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आपराधिक कानून

IPC की धारा 387

 12-Jun-2025

मेसर्स बालाजी ट्रेडर्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

“भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 387 के अंतर्गत अपराध के लिये संपत्ति की वास्तविक डिलीवरी आवश्यक नहीं है; उद्दापन करने के आशा से किसी व्यक्ति को मृत्यु या गंभीर चोट के भय में डालना ही अपराध का गठन करने के लिये पर्याप्त है।”

न्यायमूर्ति संजय करोल एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय करोल एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने मेसर्स बालाजी ट्रेडर्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में माना कि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 387 के अधीन कारित अपराध के लिये संपत्ति की वास्तविक डिलीवरी आवश्यक नहीं है; उद्दापन करने के आशय से किसी व्यक्ति को मृत्यु या गंभीर चोट के भय में डालना ही अपराध गठित करने के लिये पर्याप्त है।

मेसर्स बालाजी ट्रेडर्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

पृष्ठभूमि एवं प्रारंभिक घटना:

  • प्रो. मनोज कुमार अग्रवाल मेसर्स बालाजी ट्रेडर्स के मालिक हैं, जो सुपारी का कारोबार करते हैं। 
  • संजय गुप्ता ने कथित तौर पर "बालाजी ट्रेडर्स" के नाम से ही कारोबार आरंभ किया था। 
  • दोनों पक्षों के बीच ट्रेडमार्क एवं कॉपीराइट संबंधी वाद लंबित थे। 
  • 22 मई 2022 को जब शिकायतकर्त्ता अपने घर की ओर जा रहा था, तो आरोपी ने राइफल लिये तीन अज्ञात लोगों के साथ उसे रोक लिया। 
  • आरोपियों ने शिकायतकर्त्ता को सुपारी का कारोबार बंद करने के लिये अभित्रास दिया। 
  • उन्होंने कारोबार जारी रखने के लिये हर महीने 5 लाख रुपये की मांग की। 
  • शिकायतकर्त्ता के इनकार करने पर आरोपियों ने उसके साथ मारपीट की और उसका अपहरण करने का प्रयास किया।

विधिक कार्यवाही की यात्रा:

  • ट्रायल कोर्ट:
    • पुलिस ने आरंभ में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज नहीं की। 
    • शिकायतकर्त्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 200 के अधीन शिकायत दर्ज करके न्यायालय में अपील किया। 
    • ट्रायल कोर्ट (अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश/विशेष न्यायाधीश, डाकू प्रभाव क्षेत्र, जालौन प्लेस उरई) ने मौखिक एवं दस्तावेजी साक्ष्य का विश्लेषण किया। 
    • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला पाया तथा 28 अगस्त 2023 को IPC की धारा 387 के अधीन समन जारी किया।
  • उच्च न्यायालय:
    • आरोपी ने धारा 482 CrPC के तहत विविध आवेदन दायर करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील किया। 
    • उच्च न्यायालय ने 28 जून 2024 को आपराधिक विविध आवेदन संख्या 19550/2024 में निर्णय दिया। 
    • उच्च न्यायालय ने 28 अगस्त 2023 के समन आदेश को रद्द कर दिया। 
    • उच्च न्यायालय ने धारा 387 IPC के अधीन शिकायत मामला संख्या 58/2022 की पूरी कार्यवाही को भी रद्द कर दिया। 
    • उच्च न्यायालय ने तर्क दिया कि उद्दापन (संपत्ति की डिलीवरी) का आवश्यक तत्त्व गायब था।
    • उच्च न्यायालय ने पाया कि आरोपी व्यक्ति को कोई धनराशि नहीं सौंपी गई। 
    • उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि चूँकि IPC की धारा 383 के तहत कोई अपराध नहीं बनता, इसलिये धारा 387 IPC के तहत कोई अपराध स्थापित नहीं होगा।
  • उच्चतम न्यायालय:
    • अपीलकर्त्ता-शिकायतकर्त्ता ने एसएलपी(सीआरएल) संख्या 3159/2025 से उत्पन्न आपराधिक अपील प्रस्तुत की।
    • उच्चतम न्यायालय ने अनुमति प्रदान की और मामले की सुनवाई की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उद्दापन की विभिन्न धाराओं के बीच अंतर:

  • उद्दापन के वास्तविक कृत्य और उद्दापन करने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को भयभीत करने की प्रक्रिया के बीच स्पष्ट अंतर है। 
  • धारा 383, 384, 386 एवं 388 उद्दापन के वास्तविक कृत्य से संबंधित हैं। 
  • IPC की धारा 385, 387 एवं 389 उद्दापन के उद्देश्य से किये गए कृत्यों के लिये दण्ड का प्रावधान करती हैं, भले ही उद्दापन पूर्ण न हुआ हो और संपत्ति की डिलीवरी न हुई हो। 
  • IPC की धारा 387 उद्दापन करने से पहले के चरण का प्रावधान करती है - उद्दापन करने के लिये व्यक्ति को मृत्यु या गंभीर चोट के भय में डालना। 
  • IPC की धारा 387 IPC की धारा 385 का गंभीर रूप है, न कि IPC की धारा 384 का।

उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण:

  • उच्च न्यायालय का तर्क त्रुटिपूर्ण एवं दोषपूर्ण था।
  • जब विधानमंडल अलग-अलग तत्त्वों एवं दण्ड के साथ दो अलग-अलग अपराध बनाता है, तो एक के आवश्यक तत्त्वों को दूसरे में शामिल करना दोषपूर्ण दृष्टिकोण है।
  • उच्च न्यायालय ने दोषपूर्ण तरीके से IPC की धारा 387 के बजाय IPC की धारा 384 का निपटान करने वाले निर्णयों पर भरोसा किया।

दण्ड विधानों का निर्वचन:

  • दण्ड विधानों का सख्त निर्वचन किया जाना चाहिये। 
  • न्यायालय को दण्डात्मक दायित्व लागू करने वाले सांविधिक प्रावधान में कुछ भी नहीं करना चाहिये। 
  • प्रावधान की सीमा को उन शब्दों को पढ़कर नहीं बढ़ाया जा सकता जो उसमें हैं ही नहीं। 
  • IPC की धारा 387 दण्डात्मक प्रावधान होने के कारण इसका सख्त निर्वचन किया जाना चाहिये। 
  • इसमें कोई भी शर्त/आवश्यक तत्त्व नहीं पढ़ा जा सकता है जिसे विधान/धारा में निर्धारित न किया गया हो।

वर्तमान मामले पर:

  • यह मामला रद्द करने लायक नहीं है क्योंकि IPC की धारा 387 के अधीन अभियोजन के लिये दो आवश्यक तत्त्व प्रथम दृष्टया प्रकटित हो चुके हैं।
  • शिकायतकर्त्ता की ओर बंदूक तानकर उसे मृत्यु का डर दिखाया गया है।
  • यह उस पर 5 लाख रुपए देने के लिये दबाव डालने के लिये किया गया था।
  • उच्च न्यायालय ने दोषपूर्ण तरीके से जोर दिया कि रकम नहीं दी गई।
  • पैसे/संपत्ति दी गई या नहीं, यह आवश्यक नहीं है क्योंकि आरोपी पर IPC की धारा 384 के अधीन आरोप नहीं लगाया गया है।
  • किसी व्यक्ति को मृत्यु या गंभीर चोट के डर में डालने के आरोप ही आरोपी को IPC की धारा 387 के अधीन अभियोजन के लिये उत्तरदायी बनाते हैं।

अभिखंडन सिद्धांतों के मुद्दे पर:

  • 'दुर्लभतम मामलों' में सावधानी के साथ अभिखंडन की शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिये। 
  • अभिखंडन सामान्य नियमों की तुलना में अपवाद एवं दुर्लभ होना चाहिये। 
  • उच्च न्यायालय आम तौर पर आपराधिक कार्यवाही को निरस्त करने के लिये अंतर्निहित अधिकारिता का प्रयोग नहीं करेगा, जब तक कि आरोपों को, भले ही अंकित मूल्य पर लिया जाए, कोई संज्ञेय अपराध प्रकट नहीं करता हो। 
  • ऐसी शक्ति का प्रयोग बहुत संयम से किया जाना चाहिये।

IPC की धारा 387 क्या है?

परिभाषा एवं सीमा:

  • धारा 387 IPC: "उद्दापन करने के लिये किसी व्यक्ति को मृत्यु या गंभीर चोट के डर में डालना"। 
  • सजा: सात वर्ष तक की अवधि के लिये कारावास एवं जुर्माना भी हो सकता है।
  • यह IPC की धारा 385 के अधीन उद्दापन के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को डराने का एक गंभीर रूप है। 
  • यह प्रक्रिया को एक अलग अपराध बनाकर आपराधिक बनाता है, जिसमें वास्तविक उद्दापन की आवश्यकता नहीं होती है।

IPC की धारा 387 के आवश्यक तत्त्व:

  • अभियुक्त ने व्यक्ति को मृत्यु या गंभीर चोट के भय में डाला होगा।
  • ऐसा कृत्य उद्दापन करने के लिये किया गया होगा।
  • अभिव्यक्ति 'करने के लिये' का अर्थ है 'उद्देश्य से' या 'करने के उद्देश्य से'।
  • 'उद्दापन करने के लिये' से पता चलता है कि वह उद्दापन का अपराध करने की प्रक्रिया में है।

प्रमुख विधिक सिद्धांत:

  • धारा 387 के तहत अपराध के लिये उद्दापन का अपराध करना अनिवार्य नहीं है। 
  • IPC की धारा 387 के तहत अभियोजन के लिये, संपत्ति की डिलीवरी आवश्यक नहीं है। 
  • यह उद्दापन का अपराध करने से पहले की अवस्था है, न कि वास्तविक अपराध। 
  • विधानमंडल ने इसे एक अलग अपराध बनाकर प्रक्रिया को आपराधिक बनाने का ध्यान रखा। 
  • किसी व्यक्ति को भयभीत करना IPC की धारा 387 के तहत आरोपी को दोषी बना देगा, जबकि IPC की धारा 383 के तहत उद्दापन के सभी तत्त्व संतुष्ट नहीं हैं।

अन्य उद्दापन संबंधी धाराओं से भेद:

  • धारा 383 (उद्दापन को परिभाषित करता है) से अलग, जिसमें संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा की डिलीवरी की आवश्यकता होती है। 
  • धारा 384 (उद्दापन के लिये सजा) से अलग, जो उद्दापन के पूर्ण कार्य से संबंधित है। 
  • धारा 386 (किसी व्यक्ति को मृत्यु के डर से उद्दापन) से अलग, जो धारा 384 का गंभीर रूप है, जो वास्तविक कमीशन से संबंधित है। 
  • धारा 387 प्रक्रिया से संबंधित है, जबकि धारा 386 स्वयं कार्य से संबंधित है।

सांविधानिक विधि

निवारक निरोध एवं जमानत रद्दीकरण

 12-Jun-2025

धन्या एम. बनाम केरल राज्य 

"निवारक निरोध का प्रयोग केवल आपराधिक अभियोजन के विकल्प के रूप में या जमानत आदेशों को दरकिनार करने के लिये नहीं किया जा सकता है।" 

न्यायमूर्तिसंजय करोल और न्यायमूर्ति मनमोहन   

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने धन्या एम. बनाम केरल राज्यके मामले मेंलोक व्यवस्था' और 'विधि और व्यवस्था' के बीच अंतर स्पष्ट किया और स्पष्ट किया कि निवारक निरोध का प्रयोग केवल आपराधिक अभियोजन के विकल्प के रूप में या जमानत आदेशों को दरकिनार करने के लिये नहीं किया जा सकता है। 

धन्या एम. बनाम केरल राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

पृष्ठभूमि एवं प्रारंभिक परिस्थितियाँ: 

  • राजेश (निरोध में) 'रितिका फाइनेंस' नाम से एकपंजीकृत ऋण देने वाली कंपनी चला रहा था। 
  • वह धन उधार देने की गतिविधियों से संबंधित कई आपराधिक मामलों में सम्मिलित था। 
  • पलक्कड़ के जिला पुलिस प्रमुख नेउसे 'कुख्यात गुंडा'और समाज के लिये खतरा घोषित किया। 

निरुद्ध व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक मामले: 

  • अपराध संख्या 17/2020 : केरल मनी लेंडर्स अधिनियम, 1958 की धारा 17 और केरल अत्यधिक ब्याज वसूलने पर प्रतिबंध अधिनियम, 2012 की धारा 3, 9(1)(क) के अधीन कसाबा पुलिस स्टेशन में। 
  • अपराध संख्या 220/2022: केरल मनी लेंडर्स अधिनियम, 1958 की धारा 17 के साथ धारा 3 के अधीन, और केरल अत्यधिक ब्याज वसूलने पर निषेध अधिनियम, 2012 की धारा 9()() सहपठित धारा 3 के अंतर्गत टाउन साउथ पुलिस स्टेशन में पंजीकृत 
  • अपराध संख्या 221/2022: भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 294(), 506(झ) और केरल मनी लेंडर्स अधिनियम, 1958 की धारा 17 सहपठित धारा 3 और केरल अत्यधिक ब्याज वसूलने पर निषेध अधिनियम, 2012 की धारा 3 के सहपठित धारा 9()(ख) के अधीन।   
  • अपराध संख्या 401/2024 : भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 341, 323, 324, 326; केरल मनी लेंडर्स अधिनियम, 1958 की धारा 17; केरल अत्यधिक ब्याज वसूलने पर निषेध अधिनियम, 2012 की धारा 4, तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3(2), (फक), 3(1)(), 3(1)(ध) के अधीन।  

विधिक कार्यवाही की क्रमिक स्थिति: 

  • जिला मजिस्ट्रेट न्यायालय: 
    • दिनांक 29 मई 2024 को, पालक्काड जिला पुलिस अधीक्षक द्वारा संस्तुति संख्या 54/Camp/2024-P-KAA(P)A प्रस्तुत की गई 
    • 20 जून 2024 को, जिला मजिस्ट्रेट, पलक्कड़ ने केरल असामाजिक गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम, 2007 की धारा 3(1) के अधीन निरोध का आदेश जारी किया। 
    • इस आदेश के अनुसरण मेंनिरुद्ध व्यक्ति कोअभिरक्षा में ले लिया गया । 
  • उच्च न्यायालय: 
    • धन्या एम. (अपीलककर्त्ता/निरुद्ध व्यक्ति की पत्नी) ने एर्नाकुलम में केरल उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका WP(CRL) संख्या 874/2024 दायर की। 
    • उन्होंने अपने पति की अवैध हिरासत के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने की प्रार्थना की। 
    • 4 सितंबर 2024 को उच्च न्यायालयने चुनौती को खारिज कर दिया और निरोध के आदेश की पुष्टि की। 
  • उच्चतम न्यायालय: 
    • अपीलकर्ता ने विशेष अनुमति याचिका (क्रि.) संख्या 14740/2024 से उत्पन्न आपराधिक अपील संख्या 2897/2025 पेश की।  
    • उच्चतम न्यायालय ने अनुमति प्रदान की और मामले की सुनवाई की। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

असाधारण शक्ति के रूप में निवारक निरोध पर: 

  • निवारक निरोध राज्य के हाथ में एक असाधारण शक्ति है जिसका प्रयोग संयम से किया जाना चाहिये 
  • यहआगे अपराध होने की आशंका मेंव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाता है।  
  • प्रकृति के सामान्य क्रम में इसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये 
  • इस शक्ति को भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 22(3)()के अधीन मान्यता प्राप्त है । 
  • यह अनुच्छेद 21 का अपवाद है और इसे केवल दुर्लभ मामलों में ही लागू किया जाना चाहिये 

सबूत के भार पर: 

  • निवारक निरोध की असाधारण प्रकृति को देखते हुए, यह साबित करने का दायित्त्व निरोधक प्राधिकारी पर है कि कार्रवाई विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुरूप है। 
  • निवारक निरोध की कार्रवाई को संविधान के अनुच्छेद 21 और सुसंगत विधियों के अनुरूप जांचा जाना चाहिये 

लोक व्यवस्था बनाम विधि और व्यवस्था में अंतर: 

  • जो व्यक्ति "लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिये हानिकारक" गतिविधियों में लिप्त होता है, वह अधिनियम के अंतर्गत आता है।  
  • लोक व्यवस्था और विधि-व्यवस्था की स्थिति के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर विद्यमान है। 
  • 'विधि और व्यवस्था' कादायरा व्यापकहै, जबकि लोक व्यवस्था' कादायरा संकीर्ण है। 
  • लोक व्यवस्था पूरे देश या निर्दिष्ट स्थान को लेकर समुदाय के जीवन की समान गति है। 
  • वास्तविक अंतर केवल कार्य की प्रकृति या गुणवत्ता में नहीं है, अपितु समाज पर उसकी पहुँच की डिग्री और सीमा में है। 
  • कुछ व्यक्तियों तक सीमित कृत्यों से सीधे तौर पर विधि और व्यवस्था की समस्या ही उत्पन्न होती है। 
  • जनता के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने वाले कृत्य लोक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। 

वर्तमान मामले का विश्लेषण: 

  • वर्तमान तथ्य एवं परिस्थितियाँलोक व्यवस्था की स्थिति की श्रेणी में नहीं आती हैं। 
  • निरोध आदेश में की गई टिप्पणियों में यह कारण नहीं बताया गया है कि किस प्रकार निरुद्ध व्यक्ति का कार्य राज्य की लोक व्यवस्था के विरुद्ध है। 
  • निरोध में लेने वाले प्राधिकारी द्वारा कोई कारण नहीं बताया गया कि कार्रवाई के लिये असाधारण शक्ति का प्रयोग क्यों आवश्यक है। 
  • प्राधिकारियों ने कहा कि निरुद्ध व्यक्ति जमानत शर्तों का उल्लंघन कर रहा है, किंतु राज्य द्वारा इस तरह के उल्लंघन का अभिकथन करते हुए कोई आवेदन दायर नहीं किया गया। 
  • जमानत की शर्तें भी ठीक से नहीं बताई गईं। 

जमानत रद्द करने के बजाय निवारक निरोध के उपयोग पर: 

  • राज्य को निरुद्ध व्यक्ति को निवारक निरोध के अधीन रखने के बजायउनकी जमानत रद्द करनेके लिये कदम उठाना चाहिये 
  • जब साधारण आपराधिक विधि पर्याप्त साधन उपलब्ध कराती है तोअसाधारण विधि के प्रावधानोंका सहारा नहीं लिया जाना चाहिये 
  • परिस्थितियाँऐसी नहीं थीं किसामान्य आपराधिक प्रक्रिया को दरकिनार कर असाधारण उपाय अपनाए जाएं। 
  • निरोध का आदेशबरकरार नहीं रखा जा सकताक्योंकि परिस्थितियाँ जमानत रद्द करने का आधार हो सकती हैं किंतु निवारक निरोध का नहीं 

निवारक निरोध क्या है? 

सांविधानिक और विधिक ढाँचा: 

  • निवारक निरोध एक कठोर उपाय है जिसके अधीन किसी ऐसे व्यक्ति को, जिस परविचारण न चलाया गया हो और जिसे दोषसिद्ध न ठहराया गया हो, एक निश्चित अवधि के लिये निरोध में रखा जा सकता है। 
  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(3)(ख) द्वारा चरम तंत्र को मंजूरी दी गई है। 
  • अनुच्छेद 22 निवारक निरोध के निवारण के समय पालन किये जाने वाले कड़े मानदंडों का उपबंध करता है। 
  • अनुच्छेद 22 में संसद द्वारा निवारक निरोध से संबंधित शर्तें और तौर-तरीके निर्धारित करने हेतु विधि बनाने की बात कही गई है। 
  • निवारक निरोध में व्यक्ति को बिना विचारण चलाए या दोषसिद्ध किये लंबे समय तक निरोध में रखकर उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है। 

सिद्धांत और सुरक्षा उपाय: 

  • सांविधानिक और सांविधिक मानदंडों का उचित अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये निर्धारित सुरक्षा उपायों का कठोरता से पालन किया जाना चाहिये 
  • निवारक निरोध की शक्तिअनुच्छेद 21 का अपवाद हैऔर इसे इसी रूप में लागू किया जाना चाहिये 
  • इसे केवल दुर्लभ मामलों में और मुख्य नियम के अपवाद के रूप में ही लागू किया जाना चाहिये 
  • निवारक निरोध की विधि एक कठोर विधि है और इसका कठोरता से निर्वचन किया जाना चाहिये 
  • इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिये कि व्यक्ति की स्वतंत्रता को तब तक संकट न हो जब तक कि मामला सुसंगत विधि के दायरे में न आता हो। 

सबूत का भार और मानक: 

  • निरोध में लेने वाले प्राधिकारीपर यह साबित करने का भार हैकि कार्यवाही विधि द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के अनुरूप है। 
  • निवारक निरोध की कार्यवाही को संविधान के अनुच्छेद 21 और संबंधित विधि के साथ जांचना होगा। 
  • उपलब्ध सामग्री को ऐसे निरूद्धीकरण को अधिकृत करने वाले विधिक उपबंधों की आवश्यकताओं को पूरा करना होगा। 

प्रयोग पर प्रतिबंध: 

  • इसका प्रयोग केवल आपराधिक अभियोजन में सम्मिलित अभियुक्तों के पर कतरने के लिये नहीं किया जाना चाहिये 
  • निवारक निरोध का आशय यह नहीं है कि उस व्यक्ति को निरुद्ध रखा जाए, जबकि सामान्य दण्ड विधि के अंतर्गत उसे जमानत पर रिहा होने से रोका जाना संभव न हो। 
  • जब किसी व्यक्ति को सक्षम आपराधिक न्यायालय द्वारा जमानत पर रिहा किया जाता है, तो निवारक निरोध आदेशों की वैधता की जांच करते समय बहुत सावधानी बरती जानी चाहिये 
  • विशेषकर तब जब निवारक निरोध उसी आरोप पर आधारित हो जिस पर आपराधिक न्यायालय द्वारा विचारण किया जाना हो।