियों का नार्को-विश्लेषण परीक्षण कराएंगी। 
    • मामले की सुनवाई 12 जुलाई 2024 को निर्धारित की गई। 
  • उच्चतम न्यायालय में अपील: 
    • उच्च न्यायालय के 9 नवंबर 2023 के आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 
    • वर्तमान अपील विशेष अनुमति याचिका (दाण्डिक) संख्या 5392/2024 से उत्पन्न हुई है। 
    • अनुमति प्रदान कर दी गई और मामला आपराधिक अपील में परिवर्तित कर दिया गया। 
    • उच्चतम न्यायालय ने 22 अप्रैल 2025 के आदेश के अधीन वरिष्ठ अधिवक्ता श्री गौरव अग्रवाल को संबंधित विवाद्यकों पर न्यायालय की सहायता के लिये न्यायमित्र (Amicus Curiae) के रूप में नियुक्त किया 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

उच्चतम न्यायालय द्वारा विरचित विवाद्यक: 

  • क्या वर्तमान तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर उच्च न्यायालय इस तरह की दलील को स्वीकार कर सकता था? 
  • क्या स्वैच्छिक नार्को-विश्लेषण परीक्षण की रिपोर्ट, अभिलेख पर अन्य साक्ष्य के अभाव में दोषसिद्धि का एकमात्र आधार बन सकती है। 
  • क्या कोई अभियुक्त स्वेच्छया से नार्को-विश्लेषण परीक्षण की मांग कर सकता है, यह एक अविभाज्य अधिकार है। 

सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) से प्रतिपादित विधिक सिद्धांत: 

  • भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20 और 21 अपरिवर्तनीय और पवित्र अधिकार हैं, जिनमें न्यायपालिका किसी प्रकार अपवाद नहीं बना सकती। 
  • नार्को-विश्लेषण और इसी तरह के परीक्षणों का अनैच्छिक प्रशासन संविधान के अनुच्छेद 20(3) (आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध अधिकार) द्वारा दी गई सुरक्षा का उल्लंघन है। 
  • ऐसे अनैच्छिक परीक्षणों के परिणामों को विधि की दृष्टि में 'भौतिक साक्ष्य' नहीं माना जा सकता। 
  • सम्मति के अभाव में ऐसे परीक्षण करना 'मूलभूत उचित प्रक्रिया' का उल्लंघन है। 
  • जब ये परीक्षण बिना सम्मति के किये जाते हैं तो व्यक्ति की गोपनीयता की सीमाओं का भी उल्लंघन होता है। 
  • स्वैच्छिक परीक्षणों के लिये उचित सुरक्षा उपाय लागू होने चाहिये तथा परिणामों को सीधे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। 
  • तत्पश्चात् दी गई जानकारी की सहायता से बाद में खोजे गए किसी तथ्य या सूचना को भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 27 के अधीन साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। 

न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष: 

उच्च न्यायालय द्वारा नार्को-विश्लेषण प्रस्तुतिकरण को स्वीकार किये जाने पर: 

  • किसी भी परिस्थिति में अनैच्छिक या बलपूर्वक नार्को-विश्लेषण परीक्षण विधि के अधीन स्वीकार्य नहीं है 
  • उच्च न्यायालय द्वारा नार्को-विश्लेषण परीक्षण कराने के अनुरोध को स्वीकार करना सेल्वी मामले में दिये गए निर्णय का सीधा उल्लंघन है। 
  • इस तरह की प्रस्तुति और उसकी स्वीकृति संविधान के अनुच्छेद 20(3) और 21 के अधीन प्राप्त सुरक्षा के दायरे में आती है। 
  • उच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 439 के अधीन नियमित जमानत के लिये आवेदन पर निर्णय देते समय इस तरह के निवेदन को स्वीकार करने में त्रुटी की।  

जमानत आवेदनों पर: 

  • जमानत देने के लिये आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय को अभियुक्त के विरुद्ध आरोपों, अभिरक्षा की अवधि, साक्ष्य और अपराध की प्रकृति, साक्षियों को प्रभावित करने की संभावना और अन्य सुसंगत आधारों पर विचार करना होता है। 
  • इसमें किसी भी तरह की जांच में सम्मिलित होना या अनैच्छिक अन्वेषण तकनीकों के उपयोग को स्वीकार करना सम्मिलित नहीं है। 
  • उच्च न्यायालय ने जमानत मामले के निर्णय को लघु विचारण में परिवर्तित कर दिया, जो निंदनीय है। 

नार्को-विश्लेषण की साक्ष्यात्मक मूल्यवत्ता के संदर्भ में: 

  • स्वैच्छिक नार्को-विश्लेषण परीक्षण की रिपोर्ट, पर्याप्त सुरक्षा उपायों के होते हुए भी, किसी अभियुक्त व्यक्ति की दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं बन सकती। 
  • साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 की सहायता से प्राप्त सूचना, सहायक साक्ष्य के अभाव में दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकती। 
  • किसी भी सहायक साक्ष्य के बिना प्रकटीकरण कथन दोषसिद्धि सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। 

नार्को-विश्लेषण परीक्षण से गुजरने के अधिकार पर: 

  • इस बात पर उच्च न्यायालयों के बीच मतभेद है कि क्या अभियुक्त द्वारा नार्को-विश्लेषण परीक्षण का अधिकार के रूप में दावा किया जा सकता है। 
  • अभियुक्त को उचित चरण पर (जब वह विचारण में साक्ष्य प्रस्तुत करने के अधिकार का प्रयोग कर रहा हो) स्वेच्छया से नार्को-विश्लेषण परीक्षण कराने का अधिकार है। 
  • यद्यपि, अभियुक्त को नार्को-विश्लेषण परीक्षण से गुजरने का कोई अपरिहार्य अधिकार नहीं है। 
  • ऐसे आवेदन प्राप्त होने पर, संबंधित न्यायालय को मामले से संबंधित समग्र परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये, जैसे स्वतंत्र सम्मति, उचित सुरक्षा उपाय आदि। 

स्वैच्छिक नार्को-विश्लेषण परीक्षण के लिये दिशा-निर्देश: 

  • अभियुक्त की सम्मति के बिना कोई भी परीक्षण नहीं किया जाना चाहिये 
  • यदि अभियुक्त स्वेच्छया से आगे आता है, तो उसे वकील से संपर्क करने की सुविधा दी जानी चाहिये तथा उसे मामले के निहितार्थ समझाए जाने चाहिये 
  • सम्मति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज की जानी चाहिये 
  • मजिस्ट्रेट के समक्ष सुनवाई के दौरान व्यक्ति का प्रतिनिधित्व किसी वकील द्वारा किया जाना चाहिये 
  • व्यक्ति को बताया जाना चाहिये कि यह कथन "संस्वीकृति" वाले कथन नहीं होंगे, अपितु पुलिस को दिये गए कथन जैसे होंगे 
  • मजिस्ट्रेट निरुद्ध से संबंधित सभी कारकों पर विचार करेगा, जिसमें निरुद्ध की अवधि और पूछताछ की प्रकृति भी सम्मिलित है। 
  • वास्तविक रिकॉर्डिंग एक स्वतंत्र अभिकरण द्वारा तथा एक वकील की उपस्थिति में की जानी चाहिये 
  • प्राप्त सूचना के तरीके का पूर्ण चिकित्सीय एवं तथ्यात्मक विवरण रिकार्ड में दर्ज किया जाना चाहिये 

अंतिम निर्णय: 

  • पटना उच्च न्यायालय द्वारा पारित दिनांक 9 नवंबर 2023 के आदेश को अपास्त किया जाता है। 
  • अपीलकर्त्ता की जमानत याचिका, यदि कोई हो, पर विधि के अनुसार निर्णय लिया जाएगा। 
  • अपील स्वीकार की जाती है। 

नार्को परीक्षण क्या है? 

परीक्षण के बारे में:  

  • नार्को विश्लेषण परीक्षण में, सोडियम पेंटोथल नामक दवा कोअभियुक्त के शरीर में इंजेक्ट किया जाता है, जो उन्हें सम्मोहन या बेहोशी की स्थिति में पहुँचा देता है, जिससे उनकी कल्पना शक्ति निष्क्रिय हो जाती है। 
  • इस सम्मोहन अवस्था में, अभियुक्त कोमिथ्या बोलने में असमर्थ समझा जाता है तथा उससे सत्य जानकारी बताने की अपेक्षा की जाती है। 
  • भारत में, नार्को विश्लेषण परीक्षण का उपयोग मुख्य रूप से 2002 के गुजरात दंगा मामले और 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमले के मामले में किया गया था। 

सोडियम पेन्टोथल के बारे में: 

  • सोडियम पेन्टोथल या सोडियम थायोपेंटल एकतेजी से काम करने वाला, कम अवधि का एनेस्थेटिक है, जिसका उपयोगसर्जरी के दौरान मरीजों को बेहोश करने के लिये बड़ी मात्रा में किया जाता है। 
  • यह बार्बिट्यूरेट वर्ग की दवा है जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर अवसादक के रूप में कार्य करती है। 
  • क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह दवा व्यक्ति के मिथ्या बोलने के संकल्प को कमजोर कर देती है, इसलिये इसे कभी-कभी"सत्य सीरम"के रूप में संदर्भित किया जाता है और कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान खुफिया अधिकारियों द्वारा इसका प्रयोग किया गया था। 

नार्को बनाम पॉलीग्राफ परीक्षण : 

  • नार्को परीक्षणों कोपॉलीग्राफ परीक्षणों के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिये,क्योंकि यद्यपि इनकाउद्देश्य सत्य जानने का एक ही तरीका है, किंतु ये भिन्न तरीके से काम करते हैं। 
  • पॉलीग्राफ परीक्षण इस धारणा पर किया जाता है कि जब कोई व्यक्ति मिथ्या बोलता है तो उत्पन्न होने वाली शारीरिक प्रतिक्रियाएँ अन्यथा उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं से भिन्न होती हैं। 
  • शरीर में नशीली दवा इंजेक्ट करने के अतिरिक्त, पॉलीग्राफ परीक्षण में संदिग्ध व्यक्ति के शरीर में कार्डियो-कफ या संवेदनशील इलेक्ट्रोड जैसे उपकरण लगा दिये जाते हैं और संदिग्ध व्यक्ति से पूछताछ के दौरान रक्तचाप, नाड़ी की गति, श्वसन, पसीने की ग्रंथि की गतिविधि में परिवर्तन, रक्त प्रवाह आदि जैसी चरों को मापा जाता है। 

नार्को परीक्षण के विधिक निहितार्थ क्या हैं? 

  • सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामला (2010): 
    • उच्चतम न्यायालय ने नार्को परीक्षणों की वैधता और ग्राह्यता पर निर्णय सुनाते हुए कहा कि नार्को या मिथ्या डिटेक्टर परीक्षणों का अनैच्छिक प्रशासन किसी व्यक्ति की "मानसिक गोपनीयता" में घुसपैठ है। 
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नार्को परीक्षण संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अधीन आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्षी बनने के लिये विवश नहीं किया जाएगा। 
  • डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला (1997): 
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि पॉलीग्राफ और नार्कोस परीक्षण का अनैच्छिक प्रशासन, अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में क्रूर, अमानवीय तथा अपमानजनक उपचार होगा। 
  • उच्चतम न्यायालय की अन्य टिप्पणियाँ: 
    • नार्को परीक्षण साक्ष्य के रूप में विश्वसनीय या निश्चायक नहीं हैं, क्योंकि वे मान्यताओं और संभावनाओं पर आधारित होते हैं। 
    • साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27के अनुसार, स्वैच्छिक रूप से प्रशासित परीक्षण परिणामों की सहायता से बाद में खोजी गई कोई भी जानकारी या सामग्री स्वीकार की जा सकती है। 
      • उदाहरण के लिये:यदि कोई अभियुक्त नार्को परीक्षण के दौरान किसी भौतिक साक्ष्य (जैसे कि हत्या का हथियार) का स्थान बताता है और पुलिस को बाद में उस स्थान पर वह विशिष्ट साक्ष्य मिलता है, तो अभियुक्त के कथन को साक्ष्य नहीं माना जाएगा, किंतु भौतिक साक्ष्य मान्य होगा। 
    • इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इस तरह के परीक्षण से गुजरने वाला व्यक्ति केवल सत्य ही बताएगा। निहित स्वार्थों द्वारा परिणामों में हेरफेर और जालसाजी की संभावना बनी रहती है। 
    • नार्को परीक्षण केवल अभियुक्त की सम्मति से ही किया जा सकता है, और वह भी अभियुक्त को उसके अधिकारों और परिणामों के बारे में सूचित करने के पश्चात् 
    • न्यायालय ने इस बात पर भी बल दिया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2000 में प्रकाशित 'अभियुक्त पर पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये दिशा-निर्देशों' का कठोरता से पालन किया जाना चाहिये